सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

रौशनाई

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  एक  भावप्रवण कविता।)

 

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है,अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

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Govind Sukul

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