श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 9 ☆  संजय भारद्वाज ?

*प्रवेश तीन*

(अनुराधा चुपचाप बैठी है। विचारमग्न है। रमेश का प्रवेश।)

रमेश- क्या हुआ अनुराधा?

अनुराधा- कुछ नहीं।  यों ही सोच रही थी कि हम लोगों को क्या हो गया है? आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? समाज के इतने महत्वपूर्ण लोगों को भी उस औरत के भीतर की मज़बूरी क्यों नहीं दिखी? हर एक को केवल औरत का जिस्म ही दिखा। औरत को केवल जिस्म मानने की यह मानसिकता एक बीमार समाज का लक्षण है। कैसे उबरेंगे इससे?

रमेश- इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं है अनुराधा। समाज किसी रुके या ठहरे हुए समूह का नाम तो है नहीं। समाज एक निरंतर चलती, बनती, बिगड़ती सामूहिक प्रक्रिया है। दुर्भाग्य से समाज का नज़रिया अधिकांश मामलों में सकारात्मक कम और नकारात्मक ज़्यादा है। मेरे ख्याल से तो हम सब अपनी ज़रूरतों और स्वार्थ के बीच इतने घिरे हुए हैं कि हमारी कोई सोच ही बाकी ही नहीं बची है।…. हम बीमार हैं, यह तो मानना ही होगा।… पर आज बीमार हैं तो कल स्वस्थ भी होंगे याने बीमारी हमेशा नहीं रहेगी। केवल ज़रूरत है व्यापक बहस और मंथन की।

अनुराधा- फिर भी यह चित्र काफी निराशाजनक नहीं लगता कि जिनका भी हमने इंटरव्यू किया वे सभी समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोग थे। उनमें एक ने भी भिखारिन की तकलीफ को महसूस नहीं किया। जब प्रतिष्ठित वर्ग ही ऐसा नहीं करता तो फिर बाकियों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

रमेश- कम ऑन अनुराधा। ऐसे नाउम्मीद मत होओ। हर व्यक्ति का जीवन को देखने और समझने का नजरिया अलग होता है। यह अलग -अलग नज़रिया, दृष्टिकोणों का अंतर, काल, पात्र और समय पर निर्भर करता है। अमेरिका की एक सच्ची कहानी बताता हूँ। स्कूल में टीचर ने बच्चों को एक निबंध लिखने के लिए दिया। निबंध का विषय था, ‘मेरा गरीब दोस्त।’ एक बच्चे का निबंध यों था, ‘मेरे दोस्त का नाम टॉम फ्रेडरिक है। वह बहुत गरीब है। उसकी कार पंद्रह साल पुरानी है। टॉम के घर में सेकंडहैंड फ्रिज है। उनका टी.वी. सेट स्मार्ट नहीं है।  उनके पास ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने मेन्युअल वॉशिंग मशीन खरीदी। उसके घर में जो कम्प्यूटर है..’

अनुराधा-  (जोर से हँस रही है।) बस, बस, बस।

रमेश- अब गरीबी के इस स्केल पर आम हिंदुस्तानी को मापा जाए तो..

दोनों एक साथ-  हम सब बहुत गरीब हैं। ( दोनों हँसते हैं।)

रमेश- समाज के संभ्रांत लोगों वाली तुम्हारी यह लिस्ट अब कैंसल। एक आख़िरी इंटरव्यू के लिए चलो मेरे साथ।

अनुराधा- पर कहाँ? किसके पास?

रमेश- समाज के उस लाल हिस्से के पास जिसका जीवन को देखने का नज़रिया बिल्कुल अलग है।

अनुराधा-मैं समझी नहीं। कौन है, क्या नाम है उसका?

रमेश-  तुम चलो तो सही।

 

*प्रवेश चार*

(कॉलगर्ल रूबी का घर। एक शेल्फ में शराब की बोतलें भरी हैं। रूबी पैग बनाकर पी रही है। सिगरेट भी सुलगा रखी है। पीछे दरवाजे पर एक महिला का शृंगारिक पोर्ट्रेट लगा है। रूबी ने टी-शर्ट और नेकर पहना हुआ है। रमेश और अनुराधा रूबी के साथ बैठे हैं।)

रूबी- रूबी नाम है मेरा। हमारे प्रोफेशन में केवल एक छोटा-सा नाम बताना ही काफी है। सरनेम वगैरह की जरूरत ही नहीं होती। वैसे पेशे से मैं कॉलगर्ल हूँ।… कॉलगर्ल समझते हो। ( हँसती है।).. जस्ट कॉल मी. आवाज़ लगाओ और मैं हाजिर हो गई। पैसे दो और मैं तुम्हारी हो गई।

रमेश- रूबी, तुम जानती हो हम यहाँ क्यों आए हैं?

रूबी- आप अकेले आए होते तो यह सवाल ही नहीं उठता… पर आप तो इनको भी साथ… ( हँसती है।)

रमेश- रूबी यह मेरी साथी पत्रकार हैं, अनुराधा चित्रे। हम लोग तुम्हारा इंटरव्यू लेना चाहते हैं।

रूबी- इंटरव्यू..?  इंटरव्यू..? (बुरी तरह से हँसती है।) मेरा इंटरव्यू..? क्यों नेताओं या फिल्म स्टार्स के स्कैंडल कम हो गए हैं क्या जो अब अखबार बेचने के लिए कॉलगर्ल्स की जरूरत पड़ने लगी?

अनुराधा- भाषा तो तुम्हारी बड़ी साफ है। लिखी-पढ़ी लगती हो फिर..?

रूबी- वैसे मैं नागपुर की हूँ। असली नाम वैशाली। वैशाली डॉट, डॉट, डॉट। ख़ैर वैशाली अब मर चुकी है, केवल रूबी है। वैशाली बी.कॉम. पास थी पर काम हासिल करने के लिए न तो कोई अनुभव था, न कोई सिफारिश करने वाला। रूबी के पास हर तरह के अनुभव हैं। बेवफा पतियों से लेकर करोड़पतियों तक के। …और हाँ रूबी को अब सिफारिश की ज़रूरत नहीं। रूबी अब खुद लोगों की सिफारिश किया करती है। गवर्नमेंट कोटे का काग़ज़ अखबार के लिए चाहिए तो बताना। मिनिस्ट्री से लेकर मिनिस्टर तक रूबी के बेडरूम में अख़बार की तरह बिछे रहते हैं। (बैठ जाती है।) इनमें से एक भी बात अख़बार में छापने के लिए नहीं है। अगर छप गई तो रूबी को अख़बार फाड़ने में भी बड़ा मज़ा आता है।.. समझ गए न। ( दूसरी सिगरेट निकालती है। अनुराधा से पूछती है।)  पीती हो?.. नहीं..( फिर हँसती है।)  कैसे पिओगी? औरत हो न! औरत को सिगरेट नहीं पीनी चाहिए , औरत को शराब नहीं पीनी चाहिए, औरत को भड़कीले कपड़े नहीं पहनने चाहिएँँ।… औरत को यह नहीं करना चाहिए, औरत को वह नहीं करना चाहिए। औरत, औरत, औरत। बास्टर्ड्स, साले, रास्कल। पूछो क्या पूछना है?

अनुराधा- (रमेश को देखती है। रमेश  स्वीकृतिसूचक सिर हिलाता है।) ….हमारा सवाल भी एक औरत को लेकर ही है।

रूबी- तो पूछ न। शरमाती क्यों है? पूछ।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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