श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9
वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद सत्तालिप्सा, प्राणरक्षा, विचारधारा आदि के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’
इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land. भारत भी इसी एजेंडा का शिकार हुआ था। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे भी आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।
क्रमशः…
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत