श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – डर के आगे जीत है ☆
गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।
संकट ने चिल्लाकर कहा, ‘ अरे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा खत्म! अब तो डर।’ इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा, ‘अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जाएगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।’
मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।
भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा,‘ डर के आगे जीत है।’
© संजय भारद्वाज, पुणे
(रविवार 5.11.17, रात्रि 2.10 बजे)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
मन के सारे हार है ,मन के जीते जीत!
मुश्किलों कआ सामना डट कर करने से वह स्वयं ही मुँह मोड़ कर चली जाती हैं।??