॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ हिंसा का मूल कारण स्वार्थ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सृष्टि द्वंदात्मक है। अच्छाई के साथ बुराई, सत्य के साथ असत्य, स्नेह के साथ ईष्र्या, मित्रता के साथ शत्रुता और परोपकार के साथ स्वार्थ का जन्म भी सृजन के साथ हुआ है। पुण्यभूमि भारत में समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर मनुष्य को सद्पथ दिखाकर दुखी मानवता को सुखी बनाने के उपदेश दिये हैं। सभी धर्मों ने मनुष्य जीवन को आनन्दमय बनाने का प्रयत्न किया है। आनन्द ही हर प्राणी के जीवन का प्राप्य है। इसी आनन्द की प्राप्ति के लिये मनुष्य सद्पथ से हटकर अनुचित आचरण करता है। स्वत: के सुख के लिये अनेकों को दुख देता है। किसी भी हिंसा का मूलकारण केवल स्वार्थ ही है। पुण्यभूमि भारत में महात्मा महावीर, महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी ने स्वत: कष्ट सहकर भी अहिंसा का मार्ग प्रतिपादित किया है, क्योंकि सबके सुख के लिये वही एक सही रास्ता है। विस्तृत दृष्टि से देखने पर यह सहज ही समझ में आता है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब परमात्मा ने सबके सामूहिक हित के लिये बनाया है।

प्रत्येक पदार्थ का और प्रत्येक प्राणी का हर दूसरे जीवनधारी से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से गहन संबंध है। हर एक का हित एक दूसरे के हित से गुंथा हुआ है। अत: यदि एक का अहित या हनन होता है तो वह सबको थोड़ा या अधिक प्रभावित करता है। एक का आचरण समस्त प्राणिजगत के जीवन की गतिविधि को प्रभावित करता है। इसीलिये सभी महात्माओं ने जीवन में परोपकार की भावना को विकसित करने और हिंसा की वृत्ति को त्यागने का उपदेश दिया है। रामचरितमानस में महात्मा तुलसीदास ने जीवन में सुख का एक सरल मंत्र दिया है- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’। यही धर्मग्रंथों में कहा है- ‘परोपकारम् पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’। किसी भी प्राणी को पीड़ा देना, कष्ट देना ही हिंसा कही गई है और हिंसा पाप है, इसीलिये स्वत: के लाभ के लिये दूसरे का अहित या पीड़ा न की जाय। हिंसा धर्म विरुद्ध है क्योंकि वह अनेकों के दुख का कारण बनती है और किसी न किसी रूप में हिंसाकर्ता के मन को भी दुख ही देती है। हिंसा से कभी तात्कालिक लाभ भले दिखे परन्तु समय के बीतने पर उसका दुष्परिणाम हिंसा करने वाले को दुखदायी ही होता है। धार्मिक कर्म विपाक में यही बताया गया है। यह बारीकी से चिन्तन करने पर जगत में देखने को भी मिलता है और समझ में भी आता है। मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो अनुचित छेड़छाड़ और दुव्र्यवहार अपनी प्रगति के लिये किया, वर्षों तक किये गये उस व्यवहार का परिणाम ही आज जलप्रदूषण, वायुप्रदूषण, व्योम प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और प्राकृतिक कोप के रूप में भूकम्प, सुनामी, आंधी, तूफान, सारे विश्व में देखे और अनुभव किये जा रहे हैं। अहिंसा के सिद्धांत को गहराई से सोचने-समझने और आचरण में उतारने की बड़ी जरूरत है। जिससे आध्यात्मिक संबंधों के ताने-बाने को ध्यान में लाकर अपने आचरण से मनुष्य, मनुष्य जाति ही नहीं समस्त प्राणि जगत और प्रकृति को सुरक्षित और सुखी रख स्वत: भी शांति से जीवन यापन कर सकता है तथा समस्त सुख का लाभ पा सकता है। इसी सिद्धांत को मंत्र रूप में महात्मा महावीर ने कहा है- ‘जियो और जीने दो’। निश्चित ही हर व्यक्ति को समझना चाहिये- ‘अहिंसा परमो धर्म:।’ अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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