डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घाव और लगाव। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 255 ☆
☆ घाव और लगाव… ☆
चंद फ़ासला ज़रूर रखिए/ हर रिश्ते के दरमियान/ क्योंकि नहीं भूलती दो चीज़ें/ चाहे जितना भुलाओ/ एक घाव और दूसरा लगाव– गुलज़ार का यह कथन सोचने को विवश करता है तथा अनुकरणीय है। मानव दो चीज़ों को जीवन में लाख भुलाने पर भी नहीं भूल सकता– चाहे वे वाणी द्वारा प्रदत ज़ख़्म हों या शारीरिक घाव। यह दोनों ही शारीरिक पीड़ा व मानसिक आघात पहुँचाते हैं। प्रथम कमान से निकला हुआ तीर बहुत घातक होता है, उसी प्रकार मुख से नि:सृत शब्द भी हृदय को ता-उम्र कचोटते व आहत करते हैं। शरीर के ज़ख़्म तो एक अंतराल के पश्चात् भर जाते हैं, परंतु हृदय के ज़ख़्म एक अंतराल के पश्चात् भी हृदय को निरंतर सालते रहते हैं।
शायद गुलज़ार ने इसीलिए रिश्तों में फ़ासला रखने का संदेश प्रेषित किया है। यदि हम किसी पर बहुत अधिक विश्वास करते हैं और उसे अपना अंतरंग साथी स्वीकार लेते हैं; उसके बिना पलभर के लिए रहना भी हमें ग़वारा नहीं होता और उससे दूर रहने की कल्पना भी मानव के लिए असंभव व असहनीय हो जाती है।
‘रिश्ते सदा चंदन की तरह रखने चाहिए/ चाहे टुकड़े हज़ार भी हो जाएं, पर सुगंध ना जाए।’ रिश्तों में भले ही कोई लाख सेंध लगाने का प्रयास करे, परंतु उसे सफलता न प्राप्त हो। उसकी ज़र्रे-ज़र्रे से चंदन की भांति महक आए। जैसे इत्र का प्रयोग करने पर अंगुलियाँ महक जाती हैं, वैसे ही उनकी महक स्वतः दूसरों तक पहुँच जाती है तथा सबका हृदय प्रफुल्लित करती है।
यदि कोई आपकी भावनाओं को समझ कर भी तकलीफ़ पहुंचाता है तो वह आपका हितैषी कभी हो नहीं सकता। इसलिए आजकल अपने व पराये में भेद करना व दूसरे के मनोभावों को समझना अत्यंत कठिन हो गया है। हर इंसान मुखौटा धारण करके जी रहा है। सो! उसके हृदय की बातों को समझना भी दुष्कर हो गया है। केवल आईना ही सत्य को दर्शाता है। यदि उस पर मैल चढ़ी हो, तो भी उसका वास्तविक रूप दिखाई नहीं पड़ता है। रिश्ते भी काँच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं। इसलिए उन्हें संभाल कर रखना अत्यंत आवश्यक होता है। परंतु आजकल तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो रिश्तों को ग्रहण लग गया है; कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा, क्योंकि हर रिश्ता स्वार्थ पर आधारित है।
‘अपेक्षाएं जहाँ खत्म होती है, सुक़ून वहीं से शुरू होता है। वैसे तो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों ही रिश्तों में मलाल उत्पन्न करती हैं और मानव आजीवन मैं और तू के भँवर में फँसा रहता है। रिश्ते प्यार व त्याग पर आधारित होते हैं। जब हमारे हृदय में किसी के प्रति लगाव होगा, तो हम उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर होंगे। आसक्ति जिसके प्रति भी होती है, कारग़र होती है। प्रभु के प्रति आसक्ति भाव मानव को भवसागर से पार उतरने का सामर्थ्य प्रदान करता है। आसक्ति में मैं का भाव नहीं रहता अर्थात् अहं भाव तिरोहित हो जाता है, जो श्लाघनीय है। इसके परिणाम-स्वरूप रिश्तों में प्रगाढ़ता स्वत: आ जाती है और स्व-पर का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में हम उससे दूर रहने की कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते। वैसे संसार में श्रेष्ठ संबंध भक्त और भगवान का होता है, जिसमें कोई भी एक- दूसरे का मन दु:खाने की कल्पना नहीं कर सकता।
अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है, लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं होती है। वह साधारण मानव को भी फ़रिश्ता बना देती है। इसलिए जब बात रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जियो और जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जिओ। यदि मानव के स्वभाव में निपुणता व विनम्रता है, तो वह ग़ैरों को भी अपना बनाने का सामर्थ्य रखता है। यदि वह अहंनिष्ठ है; अपनों से भी गुरेज़ करता है, तो एक अंतराल के पश्चात् उसके आत्मज तक उससे किनारा कर लेते हैं तथा खून के रिश्ते भी पलभर में दरक़ जाते हैं।
इंसान का सबसे बड़ा गुरु वक्त होता है, क्योंकि जो हमें वक्त सिखा सकता है; कोई नहीं सिखा सकता। ‘वह शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा/ यक़ीनन उसका क़द तुमसे बड़ा होगा।’ सो! विनम्रता का गुण मानव को सब की नज़रों में ऊँचा उठा देता है। ‘अंधेरों की साज़िशें रोज़-रोज़ होती हैं/ फिर भी उजाले की जीत हर सुबह होती है।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ है, आत्मविश्वास उसकी धरोहर है, तो वह सदैव विजयी रहता है अर्थात् मुक़द्दर का सिकंदर रहता है। परंतु घाव व लगाव एक ऐसा ज़हर है, जो मानव को उसके चंगुल से मुक्त नहीं होने देते। यदि वह एक सीमा में है, स्वार्थ के दायरे से बाहर है, तो हितकर है, अन्यथा हर वस्तु की अति खराब होती है; हानिकारक होती है। जैसे अधिक नमक रक्तचाप व चीनी मधुमेह को बढ़ा देती है। सो! जीवन में समन्वय व सामंजस्यता रखना आवश्यक है। वह जीवन में समरसता लाती है। स्थिति बदलना जब मुमक़िन न हो, तो स्वयं को बदल लीजिए; सब कुछ अपने आप बदल जाएगा।
एहसास के रिश्ते दस्तक के मोहताज नहीं होते। वे खुशबू की तरह होते हैं, जो बंद दरवाज़े से भी गुज़र जाते हैं। जीवन में किसी की खुशी का कारण बनो। यह ज़िंदगी का सबसे सुंदर एहसास है। इसलिए शिक़ायतें कम, शुक्रिया अधिक करने की आदत बनाइए; जीने की राह स्वत: बदल जाएगी। अपेक्षा और उपेक्षा के जंजाल से बचकर रहिए, जिंदगी सँवर जाएगी तथा समझ में आ जाएगी। रिश्तों में दूरी बनाए रखिए, क्योंकि घाव आजीवन नासूर-सम रिसते हैं और अतिरिक्त आसक्ति व लगाव पलभर में पेंतरा बदल लेते हैं और मानव को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया है, उसका दु:ख मनाने की जगह जो आपके पास से उसका आनंद उठाना सीखें, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस भाव व लगाव ही है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता। अक्सर किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ अभिव्यक्त कर देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है, तो उसके आसपास का जगत् भी सुंदर हो जाता है।
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© डा. मुक्ता
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( १ ) “ बंध बंध तोडून.. “
कवयित्री : वंदना हुळबत्ते
बघ बंध तोडून
जीव घेणा हा अबोला
कसा सहन करतेस ?
सारे दुःखाचे कड
एकटीच का पचवतेस ?
सांगून तर बघ एकदा
मन थोड होईल हलकं
नको मानू मला तू परक
स्वतःच विणलेल्या कोषात
किती दिवस फिरणार ?
कोष तुलाच तोडावा लागणार
उदासीनतेच्या प्रेशरला
बघ शिटी देऊन
उदासिनता जाईल निचरून
ऐक माझं
बघ एकदा जमत का ?
दडपनाचे झाकण उघडून
कोंडलेल मन जाईल आनंदून
स्वतःला दोष देणं दे सोडून
सुख तुला जोजवेल
हाताचा पाळणा करून
आस धर उद्याची
अबोला दे सोडून
दुःखाशी कर सामना
टेंशन जाईल घाबरुन
सौ.वंदना हुळबत्ते
सांगली