हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 32 ☆ मख्खी नहीं मधुमख्खी बने ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “मख्खी नहीं मधुमख्खी बने”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 32 – मख्खी नहीं मधुमख्खी बने ☆

जन्मोत्सव की पार्टी चल रही थी, पर उनकी निगाहें किसी विशेष को ढूंढ रहीं थीं,  कि तभी वहाँ  एक  पत्रिका के संपादक आये और  उनके चरण स्पर्श कर कहने लगे  – चाचा जी जन्मदिवस की शुभकामनाएँ …..

“ओजरी भर विभा, वर्ष भर हर्ष मन,

शांति,सुख, कल्पना,आस्था, आचमन।

जन्मदिन की पुनः असीम शुभकामनाएँ…

उन्होंने कहा, “अब अच्छा लगा,  कितनी भी खुशी मिले, उपहार मिलें सब  अधूरे  लगते  हैं,  जब तक बच्चों  द्वारा खुशी न मिले।

बहुत बढ़िया पंक्तियाँ……   चाचा जी ने सिर पर हाथ रखते हुए शुभाशीष दिया।

इसी पार्टी में प्रमोशन सबंधी विवाद की चर्चा भी चल रही थी। जहाँ दो गुट आपस में भिड़े हुए थे।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए  उन्होंने कहा,  जिस तरह माह में दो पक्ष होते हैं, सिक्के में  दो पहलू होते हैं, विचारों में दो विचार होते हैं,मतों में दो मत होते हैं, ठीक  वैसे ही जब कोई शुभ आयोजन अच्छे से निपटता हुआ दिखे तो अवश्य ही कहीं न कहीं से अशुभ रूपी विघ्न आ धमकता है। पर  हम तो ठहरे मोटिवेशनल लेखक सो ये तय है कि बस सकारात्मक पहलू ही देखना है, चाहे  स्थिति कुछ भी हो।

तभी उनके संपादक भतीजे ने चुटकी लेते हुए कहा –

यहाँ एक बात और याद आती है कि  अक्सर  विवाद के बाद  ही फ़िल्म रिकार्ड तोड़ कमाई करती है, अब ये  उत्सव भी करेगा, बस सही योजना बने, जिससे नियमित कार्य शुरू हो और इस जन्मोत्सव के प्रायोजक का खर्चा – पानी भी निकल सके।

प्रायोजक महोदय ने गहरी साँस भरते हुए, गंभीर स्वर में कहा ” समयाभाव के कारण जितना कार्य किया है, वही रूप रेखा बना दी है,  अब आप लोग सुझाएँ। आप तो गुरुदेव हैं, सबसे ज्यादा समझदार होना चाहिए आपको।”

उनका एक सहयोगी कहने लगा “चरणों तक पहुँच गया हूँ, माफी माँगने,अब क्या करूँ ?”

एक सदस्य रोनी सी सूरत लिए कहने लगा ” बेटा बन जाइये, बेटे की हर ग़लती माफ़ रहती है।”

पागलपन की हद हो गई मक्खी नहीं मधुमक्खी बनिए,अभी भी समय है सुधर जाएँ संपादक महोदय ने कहा।

तभी  उन्होंने ने  ज्ञान बाँट  दिया समस्याओं से लड़ना चाहिए, शिखर पर पहुँचने में बहुत ठोकरें लगेंगी पर हार नहीं मानना चाहिए, संपादक को तो बिल्कुल नहीं  पत्रिका सही थी, है और रहेगी। शुरुआत में तो सबको आलोचना सहनी  पड़ती है  बाद में प्रतिष्ठित होते ही जो लिखो वही सत्य बन जाता है, बस उस मुकाम तक  पहुँचने की देर होती है।

वहाँ उपस्थित एक अधिकारी ने  कहा “प्रभु आप तो साक्षात परमहंस की श्रेणी में आ गये, आप अवतारी हैं, कोई साधारण मानव  नहीं ,अब कोई दुविधा नहीं जैसा  चाहें वैसा  निर्णय  लें मैं  तो सदैव  अनुगामी हूँ।

चलो भाई इस  निरर्थक वार्तालाप को विराम दें अब लंच का समय हो गया है, जन्मोत्सव का आनन्द उठाते हुए जम के  रसगुल्ले और केक खाते हैं, पनीर टिक्का का नाम सुनते ही पानी आ जाता है, सभी हहहहहहह……. करते हुए  खाने की टेबल की ओर चल दिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61 ☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक समसामयिक व्यंग्य एक रुपैया बारह आना। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61

☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ 

जब से महाकोर्ट में एक रुपए जुर्माना हुआ,तब से एक रुपए इतना भाव खा रहा है कि उसके भाव ही नहीं मिलते। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको पढ़ने में आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था। ” एक रुपैया बारह आना,”

तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना 56 इंच का हुआ, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक देता है।

बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है एक रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता, क्योंकि इसमें गवर्नर के हस्ताक्षर नहीं होते। शादी विवाह के मौके पर एकरुपए की गड्डी ब्लैक में बिकती थी तो डालर को बड़ा बुरा लगता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है ,इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

एक रुपए का जुर्माना भरने वाला बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है। अब जब छै साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और चीन चाहे जब दम दे रहा है।

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 63 ☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर व्यंग्य  ‘सेतु का निर्माण फिर फि’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से हाल ही में टूटे हुए पुलों के निर्माण के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 63 ☆

☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर

आठ साल में दो सौ साठ करोड़ की लागत से बना पुल उद्घाटन के उन्तीसवें दिन काल-कवलित हो गया. एक दो दिन हल्ला-गुल्ला मचा, फिर सब अपने अपने काम में लग गये. कारण? सबको पता है कि आजकल पुल गिरने के लिए ही बनते हैं. कोई लाल किला थोड़इ है जो चार सौ साल तक खड़ा रहे, या कुतुबमीनार जो सात सौ साल तक हमें मुँह चिढ़ाती रहे. अंग्रेजों के ज़माने के भी कई पुल सैकड़ों साल से बेशर्मी से खड़े हैं. हमारा पुल एक महीना चल गया, यह क्या कम फ़ख्र की बात है? कोई जन-हानि तो नहीं हुई न? इसके पहले भागलपुर का पुल तो उद्घाटन से पहले ही दम तोड़ गया था. पुराने ज़माने की टेक्नोलॉजी पिछड़ी थी, हमारी टेक्नोलॉजी एडवांस्ड है. इसीलिए ये उपलब्धियाँ हैं. लोग कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी भ्रष्टाचार था, तो ये पुरानी इमारतें गिरती क्यों नहीं हैं भाई? हमारे कर-कमलों से निर्मित पुल ही क्यों छुई-मुई बने हुए हैं?

पुल का मुआयना करने के लिए मंत्री जी आये हैं. पेशानी पर शिकन नहीं, उन्नत माथा, तना हुआ वक्ष. उन्हें देखकर वहाँ इकट्ठी भीड़ में से कुछ शिकायत की आवाज़ें उठती हैं. मंत्री जी एक मिनट सुनते हैं, फिर हाथ ऊपर उठाते हैं. उधर सन्नाटा हो जाता है. मंत्री जी किंचित क्रोध से कहते हैं, ‘कौन अफवाह उड़ाता है कि पुल टूट गया है? वो सामने पूरा पुल खड़ा है कि नहीं? अलबत्ता ‘अप्रोच रोड’ टूट गया है तो क्या कीजिएगा? जब हजारों क्यूसेक पानी आएगा तो रोड कैसे टिकेगा? पुल और अप्रोच रोड एक ही होता है क्या?’

आगे कहते हैं, ‘रोड टूटने से हम भी दुखी हैं, लेकिन प्राकृतिक विपदा को तो झेलना ही पड़ेगा न. ये पुल बनाने वाली कंपनी के इंजीनियर खड़े हैं. बेचारे कितने दुखी हैं. कंपनी की रेपुटेशन का सवाल है. ब्लैकलिस्ट होने का डर है.

लेकिन जो लोग कहते हैं कि ढाई सौ करोड़ पानी में चला गया वे झूठे हैं. अरे भई, आठ साल काम चला तो पैसा मज़दूर को मिला, ठेकेदार इंजीनियर को मिला, ईंट पत्थर सीमेंट लोहा सप्लाई करने वालों को मिला. पानी में कैसे गया?थोड़ा सा गड़बड़ हो गया तो सुधार दिया जाएगा. जब आठ साल पुल के बिना काम चल गया तो महीना दो महीना में कौन सी मुसीबत टूटने वाली है?’

थोड़ा रुककर मंत्री जी कहते हैं, ‘आप लोग थोड़ा समझिए. सौ साल पुराने जमाने में मत रहिए.  यह ‘यूज़ एंड थ्रो’ का जमाना है. पुरानी चीज को खतम कीजिए, नयी बनाइए.  एक ही चीज से मत चिपके रहिए. तभी तरक्की होगा. पुल  टूट गया तो टूट जाने दीजिए. हम दूसरा पुल बनाएंगे. और लोगों को रोजगार मिलेगा, और चीजें बिकेंगी. यही विकास का रास्ता है. किसी के बहकावे में मत आइए. ‘

मंत्री जी अन्त में कहते हैं, ‘मैंने कॉलेज के दिनों में एक कविता पढ़ी थी ‘नीड़ का निर्माण फिर फिर’. उसकी एक पंक्ति है ‘नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख’. इसलिए हम अपने दुख के बावजूद निर्माण के मिशन से पीछे नहीं हटेंगे. आप अपना हौसला और हममें भरोसा बनाये रहिए. जय हिन्द. भारत माता की जय. ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 31 ☆ अभिमान की डिजिटल गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “अभिमान की डिजिटल गाथा यह रचना एडमिन द्वारा संचालित सोशल साइट्स के कार्यप्रणाली और सदस्यों के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 31 – अभिमान की डिजिटल गाथा ☆

भाव बढ़ने के साथ; प्रभाव का बढ़ना तय ही समझ लीजिए। जीवन में भले ही अभावों का दौर चल रहा हो किन्तु स्वभाव तो ऐसा रखेंगे; जिससे दुर्भाव ही उत्पन्न होता हो। क्या किया जाए ये अभिमान चीज ही ऐसी है कि जिसे हुआ समझो वो अपने साथ- साथ सबको ले डूबता है। घमंड का साथ हो और छप्पर फाड़ कर जब अनायास कुछ मिलने लगता है, तो बहुत सारे प्रतिद्वंद्वी भी तैयार हो जाते हैं। ऐसी ही कुछ कहानी डिजिटल समूहों के एडमिन की भी होती है।

जरा – जरा सी बात पर हाय तौबा करना, पूरे पटल को सिर पर उठा लेना। नए- नए नियमों को बनाना फिर लागू करवाना। अरे भई संख्या बल यहाँ भी आ टपकता है। जब अपनी पकड़ मजबूत हो तो जिसे जो जी चाहे कहते रहो, पूरे सदस्य का भरा- पूरा डिजिटल परिवार है। कुछ लोग रूठ कर चले भी जाएँ, तो क्या फर्क पड़ता है। जहाँ भी जायेंगे यही राम कहानी गायेंगे, इससे मुफ्त का प्रचार होगा। कि फलाँ ग्रुप बहुत अहंकारी है, नए नियमों की तो रोज ही बौछार करता है। और  जितनी भी बुराई हो सकती है, कर देंगे।

पर मजे की बात तो ये है, कि व्यक्ति वहीं आकर्षित होता है, जहाँ पूछ- परख कम होती हो। कुछ नया सीखने को मिलता हो। जब तक नयापन हो तभी तक लगाव जायज रहता है,जैसे ही वहाँ पहचान बढ़ी, तो  अड़ंगेबाज लोग अपनी असलियत पर उतर ही आते हैं और सुझावों का दौर शुरू कर देते हैं।

अरे भई जोड़- तोड़,और सलाह  देने में तो हम सबकी मास्टरी है, बस आवश्यकता उन लोगों की है जो नियमों का पालन करें।

ऐसे लोगों की खोजबीन में सारे एडमिन लगे रहते हैं, जैसे ही कोई जुझारू व्यक्ति मिला, बस उसकी धरपकड़  शुरू हो गयी। मीठी भाषा से रिझा कर कार्य करवाना व सम्मानित करना तो अभिमान की पहली सीढ़ी है। बस समझो सफल शुरुआत हो गयी। बदलाव करते रहिए, बढ़ते रहिए।

कुछ न कुछ करते रहने वालों का सम्मान तो बनता है, भले ही अभिमान क्यों न सिर पर चढ़ने लगे। धीरे- धीरे कब ये सारे चरण पार कर सुप्रीमों की श्रेणी में आ बैठता है, पता ही नहीं चलता। हद तो तब होती है जब ये एडमिन को ही अपना असली रूप दिखाने लगता है। बस फिर क्या एक झटके में रिमूव रूपी तलवार से काम तमाम।

अभिमान और अहंकार तो किसी के नहीं टिकते तो इन सामान्य डिजिटल सदस्यों के कैसे बचेंगे,इसी पर चिंतन – मनन जारी है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 60 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – दोस्तोवस्की और  मुक्तिबोध ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 60

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – दोस्तोवस्की और  मुक्तिबोध ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपका व्यक्तिगत जीवन प्रारंभ से ही नाना प्रकार के हादसों और ट्रेजिक स्थितियों से घिरा होने के कारण बहुत संघर्षपूर्ण ,अनिश्चित व असुरक्षित रहा है। इस प्रकार का जीवन जीने वाले व्यक्ति के लेखन का स्वाभाविक मार्ग, सामान्य तौर पर दास्तोएव्सकी और मुक्तिबोध का मार्ग होना चाहिए, जबकि व्यक्तिगत जीवन के ठीक विपरीत आपके लेखन में अगाध आत्मविश्वास यहां तक कि विकट विजेता भाव के दर्शन होते हैं। दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध की तरह आप जीवन के डेविल फोर्सेस का आतंक नहीं रचते,वरन् इनका विद्रूपीकरण करते हैं, इनका मजाक उड़ाते हैं, इन्हें हास्यास्पद बनाते हुए इनकी दुष्टता व क्षुद्रता पर प्रहार करते हैं। कहने का आशय यह है कि अंतहीन आतंककारी स्थितियों, परिस्थितियों के बीच लगातार बने रहते हुए आपने जिस तरह का लेखन किया है उसमें उस असुरक्षा भाव की अनुपस्थिति है जो दोस्तोवस्की एवं  मुक्तिबोध के लेखन की केन्द्रीय विशेषताओं में से एक है। इस दिलचस्प  “कान्ट्रास्ट” पर क्या आपने स्वयं भी कभी विचार किया है ?

हरिशंकर परसाई –

देखिए..एक तो ये है कि दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध में भेद करना चाहिए।यह सही है कि दोस्तोवस्की ने रूसी समाज एवं रूसी मनुष्य के दिमाग के अंधेरे से अंधेरे कोने को खोजा है और उस अंधेरेपन को उन्होंने चित्रित किया है तथा बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। क्रूरता, गरीबी, असहायता, कपट और छल आदि जो रूसी समाज की बुराईयां हैं वे सब की सब दोस्तोवस्की के लेखन में हैं। टालस्टाय ने इन्हें ईवीजीनियस कहा है।अब उनके पास इन सब स्थितियों को स्वीकारने के सिवाय,उन पर दुखी होने के सिवाय और लोगों का कुछ भला करने की इच्छा के सिवाय कोई और उनके पास आशा नहीं है और न उनके पास मार्ग है। एक तो वे स्वयं बीमार थे, मिर्गी के दौरे उनको आते थे, जुआ खेलने का भी शौक था, उनके बड़े भाई को फांसी हो गई थी, जारशाही ने फांसी दे दी थी।वे खुद दास्वासेलिया में रहे थे। कष्ट उन्होंने बहुत सहे लेकिन उनके सामने कोई रास्ता नहीं था। जैसे उनके उपन्यास ‘इडियट’ मेंं जो प्रिंस मुस्की है वो सबके प्रति दयालु है और सबकी सहायता करना चाहता है,सबका भला करना चाहता है,जो भी दुखी है पर किसी का भला नहीं कर सकता,उस सोसायटी में भला नहीं कर सका। विश्वास उनके क्या थे ? वास्तव में उनके पास पीड़ा थी, दर्द था,वे अपने समाज की सारी बुराईयों को,अनीतियों को समझते थे, लेकिन विश्वास नहीं था उनके पास। और दूसरा यह कि कर्म नहीं था, और संघर्ष नहीं था। उनके पात्र स्थितियों को स्वीकार कर लेते हैं, कर्म और संघर्ष नहीं करते। एकमात्र उनका संबल जो था वह कैथोलिक विश्वास था, तो मोमबत्ती जलाकर ईश्वर की प्रार्थना कर ली, ये नियतिवाद हुआ,भाग्यवाद हुआ, संघर्ष कदापि नहीं हुआ।

मुक्तिबोध की चेतना में अपने युग में सभ्यता का जो संकट था उसकी समझ बहुत गहरी थी, एक पूरी मनुष्य जाति की सभ्यता के संकट को वे समझते थे। उससे दुखी भी वे थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अंधेरे का चित्रण किया है, ये सही है उन्होंने विकट परिस्थितियों का चित्रण किया है, उन्होंने टूटे हुए लोगों का चित्रण किया है, और पीड़ित लोगों एवं पीडिकों का भी चित्रण किया है, लेकिन इसके साथ साथ मुक्तिबोध में आशा है और वे विश्वास करते हैं कि कर्म से, संघर्ष से ये हालात बदलेंगे।इस विश्वास का कारण क्या है ?  इस विश्वास का कारण है उनका एक ऐसे दर्शन में विश्वास, जो कि मनुष्य के जीवन को सुधारने के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाता है।

दोस्तोवस्की के पास ऐसा दर्शन नहीं था। कैथोलिक फेथ में तो भाग्यवाद होता है,कर्म नहीं होता, इसीलिए उन्होंने जगह जगह जहां बहुत गहरा अंधेरा चित्रित किया है, मुक्तिबोध ने कहीं न कहीं एक आशा की किरण प्रगट कर दी है।

इस तरह उनके काव्य में संघर्ष, आशा और समाज पलटेगा, स्थितियां बदलेंगी ये विश्वास मुक्तिबोध के अन्दर है,इस कारण दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध में फर्क है क्योंकि दोस्तोवस्की ने पतनशीलता स्वीकार कर ली है और मुक्तिबोध ने उस अंधेरे को स्वीकार नहीं किया है, ये माना है कि ये कुछ समय का है और इतिहास का एक फेस है यह तथा संघर्षशील शक्तियां लगी हुई हैं जो कि इसको संघर्ष करके पलट देंगी,बदल देंगी,ऐसी आशा मुक्तिबोध के अन्दर है। जहां तक मेरा सवाल है मैंने दोस्तोवस्की को भी बहुत ध्यान से लगभग सभी पढ़ा है, मुक्तिबोध को भी पढ़ा है। मेरे विश्वास भी लगभग मुक्तिबोध सरीखे ही हैं, इसमें कोई शक नहीं है, इसीलिए निराशा या कर्महीनता मेरे दिमाग में नहीं है, मैंने एक तो क्या किया कि अपने को अपने दुखों से, अपने संघर्षों से, अपनी सुरक्षा से, अपने भय से, लिखते समय अपने आपको मुक्त कर लिया और फिर मैंने यह तय किया कि ये सब स्थितियां जो हैं, इनका विद्रूप करना चाहिए, इनका उपहास उड़ाना चाहिए, उनसे दब नहीं जाना चाहिए, तो मैं उनसे दबा नहीं। मैंने व्यंग्य से उनके बखिया उधेड़े, उनका मखौल उड़ाया, चोट की उन पर गहरी। इसमें मेरा उद्देश्य यह था कि समाज अपने को समझ ले कि हमारे भीतर ये ये कुछ हो रहा है। इसमें मेरा उद्देश्य ये रहा है कि समाज आत्म साक्षात्कार करे, अपनी ही तस्वीर देखे और उन शक्तियों को देखे, उन काली शक्तियों को समझे जिन काली शक्तियों को मैंने विद्रूप किया है, उन पर व्यंग्य किया है और जिन पर सामयिक मखौल उड़ाया है, उन स्थितियों के साथ मेरा ट्रीटमेंट जो है वह इस प्रकार का है जो कि मुक्तिबोध और दोस्तोवस्की इन दोनों से अलग किस्म का…।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 62 ☆ व्यंग्य – अमर होने का मार्ग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  सटीक व्यंग्य  ‘अमर होने का मार्ग ’।  आखिर मनुष्य तो अमर हो नहीं सकता सो अपना नाम अमर करने के लिए क्या क्या सोच सकता है और उसकी सोच की क्या सीमा हो सकती है  ?उस सीमा से परे जाकर भी  डॉ परिहार जी ने  इस समस्या पर विचार किया है। उन विचारों को जानने के लिए तो इस व्यंग्य को पढ़ने के सिवाय आपके पास कोई चारा है ही नहीं। इस सार्थक एवं सटीक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 62 ☆

☆ व्यंग्य – अमर होने का मार्ग 

 माना कि जीवन क्षणभंगुर है, ‘पानी में लिक्खी लिखाई’ है, लेकिन यह ख़याल जी को कंपा देता है कि एक दिन इस विशाल भारतभूमि में अपना कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा। अभी कुछ दिन पहले एक काफी वज़नदार लेखक दिवंगत हुए। जब ‘आम आदमी’ की किस्म के कुछ लोगों को यह सूचना दी गयी तो उन्होंने बहुत मासूमियत से पूछा, ‘कौन? वे मिलौनीगंज वाले पहलवान?’ सवाल सुनकर मेरा दिल एकदम डूब गया। तभी से लग रहा है कि अमर होने के लिए सिर्फ लेखक होना काफी नहीं है। कुछ और हाथ-पाँव हिलाना ज़रूरी है।

इस सिलसिले में छेदीलाल जी का स्मरण करना ज़रूरी समझता हूँ। छेदीलाल जी बीस साल तक मिलावट और कालाबाज़ारी के बेताज बादशाह रहे। मिलावट में नाना प्रकार के प्रयोग और ईजाद करने का श्रेय उन्हें जाता है। हज़ारों लोगों को कैंसर और चर्मरोग प्रदान करने में उनका योगदान रहा। शहर के कैंसर,गुर्दा रोगऔर चर्मरोगों के डॉक्टर बीस साल तक उन्हें ख़ुदा समझते रहे। पचपन साल की उम्र में वे मुझसे बोले, ‘भाई जी, पैसा तो बहुत कमा लिया, अब कुछ ऐसा करना चाहता हूँ कि लोग मौत के बाद मुझे याद करें। ‘ फिर मैंने और उन्होंने बहुत कोशिश की कि धरती पर अमरत्व का कोई मार्ग उन्हें मिल जाए, लेकिन बात कुछ बनी नहीं। उनकी मौत के बाद उनके पुत्रों ने उनके नाम पर खजुराहो में एक आधुनिक जुआघर खुलवा दिया जहाँ लोग अपना कला-प्रेम और जुआ-प्रेम एक साथ साधते हैं। अब छेदीलाल के पुत्रों को अर्थ-लाभ तो मिल ही रहा है, साथ ही दुनिया के सारे जुआड़ी उनका आदर से स्मरण करते हैं।

मैं भी उम्र की ढलान पर पहुँचने के बाद इसी फिक्र में हूँ कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए कि  मेरा नाम इस संसार से उखाड़ फेंकना मुश्किल हो जाए। यह भी क्या बात हुई कि आप संसार से बाहर हों और जनता-जनार्दन पीछे से आपको आवाज़ दे कि ‘ए भइया, यह अपना नाम भी साथ लेते जाओ। हमें इसकी दरकार नहीं है। ‘ मुश्किल यह है कि नाम या तो बहुत अच्छे काम करने वाले का रहता है या बहुत बुरे काम करने वाले का। बीच वाले आदमी के लिए इस संसार में कोई भविष्य नहीं है।

मैं भी अन्य आम आदमियों की तरह इन मुश्किलात से मायूस न होकर अमर होने के रास्ते खोजता रहता हूँ। अभी तक सफलता हाथ नहीं लगी है, लेकिन मैंने ठान लिया है कि इस दुनिया से कूच होने से पहले कोई पुख़्ता इंतज़ाम कर लेना है। आजकल संतानों पर कोई काम छोड़ जाना बुद्धिमानी नहीं है। दुनिया से पीठ फिरने के बाद संतानों का रवैया आपकी तरफ क्या हो इसका कोई भरोसा नहीं। इसलिए जो कुछ करना है,आँख मुंदने से पहले कर गुज़रना चाहिए।

पहले सोचा था कि कुछ लोगों को आगे करके और पीछे से पैसा देकर शहर के किसी चौराहे पर अपनी मूर्ति लगवा दूँ। लेकिन पूरे देश में मूर्तियों की जो दुर्दशा देखी उसने मुझे दुखी कर दिया। इस महान देश में बड़े बड़े नेताओं और वीरों की मूर्तियों के मस्तक अन्ततः कबूतरों और कौवों के शौचालय बन कर रह जाते हैं। इधर जो मूर्तियों का मुँह काला करने और उनका सर तोड़ने की प्रवृत्तियां उभरी हैं उनसे भी मेरे मंसूबों को धक्का लगा है। अब नयी पीढ़ियाँ जानती भी नहीं कि जिस मूर्ति के चरणों में बैठकर वे चाट और आइसक्रीम खा रहे हैं उसका आदमी के रूप में कृतित्व क्या था।

एक योजना यह थी कि अपने नाम से कोई सड़क, अस्पताल या शिक्षा-संस्थान बनवा दूँ। फिर देखा कि दादाभाई नौरोजी रोड डी.एन.रोड,तात्या टोपे नगर टी.टी.नगर, महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल एम. एल.बी. और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जे.एन.वी.वी. होकर रह गया। अभी मेरे शहर में सड़क के किनारे के अतिक्रमण हटाये गये तो कुछ घरों के भीतर से मील के पत्थर प्रकट हुए। (ये हमारे शहर के अतिक्रमण के मील के पत्थर थे। ) मेरे नाम की सड़क के पत्थर का भी यही हश्र हो सकता है।

एक विचार यह था कि जिस तरह बिड़ला जी ने कई जगह मन्दिर बनवाकर अपना नाम अमर कर लिया, उसी तर्ज़ पर मैं भी दस बीस मन्दिर बनवा डालूँ। लेकिन जब से धार्मिक स्थल राजनीति के अड्डे बनने लगे और साधु-सन्त बाकायदा पॉलिटिक्स करने लगे,तब से उस दिशा में जाने में भी जी घबराता है।

एक सुझाव यह आया है कि मैं ताजमहल की तर्ज़ पर एक आलीशान इमारत बनवा डालूँ ,जिसे देखने दुनिया भर के लोग आयें और मेरा नाम सदियों तक बना रहे। लेकिन शाहजहाँ की और मेरी स्थिति में कुछ मूलभूत अन्तर है। अव्वल तो शाहजहाँ को ताजमहल पर अपनी जेब की पूँजी नहीं लगानी पड़ी थी। दूसरे, उन्हें कोई लेबर पेमेंट नहीं करना पड़ा था। तीसरे, शाहजहाँ की सन्तानें भली थीं जो उन्होंने उन्हें मृत्यु के बाद ताजमहल में सोने की जगह दी। मुझे शक है कि मेरी आँखें बन्द होने के बाद मेरी सन्तानें मुझे अपने सुपरिचित रानीताल श्मशानगृह की तरफ रुखसत कर देंगी और मेरे ताजमहल को ‘रौनकलाल एण्ड कंपनी’ को पच्चीस पचास हज़ार रुपये महीने पर किराये पर दे देंगी।

प्रसंगवश बता दूँ कि समाधियों पर भी मेरा विश्वास नहीं है। एक तो श्मशान में थोड़ी सी जगह, उस पर समाधियों का धक्कमधक्का। साढ़े पांच फुट बाई दो फुट का जो आदमी श्मशान में ख़ाक होकर विलीन हो जाता है उसकी स्मृति में स्थायी रूप से आठ फुट बाई आठ फुट की जगह घेर ली जाती है। बड़े बड़े सन्तों के चेले भी यही कर रहे हैं। लेकिन हालत यह होती है कि समाधियों पर या तो कुत्ते विश्राम करते हैं या श्मशान के कर्मचारी उन पर कपड़े सुखाते और दीगर निस्तार करते हैं। अमरत्व का यह तरीका भी अन्ततः निराशाजनक सिद्ध होता है।

मेरे एक शुभचिन्तक ने मुझे सलाह दी है कि मैं अपने नाम से एक विशाल शौचालय बनवा दूँ। इससे सड़कों की पटरियों का दुरुपयोग रुकेगा और प्रातःकाल सैकड़ों लोग कम से कम दस पन्द्रह मिनट तक मेरे नाम का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करेंगे। मैं इस प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा हूँ, यद्यपि मुझे कभी कभी शक होता है कि मेरा मित्र मेरे साथ मसखरी तो नहीं कर रहा है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 30 ☆ ऑफिसियल भाषा…..….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “ऑफिसियल भाषा…..। यह रचना ऑफिस या कार्यालय के कार्यप्रणाली , मनोविज्ञान  और भाषा  और  का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – ऑफिसियल भाषा# 30

समय के साथ व्यक्ति के  व्यवहार का बदलना कोई नयी बात नहीं है;  परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है ; तभी तो  दिन रात होते हैं , पतझड़ से हरियाली ;   फिर अपने  चरम उत्कर्ष पर बहारों का मौसम ये सब हमें सिखाते हैं, समय के साथ बदलना सीखो, भागना और भगाना सीखो, सुधरना और सुधारना सीखो , बैठो और बैठाना सीखो ।

अब राधे लाल जी को ही देखिए जब तक काम करते रहो तब तक वो सिर पर बैठाते हैं और जैसे ही सलाह देने की हिमाकत की तो तुरंत यू टर्न लेते हुए घर बैठो की बात पर उतर आते हैं ; जिससे सारे लोग मन ही मन उनसे खफा रहते हैं । पर  क्या किया जाय जो नेतृत्व करेगा उसे तो कठोर होना ही पड़ेगा अन्यथा सभी  ज्ञान योगी बन कर ज्ञान बाटेंगे  तो कार्य कैसे पूरे होंगे ।

एक दिन की बात है;   मीटिंग चल रही थी, लोगों का ध्यान प्रोजेक्ट पर कम इस बात पर ज्यादा था कि लंच में क्या- क्या  पकवान रखे गए हैं ।  प्रोजेक्ट हेड ने प्रश्न पूछा तो विनीता मैम  अनमने मन से कुछ और बोल गयीं जिससे वहाँ बैठे अन्य लोग हँसने लगे तो  हेड बॉस ने भड़कते हुए कहा  भागिए यहाँ से , जो भागता नहीं उसे मैं भगाना भी जानता हूँ ।

अब तो मैडम जी ने आव देखा न ताव उठकर चल  दीं ।  लोगों ने  उन्हें रोका फिर एक अन्य महिला कर्मी ने जो अपने आप को कंपनी की प्रवक्ता मानती हैं , उन्होंने समझाया दरसअल सर का उद्देश्य स्पीड से है,  आप भी समय के साथ तेजी से भागिए यदि नहीं भाग सकतीं तो सर  आपको भागना भी सिखा देंगे  और आप गलत समझ बैठी  तब विनीता जी ने भी बेमन से हाँ में हाँ मिलाते हुए हाँ ऐसा ही होगा  मैं ही न समझ हूँ  ऑफिसियल भाषा समझने में जरा कच्ची हूँ ;  वो तो भला हो आपका जो आपने मेरी नौकरी बचा ली अन्यथा घर बैठना पड़ता ।

ये तो आये दिन की बात हो गयी थी  हेड बॉस  जमकर अपशब्दों का प्रयोग करते और लोग भी मजबूरी में  काम करते रहते ,लोगों को उनके टारगेट पूरा करने के बहाने बहुत प्रताड़ित किया जाता । जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है ; तो लोग हाथ पैर मारते ही हैं सो सभी कर्मचारियों ने एकजुट होकर एक सुर में कहा आप ऑफिसियल भाषा के नाम पर अपमान नहीं कर सकते आपको अपना व्यवहार बदलना होगा तभी हम लोग काम करेंगे अन्यथा नहीं ।

जब ये बात ऊपर तक पहुँची तो बड़े सर आये उन्होंने स्नेहिल शब्दों से सबका दिल जीत लिया ।

ये सारे ही शब्द अगर हम क्रोध के वशीभूत होकर सुनेंगे तो इनका अर्थ कुछ और ही होगा किंतु  यदि सकारात्मक  विचारधारा से युक्त परिवेश में कोई इसे सुने तो उसे इसमें सुखद संदेश दिखाई देगा ।

जैसे भागना का अर्थ केवल  जिम्मेदारी से मुख मोड़ कर चले जाना नहीं होता अपितु समय के साथ तेज चलना, दौड़ना,भागना और औरों को भी भगाना ।

सबको  प्रेरित करें कि अभी समय है सुधरने का , जब जागो  तभी सवेरा, इस मुहावरे को स्वीकार कर अपनी क्षमता अनुसार एक जगह केंद्रित हो कार्य करें तभी सफलता मिलेगी ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 59

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – कथा, व्यंग्य और  उपन्यास ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

विश्व के प्राय: सभी महान लेखक कथा का सहारा लेते रहें हैं,स्केलेटन के रूप में क्यों न सही ।आप एक ऐसे लेखक हैं जो अपनी उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता के समान्तर सदियों से आजमाये इस हथियार को लगातार छोड़ते चले गए। आपने अपना साहित्यिक कैरियर कथाकार के रूप में शुरू किया, किन्तु कालान्तर में आप कथा की दुनिया छोड़ निबंधों की ओर मुड़ गये, अपने इस जोखिम भरे विकास क्रम पर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे ?

हरिशंकर परसाई –

हां, कथा बहुत रोचक होती है और उसके पाठक सबसे अधिक होते हैं। ये भी सही है कि महान साहित्य या तो महाकाव्य में लिखा गया है या उपन्यासों में या कहानियों में। आरंभ में मैंने भी कहानियां लिखीं, उससे मुझे लोकप्रियता भी प्राप्त हुई, कहानियां मैं लगातार लिखता रहा, अभी अभी भी मैं अक्सर कहानी लिख लेता हूं, मेरी करीब 350 कहानियां हैं, परन्तु मुझे इसकी चिंता नहीं कि किस विधा में लिख रहा हूं या मैं उस विधा के नियम मान रहा हूं या नहीं मान रहा हूं। कुछ लोग कहते भी थे कि ये लिखते हैं कहानियां, लेकिन ये कहानी की परिभाषा में नहीं आता…..तो मैं उनसे कहता था कि आप कहानी की परिभाषा बदल दीजिए,इस प्रकार मैंने इन विधाओं के स्ट्रक्चर को उनकी बनावट को भी तोड़ा और परम्परा से जो रीति चली आ रही थी उसको भी मैंने एक नये प्रकार से तोड़ा।

मेरे सामने जो समस्या थी वह कहानी या उपन्यास लिखने की समस्या नहीं थी, और न अभी है। मेरे सामने जो समस्या शुरू से रही है वह यह कि इस पूरे समाज का सर्वेक्षण करके,जीवन को समझकर,जीवन की समीक्षा जो मैं कर रहा हूं, इस समीक्षा के लिए कौन सा माध्यम सबसे उपयोगी होगा तो मुझे लगा निबंध एक बहुत अच्छा माध्यम है इसके लिए। क्योंकि निबंध में स्वतंत्रता होती है। मेरे निबंध न ललित निबंध हैं, जैसा कि आमतौर पर लिखे जाते हैं,वे ठोस विषयों पर लिखे हुए होते हैं, और ठोस परिणति तक पहुंचते हैं। जैसा कि क्रून्सी ने कहा है – “आइडियल शैली आफ माइन्ड” वे भी नहीं हैं वो ।इन निबंधों में मैंने जिस विषय को उठाया है, उसके बहाने मैंने आसपास बिखरे दसों पच्चीसों विषयों पर तिरछे प्रहार किए हैं….तो निबंधों में स्वतंत्रता बहुत होती है। ये नहीं कि कथा यहां अटक गई है उसे अटकना नहीं चाहिए, उसे चलना ही चाहिए। मैं निबंध में एक स्थान पर रुककर किसी दूसरे विषय पर भी व्यंग्य कर देता हूं, तो ये सुभीता व्यंग्य में है। मेरे व्यंग्य भी उतने ही लोकप्रिय हुए जितनी कहानियां…. इसीलिए मैंने व्यंग्य को अपनाया।उसी प्रकार उपन्यास को ले लीजिए ,लघु उपन्यास भी मैंने लिखे। एक तो “तट की खोज” यह देवकथा है । ये लंबी कहानी है, इस लघु उपन्यास में व्यंग्य नहीं है।यह वास्तव में अत्यंत करुण कहानी है, एक लड़की की करुण कहानी है। लेकिन दूसरा जो मैंने लघु उपन्यास लिखा  “रानी नागफनी की कहानी” वह पूरा का पूरा व्यंग्य है। उस व्यंग्य में मैंने एक वर्ग को लिया है। एक मामूली सा प्रेम प्रसंग के बाद मैंने देश की समस्याएं और विश्व की समस्याएं, ये सब की सब उसमें मैं व्यंग्य के द्वारा ले आया हूं, और पुस्तक मात्र 130-140 पेज की है, उसमें पूरे विश्व की समस्याएं ले ली गईं हैं। इसमें पूरा-पूरा व्यंग्य है। तो इस प्रकार के उपन्यास मैं लिख सकता हूं, लेकिन परंपरागत उपन्यास जो हैं उनको लिखना मेरे वश की बात नहीं है। मैं फेन्टेसी लम्बी लिख सकता हूं, हां फेन्टेसी उपन्यास… जैसा कि स्पेनिश लेखक सर्वेन्टीस का है “डान की होट” जिसमें एक सामंत है, वह पगला है और उसका एक पिछलग्गू है और वह भी पगला गया है। और उनके द्वारा लेखक ने यूरोप के सामंतवाद का उपहास किया है। ऐसी लम्बी फेन्टेसी या ऐसा लंबा फेन्टेसी उपन्यास मैं लिखना चाहता था, इसके छह चेप्टर मैंने एक पत्रिका में सीरियलाइज किेए, लेकिन छह केबाद वह पत्रिका ही बंद हो गई (हंसते हुए..)अब छैह के छैह वैसे ही रखे हुए हैं, मैं उसको पूरा नहीं कर पा रहा हूं, इस प्रकार मैं उपन्यास लिखना चाहता था पर नहीं लिख सका।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29 ☆ सम्मान की आहट ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान की आहट …..। यह रचना सम्मान के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29☆

☆ सम्मान की आहट …..

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं; उथल -पुथल, गुट बाजी व किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है। कई घोषणाएँ तो,  सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं,  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है;  ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए ।

तभी सामान्य सदस्य ने कहा – इस संस्था में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे-आगे बढ़कर सहयोग करते दिखते हैं,  या नाटक करते हैं ; पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए संस्था के सचिव महोदय से पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी प्रश्नों के उत्तर मिल  जायेंगे।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है ; कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट सदस्य ने कहा आप भी कहाँ की बात ले बैठे ये तो सब खेल है,  कभी भाग्य का, कभी कर्म का, बधाई हो; पुरस्कारित होने के लिये आपका भी तो नाम है।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ।

तभी एक अन्य सदस्य खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ, और समय भी नहीं ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है;  चलिए कोई बात नहीं।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ; सक्रियता कम कर देता हूँ। जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे – इंसान की कर्तव्यनिष्ठा , उसके कर्म,  सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार सोच परिवर्तित हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे जो व्यक्ति स्वयं को पसंद करता है उसे ही सब पसंद करते हैं।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी,  बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो।

जब सब सराहते हैं, तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है, तब खुद के लिये भी अक्सर पॉजीटिव राय बनती है, और बेहतर करने की कोशिश भी।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

सत्य वचन ,आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं , सामान्य सदस्य ने कहा।

सभी ने हाँ में हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने- अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 67 ☆ समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक सार्थक व्यंग्य  समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 67 ☆

☆ व्यंग्य – समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से ☆

व्हाट इज योर मोबाइल नम्बर, जमाना मोबाइल का है.   खत का मजमूं जान लेते हैं लिफाफा देखकर वाले शेर का नया अपडेटेड वर्शन कुछ इस तरह हो सकता है कि ” समझ लेते हैं गुफ्तगू का मकसद, मोबाइल की रिंग टोन से “. लैंड लाइन टेलीफोन, मोबाइल के ग्रांड पा टाइप के रिलेशन में था हो गया है.  टेलीफोन के जमाने में हमारे जैसे अधिकारियो को लोगो को छोटी मोटी नौकरी पर रख लेने के अधिकार थे. आज तो नौकरियां विज्ञापन, लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम, फिर कोर्ट केस के रास्ते वर्षौ बाद हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के लम्बे रास्ते से मिला करती हैं, पर उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन आना बड़ा कामन था. सेलेक्शन का एक क्राइटेरिया यह भी होता था कि सिफारिश किसकी है. मंत्री जी की सिफारिश और बड़े साहब की सिफारिश के साथ ही रिश्तेदारो की सिफारिश के बीच संतुलन बनाना पड़ता था. एक सिफारिशी घंटी केंडीडेट का भाग्य बदलने की ताकत रखती थी.  नेता जी से संबंध अक्सर टेलीफोन की सिफारिशी घंटी बजवाने के काम आते थे. सिफारिशी खत से लिखित साक्ष्य के खतरे को देखते हुये सिफारिश करने वाला फोन का ही सहारा लेता था. तब काल रिकार्डिंग जैसे खतरे कम थे.हमारे जैसे ईमानदार बनने वाले लोग रिंग टोन से अंदाज लगा लेते कि गुफ्तगू का प्रयोजन क्या होगा और साहब नहा रहे हैं टाइप के बहाने बनाने के लिये पत्नी को फोन टिका दिया करते थे. तब नौकरियां आज की तरह कौशल पर नही डिग्रियों से मिल जाया करती थीं.   घर दफ्तर में फोन होना तब स्टेटस सिंबल था. आज भी विजिटिंग कार्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मोबाइल और टेलीफोन नम्बर बने हुये हैं.  दफ्तर की टेबिल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण  टेलीफोन होता है. और टेलीफोन का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सिफारिश.न सही नौकरी पर किसी न किसी काम के लिये देख लेने, या फिर सीधे धमकी के रूप में देख लेने के काम टेलीफोन से बखूबी लिये जाते हैं.  टेलीफोन की घंटी से, टेबल के सामने साथ बैठा व्यक्ति गौण हो जाता है,और दूर टेलीफोन के दूसरे छोर का आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है.

जिस तरह पानी ऊंचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह टेलीफोन या मोबाइल में हुई वार्तालाप का सरल रैखिक सिद्धांत है कि इसमें हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी, कम महत्वपूर्ण आदमी को आदेशित करता है. उदाहरण के तौर पर मेरी पत्नी मुझे घर से आफिस के टेलीफोन पर इंस्ट्रक्शन्स देती है. मंत्री जी, बड़े साहब को और बड़े साहब अपने मातहतो को महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण कार्यो हेतु भी महत्वपूर्ण तरीके से मोबाइल पर ही आदेशित करते हैं. टेलीफोन के संदर्भ में एक व्यवस्था यह भी है कि  बड़े लोग अपना टेलीफोन स्वयं नहीं उठाते. इसके लिये उनके पास पी ए टाइप की कोई सुंदरी होती है जो बाजू के कमरे में बैठ कर उनके लिये यह महत्वपूर्ण कार्य करती है और महत्वपूर्ण काल ही उन तक फारवर्ड करती है. नेता जी के मोबाइल उनके विश्वस्त के हाथों में होते हैं, जो बड़े विशेष अंदाज में जरूरी काल्स पर ही नेता जी को मोबाइल देते हैं, वरना संदेशन खेती करनी पड़ती है. और राजगीर के लड्डुओ के संदेश जितने टोकनों से गुजरते हैं, हर टोकने में इतना तो झर ही जाते हैं कि एक नया लड्डू बन जाता है, इस तरह सभी को बिना गिनती कम हुये लड्डुओ का भोग चढ़ जाता है, लोगों के काम हो जाते हैं.

टेलीफोन एटीकेट्स के अनुसार मातहत को अफसर की बात सुनाई दे या न दे, समझ आये या न आये, किन्तु सर ! सर ! कहते हुये आदेश स्वीकार्यता का संदेश अपने बड़े साहब को देना होता है. जो बहुत ओबीडियेंट टाइप के कुछ पिलपिले से अफसर होते हैं वे बड़े साहब का टेलीफोन आने पर अपनी सीट पर खड़े होकर बात करते हैं. ऐसे लोगो को नये इलेक्ट्रानिक टेलीफोन में कालर आई डी लग जाने से लाभ हुआ है और अब उन्हें एक्सटेंपोर अफसरी फोन काल से मुक्ति मिल गई है, वे साहब की काल पहचान कर पहले ही अपनी मानसिक तैयारी कर सकते हैं .  यदि संभावित  गुफ्तगू के मकसद का अंदाज इनकमिंग काल के नम्बर से लगा लिया जाता  है,  तो यह पहचान बड़े काम की होती है. सावधानी में सुरक्षा निहित होती ही है. बड़े साहब का मोबाइल आने पर ऐसे लोग तुरंत सीट से उठकर चलायमान हो जाते हैं. यह बाडी लेंगुएज,उनकी मानसिक स्थिति की परिचायक होती है. एसएमएस से तो बचा जा सकता है कि मैसेज पढ़ा ही नही, पर मुये व्हाट्सअप ने कबाड़ा कर रखा है, इधर दो टिक नीले क्या हुये सामने वाला कम्पलाइंस की अपेक्षा करने लगता है. इससे बचाव के लिये अब व्हाट्सअप सैटिंग्स में परिवर्तन किया जाना  पसंद किया जाने लगा है.

हमारी पीढ़ी ने चाबी भरकर इंस्ट्रूमेंट चार्ज करके बात करने वाले  टेलीफोन के समय से आज के टच स्क्रीन मोबाइल तक का सफर अब तक तय कर लिया है. इस बीच डायलिंग करने वाले मेकेनिकल फोन आये जिनकी एक ही रिटी पिटी ट्रिन ट्रिन वाली घंटी होती थी. इन दिनो आधे कटे एप्पल वाले मंहगे  मोबाइल हों या एनड्राइड डिवाईस कालर ट्यून से लेकर मैसेज या व्हाट्सअप काल, यहां तक की व्यक्ति विशेष के लिये भी अलग,भांति भांति के सुरों की घंटी तय करने की सुविधा हमारे अपने हाथ होती है. समय के साथ की पैड वाले इलेक्ट्रानिक फोन  और अब हर हाथ में मोबाइल का नारा सच हो रहा है, लगभग हर व्यक्ति के पास दो मोबाइल या कमोबेश डबल सिम मोबाइल में दो सिम तो हैं ही. आगे आगे देखिये होता है क्या ? क्योकि टेक्नालाजी गतिशील है. क्या पता कल को बच्चे को वैक्सिनेशन की तरह ही सिम प्रतिरोपण की प्रक्रिया से गुजरना पड़े. फिर न मोबाइल गुमने का झंझट होगा, न बंद होने का. आंखो के इशारे से गदेली में अधिरोपित इनबिल्ट मोबाइल से ही हमारा स्वास्थ्य, हमारा बैंक, हमारी लोकेशन, सब कुछ नियंत्रित किया जा सकेगा. पता नही इस तरह की प्रगतिशीलता से हम मोबाइल को नियंत्रित करेंगे या मोबाइल हमें नियंत्रित करेगा.

एक समय था जब टेलीफोन आपरेटर की शहर में बड़ी पहचान और इज्जत होती थी, क्योकि वह ट्रंक काल पर मिनटो में किसी से भी बात करवा सकता था. शहर के सारे सटोरिये रात ठीक आठ बजे क्लोज और ओपन के नम्बर जानने, मटका किंग से हुये इशारो के लिये इन्हीं आपरेटरो पर निर्भर होते थे.समय बदल गया है  आज तो पत्नी भी पसंद नही करती कि पति के लिये कोई काल उसके मोबाइल पर आ जाये. अब जिससे बात करनी हो सीधे उसके मोबाइल पर काल करने के एटीकेट्स हैं.पर मुझे स्मरण है उन टेलीफोन के पुराने दिनो में हमारे घर पर पड़ोसियो के फोन साधिकार आ जाते थे.बुलाकर उन्हें बात करवाना पड़ोसी धर्म होता था. तब निजता की आज जैसी स्थितियां नहीं थी, आज तो बच्चो और पत्नी का मोबाइल खंगालना भी आउट आफ एटीकेट्स माना जाता है. उन दिनो लाइटनिंग काल के चार्ज आठ गुने लगते थे अतः लाइटनिंग काल आते ही लोग किसी अज्ञात आशंका से सशंकित हो जाते थे. विद्युत विभाग में बिजली की हाई टेंशन लाइन पर पावर लाइन कम्युनिकेशन कैरियर की अतिरिक्त सुविधा होती है, जिस पर हाट लाइन की तरह बातें की जा सकती है,  ठीक इसी तरह रेलवे की भी फोन की अपनी समानांतर व्यवस्था है. पुराने दिनो में कभी जभी अच्छे बुरे महत्वपूर्ण समाचारो के लिये  लोग अनधिकृत रूप से  इन सरकारी महकमो की व्यवस्था का लाभ मित्र मण्डली के जरिये उठा लिया करते थे.

मोबाइल सिखाता है कि बातो के भी पैसे लगते हैं और बातो से भी पैसे बनाये जा सकते हैं. यह बात मेरी पत्नी सहित महिलाओ की समझ आ जाये तो दोपहर में क्या बना है से लेकर पति और बच्चो की लम्बी लम्बी बातें करने वाली हमारे देश की महिलायें बैठे बिठाये ही अमीर हो सकती हैं.अब मोबाइल में रिश्ते सिमट आये  हैं. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाइल  कैमरे के पिक्सेल वगैरह अब महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से हैं.अंबानीज ने बातो से रुपये बनाने का यह गुर सीख लिया है, और अब सब कुछ जियो हो रहा है. मोबाइल को इंटरनेट की शक्ति क्या मिली है, दुनियां सब की जेब में है.अब  कोई ज्ञान को दिमाग में नही बिठाना चाहता इसलिये ज्ञान गूगल जनित जानकारी मात्र बनकर जेब में रखा रह गया है. मोबाइल काल रिकॉर्ड हो कर वायरल हो जाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं. काल टेपिंग से सरकारें हिल जाती हैं. मोबाइल पर बातें ही नही,फोटो, जूम मीट,  मेल,ट्वीट्स, फेसबुक, इंस्टा, खेल, न्यूज, न्यूड सब कुछ तो हो रहा है, ऐसे में मोबाइल विकी लीक्स , स्पाइंग का साधन बन रहा है तो आश्चर्य नही होना चाहिये. मोबाइल लोकेशन से नामी गिरामी अपराधी भी धर लिये जाते हैं.  बाजार में सुलभ कीमत के अनुरूप गुणवत्ता का मोबाइल चुनना और मोबाइल प्लान के ढ़ेरो आफर्स में से अपनी जरूरत के अनुरूप सही विकल्प चुनना आसान नही है. कही कुछ है तो कहीं कुछ और, आज मोबाइल का माडल अभिजात्य वर्ग में स्टेटस सिंबल है.   इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके हर हाथ मोबाइल के शस्त्र से सुसज्जित है यह सबके लिये गर्व का विषय है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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