श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 215 भावात्मक गोला ?

पिछले दिनों ‘संजय उवाच’ के एक आयोजन के लिए झारखंड के रामगढ़ जनपद के गोला नामक ग्राम में जाने का अवसर मिला। राँची से गोला की दूरी लगभग 64 किलोमीटर है। यहाँ से पास में ही माँ छिन्नमस्तका सिद्धपीठ है। गोला के चित्तरंजन सेवासदन एवं रिसर्च सेंटर के परिसर में  स्थित मंदिर में प्रबोधन, सत्संग एवं हरिनाम सुमिरन का आयोजन संपन्न हुआ। तदुपरांत आरती और भंडारा की व्यवस्था थी। इस मंदिर में महादेव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, श्री गणेश, हनुमान जी, साईंबाबा की मूर्तियाँ स्थापित हैं। आरती आरंभ हुई। सबसे पहले  सर्वसामान्य हिंदी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ हुई।  तदुपरांत देवी की आरती हुई। यह बंगाली में थी। बंगाल और झारखंड के आपस में पड़ोसी होने से यह प्रभाव सहज था। बाद में साईं की आरती हुई। आश्चर्य कि यह आरती मराठी में थी। झारखंड के ग्रामीण भाग में मराठी में आरती सुनना एक भिन्न अनुभव था। हुआ यूँ होगा कि मंदिर का प्रबंधन देखनेवाले श्रद्धालु  परिजन शिर्डी आए होंगे और वहाँ से मराठी में उपलब्ध आरती संग्रह अपने साथ ले गए होंगे। समय के साथ लगभग पंद्रह सौ  किलोमीटर दूर स्थित मराठी भाषी शिर्डी में गाई जानेवाली आरती अमराठी भाषी गोला में भी उसी भाव से गाई जाने लगी।

चिंतन का सूत्र यहीं जन्म लेता है। भाषा से अधिक महत्वपूर्ण है भाव। यूँ देखें तो भावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही भाषा है। भाव ही मनुष्य-मनुष्य के बीच तादात्म्य स्थापित करता है। भाव को भाव के स्तर पर ग्रहण किया जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है।

भाषा इहलोक का साधन हो सकती है, ईश्वर तक तो भाव ही पहुँचता है। शबरी द्वारा अपने जूठे बेर खिलाने के पीछे छिपा वात्सल्यभाव महत्वपूर्ण था। इतना महत्वपूर्ण कि प्रभु प्रशंसा करते नहीं थकते।

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥

भाव-विभोर विदुर द्वारा केले फेंकना और केले के छिलके प्रभु को खिलाने में भी भाव ही महत्वपूर्ण था। सुदामा के पोहे में जो प्रेमरस था, राजभोग उसके आगे फीका था।

गोला की धरती से मिला भाव सुधी साधकों और पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ। इस पर मनन हो सके, भाव के स्तर पर भाव ग्रहण हो सके तो भावात्मकता का एक गोला तैयार हो सकता है। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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