हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी  💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-🍁??

🙏अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर देखिए विभिन्न भाषाओं की कविताओं पर आधारित हमारा आयोजन, भाषा कभी बाँधती नहीं🙏

आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

1952 की घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।

आज का दिन हर भाषा के सम्मान , बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।

मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में, ‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’

हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन सदैव करते रहे। आनंद की बात है कि करोड़ों भारतीयों की इस मांग और प्राकृतिक अधिकार को पहली बार भारत सरकार ने शिक्षानीति में सम्मिलित किया। नयी शिक्षानीति आम भारतीयों और भाषाविदों-भाषाप्रेमियों की इच्छा का दस्तावेज़ीकरण है। हम सबको इस नीति के क्रियान्वयन से अपरिमित आशाएँ हैं।

विश्वास है कि यह संकल्प दिवस, आनेवाले समय में सिद्धि दिवस के रूप में मनाया जाएगा। अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के संवर्धन एवं प्रसार के लिए हम सब अखंड कार्य करते करें। सभी मित्रों को शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 22 – बोस्टन टी पार्टी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 22 – ☕ बोस्टन टी पार्टी ☕☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में तो चाय पार्टी साधारण सी बात है। घर,मित्र मंडली, कार्यालय, हमेशा चाय के नाम पर ही चर्चा/विचार विमर्श करते हैं। एक पुराना फिल्मी गीत” तेरी मम्मी ने चाय पर बुलाया है” वर वधु के वैवाहिक संबंध भी चाय पर ही तय होने की परंपरा विगत कुछ दशक से प्रचलित हैं। चाय तो एक बहाना है, “मित्र को कुछ देर और बैठने का” वैसे “ठंडी चाय” का सेवन करने वालों को किसी बहाने की आवश्यकता ही नहीं होती हैं।

करीब तीन सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी चाय को पूरे यूरोप के निवासियों को इसकी लत लगा चुकी थी। अमेरिका भी इंगलैंड का उपनिषद था। उन्होंने अमेरिका में भी चाय का प्रचार/ प्रसार कर लोगों को इसके सेवन की आदत डाल रही थी। चाय पर अतिरिक्त कर लगा कर ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी आय को दिन दोगुना रात चौगुना करने की जुगत में थी।

अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व बोस्टन के समुद्री किनारे पर तीन जहाज़ ईस्ट इंडिया कंपनी की चाय लेकर पहुंच चुके थे। स्थानीय अमरीकी लोगों ने इसका विरोध करते हुए स्वतंत्रता की मशाल जला दी थी। इंग्लैंड के विरोध में तीनों जहाज़ पर लदी हुई चाय पत्ती को समुद्र में विसर्जित कर दिया गया था। हमारे देश में भी 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता प्राप्ति का पहला कदम था। वैसा ही इस देश में भी हुआ और आगे चल कर अमरीका, इंग्लैंड के चंगुल से आज़ाद हो गया।

देश भक्त और पुराने अमरीकी हमेशा चाय के स्थान पर कॉफी को प्राथमिकता देते हैं। ये ही कारण है, कि यहां पर चाय का सेवन, कॉफी से बहुत कम हैं। एशियाई देश के प्रवासी जो अधिकतर चाय के शौकीन होते है, यहां आकर चाय की कमी महसूस करते हैं।

बोस्टन में इसकी याद में उसी स्थान पर “बोस्टन टी पार्टी शिप्स म्यूज़ियम” स्थापित किया  गया है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 8 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 8 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

नारद सारद सहित अहीसा।।

अर्थ: –

हजार मुख वाले शेषनाग तुम्हारे यश का गान करें – ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान श्रीरामने आपको अपने हृदयसे लगा लिया I

हे हनुमान जी आपके यशों का गान तो सनकादिक ऋषि, ब्रह्मा और अन्य मुनि गण, नारद, और सरस्वती सभी करते हैं।

भावार्थ:-

श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे हनुमान जी आप का यश पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। हर समय आप के यश का गान होगा। हजार मुख वाले शेषनाग जी भी आपके यश का गान करेंगे। ऐसा कहते हुए लक्ष्मण जी के मूर्छा से वापस आने पर प्रसन्न होकर लक्ष्मीपति विष्णु जी के अवतार श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी को गले से लगाया।

गले से लगाते हुए श्री रामचंद्र जी ने पुनः कहा कि सनक आदि ऋषि गण ब्रह्मा आदि देवता गण और सभी मुनि तथा स्वयं सरस्वती देवी और नारद जी आप की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। कोई भी आपकी पूर्ण प्रशंसा नहीं कर सकता हैं।

संदेश:-

अच्छे कर्म करने पर ईश्वर भी अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे सब का भला हो।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से यश,  सम्मान, प्रसिद्धि और कीर्ति बढ़ती है। अगर आपको मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो तो इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:-

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी के द्वारा किए गए कार्यों से प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की कई बार प्रशंसा की तथा गले से भी लगाया था।

हनुमान चालीसा में इस चौपाई से पहले की चौपाई में कहा गया है:-

 “लाय सजीवन लखन जियाये”

 इसी के बाद यह चौपाई आई है कि “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा”। अतः हम कह सकते हैं की यह प्रशंसा संजीवनी बूटी लाने के लिए है। घटना इस प्रकार है:-

लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार से मूर्छित हो गए थे। श्री लक्ष्मण जी को शीघ्र स्वास्थ्य करने के लिए हनुमान जी विभीषण की सलाह पर श्रीलंका से सुषेण वैद्य को लेकर आए। सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी की आवश्यकता बताई। यह भी बताया कि संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है। हनुमान जी संजीवनी बूटी को लाने के लिए द्रोणागिरी पर्वत पर गए। वे द्रोणागिरी से संजीवनी बूटी लेकर वापस शिविर में पहुंचे उस समय का  दृश्य विकट था। रामचरितमानस में इस प्रसंग को निम्नानुसार कहा गया है :-

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।

आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥

तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

( रामचरितमानस/लं कां /61 /1)

यहां पर भी यही कहा गया है रामचंद्र जी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को भेंटा अर्थात गले लगाया। गले लगाने के उपरांत श्री रामचंद्र जी ने क्या कहा यह इस चौपाई या दोहा में नहीं आया है। हनुमान चालीसा इस बात को स्पष्ट करता है। हनुमान चालीसा में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि गले लगाने के बाद श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी के लिए क्या कहा।

श्री रामचरितमानस में हनुमान जी जब सीता जी का पता लगा कर के श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचे तब वहां पर पूरे आख्यान को जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया।

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।

सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए।

जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

जामवंत जी ने कहा कि हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जामवंत जी ने श्री रामचन्द्रजी को सुनाये।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।

पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी।

रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥

उन वचनों को सुनकर दयालु श्रीरामचंद्र जी ने उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया और हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणों की रक्षा वह किस तरह करती है?

यहां पर जामवंत जी ने कहा है कि हनुमान जी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा सहस्त्रों  मुख से भी नहीं की जा सकती है। जबकि हनुमान चालीसा में यही बात श्री रामचंद्र जी ने स्वयं कहा है। श्री रामचंद्र ने कहा है कि सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी तुम्हारे यश का वर्णन करेंगे। यहां पर सहस बदन का अर्थ है सहस्त्र बदन। बदन शब्द का अर्थ संस्कृत में मुख से होता है। अतः सहसवदन का अर्थ हुआ सहस्त्र मुख वाले अर्थात शेषनाग जी।

 यहां पर यह बताया गया है हनुमान जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। अगर शेषनाग जी अपने सभी सहस्त्र मुखों से भी हनुमान जी की प्रशंसा करना चाहे तो भी वह भी नहीं कर पाएंगे।।

 कबीर दास जी की तरह से तुलसीदास जी भी लिख सकते थे कि :-

 सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।

 यह कबीर दास जी का दोहा है जो कि भक्ति काल के कवि थे। महात्मा तुलसीदास जी भी भक्ति काल के ही कवि थे। कबीर दास जी का समय तुलसीदास जी से थोड़ा पहले का है। अब

यहां प्रश्न यह उठता है की श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी के यश के वर्णन के लिए शेषनाग जी को ही क्यों उपयुक्त माना। तुलसीदास जी ने संभवत शेषनाग जी का नाम श्री विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी के संदर्भ में लिया गया है। धरती, जंगल,स मुद्र यह सब पार्थिव हैं। जबकि शेषनाग जी देवताओं की श्रेणी में आते हैं। श्री लक्ष्मण जी श्री शेषनाग जी के ही अवतार थे। एक देवता जिसके सहस्त्र मुख है वह भी जिसकी पूर्ण प्रशंसा न कर सके फिर तो उसकी पूर्ण प्रशंसा करना संभव ही नहीं है। संभवतः यही श्री रामचंद्र जी का हनुमान जी के प्रशंसा के लिए श्री शेषनाग का संदर्भ देने का कारण है।

इसी चौपाई में आगे श्री रामचंद्र जी को श्रीपति कहा गया है। हनुमान चालीसा में लिखा है “अस कहि श्रीपति कंठ लगावें “। आखिर यहां पर श्री रामचंद्र जी को श्री अर्थात लक्ष्मी जी से क्यों जोड़ा गया है। उनको श्रीपति अर्थात विष्णु जी क्यों कहा गया है। इस स्थान के अलावा हनुमान चालीसा के किसी अन्य स्थान पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहकर संबोधित नहीं किया गया है।

यहां पर भगवान श्रीराम को श्री रामचंद्र जी ने कह कर के श्रीपति कहने का विशेष आशय है। हम सभी जानते हैं कि श्री शब्द का अर्थ है देवी लक्ष्मी, शुभ, आलोक, समृद्धि, प्रथम, श्रेष्ठ, सौंदर्य, अनुग्रह,  प्रतिभा, गरिमा शक्ति, सरस्वती, आदि।

श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। अनेक धर्म पुस्तकों में लिखा गया है कि ‘श्री’ शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वह श्री युक्त माना जाता है। राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्री लक्ष्मी और श्री विष्णु तथा श्री हरी के नाम में ‘श्री’ शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। श्रीपति कहने से स्पष्ट होता है की रामचंद्र जी  कोई साधारण पुरुष नहीं बल्कि अवतारी पुरुष हैं। अवतारी पुरुष द्वारा हनुमान जी को अपने गले से लगाना प्रतिष्ठा देने की उच्चतम पराकाष्ठा है। रामचंद्र जी वनवास में है परंतु अयोध्या के होने वाले राजा भी हैं। किष्किंधा के राजा सुग्रीव के मित्र भी हैं। इसके अलावा श्रीलंका के निर्वासित सरकार के मुखिया विभीषण जी को राज्य प्राप्त करने में सहायक भी हैं।

सनकादिक का अर्थ है सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।

 यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। चार भाई एक साथ ही रहते हैं ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। ये चारों भाई जहां भी जाते हैं निरंतर भजन और कीर्तन में मग्न रहते हैं। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि यह निरंतर बोलते रहते हैं। या तो ये भजन को भजन के रूप में बोलते हैं या कीर्तन के रूप में बोलते हैं। इस चौपाई में   इनके नाम लेने का आशय यह है कि अगर यह चारों मुनि जो कि विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर बगैर रुके हनुमानजी की प्रशंसा करते रहे तो वे चारों मिलकर भी हनुमान जी की प्रशंसा पूर्णरूपेण नहीं कर पाएंगे।

 दूसरा शब्द है ब्रह्मादि। इस शब्द का आशय बिल्कुल स्पष्ट है। ब्रह्मादि का अर्थ है देव त्रयी अर्थात ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि इनका स्थान सभी देवताओं से ऊपर है। परंतु उनके भक्तों में इस बात का युद्ध रहता है कि इनमें  बड़ा कौन है। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु जी सबसे पहले ब्रह्मांड में आए फिर उसके बाद शिव जी और ब्रह्मा जी आए। शिव पुराण के अनुसार शिवजी सबसे बड़े हैं। अगर हम इनके चित्र देखें तो ब्रह्मा जी सबसे वृद्ध दिखाई देते हैं। ब्रह्मा जी के बाद शिवजी और उसके उपरांत विष्णु जी कम आयु के दिखाई पड़ते हैं। परंतु वास्तव में यह तीनों एक ही है। केवल अलग-अलग कार्यों के लिए ये अलग-अलग हो गए हैं। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी करते हैं। उनकी पत्नी सरस्वती जी ज्ञान की देवी हैं। वे इस कार्य में उनकी मदद करती है। इस पूरे जगत का पालनकर्ता भगवान विष्णु है। वह लक्ष्मी जी के साथ शेष शैया पर क्षीर सागर में निवास करते हैं। भगवान शिव विलीन कर्ता है। यह अपनी पत्नी और परिवार के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। यह सभी अजन्मे है। सभी शक्ति युक्त है। अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न नाम से पुकारे जाते हैं। इस चौपाई के अनुसार ये सभी शक्तिशाली देवता भी अगर मिलकर हनुमानजी की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर सकते।

अगला शब्द मुनीसा है जिसका आशय है सभी मुनि गण। ये ऋषि और मुनि धरती पर निवास करने वाला बौद्धिक वर्ग हैं जो कि निरंतर यज्ञ -हवन कीर्तन-भजन आदि  कर्मों में लगा रहता है। इनकी संख्या करोड़ों में है। इस चौपाई के अनुसार  ये सभी भी मिलकर अगर हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर पाएंगे।

चौपाई के अगले खंड में “नारद सारद सहित अहीसा” कहा गया है।

नारद मुनि ब्रह्मा जी के छह पुत्रों में से छठे नंबर के हैं। उन्होंने कठिन तपस्या करने के उपरांत ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया है। नारद जी सदैव धर्म का प्रचार करते रहते हैं। वे पूरे ब्रह्मांड का भ्रमण करते रहते हैं। विष्णु जी के साथ इन का विशेष संपर्क है। ये सदा विष्णु जी की आराधना करते हैं। इनकी प्रशंसा में श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – “देवर्षीणाम् च नारद:।

देवर्षियों में मैं नारद हूं   इनका कार्य सदैव बोलने का ही है।

मां शारदा या सरस्वती विद्या की देवी है पूरा ज्ञान इनसे ही है।

अहीसा का अर्थ है सांपों का देवता अर्थात शेषनाग जी। शेषनाग जी के एक सहस्त्र मुख हैं। यह भी माना जाता है इनसे ज्यादा मुख किसी और प्राणी के पास नहीं। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कहते हैं कि यह सभी मिलकर के भी हनुमान जी द्वारा किए गए कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि हनुमान जी के कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करना असंभव है। अगली दो चौपाइयां भी इन्हीं चौपाइयों उसके साथ जुड़ी हुई है। उन चौपाइयों का अर्थ अगले भाग में बताया जाएगा।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 176 ☆ शिवोऽहम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 176 शिवोऽहम् ?

।। चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

गुरु द्वारा परिचय पूछे जाने पर बाल्यावस्था में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा दिया गया उत्तर निर्वाण षटकम् कहलाया। वेद और वेदांतों का मानो सार है निर्वाण षटकम्। इसका पहला श्लोक कहता है,

मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं न मन हूँ, न बुद्धि, न ही अहंकार। मैं न श्रवणेंद्रिय (कान) हूँ, न स्वादेंद्रिय (जीभ), न घ्राणेंद्रिय (नाक) न ही दृश्येंद्रिय (आँखें)। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न ही वायु। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

मनुष्य का अपेक्षित अस्तित्व शुद्ध आनंदमय चेतन ही है। आनंद से परमानंद की ओर जाने के लिए, चिदानंद से सच्चिदानंद की ओर जाने के लिए साधन है मनुष्य जीवन।

सर्वसामान्य मान्यता है कि यह यात्रा कठिन है। असामान्य यथार्थ यह  कि यही यात्रा सरल  है।

इस यात्रा को समझने के लिए वेदांतसार का सहारा लेते हैं जो कहता है कि अंत:करण और बहि:करण, इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं।  मन, बुद्धि और अहंकार अंत:करण में समाहित हैं। स्वाभाविक है कि अंत:करण की इंद्रियाँ देखी नहीं जा सकतीं, केवल अनुभव की जा सकती हैं। संकल्प- विकल्प की वृत्ति अर्थात मन, निश्चय-निर्णय की वृत्ति अर्थात बुद्धि एवं स्वार्थ-संकुचित भाव की वृत्ति अर्थात अंहकार। इच्छित का हठ करनेवाले मन, संशय निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बुद्धि और अपने तक सीमित रहनेवाले अहंकार की परिधि में मनुष्य के अस्तित्व को समेटने का प्रयास हास्यास्पद है।

बहि:करण की दस इंद्रियाँ हैं। इनमें से चार इंद्रियों आँख, नाक, कान, जीभ तक मनुष्य जीवन को बांध देना और अधिक हास्यास्पद है।

सनातन दर्शन में जिसे अपरा चेतना कहा गया है, उसमें निर्वाण षटकम् के पहले श्लोक में निर्दिष्ट आकाश, भूमि, अग्नि, वायु, मन, बुद्धि, अहंकार जैसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों तत्व सम्मिलित हैं। अपरा प्रकृति केवल जड़ पदार्थ या शव ही जन सकती है। परा चेतना या परम तत्व या चेतन तत्व या आत्मा का साथ ही उसे चैतन्य कर सकता है, चित्त में आनंद उपजा सकता है, चिदानंद कर सकता है।

आनंद प्राप्ति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन, जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। मनुष्य का अहंकार जब उसे भास कराने लगता है कि उसमें सब हैं, तो यह भास, उसे घमंड से चूर कर देता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाए तो वह धन, पद, कीर्ति पाता तो है पर उसके अहंकार से बचा रहता है। वह सबमें खुद को देखने लगता है। सबका दुख, उसका दुख होता है। सबका सुख, उसका सुख होता है। वह ‘मैं’ से ऊपर उठ जाता है।

यूँ विचार करें करें कि जब कोई कहता है ‘मैं’ तो किसे सम्बोधित कर रहा होता है? स्वाभाविक है कि यह यह ‘मैं’ स्थूल रूप से दिखती देह है। तथापि यदि आत्मा न हो, चेतन स्वरूप न हो तो देह तो शव है। शव तो स्वयं को सम्बोधित नहीं कर सकता। चिदानंद चैतन्य, शव को शिव करता है  और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के शब्द सृष्टि में चेतनस्वरूप की उपस्थिति का सत्य, सनातन प्रमाण बन जाते हैं।

इसीलिए कहा गया है, ‘शिवोहम्’,..मैं शिव हूँ..’मैं’ से शव का नहीं शिव का बोध होना चाहिए। यह बोध मानसपटल पर उतर आए तो यात्रा बहुत सरल हो जाती है।

यात्रा सरल हो या जटिल, इसमें अभ्यास की बड़ी भूमिका है। अभ्यास के पहले चरण में निरंतर बोलते, सुनते, गुनते रहिए, ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाशिव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी को सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सदाशिव ??

🕉️ ई-अभिव्यक्ति के सभी पाठकों को महाशिवरात्रि की हृदय से मंगलकामनाएँ। इस निमित्त आज प्रस्तुत है, ‘संजय उवाच’ के एक आलेख का पुनर्पाठ। 🙏

एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। बड़े दुखी थे। उनके दोनों शादीशुदा बेटे अलग रहना चाहते थे। बुजुर्ग ने जीवनभर की पूँजी लगाकर रिटायरमेंट से कुछ पहले तीन बेडरूम का फ्लैट लिया था ताकि परिवार एक जगह रह सके और वे एवं उनकी पत्नी भी बुढ़ापे में सानंद जी सकें। अब हताश थे, कहने लगे, क्या करें, परिवार में सबकी प्रवृत्ति अलग-अलग है। एक दूसरे के शत्रु हो रहे हैं। शत्रु साथ कैसे रह सकते हैं?

बुजुर्ग की बातें सुनते हुए मेरी आँखों में शिव परिवार का चित्र घूम गया। महादेव परम योगी हैं, औघड़ हैं पर उमापति होते ही त्रिशूलधारी जगत नियंता हो जाते हैं। उनके त्रिशूल में जन्म, जीवन और मरण वास करने लगते हैं। उमा, काली के रूप में संहारिणी हैं पर शिवप्रिया होते ही जगतजननी हो जातीहैं। नीलकंठ अक्षय चेतनतत्व हैं, गौरा अखंड ऊर्जातत्व हैं। परिवार का भाव, विलोम को पूरक में बदलने का रसायन है।

शिव परिवार के अन्य सदस्य भी इसी रसायन की घुट्टी पिये हुए हैं। कार्तिकेय बल और वीरता के प्रतिनिधि हैं। वे देवताओं के सेनापति हैं। श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं। बौद्धिकता के आधार पर प्रथमपूज्य हैं। सामान्यत: विरुद्ध गुण माने जानेवाले बल और बुद्धि, शिव परिवार में सहोदर हैं। अन्य भाई बहनों में देवी अशोक सुन्दरी, मनसा देवी, देवी ज्योति, भगवान अयप्पा सम्मिलित हैं पर विशेषकर उत्तर भारत में अधिकांशत: शिव, पार्वती, श्रीगणेश और कार्तिकेय ही चित्रित होते हैं।

अब परिवार में सम्मिलित प्राणियों पर भी विचार कर लेते हैं। महाकाल के गले में लिपटा है सर्प। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन, शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्मता और हृदय में समरसता का भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं।

एकात्मता, भारतीय दर्शन विशेषकर संयुक्त परिवार प्रथा के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती रही है। पिछली पीढ़ी में एक कमरे में 8-10 लोगों का परिवार साझा आनंद से रहता था। दाम्पत्य, जच्चा-बच्चा सबका निर्वहन इसी कमरे में। स्पेस नहीं था पर सबके लिए स्पेस था। जहाँ करवट लेने की सुविधा नहीं थी, वहाँ किसी अतिथि के आने पर आनंद मनाने की परंपरा थी, पर ज्यों ही समय ने करवट बदली, परिजन, स्पेस के नाम पर फिजिकल स्पेस मांगने लगे। मतभेद की लचीली बेल की जगह मनभेद के कठोर कैक्टस ने ले ली। रिश्ते सूखने लगे, परिवारों में दरार पड़ने लगी।

सूखी धरती की दरारों में भीतर प्रवेश कर उन्हें भर देती हैं श्रावण की फुहारें। न केवल दरारें भर जाती हैं अपितु अनेक बार वहीं से प्राणवायु का कोश लेकर एक नन्हा पौधा भी अंकुरित होता है।…श्रावण मास चल रहा है, दरारों को भरने और शिव परिवार को सुमिरन करने का समय चल रहा है। यह शिव भाव को जगाने का अनुष्ठान-काल है।

भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर

महादेव, त्रिकाल भए..!

शिव भाव जगाइए, सदाशिव बनिए। नयी दृष्टि और नयी सृष्टि जागरूकों की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

अर्थ:-

श्री लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार के कारण मूर्छित हो गए थे और मृत्यु शैया पर थे। उस समय हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जीवित कर दिया। जिससे श्री रामचंद्र जी ने खुश होकर के उनको अपने गले लगाया और उनकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भाई हो।

भावार्थ:-

इस चौपाई में तुलसी दास जी ने श्री हनुमान जी की स्तुति श्री लक्ष्मण जी के प्राणदाता के रूप में की है। श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार वे द्रोणा गिरी पर्वत पर गए। अनेक कठिनाइयों के बाद भी वे समय पर द्रोणागिरी पर्वत को ही लेकर श्री लक्ष्मण जी के पास पहुंच गए। बूटी का सेवन करने के उपरांत  लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।। यह देख कर के श्री रामचंद्र जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया।

उसके बाद श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो। यह सभी जानते हैं की श्री रामचंद्र जी भरत जी से अत्यंत प्रेम करते थे।

संदेश:-

केवल सगे संबंध ही नहीं कभी-कभी कोई रिश्ता ऐसा भी बन जाता है, जो इन से भी ऊपर होता है और ईश्वर-भक्त का रिश्ता ऐसा ही होता है।

इन चौपाइयों को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ :-

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाई से शारीरिक व्याधियों का निवारण होता है तथा अपने से बड़ों की कृपा प्राप्त होती है। अगर आपके वरिष्ठ आप से नाराज है या आप रोगों से ग्रस्त हो गए हैं तो आपको इन चौपाइयों का पाठ करना चाहिए।   

विवेचना:- 

इन चौपाइयों में हनुमान जी द्वारा बहुत से किए गए कार्यों में से एक कार्य का वर्णन है। इसमें उन्होंने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की है। संकट मोचन हनुमानाष्टक में इस बात को निम्नलिखित रुप में कहा गया है

बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्रान तज्यो सुत रावन मारो।

लै गृह वैध्य सुषेण समेत, तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो ॥

आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो।

को नहिं जानत है जग में कपि, संकट मोचन नाम तिहारो ॥५॥

अर्थात- लक्ष्मण की छाती मे बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हे मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में चले गये। तब आप वैद्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है कि आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।

इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाया। इसमें पूरा योगदान हनुमान जी का ही है सुषेण वैद्य को वही श्रीलंका से लेकर लाए थे उसके कहने पर वही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने गए थे और जब संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई तो पूरा पर्वत उठाकर वही लक्ष्मण जी के पास लाए।  सुषेण वैद्य ने  संजीवनी बूटी को निकालकर इसकी औषधि बनाकर लक्ष्मण जी को दिया और लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।

ऐसा ही गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक में भी छठे नंबर के  घनाक्षरी छंद में दिया गया है :-

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।।

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो।

साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो।।६

अर्थ:- द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया। राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पल भर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं।।६।।

श्री लक्ष्मण जी ने मेघनाथ से युद्ध किया। मेघनाथ ने उनके ऊपर शक्ति का प्रहार किया जिससे कि लक्ष्मण जी की मूर्छित हो गये। अब आप कल्पना करें एक भाई के मृत्यु शैया पर होने पर दूसरे भाई की क्या स्थिति होगी?  भाई भी लक्ष्मण जी जैसा, जो कि अपने भाई के वनवास जाने पर उसके साथ राजमहल की खुशियों को छोड़ कर के जंगल की तरफ चल देता है ?  रामचंद जी को यह बात पता चलती है उनकी स्थिति के बारे में रामचरित मानस में वर्णन किया है।

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

हनुमान जी सुषेण वैद्य को लेकर के आए। इसके उपरांत सुषेण वैद्य के सुझाव के अनुसार संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी पर्वत पर चल दिए। वहां से लौटने में हनुमान जी को विभिन्न बाधाओं की वजह से थोड़ी देर हो गई। इस समय आप तुलसी दास जी के शब्दों में श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनिए:-

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।

मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।

जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।

अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।

इसमें 2 पंक्तियाँ अद्भुत हैं । पहली यदि मैं जानता कि वन जाने में मैं अपने भाई को खो दूंगा तो मैं अपने पिताजी के वचन को नहीं मानता। दूसरा इस दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिलता है। यह भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा है।

वाल्मीकि रामायण में श्री राम जी लक्ष्मण जी के शक्ति लगने पर स्वयं को शक्तिहीन अनुभव करते हैं :-

शोणितार्द्रमिमन् वीरं प्राणैरिष्टतरं मम |

पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः ||

(वा रा/6/101/4)

अर्थात:- श्री राम कहते हैं – लक्ष्मण को रक्त से यूं सने देख कर मेरी युद्ध करने की उर्जा समाप्त हो रही है। लक्ष्मण मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं।

यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः |

अहमप्युपयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम् ||

 (वा रा/6/101/13)

अर्थात:- अगर लक्ष्मण को कुछ हो जाता है तो मैं भी उसी प्रकार मृत्यु के पथ पर अपने भाई लक्ष्मण के साथ चला जाऊंगा जैसे वह वन में मेरे पीछे – पीछे चले आए थे

जब लक्ष्मण जी संजीवनी बूटी से वापस मूर्छा से वापस लौट आते हैं तब श्री राम उनसे कहते हैं :-

न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा ||

को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते |

(वाल्मीकि रामायण/ युद्ध कांड/101/50)

अर्थात:- तुम्हें अगर कुछ हो जाता तो मेरे लिए फिर इस संसार में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, न तो मेरे जीवन का कोई उद्देश्य रह जाता, न सीता और न ही विजय मेरे लिए महत्वपूर्ण रह जाती

 मेघनाथ की मृत्यु श्री लक्ष्मण जी के हाथों हुई परंतु अपनी मृत्यु के पहले मेघनाद ने लक्ष्मण जी  को दो बार हराया था। पहली बार उसने श्री लक्ष्मण जी और श्री रामचंद्र जी को नागपाश में बांध दिया था।  दूसरी बार जब उसने लक्ष्मण जी को शक्ति के प्रहार से मूर्छित कर दिया था। दोनों ही अवसरों पर हनुमान ने अपने बल बुद्धि और श्री राम भक्ति के बल पर उन्हें निश्चित मृत्यु से बचाया था। इसके अलावा अहिरावण से भी श्री राम और श्री लक्ष्मण को हनुमान जी ने ही बचाया था।

अब यहां पर एक नया प्रश्न उठता है। श्री रामचंद्र जी चार भाई थे श्री राम जी, श्री भरत जी, श्री लक्ष्मण जी और श्री शत्रुघ्न जी। श्री रामचंद्र जी का  तीनों भाइयों से बहुत अधिक प्रेम था। तीनों भाइयों से बराबर प्रेम था। श्री राम जी किसी भी भाई से दूसरे भाई की तुलना में कम प्रेम नहीं करते थे। फिर यहां श्री रामचंद्र ने यह क्यों कहा है कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। ऐसा कहना तभी उचित है जब श्री राम जी श्री भरत जी से दूसरों भाई की भाइयों की तुलना में कम या ज्यादा प्रेम करते हों।

 मन्येऽहमागतोऽयेध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः |

मम प्राणात्र्पियतरः कुलधर्ममनुस्मरन् ||

(वा रा/2/97/9)

अर्थात:– हे लक्ष्मण, लगता है कि भरत अपने नानी घर से अपने भाइयों के प्रति प्रेम के वश में आकर अयोध्या लौट गए हैं। भरत तो मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं।

श्री राम यहां अपने भाइयों के प्रति प्रेम कि भावना को व्याकता करते हुए वाल्मीकि रामायण में यहां तक कहते हैं कि बिना भाइयों के उन्हें संसार की कोई भी खुशी नहीं चाहिए।

यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं चापि मानद |

भवेन्मम सुखं किंचिद्भस्म तत्कुरुतां शिखी ||

(वा रा/२/९७/८)

अर्थात:- हे लक्ष्मण यदि मुझे भरत, शत्रुघ्न और तुम्हारे बिना संसार की सारी खुशियां भी मिल जाएं तो वो अग्नि में राख हो जाएं, मुझे वो खुशियां नहीं चाहिएं।

अगर हम इस श्लोक पर गौर करें तो हम मानेंगे कि श्री रामचंद्र जी सभी भाइयों से बराबर प्रेम करते थे। और यह सत्य भी है। अगर यह सत्य है तो फिर उन्होंने हनुमान जी को भरत जी के बराबर प्रिय क्यों कहा।

निस्वार्थ प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम माना जाता है। प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आप जिसे प्रेम करते हैं वह आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। श्री रामचंद्र जी से उनके तीनों भाई अत्यंत प्रेम करते थे। श्री लक्ष्मण जी ने तो सब कुछ छोड़ कर श्री राम चंद्र जी के मना करने के उपरांत भी वन में उनके साथ 14 साल रहे।  श्री रामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने स्वयं कहा है कि आप मेरे सब कुछ है आपके बिना मैं रह नहीं सकता। अर्थात श्री लक्ष्मण जी के पास रामचंद्र जी के साथ रहने का उद्देश्य था। जिसकी वजह से उन्होंने रामचंद्र जी की बात न मान कर वनवास में उनके साथ रहे। श्री लक्ष्मण जी का श्री रामचंद्र जी के प्रति अत्यधिक प्रेम दर्शाता है।

श्री भरत जी भी श्री रामचंद्र जी से अत्यधिक प्रेम करते थे। वे भी श्री रामचंद्र जी के बगैर रह नहीं सकते थे। परंतु रामचंद्र जी के आदेश मात्र से वे उनके साथ नहीं गए। परंतु अयोध्या में भी निवास नहीं किया। अयोध्या के बाहर ही रहे। उसी प्रकार का जीवन जिया जैसा श्री राम चंद्र जी वन में व्यतीत कर रहे थे।  निश्चित रूप से भरत जी अगर श्री राम चन्द्र जी के साथ वन में रहते तो ज्यादा संतुष्ट रहते। उनके मन में तसल्ली रहती कि वे श्री रामचंद्र जी के साथ हैं। यहां पर आकर उनका प्रेम निस्वार्थ हो जाता है। इस प्रकार भरत जी का प्रेम अन्य भाइयों के प्रेम से ऊपर हो गया।

कुछ लोग इसका अलग तर्क देते हैं। इस संबंध में एक आख्यान प्रचलित है। यज्ञ के उपरांत महाराजा दशरथ को रानियों को देने के लिए जो खीर मिली थी उसके तीन भाग किए गए।  एक भाग महारानी कौशल्या को दिया गया और दूसरा महारानी कैकेई को प्राप्त हुआ। तीसरा भाग जो महारानी सुमित्रा को मिलना था उसको एक चील लेकर उड़ गई। और उड़ कर वह महारानी अंजना के पास पहुंची। चील को इस यात्रा में 6 दिन लगे। इस खीर को फिर महारानी अंजना ने खाया। खीर के मूल भागों को कौशल्या, कैकेयी और अंजनी ने खाया था। इसलिए राम, भरत और हनुमान समान भाई थे। महारानी सुमित्रा को अपनी खीर में से थोड़ा भाग महारानी कौशल्या ने दिया और थोड़ा भाग महारानी कैकेई ने। इस प्रकार महारानी सुमित्रा के पास दो हिस्सों में खीर पहुंची और महारानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। उनमें से श्री लक्ष्मण जी का स्नेह श्री रामचंद्र जी से ज्यादा रहा और श्री शत्रुघ्न जी का स्नेह श्री भरत जी से ज्यादा रहा। महारानी सुमित्रा ने मूल भाग के विभाजित भाग को खाया था -इसलिए लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनके अर्थात श्री रामचंद्र जी, श्री भरत जी और श्री हनुमान जी के  बराबर के नहीं थे। इस विचार से यह प्रगट होता है रामचंद्र जी हनुमान जी से कहना चाहते हैं कि मैं आप और श्री भरत खीर के मूल भाग से उत्पन्न हुए हैं।

प्रबुद्ध पाठकों यह स्पष्ट है कि उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसी दास जी ने कितना ज्ञान हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई में डाला है।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #170 ☆ अनुकरणीय सीख ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुकरणीय सीख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 170 ☆

☆ अनुकरणीय सीख

‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। इस बात को जितनी जल्दी मान लोगे, ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी’ अब्दुल कलाम जी की यह सीख अनुकरणीय है। आप अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि जैसे कर्म आप करते हैं, वैसा ही फल आपको प्राप्त होता है। सो! आपके कर्मों के लिए दोषी कोई अन्य कैसे हो सकता है? वैसे दोषारोपण करना मानव का स्वभाव होता है, क्योंकि दूसरों पर कीचड़ उछालना अत्यंत सरल होता है। दुर्भाग्य से हम यह भूल जाते हैं कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से उसके छींटे हमारे दामन को भी अवश्य मलिन कर देते हैं और जितनी जल्दी हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाती है। वास्तव में मानव ग़लतियों का पुतला है, परंतु वह दूसरों पर आरोप लगा कर सुक़ून पाना चाहता है, जो असंभव है।

‘विचारों को पढ़कर बदलाव नहीं आता; विचारों पर चलकर आता है।’ कोरा ज्ञान हमें जीने की राह नहीं दिखाता, बल्कि हमारी दशा ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ व ‘थोथा चना, बाजे घना’ जैसी हो जाती है। जब तक हमारे अंतर्मन में चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती; भटकाव निश्चित् है। इसलिए हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। यदि हम तुरंत निर्णय दे देते हैं, तो उलझनें व समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए कहा गया है ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ क्योंकि जिह्वा से निकले शब्द व कमान से निकला तीर कभी लौटकर नहीं आता। द्रौपदी का एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ महाभारत के युद्ध का कारण बना। वैसे शब्द व वाक्य जीवन की दिशा बदलने का कारण भी बनते हैं। तुलसीदास व कालिदास के जीवन में बदलाव उनकी पत्नी के एक वाक्य के कारण आया। ऐसे अनगिनत उदाहरण विश्व में उपलब्ध हैं। सो! मात्र अध्ययन करने से हमारे विचारों में बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें अपने जीवन में धारण करने पर उसकी दशा व दिशा बदल जाती है। इसलिए जीवन में जो भी अच्छा मिले, उसे अपना लें।

अनुमान ग़लत हो सकता है, अनुभव नहीं। यदि जीवन को क़ामयाब बनाना है, तो याद रखें – ‘पांव भले ही फिसल जाए, ज़ुबान को कभी ना फिसलने दें।’ अनुभव जीवन की सीख है और अनुमान मन की कल्पना। मन बहुत चंचल होता है। पल-भर में ख़्वाबों के महल सजा लेता है और अपनी इच्छानुसार मिटा डालता है। वह हमें बड़े-बड़े स्वप्न दिखाता है और हम उनके पीछे चल पड़ते हैं। वास्तव में हमें अनुभव से काम लेना चाहिए; भले ही वे दूसरों के ही क्यों न हों? वैसे बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव से सीख लेते हैं और सामान्य लोग अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परंतु मूर्ख लोग अपना घर जलाकर तमाशा देखते हैं। हमारे ग्रंथ व संत दोनों हमें जीवन को उन्नत करने की सीख देते और ग़लत राहों का अनुसरण करने से बचाते हैं। विवेकी पुरुष उन द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलकर अपना भाग्य बना लेते हैं, परंतु अन्य उनकी निंदा कर पाप के भागी बनते हैं। वैसे भी मानव अपने अनुभव से ही सीखता है। कबीरदास जी ने भी कानों-सुनी बात पर कभी विश्वास नहीं किया। वे आंखिन देखी पर विश्वास करते थे, क्योंकि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती और उसका पता हमें उसे परखने पर ही लगता है। हीरे की परख जौहरी को होती है। उसका मूल्य भी वही समझता है। चंदन का महत्व भी वही जानता है, जिसे उसकी पहचान होती है, अन्यथा उसे लकड़ी समझ जला दिया जाता है।

यदि नीयत साफ व मक़सद सही हो, तो यक़ीनन किसी न किसी रूप में ईश्वर आपकी सहायता अवश्य करते हैं, जिसके फलस्वरूप आपकी चिंताओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करते जाओ; आपका कभी भी बुरा नहीं होगा। यदि हमारी नीयत साफ है अर्थात् हम में दोग़लापन नहीं है; किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं है, तो वह हर विषम परिस्थिति में आपकी सहायता करता है। हमारा लक्ष्य सही होना चाहिए और हमें ग़लत ढंग से उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यदि हमारी सोच नकारात्मक होगी, तो हम कभी भी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाएंगे; अधर में लटके रह जाएंगे। इसके साथ एक अन्य बात की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमारे पाँव सदैव ज़मीन पर टिके रहने चाहिए। उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में अहं का भाव जाग्रत नहीं होगा, जो हमें सत्य की राह पर चलने को प्रेरित करेगा और भटकन की स्थिति से हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव हमें वस्तुस्थिति व व्यक्ति का सही आकलन नहीं करने देता, बल्कि हम दूसरों को स्वयं से हेय समझने लगते हैं। अहं दौलत का भी भी हो सकता है; पद-प्रतिष्ठा व ओहदे का भी हो सकता है। दोनों स्थितियाँ घातक होती हैं। वे मानव को सामान्य व कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं रहने देती। हम दूसरों पर आधिपत्य स्थापित कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं।यह अकाट्य सत्य है कि ‘पैसा बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं: अच्छे कपड़े दे सकता है, सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। सो! दौलत पर कभी भी ग़ुरूर नहीं करना चाहिए।’

अहंकार व संस्कार में फ़र्क होता है। अहंकार दूसरों को झुकाकर खुश होता है; संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। इसलिए बच्चों को सुसंस्कृत करने की सीख दी जाती है; जो परमात्मा में अटूट आस्था, विश्वास व निष्ठा रखने से आती है। तुलसीदास जी ने भी ‘तुलसी साथी विपद् के विद्या, विनय, विवेक’ का संदेश दिया है। जब भगवान हमें कठिनाई में छोड़ देते हैं, तो विश्वास रखें कि या तो वे तुम्हें गिरते हुए थाम लेंगे या तुम्हें उड़ना सिखा देंगे। प्रभु की लीला अपरंपार है, जिसे समझना अत्यंत कठिन है। परंतु इतना निश्चित है कि वह संसार में हमारा सबसे बड़ा हितैषी है। इंसान संसार में भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। परंतु वह अपने कृत-कर्म लेकर जाता है, जो भविष्य में उसके जीवन का मूलाधार बनते हैं। इसलिए रहीम जी कहते हैं कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’

सो! संसार में मन की शांति से बड़ी कोई संपत्ति नहीं है। महात्मा बुद्ध शांत मन की महिमा का गुणगान करते हैं। ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्कारियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ़ दिल से होता है।’ इसलिए मानव को ऐसे लोगों से सचेत व सावधान रहना चाहिए, जिनका ‘तन उजला और मन मैला’ होता है।’ ऐसे लोग कभी भी आपके मित्र व हितैषी नहीं हो सकते। वे किसी पल भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं। ‘भरोसा है तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं।’ इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न कीजिए; ज़िंदगी छोटी हो जाती है। ‘गुस्से के वक्त रुक जाना/ ग़लती के वक्त झुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद।’ हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ की तरह मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की कद्र करें; वे भाग्य से मिलते हैं। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि मानव स्वयं अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है और उस तथ्य को स्वीकारना ही बुद्धिमानी है, महानता है। सो! अपनी सोच, व्यवहार व विचार सकारात्मक रखें; वे ही आपके भाग्य-निर्माता व भाग्य-विधाता हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है  स्वर्गीय राजुरकर राज जी की स्मृति में यह आलेख  “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…”)

? आलेख – “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

15 फ़रवरी 2023 का दिन भोपाल के साहित्यकारों के लिए एक मायूसी भरा दिन रहा।  सुबह ही हर दिल अज़ीज़ राजुरकर राज के अवसान की खबर मिली। जो जहाँ था, उसने आँख मूँद कर हृदय विदारक खबर को ईश्वर का विधान समझ कर स्वीकार किया। फिर भी सहसा अहसास हुआ कि दुष्यंत संग्रहालय पहुँचेंगे तो बीमारी से त्रस्त देह पर एक मुस्कुराता चेहरा उनका स्वागत करेगा। वह आपको पता नहीं चलने देगा कि वह अंदर ही अंदर सिमट रहा है। संग्रहालय की योजनाओं को मूर्त रूप न देने पाने के जुनून में घुट रहा है। वह एक बहुत बड़े ख़्वाब के ताबीर के बहुत नज़दीक था। उसे भरोसा हो चला था कि शासन से ज़मीन का एक टुकड़ा मिल जाये तो संग्रहालय का ख़ुद का भवन भोपाल के ज़मीन पर खड़ा हो जाये। एक ऐसा तीर्थ स्थल बन जाये जहाँ भोपाल पहुँचने वाले हर कलाप्रेमी साहित्यकार की आँखें नम होकर पूर्वजों की धरोहर को नमन करें। नियति उसे चेतावनी देती थी। वो उसे कान पर भिनभिनाती मक्खी समझ एक हाथ से झटक देता और ख़्वाब को सच करने के बारे में योजना बनाने लगता। इसके पहले कि भोपाल में ज़मीन का टुकड़ा उसके ख़्वाब के ताबीर का सबब बने, वह ख़ुद ज़मींदोज़ हो गया।

हम सबके पास समय तो होता है लेकिन कोई लक्ष्य और उसे पूरा करने की ज़िद, जुनून और जोश नहीं होता जो राजुरकर के रोम-रोम में समाया था। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, महुआ हाउस में कार्यकारिणी की बैठक में उत्साह से भरा आदमी संग्रहालय की योजनाओं का न सिर्फ़ खाका खींच रहा था अपितु उन्हें साकार करने की ज़िद के वशीभूत निर्णयों की भूमिका तैयार कर रहा था।   

यह महत्वपूर्ण नहीं है की एक सपना पूरा हुआ या नहीं बल्कि यह मायने रखता है कि सपना देखना और उसे पूरा करने में पूरी सिद्दत से लगे रहना- यही राजुरकर राज था।

ख़्वाब देखना मनुष्य की मजबूरी है। उसे पूरा होने देना या बिसूर देना रब की जी हुज़ूरी है। लेकिन राजुरकर के ख़्वाब को पूरा करना हम सबको ज़रूरी है। वही उन्हें सच्ची श्रद्धांजली होगी। दुष्यंत और उनके सच्चे प्रेमी राजुरकर की यादों को संजोने का एक स्मृति स्थल साकार हो जाये। अशोक निर्मल, रामराव वामनकर और संग्रहालय की कार्यकारिणी सदस्यों पर यह महती ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। भोपाल ही नहीं भारत भर के साहित्य प्रेमी उनके ख़्वाब को भोपाल की सरज़मीं पर उतरते देखना चाहेंगे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में भले ही विगत दो दशक से बड़े-बड़े मॉल अपने जाल में जन साधारण को फँसाने के प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इनकी सफलता का पैमाना अभी भी बहुत पीछे चल रहा है। एक दशक से ऑनलाइन के बड़े खिलाड़ी भी अभी आरंभिक अवस्था में ही झूल रहे हैं।

हमारी प्राचीन दुकान/फुटकर प्रणाली की जड़े बहुत गहरी हैं। उनमें कमियां ज़रूर हैं, परंतु   परिवर्तन के साथ मूलभूत प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

यहाँ विदेश में सड़कों/गलियों में छोटी दुकानें या ठेले पर विक्रय करने के स्थान पर खुले स्थानों पर तीस/चालीस बड़े-बड़े और खुले स्थान में व्यवस्थित ढंग से बने हुए शोरूम के बाज़ार होते हैं। कम से कम सैकड़ों या हज़ार से भी अधिक कार पार्किंग का स्थान उपलब्ध होता है।

हर सामान बिल से विक्रय होता है, सबके भाव तय रहते हैं। हमारे देश में तो आधा जीवन मोल भाव में ही व्यर्थ हो जाता है। अंत में हमेशा ऐसा महसूस होता है कि अभी  भी महंगा क्रय कर लिया है। क्रेता और विक्रेता हमेशा दोनों एक दूसरे से ऊपर रहने के अनवरत प्रयास करते रहते हैं। गृहणियां सब्ज़ी वाले से मुफ्त धनिया प्राप्त करके प्रसन्नता महसूस करती हैं।

यहाँ बाज़ार से क्रय किए हुए समान को उस दुकान की किसी भी अन्य शाखा में वापस कर राशि प्राप्त हो जाती है।

ऐसी जानकारी भी मिली है, कि कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे देश के प्रवासी अपने यहाँ आए हुए मेहमानों को बाज़ार से लाकर ठंड से बचने के जैकेट इत्यादि को कुछ माह उपयोग में लाकर मेहमान के जानें के पश्चात दुकानदार को वापस कर देते थे। अब यहाँ एक/ दो सप्ताह में ही सामान वापस किया जा सकता है। लंबे समय से रह रहे प्रवासी इस बाबत ऐसी आदतों से गुरेज़ करते हैं। किसी भी व्यवस्था का गलत लाभ लेना हमेशा अनुचित रहता है। यहाँ के निवासी छोटे लाभ का लालच कभी भी नहीं करते है। नियम का पालन करना यहाँ के निवासियों की रगो में है।

इन सब मूलभूत बातों से ही तो यहाँ का जीवन सरल और सुगम बना रहता है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 6 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 6 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

भीम रूप धरि असुर संहारे।

रामचंद्र के काज संवारे।।

अर्थ:-

श्री हनुमान जी जब लंका पहुंचे थे तो देवी सीता के आगे वो बहुत छोटा रूप धारण करके गए थे। वहीं जब उन्होंने लंका-दहन किया तो विकराल  रूप धारण कर लिया। असुरों का संहार करते समय हनुमान जी ने भीम जैसा विशाल रूप धारण कर लिया श्री हनुमान ने अपने प्रभु श्री राम के काम को आसान बना दिया।

भावार्थ:-

हनुमान जी अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता हैं उनके पास आठों सिद्धियां है उनके पास इस प्रकार से सिद्धियाँ भी हैं कि वे अपने रूप को अत्यंत छोटा या अत्यंत बड़ा कर सकते हैं। हनुमान जी बगैर किसी बाधा के मां सीता के पास जाना चाहते थे। बगैर किसी बाधा के पहुंचने के लिए लोगों की नजरों से बचना आवश्यकता था। इसलिए माता सीता के पास जाते समय उन्होंने अपना रूप अत्यंत छोटा कर लिया था। रूप अत्यंत छोटा होने के कारण  अशोक वाटिका के वृक्ष में वे आराम से छुप गए थे। उसके उपरांत राक्षसों को मारने के लिए उन्होंने अपनी  सिद्धि से अपने आकार को बहुत बड़ा कर लिया। लंका को जलाने समय भी उन्होंने अपने पूंछ का आकार अत्यंत लंबा कर लिया था। यह सब उन्होंने श्री रामचंद्र जी के कार्यों को संपन्न करने के लिए किया था।

संदेश:-

इससे यह संदेश मिलता है कि व्यक्ति अगर शांत और सेवा के भाव रखता है तो उसे सीधा न समझें। अपने प्रियजनों के मंगल के लिए वह रौद्र रूप भी धारण कर सकता है। वह अपने तेज से विसंगतियों का नाश कर सकता है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने  से होने वाला लाभ :-

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्र के काज संवारे।।

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां महान संकट में या शत्रुपक्ष से घिरने पर चमत्कारिक कृपा दिलाती है। 

विवेचना:-

यह चौपाई कर्म योग का बहुत अच्छा उदाहरण है। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो। आसक्ति रहित होकर कर्म करो। महावीर हनुमान जी कर्म इसलिए करते हैं कि कर्म करना उन्हें अच्छा लगता है। हनुमान स्वामी की स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है। वे कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करते। हनुमान जी जो भी कर्म करते हैं उसके बदले में भी कुछ भी नहीं चाहते हैं।

इन दोनों चौपाइयों का मुख्य अर्थ यह है कि हनुमान जी ने हर तरह का प्रयास करके रामचंद्र जी के  कार्य को पूर्ण किया है। हनुमान जी को कार्य के प्रकार से कोई मतलब नहीं है। हनुमान जी सीधा यह जानते हैं रामचंद्र जी का जो भी कार्य है उसको संपन्न करना है। कार्य को संपन्न करने के लिए जो भी युक्त उनकी समझ में आती है वह उसका उपयोग करते हैं।

अगर हम आज के संदर्भ में देखें तो हनुमान जी उस सेना नायक की तरह से हैं जिसके पास सेना नायक की शक्ति के साथ-साथ मंत्री परिषद की भी शक्ति है। श्री रामचंद्र जी का आदेश हनुमान जी के लिए कार्य है। कभी-कभी कार्य को वे स्वयं भी निर्धारित करते हैं। फिर कार्य को किस प्रकार से करना है इसके लिए वह किसी की सलाह नहीं लेते हैं। अपने बुद्धि और विवेक से वे यह निश्चित करते हैं इस कार्य को करने के लिए क्या उचित होगा। जैसे कि रामचंद्र जी से आज्ञा पाने के उपरांत वे सीता जी की खोज में चल दिए। समुद्र को पार करके वे श्रीलंका में पहुंचे। वहां पर उन्होंने सबसे पहले श्रीलंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को दंड देकर अपने वश में किया और श्रीलंका में प्रवेश किया।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है।

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार।।

मसक समान रूप कपि धरी।

लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी।

सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।

मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

मुठिका एक महा कपि हनी।

रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

इतना सब होने के बाद लंकिनी के होश ठिकाने आए और उसने कहा :-

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।

गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

लंकिनी ने अब स्वयं हनुमान जी से कहा कि आप अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। रघुनाथ जी की जिस पर कृपा होती है उसके लिए विष भी अमृत हो जाता है। शत्रु मित्रता करने लगते हैं। समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाती है। अग्नि में शीतलता आ जाती है।

वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। वाल्मीकि जी ने कहा है कि:-

तत्प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम्।।

विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि।

प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर शुभां पुरीं राक्षसमुख्यपालिताम्।

यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम्।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/3/50-51)

लंकिनी ने हनुमान जी से कहा कि हे कपि श्रेष्ठ अब आप रावण द्वारा पारित इस पुरी में प्रवेश कर जो कुछ करना चाहते हैं करें और जानकी जी का पता करें।

श्रीलंका में जाकर श्रीलंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को मारने का निर्णय हनुमान जी का ही था। इसका उनको उचित फल प्राप्त हुआ।

हनुमान जी ने विराट रूप कई बार धारण किया है। सूक्ष्म रूप भी आवश्यकता पड़ने पर धारण किया है। जैसे कि श्रीलंका में घुसते समय उन्होंने अपना रूप छोटा कर लिया था। तुलसी दास जी लिखते हैं :-

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥३॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

इसी प्रकार सीता जी को देखने के लिए पेड़ पर बैठने के समय हनुमान जी ने अपना रूप छोटा कर लिया था। इस घटना को गोस्वामी तुलसी दास जी ने और वाल्मीकि जी ने दोनों ने अपने-अपने ढंग से लिखा है। वाल्मीकि जी ने लिखा है कि :-

संक्षिप्तोऽयं मयाऽत्मा च रामार्थे रावणस्य च।

सिद्धिं मे संविधास्यन्ति देवाः सर्षिगणास्त्विह।।

(बाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/13/64)

अर्थात  श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए और रावण की दृष्टि से अपने को बचाने के लिए मैंने अपने शरीर को छोटा कर लिया है। इस समय देव गण और ऋषि गण मेरा अभीष्ट अवश्य पूरा करें।

इसी प्रकार जब सीता जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह छोटे-छोटे वानर राक्षसों का क्या बिगाड़ पाएंगे उस समय वानर राज में अपनी आकृति को बढ़ाया था और सीता जी को विश्वास दिलाया था। राक्षसों का संहार भी अपनी आकृति को बढ़ाकर कई बार किया है। रामचरितमानस में लिखा है कि हनुमान जी ने कहा कि :-

 निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

राक्षसों को मारकर आपको ले जाएंगे। तब राम चन्द्रजी का यह सुयश तीनों लोकों में नारद आदि मुनि गाएँगे।

इस बात को सुनने के बाद सीता जी को संशय हुआ कि क्या ये छोटे वानर बड़े बलवान राक्षसों का वध कर पाएंगे। सीता जी ने यह भी बताया कि उनके मन में इस बात को लेकर बहुत संदेह है। माता जानकी से ऐसा वचन सुनकर हनुमान जी ने अपने  शरीर को सोने के पर्वत के समान बड़ा किया। जिसको देखने के बाद माता जानकी को विश्वास हुआ कि वानर सेना, राक्षस सेना को परास्त कर सकती है। इसके बाद फिर से हनुमान जी ने अपने शरीर को छोटा कर लिया।

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।

जातुधान अति भट बलवाना॥

मोरें हृदय परम संदेहा।

सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकार सरीरा।

समर भयंकर अतिबल बीरा॥

सीता मन भरोस तब भयऊ।

पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

आज बहुत जन यह कह सकते हैं कि शरीर को अपनी इच्छा के अनुसार बड़ा या छोटा करना किसी के बस में नहीं है। शास्त्रों के अनुसार शरीर को छोटे करने की विद्या को अणिमा  और बड़े करने की विद्या को महिमा कहते हैं।

स्वयं को सूक्ष्म कर लेने की क्षमता को ही अणिमा सिद्धि कहा जाता है। यह ऐसी सिद्धि है, जिससे युक्त होकर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धारण करके एक अणु के रूप में भी परिवर्तित हो सकता है। अणु की शक्ति से संपन्न होकर साधक उस परम शक्ति से साक्षात्कार कर लेता है।

स्वयं को बड़े कर लेने की क्षमता को महिमा सिद्धि कहां जाता है। इसका अर्थ होता है, अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक इतना क्षमतावान हो जाता है कि वह प्रकृति का भी विस्तार कर सकता है।

इसके अलावा 6 शक्तियां और भी हैं। जिनमें पहली सिद्धि का नाम है “गरिमा” सिद्धि। इस सिद्धि का अर्थ भार या अडिग होने से है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति स्वयं के भार को इतना बढ़ा सकता है कि कोई भी उसे हिला नहीं पाता। ठीक वैसे, जैसे हनुमान जी की पूछ को भीम जैसा बलशाली योद्धा हिला तक नहीं पाया था।

दूसरी सिद्धि का नाम “लघिमा” है। किसी भी तरह के भार से स्वयं को मुक्त कर हल्का बना लेने की क्षमता लघिमा कहलाती है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक स्वयं को भारहीन अनुभव करते हैं। इस सिद्धि की प्राप्ति का प्रभाव यह होता है कि साधक संपूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान किसी भी वस्तु के पास जा सकता है और यदि इच्छा हो तो उसमें परिवर्तन की क्षमता भी रखता है।

तीसरी सिद्धि “प्राप्ति” सिद्धि कहलाती है। जैसा कि इस सिद्धि के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी प्राप्ति हो जाने के बाद व्यक्ति जो चाहे अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर सकता है। असंभव को संभव बना लेने की क्षमता “प्राप्ति सिद्धि” प्रदान करती है

 चौथी सिद्धि “प्राकाम्य सिद्धि” कहलाती है। प्राकाम्य का अर्थ होता है किसी भी रूप को धारण कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक अपनी इच्छानुसार, जब चाहे किसी भी रूप को धारण कर सकता है। वह आसमान में उड़ सकता है और पानी पर चल सकता है। पानी पर चलने के चलने के उदाहरण करीब 200 साल पुरानी पुस्तकों में मिलते हैं।

पांचवी सिद्धि “इशिता सिद्धि” कहलाती है। ईशिता का अर्थ होता है महारथ। अर्थात किसी भी कार्य पर नियंत्रण स्थापित हो जाए, इस क्षमता के साथ उसे करना। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति आसानी से किसी भी वस्तु और साम्राज्य पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।

छठी सिद्धि “वशित्व सिद्धि” कहलाती है। वशित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं।

यह 6 सिद्धियां तथा पहले बताई गई दो सिद्धियां मिलकर अष्ट सिद्धियां  बनती है। हनुमान जी को अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता भी कहा गया है। अष्ट सिद्धियों के बारे में कहा गया है :-

अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।

प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने सीता माता के सामने अपना छोटा रूप दिखाया था इसके दो अलग-अलग मतलब है पहला तात्पर्य है कि जीव कितना भी बड़ा हो परंतु अपने माता के सामने उसे छोटा ही बन के रहना चाहिए।

सूक्ष्म होने का होने का दूसरा तात्पर्य है अपने अहम को त्याग कर अपने आप को अति सूक्ष्म मानना। मगर ऐसा संभव कैसे हैं। यह तभी संभव है जब जीव यह मान ले कि यह कार्य ईश्वर का है। इसे ईश्वर ही कर रहा है। भगवान ने तो मुझे साधन मात्र बनाया है।   हनुमान जी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये। अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंका पुरी को जला दिया। इस पूरे कार्य को करने के उपरांत  हनुमान जी और वानर सेना लौटकर श्री राम जी के पास पहुंचे।  श्री राम जी ने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा कि तुमने यह कार्य किस तरह से किया।:-

कहु कपि रावन पालित लंका।

के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

 (रामचरितमानस /सुंदरकांड/32/2-1/2)

राम ने पूछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बाँके किले तुमने किस तरह जलाया।

भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निरभिमान सेवक हनुमान जी को कैसे अच्छी लगती? इस प्रकार की प्रशंसा हनुमान जी को छोड़कर किसी भी अन्य को अहंकार से भर सकती है। हनुमान जी का उत्तर बिल्कुल अलग था। अत: हनुमान जी ने उत्तर दिया:-

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/32-5)

हनुमान जी नम्र होकर कहते है प्रभो इसमें मेरी कुछ भी बढ़ाई नहीं है। यह सब आपका ही प्रताप है।

हनुमान जी फिर आगे कहते हैं:-

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं  जा पर तुम्ह अनुकूल

तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/33)

हे प्रभो! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलने वाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है। (अर्थात असंभव भी सम्भव हो सकता है।)

इस प्रकार इस प्रकार हनुमान जी ने अपनी अणिमा सिद्धि से  शारीरिक रूप से अपने  को सूक्ष्म किया। इसी प्रकार से अहंकार रहित होकर मानसिक रूप से भी अपने को  सीता माता के सामने विनम्र किया।

अगली चौपाई है :-

“भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचंद्र के काज संवारे॥”

यहां पर भीम शब्द का अर्थ है बहुत बड़ा,भयंकर, भीषण, या डराने वाला।

रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए हनुमान जी ने बहुत बड़ा होना और बलशाली होना आवश्यकता था। दुश्मनों के सामने भी अपने आप को बलशाली सिद्ध करना आवश्यक होता है। व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से बलशाली होना पड़ेगा। शारीरिक रूप से बलशाली दिखने के लिए आवश्यक है कि आपका शरीर भी ताकतवर और विशाल दिखाई दे। हनुमान जी ने अशोक वाटिका में राक्षसों का संहार करते समय “महिमा सिद्धि” का उपयोग कर अपने आप को बड़ा किया। उसके बाद भी अशोक वाटिका के फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। रखवाले राक्षस जो आए उनकी पिटाई करने लगे। इस मारपीट में बहुत से राक्षस मरने लगे। इस दृश्य का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस के सुंदर कांड में बहुत सुंदर ढंग से  किया है:-

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

अर्थ — मां सीताजी से अनुमति पाने के उपरांत हनुमान जी ने उनको प्रणाम किया। फिर उन्होंने अशोक वाटिका में प्रवेश किया। यहां पर वे फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां पर वाटिका की रक्षा के लिए बहुत सारे बलवान राक्षस नियुक्त थे। उनको भी वह मारने लगे। इन राक्षसों में से कुछ मर गए और कुछ रावण के पास पहुंचे।

रावण के पास पहुंचकर राक्षसों ने अपनी तकलीफ व्यक्त की:-

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥

खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

अर्थ — हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है। उसने अशोक वाटिका को उजाड़ दिया है। उसने फल-फल तो सारे खा लिए है, और वृक्षों को उखाड़ दिया है। उसने रखवाले राक्षसों को पटक–पटक कर मार गिराया है।

इस प्रकार हनुमान जी ने अपना पौरुष  राक्षसों को दिखाया। इसके बाद राक्षसों ने जाकर हनुमान जी के बल के बारे में  रावण को बताया। इसके उपरांत रावण ने कई बलशाली राक्षसों को भेजा परंतु हनुमान जी ने सभी को मार दिया। अंत में मेघनाद आया और वह भी हनुमान जी से बहुत चोट खा गया हम तुम्हें उसने हनुमान जी के ऊपर ब्रह्मास्त्र से  प्रहार किया। आगे की घटना राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण में अलग-अलग है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार को बर्दाश्त कर लिया तथा ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया। परंतु चतुराई पूर्वक हनुमान जी भागे नहीं।। वे रावण से अपनी बातों को कहना चाहते थे। इसलिए बंधन मुक्त होने के बाद भी वे वहां पर खड़े रहे। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड के 48वें सर्ग 47वें और 51वें श्लोक में इसका वर्णन किया गया है :-

स रोचयामास परैश्च बन्धनं प्रसह्य वीरैरभिनिग्रहं च।

कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/48/47)

अर्थ:- इस प्रकार हनुमान जी ने अपना बांधा जाना, शत्रुओं के अपशब्द सुनना, उनके बस में होना आदि पसंद किया। क्योंकि वे चाहते थे कि रावण उन्हें कौतूहल वश बुलाए। इस प्रकार उसके साथ बातचीत हो सके।

अस्त्रेण हनुमान्मुक्तो नात्मानमवबुध्यत।

कृष्यमाणस्तु रक्षोभि स्तौश्च बन्धैर्निपीडितः।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/48/51)

अर्थ:- हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के बंधन से मुक्त होकर भी कुछ नहीं किया। राक्षस लोग उनको खींच रहे थे और पीड़ा पहुंचा रहे थे।

मानसिक रूप से बलवान होने का परिचय उन्होंने मां सीता को हनुमान रामचंद्र जी की  सीता जी के बारे में चिंता को बता कर उनके दुख को कम किया। इस प्रकार उन्होंने रामचंद्र जी के एक बड़े कार्य को किया।

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।

कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

भावार्थ — हनुमान जी ने सीताजी से कहा कि हे माता! रामचन्द्र जी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो। रामचन्द्र जी ने कहा है कि तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी बातें विपरीत हो गयी हैं। नवीन कोपलें तो मानो अग्नि रूप हो गए हैं, रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है। चन्द्रमा सूरज के समान दिख पड़ता है।

जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया था परंतु राम चरित मानस में यह कहा गया है कि उन्होंने जान बूझकर ब्रह्मास्त्र में बंधे रहना पसंद किया।

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।

भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा।

प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

भावार्थ — महादेव जी कहते हैं कि हे पार्वती! सुनो, जिनके नाम का जप करने से ज्ञानी लोग भव बंधन को काट देते हैं। उस प्रभु का दूत (हनुमान जी) भला बंधन में कैसे आ सकता है? परंतु अपने प्रभु के कार्य के लिए हनुमान ने अपने को बंधा दिया।

इस प्रकार हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए अपने आप को हर तरह से सक्षम किया। अपनी पूरी सिद्धियों का उपयोग किया। इस प्रकार उन्होंने रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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