श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 217 ☆ जमघट…मरघट..! ?

नदी किनारे की एक पुलिया के नीचे से गुज़र रहा हूँ। ऊपर महामार्ग, रेलवे पटरियाँ, मेट्रो ट्रैक हैं। नीचे नदी बहती है। इसी पुलिया से ‘यू’  मोड़ लेकर आगे जाना पड़ता है।

सुबह का समय है। आसपास की मांसाहारी होटलों से निकले प्राणियों के अवशेष इस पुलिया के इर्द-गिर्द बिखरे पड़े हैं। कौवे और चील इन छोटे-छोटे हिस्सों पर मंडरा रहे हैं, अपनी चोंच में भर रहे हैं। रोज़ाना सुबह इसी पुलिया के नीचे से गुज़रना पड़ता है। रोज़ाना इसी दृश्य को देखना पड़ता है। एक तरह का आदिम मरघट है यह।

किसी भी देह का इस तरह का विदारक अंत भीतर तक हिला देता है। थोड़ा-सा आगे निकलता हूँ। अभी पुलिया पार नहीं कर पाया हूँ। देखता हूँ कि मुर्गों से भरा एक ट्रक चला आ रहा है। अपने-अपने पिंजरों में क़ैद अपने अंत की ओर बढ़ते मुर्गे। इन प्राणियों ने अपनी प्रजाति के इन अवशेषों को देखा- समझा-जाना है या नहीं, पता नहीं चलता। वे अपने में मग्न हैं। एक तरह का शाश्वत जमघट है यह।

चलते ट्रक में लगा जमघट है, ठहरी पुलिया के नीचे थमा मरघट है। जीवन के पनघट पर अनादिकाल से इसी दृश्य का साक्ष्य और पात्र बनता हर घट है।

देहरूपी घट की यही कथा सार्वकालिक है, सार्वजनीन है। यात्रा मरघट की, तृष्णा जमघट की। जमघट का आनंद लेना वांछित है, अधिकारों का उपभोग, कर्तव्यों का निर्वहन भी अनिवार्य है। तथापि अपने अंत को जानते हुए विशेषकर बुद्धितत्व के धनी मनुष्य का इस देहयोनि को सार्थक नहीं कर पाना, उसकी मेधा पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

हर जीव जानता है कि उसका जीवन बीत रहा है। मेधावी चिंतन करता है कि जीवन बीत रहा है या रीत रहा है?

विशेष बात यह कि बीतना और रीतना की गुत्थी को सुलझाने का चमत्कारी सूत्र भी मनुष्य के ही पास है। चमत्कारी इसलिए कहा क्योंकि वाह्य जगत का बीज अंतर्जगत में है। जिस दृश्य को बाहर देख रहे हो, वह भीतर का रेपलिका या प्रतिकृति भर है।

कबीर लिखते हैं,

या घट भीतर अनहद बाजे,

या ही में उठत फुवारा,

ढूँढ़े रे ढूँढ़े अँधियारा।

जीवन को रीता रखोगे या घटी-पल के नित बरते जा रहे रिक्थ पर टिके अपने घट को समय रहते सार्थकता से लबालब करोगे, इसका निर्णय तुम्हें स्वयं करना है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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