॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ गुरुनानक ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
भारतवर्ष अपनी दिव्यता के कारण देवभूमि के नाम से विख्यात है। प्रकृति ने जैसे यहाँ अपना अनुपम सौदर्य बिखेरा है वैसे ही यहाँ पर महान विभूतियों को समय-समय पर अवतीर्ण कर इसको धन्य किया है। इसी पावन भूमि को अनेकों धर्मांे का उद्ïगम स्थल होने का गौरव प्राप्त है। अपने उच्च आध्यात्मिक चिन्तन, आदर्श आचरण और स्नेहिल सरल जीवन पद्धति के कारण इसे विश्व में आज भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। महान मनीषियों, चिन्तकों, दार्शनिकों और भक्तों ने मानव जाति के कल्याण हेतु जो उपदेशामृत यहाँ उपलब्ध कराया है वह विश्व ज्ञान भण्डार की अमूल्य निधि है। सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म और उनकी विभिन्न शाखाओं का यहीं प्रादुर्भाव हुआ। सिक्ख धर्म के संस्थापक आदिपुरुष गुरुनानक भी यहीं ईसा की पन्द्रहवीं (15 अप्रैल 1469 को जन्म) शताब्दी में पैदा हुये थे। उनके धार्मिक उपदेश गुरुग्रंथसाहेब में संग्रहीत हैं।
गुरुनानन देेव ने प्रकृति के सौन्दर्य, विचित्रता और विधान में ही उस परमात्मा के दर्शन किये जो निराकार, अदृश्य और सर्वशक्तिमान है किन्तु समस्त विश्व का मालिक है। उसको उनने ‘मालिक’ कहा है और अपने को उसका शिष्य। इसीलिए उनकी मान्यतानुसार उनका धर्म सिक्ख (शिष्य) है। परमात्मा को ‘अकालपुरुष’ या ‘ओंकार’ नाम से बखाना है और ‘ऊँ’ संकेत से माना है। नानकदेव जी, सत्य, सदाचार सद्ïभाव और शक्ति के उपासक थे और तत्कालीन समाज में प्रचलित अंधविश्वासों, रूढिय़ों और बुराइयों का विरोध कर उन्होंने उन्हें त्यागने के उपदेश दिए है। उन्होंने सनातन धर्म के सार तत्वों को अपना कर ”वाहे गुरु’’ की प्रतिष्ठा की। वाहे गुरु सर्वव्यापक और कण-कण में विद्यमान तत्व है। समाज की सुख-शांति के लिए उन्होंने मनुष्य को सरलता, समानता और निश्छल व्यवहार करने और पाखण्ड से दूर रहने का रास्ता अपनाने को कहा। बुराई का विरोध और अच्छाई की वकालत की नीति अपनाने का संदेश दिया।
गुरुनानक ने विदेशों की भी यात्रायें की थीं। एक बार वे मक्का में ‘काबा’ की ओर पैर करके सो रहे थे। लोगों को इस पर आपत्ति होने पर उन्होंने कहा-”जहाँ अल्लाह न हो वहाँ मेरे पैर कर दीजिये।’’ कहते हैं जिस तरफ भी उनके पैर घुमाये गये ‘काबा’ को भी लोगों ने उसी ओर घूमते देखा। यह उनकी भावना और ईश्वर की उन पर कृपा का उदाहरण है। ईश्वर तो भावना को महत्व देते हैं आडम्बर को नहीं यह नानक जी का मान्य सिद्धान्त है।
अन्य घटना बगदाद की है। बगदाद का शासक अत्यन्त अत्याचारी और दुष्ट था। अनाचार से उसने लोगों की धन सम्पत्ति छीनकर इक ट्ïठी कर ली थी। देश की जनता दु:खी थी। शासक के व्यवहार से लोग त्रस्त थे। नानक जी को यह मालूम होने पर उन्होंने जनता को राजा के दुव्र्यवहार से बचाने और सम्राट को सीख देने के लिए एक मौन आयोजन किया। राजमहल के दरवाजे के पास बहुत से कंकड़ों का ढेर इकट्ïठा कर वहीं बैठे रहे। जब सम्राट को इसकी खबर मिली तो वह क्रोधित हो वहाँ आया और बोला-”ये कंकड़ इकट्ïठे कर यहाँ क्यों बैठे हो ?’’ नानक जी ने कहा ”मैंने ये सब कयामत के दिन जरूरत के माफिक पेश करने के लिए रखे हैं।’’ सुनकर सम्राट ने उपहास करते हुए कहा-”उस दिन तो कोई सुई धागा भी साथ नहीं ले जा सकता।’’ सम्राट के मन की बात सुनकर नानक देव ने कहा-”आपने लोगों से लूटकर जो सम्पत्ति इकट्ïठी की है वह तो ले जाई जा सकेगी इसीलिए इस महल के पास मैंने ये इकट्ïठा किया है।’’ नानक जी की व्यंगवाणी से आहत सम्राट ने उनके आशय को समझ लिया और अत्याचार से संपत्ति को संग्रह करना छोड़ दिया।
गुरु नानक देव ने संत कबीर की ही भाँति सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों का त्याग कर सरल चित्त से ईश्वर की उपासना को महत्व दिया है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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