श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 188 सह-अस्तित्व ?

सब्जी मंडी जा रहा हूँ। खुले में सजती इस मंडी के मुहाने से भीतर की ओर जाने वाला लगभग बीस फुट का एक रास्ता है। देखता हूँ कि रास्ते के दोनों और लोगों ने टू व्हीलर पार्क कर रखे हैं। ठेलों पर सामान बेचने वाले भी हैं। परिणामस्वरूप बीस फुट में से मुश्किल से आठ फुट की जगह आने-जाने के लिए बची है। आने-जाने का मतलब है कि मंडी जानेवालों के लिए चार फुट और लौटने वालों के लिए चार फुट।

इस चार फुट को भी दोपहिया पर सवार एक पुरुष और उसकी पत्नी ने बंद कर रखा है। अपनी जगह से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। सामने देखने पर पाता हूँ कि एक गाय रास्ते पर ठहरी हुई है। युगल उस गाय से डर रहा है। दोपहिया निकालने का प्रयास करने पर गाय से स्पर्श होगा, गाय किस तरह की प्रतिक्रिया देगी, इसका भय उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता है। युगल तो नहीं बढ़ा पर परिस्थिति को भाँपकर गाय आगे बढ़ गई।

गाय के आगे बढ़ते ही यही दृश्य मंडी से लौटने वालों के लिए उपलब्ध चार फुट के रास्ते पर उपस्थित हो गया। अबकी बार सामने से आ रहा दोपहिया सवार गाय को देखकर हड़बड़ा कर ठहर गया। पीछे बैठी उसकी पत्नी तो गाय आती देख भय से चिल्लाने लगी।

विचार करने पर पाता हूँ कि गाय का मार्ग पर ठहर जाना, उसे वहाँ से हटाना सामान्य-सी बातें हैं। तथापि बड़े शहरों में आभिजात्य भाव ने मनुष्य को माटी से ही काट दिया है। माटी के ऊपर काँक्रीट में पलते, काँक्रीट में बढ़ते हम हर बार भूल जाते हैं कि जड़ें माटी में जितनी गहरी होंगी, खनिज और जल उतना ही अधिक अवशोषित करेंगी। सूरज की तपिश पाकर उतना ही अधिक विकास भी होगा।

सत्य तो यह है कि वर्तमान में हम प्रकृति से, सह-अस्तित्व से, सहजता से दूर होते जा रहे हैं। प्राणियों के साथ रहना, प्रकृति के संग रहना एक समय सामान्य बात थी। आज तो चूहा, बिल्ली से डरना भी आम बात हो गई है। यह भी विसंगति की पराकाष्ठा है कि एकाधिकार की वृत्ति का मारा मनुष्य भूल रहा है कि पग-पग पर प्रकृति का हर घटक अन्योन्याश्रित है।

इस परस्परावलंबिता को भूल रहे आदमी को अपनी एक रचना स्मरण दिलाना चाहता हूँ,

बड़ा प्रश्न है-

प्रकृति के केंद्र में

आदमी है या नहीं?

इससे भी बड़ा प्रश्न है-

आदमी के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं?

आदमी जितनी जल्दी अपने केंद्र में प्रकृति को ले आएगा, उतनी ही उसकी सहजता और जीवनानंद की परिधि विस्तृत होती जाएगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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