डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “पर्व एवं आस्था”.)

☆ किसलय की कलम से # 52 ☆

☆ पर्व एवं आस्था ☆

हिन्दु धर्मावलंबी धार्मिक कृत्य करने के समय या दिन को पर्व कहते हैं। लोग बड़ी आस्था, श्रद्धा व पवित्रता से धर्म के निर्देशानुसार अलग-अलग पर्वों पर उपवास, पूजन-हवन, प्रार्थनाएँ, आरती करते हैं, जिससे आनन्दमयी वातावरण निर्मित हो जाता है। शायद ही विश्व में कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें इतने बहुसंख्य पर्व मनाए जाते होंगे। आप हिन्दी पञ्चाङ्ग खोल कर देखेंगे तो हर तिथि पर कोई न कोई पर्व दिखाई पड़ ही जाएगा। आप भी पढ़ लीजिए-  प्रथम तिथि पर बैठकी, धुरेड़ी, अन्नकूट पर्व आते हैं। भाईदूज, अक्षय तृतीया, हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, बसंत पंचमी, रंग पंचमी, नाग पंचमी, हलषष्ठी, छठ पूजा, संतान सप्तमी, दुर्गाष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, दशहरा, प्रत्येक माह की एकादशी व द्वादशी (प्रदोष व्रत), धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, नरक चौदस, प्रत्येक माह की अमावस्या एवं पूर्णिमा। इस तरह मास में दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रत्येक दिन कोई न कोई पर्व रहता ही है। आशय यह है कि हिन्दुधर्म में प्रत्येक दिन धर्मप्रधान होता है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि वे आस्था और पवित्र मन से दिन की शुरुआत करें और रात्रि में शयन पूर्व प्रभु का नाम लेते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करें।

ये तो धर्मोक्त की बातें हुईं। आज इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने प्रतिशत लोग बचे होंगे जो नियमित रूप से धर्मानुसार दिनचर्या अपना रहे होंगे। आज जब अर्थ और स्वार्थ का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। निंदा, झूठ, छल, द्वेष आदि को स्वहित में जायज माना जाता है, तब सत्य, आदर्श, प्रेम, परोपकार, सद्भाव, रिश्ते जैसे शब्दों के अर्थ भी बदले-बदले लगने लगे हैं।

हमारे पारंपरिक पर्वों के आदर्श तार-तार हो चुके हैं। हर पर्व को लोग अवसर मानकर अपनी अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, जबकि हमारे पर्वों के पीछे कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होते ही हैं। स्वास्थ्य एवं सामाजिक गतिविधियों की सार्थकता से जुड़े ये पर्व हमें परस्पर एक सूत्र में पिरोने का काम करते हैं। पावन, निश्छल एवं सद्भावना पूर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, लेकिन जब हम पर्वों को ही महत्त्व नहीं देंगे तो बाकी अन्य सभी बातें गौण हो ही जायेंगी।

आज पर्व का मतलब घर में पकवान बनना होता है। उपवास के नाम पर भरपेट फलाहार करना होता है। हर पर्व पर समाज के लोगों द्वारा इनसे कमाई का, स्वार्थ का, मनोरंजन का, व्यसन का, फूहड़ता का, और तो और अश्लीलता का तरीका ढूँढ़ लिया जाता है। पर्वों में लगने वाली हर सामग्री आम दिनों की अपेक्षा लगभग दुगनी महँगी हो जाती है। खरीदने की अनिवार्यता के चलते व्यापारी वर्ग घटिया वस्तुएँ तथा बासे खाद्य पदार्थ तक बेच डालता है। पर्वों पर हर सेवाएँ भी जाने क्यों महँगी हो जाती हैं। लोग मुनाफे के कोई भी अवसर नहीं छोड़ते। पता नहीं इन लोगों की आस्था पर पत्थर पड़ जाते हैं।

आजकल पर्वों पर भोंड़े नृत्य-गीत-संगीत अथवा द्विअर्थी गानों की धूम मच जाती है। भीड़ की आड़ में लोग अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर जाते हैं। सौन्दर्य-दर्शन जहाँ कुछ पुरुषों के शगल बन जाते हैं, वहीं कुछ युवतियाँ भी सौन्दर्य, आकर्षक एवं लुभावनी दिखने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। छेड़छाड़, वाद-विवाद एवं स्तरहीन टिप्पणियों के चलते मजनूँ प्रकृति के लोग ही दोषी करार दिए जाते हैं। उनकी अधैर्यता का खामियाजा उन्हें पुलिस के सानिध्य में भुगतना पड़ता है।

पर्वों पर आस्था उस वक्त और भी किसी कोने में छिप जाती है, जब जोश का अतिरेक होने लगता है। इतर धर्म तथा हिन्दु धर्म की ईर्ष्या-निन्दा पर विवाद बढ़ते हैं। धर्म की आड़ में प्रतिशोध लिए जाते हैं। कट्टरवादिता के चलते मानवता को रौंद दिया जाता है। इन्हीं पर्वों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना भी कोई नई बात नहीं है। छुटभैये अपने नेता के दबदबे का भरपूर फायदा उठाते हैं।

आज कल पर्व के कुछ दिन पूर्व से कुछ दिनों पश्चात तक बड़े, भव्य, विशाल पंडालों में प्रायोजित तथाकथित धार्मिक आयोजन किए जाते हैं, जिनमें आस्था कम पुरुषों और महिलाओं के परस्पर आकर्षण और सौंदर्य दर्शन की ही प्रधानता होती है। पर्वों के अवसर पर घर से बाहर निकलने वाले कुछ युवक एवं युवतियों का भी यही उद्देश्य रहता है। यहीं पर धर्म और आस्था के तले प्रेम प्रसंग पनपते हैं जिनमें से कुछ वैवाहिक स्थिति तक भी पहुँच जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन प्रेम में धोखा, जबरदस्ती की  घटनाओं के स्रोत क्या है? इन पर अभिभावकों के साथ-साथ स्वयं युवापीढ़ी का भी सावधान रहना अत्यावश्यक है।

वैसे तो अधिकांश पर्व धर्म पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व प्राकृतिक हित को भी ध्यान में रखकर मनाए जाते हैं, जो सद्भावना, सर्वकल्याण सुख-शांति, स्वच्छता स्वास्थ्य आदि के लिहाज से भी उपयोगी होते हैं। हमारे सभी पर्वों में अकेले मानव ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदियों-जलस्रोतों, सूर्य,चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

पर्वों के पावन, रम्य, सुखद वातावरण हमारे बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीजारोपण में मददगार साबित होते हैं। मौसमी और अनूठे पकवान नए वस्त्र, घरों की स्वच्छता तथा सौंदर्यीकरण धार्मिक वातावरण  के साथ ही सबकी सहभागिता निश्चित रूप से सकारात्मकता बढ़ाती है। सबके दिलों में नवीन ऊर्जा और सात्विक विचारधारा का जन्म होता है। इन पर्वों के शुभ-अवसरों पर इतर धर्मावलंबियों को भी हमारे पर्व व धार्मिक कृत्यों को नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिलता है, जिससे आपस में सद्भावना बढ़ती है। हम भी आगे बढ़कर उनका अभिनंदन करते हैं, क्योंकि हमारा वेदोक्त ही ‘वसुदेव कुटुंबकम’ है।

अंत में बस यही रह जाता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति और धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखना है, इसकी गरिमा बनाए रखना है तो पर्वों को अवसरवादिता की घटिया भावनाओं से ऊपर उठकर शत-प्रतिशत आस्था के साथ मनाना होगा। हम अपने पर्वों को आस्था पूर्वक पवित्र मन से मनाएँगे तो निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ी पर्वों का वास्तविक उद्देश्य समझ पाएगी, अन्यथा भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता की होड़ में हमारे धर्म और हमारी आस्था का क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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