श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 135 ☆ जाग्रत देवता ☆
सनातन संस्कृति में किसी भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही मूर्ति जाग्रत मानी जाती है। इसी अनुक्रम में मुद्रित शब्दों को विशेष महत्व देते हुए सनातन दर्शन ने पुस्तकों को जाग्रत देवता की उपमा दी है।
पुस्तक पढ़ी ना जाए, केवल सजी रहे तो निर्रथक हो जाती है। पुस्तकों में बंद विद्या और दूसरों के हाथ गये धन को समान रूप से निरुपयोगी माना गया है। पुस्तक जाग्रत तभी होगी जब उसे पढ़ा जाएगा। पुस्तक के संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति का उद्घोष है-
तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।
पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग) शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’
संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है। पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।
पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है, विज्ञान अपंग है, विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि पुस्तकरूपी दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ। अभिनेत्री एमिला क्लार्क के शब्दों में, ‘नेवर ऑरग्यू विथ समवन हूज़ टीवी इज़ बिगर देन देअर बुकशेल्फ।’ छोटे-से बुकशेल्फ और बड़े-से स्क्रिन वाले विशेषज्ञों की टीवी पर दैनिक बहस के इस दौर में अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
केवल देह नहीं होता मनुष्य,
केवल शब्द नहीं होती कविता,
असार में निहित होता है सार,
शब्दों के पार होता है एक संसार,
सार को जानने का
साधन मात्र होती है देह,
उस संसार तक पहुँचने का
संसाधन भर होते हैं शब्द,
सार को, सहेजे रखना मित्रो!
अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!
मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। असार से सार और शब्दों के पार का संसार समझने का गवाक्ष होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहने एवं पुस्तकें पढ़ते रहने का संकल्प लेना, कल सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक दिवस की प्रयोजनीयता को सार्थक करेगा।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈