डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख भीड़ में हम अकेले। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 262 ☆
☆ भीड़ में हम अकेले… ☆
‘बड़े अजीब दुनिया के मेले हैं/ दिखती तो भीड़ है/ पर चलते हम अकेले हैं’ गुलज़ार की यह पंक्तियाँ आज के कटु सत्य को उजागर करती हैं। आधुनिक युग में मानव सबके बीच अर्थात् भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव करता है– से तात्पर्य है कि मानव में पनपता आत्मकेंद्रिता का भाव। इसका कारण है उसकी दिन-प्रतिदिन सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाएं, लालसाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं– जो उसे सुक़ून से जीने नहीं देती। एक इच्छा के पूरी होते दूसरी सिर उठा लेती है। सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! मानव आजीवन इनका गुलाम बनकर रह जाता है और उस चक्रव्यूह से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसकी महत्वाकांक्षाएं ही उसकी शत्रु बन जाती हैं। अक्सर मानव आकाश को छूने की तमन्ना में अपने कदम धरा से ऊपर उठा तो लेता है, परंतु उसकी दशा कटी पतंग जैसी हो जाती है जो चंद क्षणों के पश्चात् ही धरा पर औंधे मुँह गिर जाती है।
यह शाश्वत् सत्य है कि जब तक हम ज़मीन से जुड़े रहते हैं, हमारी पहचान बनी रहती है और जब तक हम परिवार का हिस्सा बनकर रहते हैं, हमारा अस्तित्व रहता है। जैसे डाली से टूटा हुआ फूल शीघ्र ही धूल में मिल जाता है और उसकी महक व सौंदर्य नष्ट हो जाता है। इसीलिए ‘एकता में बल है’ और ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश आज भी सार्थक, उपयोगी, प्रासंगिक व अनुकरणीय है
आधुनिक युग में बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इसके लिए वह किसी की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करता। आजकल पैसा प्रधान है और यह हवस उसे दुष्कर्म तक करने तक को विवश तक कर देती है। पैसा मानव में सर्वश्रेष्ठता के भाव का जनक है। वह स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नगण्य समझता है। ‘पैसे से दिलों में पनपती हैं दरारें/ यह दूरियाँ भी बहुत बढ़ाता है/ रिश्तों में यह सहसा सेंध लगाता/ दीमक सम समूल चाट जाता है।’ जी हाँ! पैसा आज के युग का प्रधान है। इसके बल पर मानव किसी पर भी अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा कर सकता है, उसकी अहमियत को नकार ज़ुल्म कर सकता है और उसे अपने कदमों में झुका सकता है। यह एक ऐसी अंधी दौड़ है, जिसमें सब एकदूसरे से आगे निकल जाना चाहते हैं।
जब तक मानव की गाँठ में पैसा रहता है, वह सबको एक लाठी से हाँकता है। भावनाओं, चाहतों, संवेदनाओं का उसके सामने कोई मूल्य नहीं होता। रिश्तों की गरिमा को नकार वह आगे बढ़ जाता है। परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह नितांत अकेला रह जाता है और लौट जाना चाहता है उन अपनों में, जिन्हें वह बहुत पीछे छोड़ आया था। परंतु अब सब कुछ बदल चुका होता है। उसके परिवारजन, मित्र, संबंधी आदि उसके अस्तित्व को नकार देते हैं और दुनिया के मेले में वह नितांत अकेला रह जाता है। इस विषम परिस्थिति में उसे अपने कृत-कर्मों पर पश्चाताप होता है। परंतु गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ यह है प्रभु-प्राप्ति का सहज मार्ग। मानव ध्यान, भक्ति, साधना करके प्रभु को प्राप्त कर सकता है। जब तक मानव दुनिया की रंगीनियों में खोया रहता है, वह अलौकिक खुशी प्राप्त नहीं कर सकता है और इच्छाओं का गुलाम बनकर रह जाता है। पंचविकारों से घिरा मानव सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में अपना जीवन बसर करता है, क्योंकि उसका हृदय सदैव कुहासे से लबरेज़ रहता है। वह आकुल व हैरान-परेशान रहता है।
उसकी दिशा व दशा अजीब-सी हो जाती है– ‘अजनबी हर इंसान/ अजनबी है यह जहान/ अपनों को तलाशना नहीं संभव/ कैसी यह अजब ज़िंदगी है।’ और ‘फ़ासले जब ज़िंदगी में बढ़ जाते हैं/ अपने सब अपनों से दूर हो जाते हैं/ छा जाता है अजब-सा धुँधलका जीवन में/ हम ख़ुद से ही अजनबी हो जाते हैं।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियाँ आज के मानव की मन:स्थिति व नियति को उजागर करती हैं कि जब इंसान अकेला हो जाता है तो उसे समस्त जगत् मिथ्या नज़र आता है।
‘आजकल यूज़ एंड थ्रो का ज़माना आ गया/ दिलों की अहमियत नकारने का ज़माना आ गया/ आजकल दरारें दीवारों का रूप ग्रहण करने लगी/ और अपने सब ख़ुद से अजनबी होने लगे।’ जीवन क्षणभंगुर है। संसार मिथ्या है और वह माया के कारण सत्य भासता है। ‘हंसा एक दिन उड़ जाएगा। इस धरा का सब, धरा पर ही धरा रह जाएगा। एक तिनका भी तेरे साथ नहीं जाएगा। मत ग़ुरूर कर बंदे!’
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, उसका आनंद लीजिए। ‘क्योंकि ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस व्यवहार व लगाव ही ऐसा है जो कभी बूढ़ा नहीं होता।’ ’किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में प्रेम व उदारता का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है तो उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।’ मानव अपने व्यवहार से आसपास के वातावरण व जगत् को सुंदर बन सकता है। सो! सबके प्रति हृदय में प्रेम, सौहार्द, स्नेह, सहानुभूति व जाग्रत संवेदनाएं रखिए। उस स्थिति में आप कभी अकेले नहीं होंगे। सब आपके सान्निध्य में सुख का अनुभव करेंगे। जब हृदय में राग-द्वेष की कलुषित भावनाएं नहीं होंगी तो सुंदर व स्वस्थ समाज की संरचना होगी। चहुँओर उजाला होगा और सबके हृदय में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य होगा। इंसान भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव नहीं करेगा। रिश्तों की सुगंध से जीवन महकेगा और सब अनहद नाद की मस्ती व दिव्य आनंद से अपना जीवन बसर कर सकेंगे।
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© डा. मुक्ता
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