श्री विनोद साव 

☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆

(प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विनोद साव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। हम भविष्य में आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।) 

कविता, व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय रहे दो रचनाकार प्रदीप चौबे और डा.शेरजंग गर्ग ने अपनी रचनायात्रा को विराम दिया और साहित्य बिरादरी से उन्होंने अंतिम बिदागरी ले ली. अब उनका व्यक्तित्व नहीं उनका कृतित्व हमारे सामने होगा और उनके व्यक्तित्व को हम उनके कृतित्व में ही तलाश पाएँगे उनसे सीधे साक्षात्कार के जरिए अब नहीं.

इन दोनों रचनाकारों से मेरा विशेष परिचय नहीं रहा सामान्य परिचय ही रहा. आंशिक मुलाकातें हुईं पर हम एक दूसरे के नाम को जाना करते थे, हमारे बीच पूरी तरह अपरिचय व्याप्त नहीं था. ये दोनों रचनाकार व्यंग्य की विधा से जुड़े रहे इसलिए मैं भी इनसे थोडा जुड़ा रहा. मैंने कविता नहीं की पर प्रदीप चौबे की कविताओं में जो हास्य-व्यंग्य की छटा मौजूद थी उसने उनकी ओर मेरी और सभी विनोदप्रिय श्रोताओं व रचनाकारों का ध्यान खूब खींचा. चौबे जी के साथ ‘प्लस’ यह रहा कि उनकी हास्य चेतना और मंचों पर उनकी प्रस्तुति में उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी की प्रेरणा ने भरपूर काम किया और वे अपने भैया की तरह हास्य-व्यंग्य के सफल कवियों में गिने जाने लगे और कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलने लगी थी. बल्कि कई बार श्रोताओं को ठठा ठठाकर हंसवाने में प्रदीप जी आगे भी निकल जाते थे. भ्रष्टाचार पर तंज करती कविता और भारतीय रेल में पूरे हिंदुस्तान को देखने दिखने का जो उनका उपक्रम था उनमें देश की दारुण दशाओं का भी चटखारेदार वर्णन कर लोगों को वे खूब हंसाया करते थे और बड़े निश्छल ह्रदय से हंसाया करते थे. इसकी एक बानगी देखें:

 

हर तरफ गोलमाल है साहब

आपका क्या ख़याल है साहब

 

कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,

आज ‘भगवत दयाल’  है साहब

 

मुल्क मरता नहीं तो क्या करता

आपकी देख भाल है साहब

 

उनकी कविताओं में उनके निश्छल मन का भान होता था. वे मामूली स्थितियों में चले हुए लतीफों को पिरोकर भी हास्य का ऐसा जायका परोसते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे. मृतात्मा और दाहकर्म पर उनकी एक कविता थी जिसमें भीषण गर्मी के दिनों में किसी के दाहकर्म में शामिल होने से ऐसी दैहिक पीड़ादायक अनुभूति होती थी कि मृतात्मा के चले जाने का मानसिक आघात कम हो जाता था जो मृतात्मा के प्रति लोगों की संवेदना को भी मार देती थी. तब आदमी ऐसे दाह्संस्कारों में जाने से बचना चाहता था. उसी में एक पंक्ति थी कि ‘आदमी को मरना चाहिए देहरादून में.’ और डा.शेरजंग गर्ग देहरादून में दिवंगत हुए क्योंकि डा.गर्ग देहरादून के रहने वाले थे. पर प्रदीप चौबे ने अंतिम साँस अपने शहर ग्वालियर में ली.

प्रदीप जी से लखनऊ के अट्टहास समारोहों में भी मुलाकातें हुईं. गद्य व्यंग्य लेखन में उनकी रूचि भले ही कम थी पर गद्य व्यंग्यकारों को पढने समझने का सलीका उनके पास था. अन्य मंचीय कवियों के सीमित संकीर्ण ज्ञान से वे दूर थे. एक बार भिलाई आगमन पर उन्होंने सबके बीच मुझे पहचानकर लपककर गले लगाते हुए कहा था कि ‘आप व्यंग्यकार विनोद साव हैं.’

डा.शेरजंग गर्ग वर्ष २००२ में विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में मिले और उन्होंने भावना प्रकाशन द्वारा आयोजित मेरे व्यंग्य संग्रह ‘मैंदान-ए-व्यंग्य’ के विमोचन कार्यक्रम में आना स्वीकार किया और वे आए थे. नरेंद्र कोहली जी ने विमोचन किया और कार्यक्रम का संचालन हरीश नवल ने किया था. मेरे एल्बम में उस समय का एक रंगीन चित्र है जिसमें कथाकार द्वय राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और शेरजंग गर्ग जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ मैं भी खड़ा हूं उस समय के एक उभरते हुए लेखक के रूप में.

शेरजंग गर्ग ने व्यंग्य के अतिरिक्त हिन्दी आलोचना में भी अपने हाथ चलाए और बालसाहित्य लेखन में भी.. और अपनी ग़ज़लों से भी उनकी पहचान बनी. इस बहुविध लेखन के बीच डा.गर्ग को देखने से लगता था कि उन्होंने ज्यादा आत्मसात बालसाहित्य की भावना (स्पिरिट) को किया होगा क्योंकि उनके सुदर्शन व्यक्तित्व में बालसुलभता का भाव विशेष रूप से उभरकर आता था और संभवतः उनकी इसी बालसुलभता और बच्चों जैसी निर्मलता ने उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी साहित्य की राजनीति और उखाड़-पछाड़ से अलग रखा होगा. अपने बालसाहित्य लेखन के लिए वे ज्यादा पुरस्कृत हुए थे. मुझे भी एक बार दिल्ली प्रवास पर प्रेम जनमेजय के साथ बालभवन दिल्ली में उनके सम्मान समारोह को देखने का अवसर मिला था. ऐसी ही निर्मल भावना से शेरजंग गर्ग व्यंग्य लेखन में साहसिक वक्तव्य दे लिया करते थे. समाज के प्रति भावना कम रख समाजसेवी का मुलम्मा अपने पर चढ़ाए हुए लोगों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘ये समाज सुधारक हैं.. अरे ये ह्रदय विदारक हैं.’  उनके शेरो-शायरी हो बालसाहित्य, उनमें व्यंग्य की चेतना बरक़रार रहती थी. उनकी एक ग़ज़ल की ये पंक्ति देखें

 

चुल्लू में डूबने का अब लद चुका जमाना

उल्लू से दोस्ती कर, क्या शर्मसार होना।

 

व्यंग्य और कविता  कर्म के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे.

 

© विनोद साव 

दुर्ग (छत्तीसगढ़)

मोबाइल – 9009884014

(साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर)

 

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