श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ में आज एक संस्मरण

? संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय  ??

स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।

एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!

दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!

अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।

कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।

एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’

बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।

आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Rita Singh

बहुत खूब, 
कुछ निर्णय अगर समय पर न लिए जाएँ तो फिर वे आजीवन न लिए जाते हैं।
पेंसिल से न लिखने और बेंत की मार न खाकर स्कूल छोड़ देना आपके भीतर की निर्णय लेने की क्षमता और आत्मविश्वास को दर्शाते है। ये दोनों आज आपके चरित्र के सशक्त गुण है जो आपको *ख़ास* बनाते हैं।
बचपन के कुछ सुखद स्मृतियाँ सदा प्रिय होती हैं।

वीनु जमुआर

बचपन के गलियारों की सैर… खट्टे-मीठे…जितना भी कलमबद्ध करें..भरे खजाने की झोली खाली नहीं होती…’निर्णय’- एक संवेदनशील अभिव्यक्ति!???????

अलका अग्रवाल

अनुचित को स्वीकार न कर स्कूल का परित्याग-अविस्मरणीय पल।