श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नुक्कड़ नाटक – जल है तो कल है – 2 ☆

(प्रसिद्ध पत्रिका ‘नवनीत ‘के जून 2020 के अंक में श्री संजय भारद्वाज जी के नुक्कड़ नाटक जल है तो कल है का प्रकाशन इस नाटक के विषय वस्तु की गंभीरता प्रदर्शित करता है। ई- अभिव्यक्ति ऐसे मानवीय दृष्टिकोण के अभियान को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध है। हम इस लम्बे नाटक को कुछ श्रृंखलाओं में प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया इसकी विषय वस्तु को गंभीरता से आत्मसात करें ।)

(लगभग 10 पात्रों का समूह। समूह के प्रतिभागी अलग-अलग समय, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाएंगे। इन्हें क्रमांक 1,  क्रमांक 2 और इसी क्रम में आगे संबोधित किया गया है। सुविधा की दृष्टि से 1, 2, 3… लिखा है।)

जल है तो कल है – भाग 1 से आगे …

9- (चक्रवाले लड़के से)- तुम कौन हो? हम सबको यह क्या दिखा रहे हो?

10-  मैं समय हूँ। 50 वर्ष आगे की तस्वीरें दिखा रहा हूँ। तस्वीर समाप्त होते जल की, तस्वीर अंत की ओर बढ़ते कल की।

1- अंत की ओर बढ़ता कल?

10- हाँ, जब नहीं होगा जल तब कैसे बचेगा कल?

2- क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं? क्या कोई हल नहीं इसका।

10- सही उत्तर पाने के लिए पहले प्रश्न को समझना जरूरी होता है।

3- मतलब?

10- मतलब यह कि पहले समझना होगा कि यह समस्या क्यों जन्मी? समस्या की जड़ तक पहुँचेंगे कभी हल की कुंजी मिलेगी।

4- समय, क्या तुम बता सकते हो कि यह समस्या क्यों जन्मी?

10- मेरे पूर्वज बताते हैं, एक समय था जब हर तरफ हरियाली थी। पृथ्वी मानो बादलों से ढकी थी। पहाड़ों पर बादलों से धाराएँ उतरती थीं। झरने धाराप्रवाह बहते थे। नदियाँ उफान मारती थीं। छोटे-बड़े प्राकृतिक जलाशय पानी भरकर रखने के लिए धरती के बारहमासी बर्तन थे।

(दो-तीन पात्र समवेत स्वर में दोहराएँगे- हर तरफ हरियाली थी…पृथ्वी मानो बादलों से ढकी थी…पहाड़ों पर बादलों से धाराएँ उतरती थीं… …झरने धाराप्रवाह बहते थे… नदियाँ उछाल मारती थीं…छोटे बड़े प्राकृतिक जलाशय पानी भरकर रखने के लिए धरती के लिए बारहमासी बर्तन का काम करते थे…)

(शेष पात्र इन वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा दर्शाए दर्शाएँगे।)

5- फिर क्या हुआ?

10- यह मानव के आदिम रूप की अंतिम सदी थी। आदमी अब एक जगह टिकने लगा था। उसका परिवार पनपने लगा था।

6- उसे लगा परिवार का पेट पालने के लिए खेती करनी चाहिए।

7- खेती के लिए चाहिए था पानी।

8- उसने तलाशी नदियाँ।

9- नदियों के आसपास चुनी जगह। उठाया कुदाल, चलाया हल, सपाट की माटी, सपाट की माटी, शुरू की खेती।

समवेत- उठाया कुदाल…चलाया हल… सपाट की माटी…बोये बीज…शुरू की खेती।

(कुछ पात्र इन वाक्यों को मूक अभिनय द्वारा प्रदर्शित करेंगे।)

10- पर हर एक इतना भाग्यवान नहीं था। कुछ को वहाँ खेती करनी पड़ी जहाँआसपास नदी नहीं थी।

1- आदमी ने बुद्धि का प्रयोग किया। विचार किया कि बारिश का पानी मिट्टी में समाता है। इसका मतलब है कि धरती में पानी होता है।

2- धरती से पानी हासिल करने के लिए उसने खुदाई शुरू की। कुएँ खोदे।

समवेत- उसने खुदाई शुरू की…कुएँ खोदे।

(मूक अभिनय द्वारा कुछ पात्र दृश्य उपस्थित करते हैं।)

3- फिर क्या हुआ?

4- कुएँ से भूजल खींचकर उसने फसलों की सिंचाई शुरू की। उसके खेत हरे हो गए।

5- फसल लहलहाने लगीं। खेतों में दाने झूमने लगे। दाने खाने के लिए पंछी आने लगे।

समवेत- फसल लहलहाने लगीं…खेतों में दाने झूमने लगे…दाने खाने के लिए पंछी आने लगे।  (मूक अभिनय द्वारा दृश्य के निर्मिति कुछ पात्र करेंगे।)

6- अब गाँव तेजी से बसने लगे। गाँव में मोहल्ले बनने लगे। हर मोहल्ले का अपना कुआँ होने लगा।

7- पानी का उपयोग बढ़ा। आदमी रस्सी और बाल्टी की मदद से खींचकर घर में भरकर रखने लगा पानी।

8- फिर हुआ बिजली का आविष्कार।

9- बिजली ने आदमी का जीवन ही बदल दिया।

क्रमशः  —— 3

(यह नुक्कड़ नाटक संकल्पना, शब्द, कथ्य, शैली और समग्र रूप में संजय भारद्वाज का मौलिक सृजन है। इस पर संजय भारद्वाज का सर्वाधिकार है। समग्र/आंशिक/ छोटे से छोटे भाग के प्रकाशन/ पुनर्प्रकाशन/किसी शब्द/ वाक्य/कथन या शैली में परिवर्तन, संकल्पना या शैली की नकल, नाटक के मंचन, किसी भी स्वरूप में अभिव्यक्ति के लिए नाटककार की लिखित अनुमति अनिवार्य है।)

(नोट– घनन घनन घिर घिर आए बदरा,  गीत श्री जावेद अख्तर ने लिखा है।)

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603
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