श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 88 ☆ अंतिम नींद ☆ 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है।तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली।…यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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वीनु जमुआर

चिंतन द्वारा अपनी स्थिति का निष्कर्ष.. उस निष्कर्ष की मीमांसा ! ‘स्व’ को पाने का सुंदर सहज सरल किंतु कठिन मार्ग।

अलका अग्रवाल

दूसरों दोषों को ढूँढने के बजाय यदि स्वयं कर्मों की मीमांसा व्यक्ति स्वयं करे तो जन्म-मरण दोनो सुधर जायें।अप्रतिम विचार।साधुवाद।