॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आजकल दैनिक समाचार पत्रों, रेडियो और टी.व्ही. चैनलों से जो खबरें प्रकाशित और प्रसारित होती हैं उनमें अनैतिक आचरणों की घटनाओं की प्रमुखता होती है। इन घटनाओं को घटित करने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं, उच्च पदस्थ शासकीय सेवकों से लेकर जनसाधारण में निम्न तबकों तक के लोग होते हैं। क्या पढ़े-लिखे-क्या अनपढ़, क्या धनी-क्या निर्धन, क्या विद्धान-क्या धार्मिक, क्या शहरी-क्या देहाती। समाज के सभी वर्गों की इनमें आसक्ति और लिप्तता उजागर होती है। सारे देश में ऐसी कुछ हवा बह चली है कि उसने सारे वातावरण को दूषित और विषाक्त सा कर दिया है। अनैतिकता का असंगत विस्तार होता जा रहा है। धार्मिक भावनायें, सरकारी कानून-कायदे और समस्त प्रशासनिक अंकुश दिखता है, बेअसर हो चले हैं। अपराधी आजाद हैं, निर्भय हैं और समझदार ईमानदार बंधन में हैं और भयभीत हैं। शासन-प्रशासन बात अपनी चुस्ती-दुरुस्ती की चाहे जितनी करें पर जो कुछ होता दिख रहा है वह इस तथ्य के कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है। अनियमिता की बाढ़ सी आ गई है।

आश्चर्य की बात है कि धर्मप्राण भारत में जो अपने आध्यात्मिक चिंतन के कारण विश्व गुरु माना जाता रहा है, ऐसा अधोपतन क्यों बढ़ता जा रहा है? आज से पचास साल पहले तक लोगों में धार्मिकता थी, मानवीयता थी, सहानुभूति थी, संवेदनायें थी फिर वे सब कहां चली गई? एकाएक कमी क्यों हो गई? यह सच है कि अभी भी पूर्ण रूप से मानवीयता और नैतिकता समूल नष्ट नहीं हुई है। परन्तु मुद्दे की बात यह है कि यदि नैतिकता की भावना 20′ है तो अनैतिकता, स्वार्थ और दुराचरण की भावना 80′ हो गई है। इसका प्रमुख कारण क्या है समझा जाना चाहिये और उसी के अनुरूप सुधार के प्रयास शीघ्र किये जाने चाहिये।

सामाजिक राजनैतिक आर्थिक और वैचारिक आधार पर तो कारण अनेक गिनाये जा सकते हैं परन्तु सीधी-सच्ची बात तो एक ही है- संस्कारहीनता। समाज ने अपने संस्कार खो दिये हैं और दिनों-दिन खोता जा रहा है। संस्कारहीनता ने ही कुठाराघात किया है। अगर सुधार करना है तो नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाना पहली आवश्यकता है। वे कार्य जो हमारे आदर्शों और संस्कारों की जड़ें काट रहे हैं उनको रोकना होगा। सुसंस्कारित नागरिक आत्मसंयमी और अनुशासन प्रिय होते हैं। हमें अपने अतीत की ओर देखना होगा और सुसंस्कारों को पल्लवित करने के तात्कालिक प्रयत्न करने होंगे। केवल ऊपरी बातों से या कुछ नियम कायदों में सुधार करने से लाभ नहीं होगा।

व्यक्ति के सुसंस्कार बचपन में माता-पिता और बड़ों की देखरेख में आदर्शों की मान्यताओं के अनुसार दैनिक व्यवहारों में अभ्यास से उपजते हैं। बड़ों का समयोचित मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक होता है। स्कूल में निर्धारित पाठ्यक्रम के आत्मसात करने से और पढ़ाने वाले शिक्षकों की चारित्रिक उज्जवलता के अनुसरण से जागते हैं। पवित्र चेतना और सामाजिक सदाचरण के वातावरण में बढ़ते हैं तथा विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों-अनुष्ठानों के अनुकरणीय तत्वों को समझने और अनुकरणीय व्यवहारों की बारम्बारता से पुष्ट होते हैं।

आज समाज और शासन को यह देखना सोचना और उचित कदम उठाने हैं। क्या घर-परिवार, समाज, स्कूल, धार्मिक संस्थायें और राजनेतागण अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से कर रहे हैं? मुझे तो दिखता है कि पहले की तुलना में हर क्षेत्र में सदाशयता, कर्मनिष्ठा और ईमानदारी दायित्व के निर्वहण में कमी आई है, इसीलिये अव्यवस्था और अनैतिकता का बढ़ाव हो चला है। सभी को आत्मनिरीक्षण करने और आत्म सुधार कर अनुकरणीय व्यवहार करने की जरूरत है। छोटे हमेशा बड़ों से सीखते हैं। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ तथा ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’  इन कहावतों की भावना को समझकर, समाज में और प्रशासनतंत्र में ऊंचे पद पर आसीनजनों को कार्य करना होगा तब सुधार संभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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