डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 253 ☆

☆ नीयत और नियति 

“जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता” जेम्स एलन का उक्त वाक्य अत्यंत कारग़र है, जो नीयत व नियति का संबंध प्रेषित करता है। इंसान की नीयत के अनुसार नियति अपना कार्य करती है और उससे परिणाम प्रभावित होता है। जिस भावना से आप कार्य करते हैं, वैसा ही कर्म फल आपको प्राप्त होता है। ‘कर भला, हो भला’, ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ व ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ अर्थात् ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही पल पाएगा इंसान’ पर प्रकाश डाला गया है। आप जो भी करते हैं, वही आपके पास लौट कर आता है – यह सृष्टि का अकाट्य सत्य है तथा इससे श्रेष्ठ कर्म करने का संदेश प्रेषित है। यह आकर्षण का सिद्धांत अर्थात् ‘लॉ आफ अट्रैक्शन’ है। जिसकी नीयत में खोट होता है, उससे किसी महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि वह कभी भी, किसी का अच्छा व हित करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। लाओटर्स का यह कथन “ज्ञानी संचय नहीं करता। वह ज्यों-ज्यों देता है, त्यों-त्यों पाता है” अत्यंत सार्थक है। जितना आप सृष्टि अर्थात् यूनिवर्स में देते हैं, उससे कई गुना आपके पास लौट कर आता है। सो! ज्ञानी के भांति संचय मत कीजिए तथा प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि प्रभु आपको दाता बनाए तथा आप निरंतर निष्काम कर्म करते रहें।

“जिस परिमाण में हम में ज्ञान, प्रेम तथा कर्म का मिलन होता है, उसी परिमाण में हमारे अंदर पूर्णता आती है।” टैगोर का यह कथन श्लाघनीय है। संपूर्णता पाने के लिए ज्ञान, प्रेम व कर्म का सामंजस्य आवश्यक है। प्रसाद जी “ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/  इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडम्बना है जीवन की” में वे ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। यदि बिना पूर्व जानकारी के किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, तो हृदय की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है? एकदूसरे की भावनाओं के विपरीत आचरण करना ही जीवन की विडम्बना है। टैगोर भी ज्ञान, प्रेम व कर्म के व्याकरण के संबंध में प्रकाश डालते हैं तथा इसे आत्मिक शांति पाने का साधन बताते हैं। डॉ• विद्यासागर “सच्चा सम्मान पद या धन से नहीं, मानवता व करुणा से आता है” के माध्यम से वे बुद्ध की करुणा व मानवतावादी भावना प्रकाश डालते हैं। मानव मात्र के प्रति करुणा, दया व सहानुभूति का भाव वह दैवीय गुण है, जो स्व-पर, राग-द्वेष व अपने-पराये के संकीर्ण भाव से ऊपर उठ जाता है, जो स्नेह, अपनत्व व सौहार्द का प्रतीक है; जिसमें सामीप्य व सायुज्य भाव निहित है। सत्कर्म मानव की नियति को बदलने की क्षमता रखते हैं।

मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है, क्योंकि हम निरंतर परिश्रम, लगन, दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास द्वारा अपनी तक़दीर अर्थात् भाग्य-रेखाओं को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं। इंसान नियति को बदल सकता है, बशर्ते उसकी नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक हो। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जो हम देखते हैं, सोचते-विचारते हैं, वैसा ही हमें संसार दिखाई पड़ता है। इसलिए मानव को नकारात्मकता को त्यागने का संदेश प्रेषित किया गया है। यदि हम ऐसी सोच वाले लोगों के मध्य रहेंगे, तो सदैव तनाव में रहेंगे और एक दिन अवसाद-ग्रस्त हो जाएंगे। यदि हम  कूड़े के ढेर के पास से गुजरेंगे, तो दुर्गंध आपकी मन:स्थिति को दूषित कर देगी और इसके विपरीत बगिया के मलय वायु के झोंके आपका हृदय को हर्षोल्लास से आप्लावित कर देंगे।

‘बुरी संगति से मानव अकेला भला’ के माधयम से मानव को सदैव अच्छे लोगों, मित्रों व पुस्तकों की संगति में रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि यह सब मानव को सुसंस्कृत करते हैं; हृदय की दूषित भावनाओं का निष्कासन कर सद्भावों, व सत्कर्मों करने को प्रेरित करते हैं। इसलिए मानव को बुरा देखने, सुनने व करने से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि मन बहुत चंचल है तथा दुष्कर्मों की ओर शीघ्रता से प्रभावित होता है। बुराइयाँ मनमोहक रूप धारण कर मानव को आकर्षित व पथ-विचलित करती हैं।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात ब्रह्म सत्य है। हमारे लिए प्रभु पर विश्वास कर, उस राह पर चलना दुष्कर है, क्योंकि उसमें अनगिनत काँटे व अवरोध हैं; जिन्हें पार करना अत्यंत कठिन है। परंतु जगत् मिथ्या है और माया के प्रभाव से यह सत्य भासता है। इंसान आजीवन माया महाठगिनी के जाल से मुक्त नहीं हो पाता और सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं के जाल में उलझा उनकी पूर्ति में मग्न रहता है। अंत में वह इस दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है और यह उसकी नियति बन जाती है, जो उसे उम्र-भर छलती रहती है। मानव इसके जंजाल व प्रभाव से लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो पाता।

सो! नीयत अच्छी रखिए। अच्छा सोचिए, अच्छे कर्म कीजिए। नियति सदैव आपकी संगिनी बन साथ चलेगी; आपको निविड़ तम से बाहर निकाल सत्यावलोकन कराएगी तथा मंज़िल तक पहुँचाएगी। आप पंक में कमलवत् रह पाने में समर्थ हो सकेंगे। आगामी आपदाएं व बाधाएं आपकी राह को नहीं रोक पाएंगी और आप निष्कंटक मार्ग से गुज़रते हुए अपनी मंज़िल अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य ख़ुशी पा जाएगा’  स्वरचित गीत की पंक्तियाँ मानव में एकांत में तन्हाई संग जीने का संदेश देती हैं, जो जीवन का शाश्वत् सत्य है। आपकी सोच, भावनाएं व मनोदशा सृष्टि में यथावत् प्रतिफलित होती है और नियति तदानुरूप कार्य करती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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