श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु द्वारा सम्पादित पुस्तक  “थाने थाने व्यंग्य” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 114 ☆

☆ “थाने थाने व्यंग्य ” – संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

थाने थाने व्यंग्य  (३४ व्यंग्यकारों के पोलिस पर व्यंग्य लेखों का संग्रह)

संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु

वनिका पब्लिकेशनन्स, बिजनौर

पृष्ठ १२४, मूल्य २०० रु

“सैंया भये कोतवाल फिर डर काहे का” या “चाहे तन्खा आधी कर दो पर नाम दरोगा धर दो ” जैसी लोकप्रिय प्राचीन  कहावतें ही पोलिस के विषय में बहुत कुछ अभिव्यक्त कर देती हैं. बड़े बूढ़े कहते हैं पोलिस से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी.  दरअसल संतरी, दरोगा और  थाना ही शासन का वह स्वरूप है जिससे आम आदमी का सरकार से सामना होता रहा है. स्वतंत्रता के बाद भी पोलिस की इस छबि को बदलने की लगभग असफल कोशिशें ही की गईं हैं. यही कारण है कि  लगभग प्रत्येक व्यंग्यकार ने इस मुद्दे को कभी न कभी अपने लेखन का विषय बनाया है. परसाई जी ने  इंस्पैक्टर मातादीन को चांद तक पहुंचा दिया था, रवीन्द्रनाथ त्यागी के” थाना लालकुर्ती का दरोगा राष्ट्रपति से ज्यादा प्रभावशाली है, वर्ष २००९ में डा गिरिराज शरण के संपादन में प्रभात प्रकाशन से पोलिस व्यवस्था पर व्यंग्य शीर्षक से एक संकलन प्रकाशित हुआ था जिसमें तत्कालीन व्यंग्यकारो के पोलिस पर लिखे गये २४ व्यंग्य शामिल हैं. संग्रह में शामिल व्यंग्यकारों में शरद जोशी, ईश्वर शर्मा, लतीफघोंघी, शंकर पुणतांबेकर, रवीन्द्र नाथ त्यागी,बालेंदुशेखर तिवारी और  हरिशंकर परसाई जी भी हैं.

संभवतः इसी से प्रेरित होकर स्व सुशील सिद्धार्थ जी ने इसके समानांतर आज के व्यंग्यकारों को लेकर इस संग्रह की परिकल्पना की रही हो. संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशुने बड़ी संजीदगी से इस परिकल्पना को थाने थाने व्यंग्य  के रूप में साकार कर दिखाया है. थाने थाने व्यंग्य 

में ३३ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें हैं. सभी एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं. यह उल्लेख करना उचित होगा कि  जहां गिरिराज शरण जी के संपादन में आये व्यंग्य संग्रह में केवल मीना अग्रवाल ही एक मात्र लेखिका थीं, जिनका लेख अपराध विरोधी पखवाड़ा और दरोगा गैंडासिंह उस किताब में शामिल था, वहीं थाने थाने व्यंग्य में अर्चना चतुर्वेदी, अनीता यादव, मीना अरोड़ा, डा नीरज सुधा्ंशु, वीना सिंग, स्वाति श्वेता, सुनीता सानू और शशि पांडे सहित ८ महिला व्यंग्य लेखिकाओ ने पोलिस पर कलम चलाई है. यह स्टेटिक्स विगत दस बारह वर्षो में महिला व्यंग्यकारो की उपस्थिति दर्ज करता है.  मजे की बात यह है कि गिरिराज शरण जी के संपादन में आई पुस्तक में परसाईजी का जो व्यंग्य था वह भी किताब का अंतिम व्यंग्य इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर था और इस किताब का अंतिम व्यंग्य भी मेरा  व्यंग्य ” मातादीन के इंस्पैक्टर बनने की कहानी ” है, जो परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन पर ही अवलंबित एक्सटेंशन व्यंग्य है. आज के वरिष्टतम व्यंग्यकारो मेंसे डा ज्ञान चतुर्वेदी जी का व्यंग्य कर्फ्यू में रामगोपाल, अरविंद तिवारी का व्यंग्य हवलदार खोजा सिंह का थाना, डा हरीश कुमार सिंह का पुलिस की पावर, शशांक दुबे का खंबे पर टंगा सी सी टी वी कैमरा,  आषीश दशोत्तर का थाने में सांप, राजेश सेन का नकली पुलिस के असली कारनामें, डा नीरज सुधा्ंशु का चोर पुलिस और कैमिस्ट्री,कमलेश पाण्डेय का अथश्री थाना महात्म्य,  पंकज प्रसून के दो छोटे व्यंग्य ट्रैफिक हवलदार का दर्द और अपराध हमारी रोजी रोटी के लिये बहुत जरुरी है, जैसे मजेदार कटाक्षों से भरी समाज और पुलिस की वास्तविकताओ के कई कई दृश्य  किताब  से उजागर होते हैं.

पढ़कर न केवल मजे लीजीये बल्कि इन लेखको के व्यंग्य कथ्य मन ही मन गुनिये और कुछ व्यवस्था में सुधार सकते हों तो अवश्य कीजिये जो लेखकों का अंतिम प्रयोजन है किताब की ग्रेडिंग धांसू कही जा सकती है, खरीद कर पढ़ने योग्य संकलन के लिये प्रकाशक, संपादकों, सहभागी व्यंग्यकारो और इसकी परिकल्पना करने वाले स्व सिद्धार्थ जी को साधुवाद. सरकार को सुझाव है कि पोलिस सुधार पर जो सेमीनार किये जाते हैं उनमें और प्रत्येक थाने में  थाने थाने व्यंग्य की प्रतियां अवश्य बंटवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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