हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 203 ☆ रामनवमी विशेष – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग… — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 203 ☆  

? आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग…  – ?

हम, आस्था और आत्मा से राम से जुडे हुये हैं। ऐसे राम का चरित प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये केवल मनोरम ही तो हो सकता है। मधुर ही तो हो सकता है। अधरं मधुरमं वदनम् मधुरमं,मधुराधि पते रखिलमं मधुरमं -कृष्ण स्तुति में रचित ये पंक्तियां इष्ट के प्रति भक्त के भावों की सही अनुभूति है, सच्ची अभिव्यक्ति है। जब श्रद्वा और विश्वास प्राथमिक हों तो शेष सब कुछ गौंण हो जाता है। मात्र मनोहारी अनुभूति ही रह जाती है। मां प्रसव की असीम पीडा सहकर बच्चे को जन्म देती है, पर वह उसे उतना ही प्यार करती है,मां बच्चे को उसके प्रत्येक रूप में पसंद ही करती है। सच्चे भक्तों के लिये मानस का प्रत्येक प्रसंग ऐसे ही आत्मीय भाव का मनोरम प्रसंग है। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा,वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता,की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ,सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है।श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है।

राम चरित मानस के ऐसे मनोरम प्रसंगों को समाहित करने का बिंदु रूप प्रयास करें तो वंदना, शिव विवाह, राम प्रागट्य, अहिल्या उद्वार, पुष्प वाटिकाप्रसंग, धनुष भंग, राम राज्याभिषेक की तैयारी, वनवास के कठिन समय में भी केवट प्रसंग, चित्रकूट में भरत मिलाप, शबरी पर राम कृपा, वर्षा व शरद ऋतु वर्णन,रामराज्य के प्रसंग विलक्षण हैं जो पाठक, श्रोता, भक्त के मन में विविध भावों का संचार करते हैं। स्फुरण के स्तर तक हृदय के अलग अलग हिस्से को अलग आनंदानुभुति प्रदान करते हैं। रोमांचित करते हैं। ये सारे ही प्रसंग मर्म स्पर्शी हैं, मनोरम हैं।

मनोरम वंदना

जो सुमिरत सिधि होई गण नायक करि बर बदन

करउ अनुगृह सोई, बुद्वि रासि सुभ गुन सदन

मूक होहि बाचाल, पंगु चढिई गिरि बर गहन

जासु कृपासु दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन

प्रभु की ऐसी अद्भुत कृपा की आकांक्षा किसे नहीं होती . ऐसी मनोरम वंदना अंयत्र दुर्लभ है। संपूर्ण वंदना प्रसंग भक्त को श्रद्वा भाव से रूला देती है।

शिव विवाह

शिव विवाह के प्रसंग में गोस्वामी जी ने पारलौकिक विचित्र बारात के लौककीकरण का ऐसा दृश्य रचा है कि हम हास परिहास, श्रद्वा भक्ति के संमिश्रित मनो भावों के अतिरेक का सुख अनुभव करते हैं।

गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं

भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहिं

जेवंत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूं न परै कह्यो

अचवांई दीन्हें पान गवनें बास जहं जाको रह्यो।

राम जन्म नहीं हुआ, उनका प्रागट्य हुआ है ……

भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी

लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आमुद भुजचारी

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा

कीजै सिसु लीला अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा

सचमुच यह सुख अनूपा ही है। फिर तो ठुमक चलत राम चंद्र,बाजत पैजनियां…., और गुरू गृह पढन गये रघुराई…., प्रभु राम के बाल रूप का वर्णन हर दोहे,हर चैपाई, हर अर्धाली, हर शब्द में मनोहारी है।

अहिल्या उद्वार के प्रसंग में वर्णन है …

परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तप पुंज सही

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नही आवई बचन कही

अतिसय बड भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जल धार बही

मन मस्तिष्क के हर अवयव पर प्रभु कृपा का प्रसाद पाने की आकांक्षा हो तो इस प्रसंग से जुडकर इसमें डूबकर इसका आस्वादन करें, जब शिला पर प्रभु कृपा कर सकते हैं तो हम तो इंसान हैं। बस प्रभु कृपा की सच्ची प्रार्थना के साथ इंसान बनने के यत्न करें, और इस प्रसंग के मनोहारी प्रभाव देखें ।

पुष्प वाटिका प्रसंग….

श्री राम शलाका प्रश्नावली के उत्तर देने के लिये स्वयं गोस्वामी जी ने इसी प्रसंग से दो सकारात्मक भावार्थों वाली चौपाईयों का चयन कर इस प्रसंग का महत्व प्रतिपादित कर दिया है।

सुनु प्रिय सत्य असीस हमारी पूजहिं मन कामना तुम्हारी

एवं

सुफल मनोरथ होंहि तुम्हारे राम लखन सुनि भए सुखारे

जिस प्रसंग में स्वयं भगवती सीता आम लडकी की तरह अपने मन वांछित वर प्राप्ति की कामना के साथ गिरिजा मां से प्रार्थना करें उस प्रसंग की आध्यत्मिकता पर तो ज्ञानी जन बडे बडे प्रवचन करते हैं। इसी क्रम में धनुष भंग प्रकरण भी अति मनोहारी प्रसंग है।

राम राज्याभिषेक की तैयारी

लौकिक जगत में हम सबकी कामना सुखी परिवार की ही तो होती है समूची मानस में मात्र तीन छोटे छोटे काल खण्ड ही ऐसे हैं जब राम परिवार बिना किसी कठिनाई के सुखी रह सका है।

पहला समय श्री राम के बालपन का है। दूसरा प्रसंग यही समय है जब चारों पुत्र,पुत्रवधुयें, तीनों माताओं और राजा जनक के साथ संपूर्ण भरा पूरा परिवार अयोध्या में है, राम राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है। तीसरा कालखण्ड राम राज्य का वह स्वल्प समय है जब भगवती सीता के साथ राजा राम राज काज चला रहे हैं।

राम राज्याभिषेक की तैयारी का प्रसंग अयोध्या काण्ड का प्रवेश है। इसी प्रसंग से राम जन्म के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु भूमिका बनती है।

लौकिक दृष्टि से हमें राम वन गमन से ज्यादा पीडादायक और क्या लग सकता है पर जीवन, संघर्ष का ही दूसरा नाम है। पल भर में, होने वाला राजा वनवासी बन सकता है, वह भी कोई और नहीं स्वयं परमात्मा ! इससे अधिक शिक्षा और किस प्रसंग से मिल सकती है ? यह गहन मनन चिंतन व अवगाहन का मनोहारी प्रसंग है।

केवट प्रसंग…

मांगी नाव न केवट आना कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

जिस अनादि अनंत परमात्मा का मरमु न कोई जान सका है न जान सकता है, जो सबका दाता है, जो सबको पार लगाता है, वही सरयू पार करने के लिये एक केवट के सम्मुख याचक की मुद्रा में है! और बाल सुलभ भाव से केवट पूरे विश्वास से कह रहा है – प्रभु तुम्हार मरमु मैं जाना। और तो और वह प्रभु राम की कृपा का पात्र भी बन जाता है। सचमुच प्रभु बाल सुलभ प्रेम के ही तो भूखे हैं। रोना आ जाता है ना .. कैसा मनोरम प्रसंग है।

इसी प्रसंग में नदी के पार आ जाने पर भगवान राम केवट को उतराई स्वरूप कुछ देना चाहते हैं किन्तु वनवास ग्रहण कर चुके श्रीराम के पास क्या होता यहीं भाव, भाषा की दृष्टि से तुलसी मनोरम दृश्य रचना करते हैं। मां सीता राम के मनोभावों को देखकर ही पढ लेती हैं,और –

‘‘ पिय हिय की सिय जान निहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी ’’।

भारतीय संस्कृति में पति पत्नी के एकात्म का यह श्रेष्ठ उदाहरण है।

 चित्रकूट में भरत मिलाप….

आपके मन के सारे कलुष भाव स्वतः ही अश्रु जल बनकर बह जायेंगे, आप अंतरंग भाव से भरत के त्याग की चित्रमय कल्पना कीजीये, राम को मनाने चित्रकूट की भरत की यात्रा, आज भी चित्रकूट की धरती व कामद गिरि पर्वत भरत मिलाप के साक्षी हैं। इसी चित्रकूट में –

चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर,

तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर

यह तीर्थ म.प्र. में ही है, एक बार अवश्य जाइये और इस प्रसंग को साकार भाव में जी लेने का यत्न कीजीये। राम मय हो जाइये,श्रद्वा की मंदाकिनी में डुबकी लगाइये।

बरबस लिये उठाई उर, लाए कृपानिधान

भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।

भरत से मनोभाव उत्पन्न कीजीये,राम आपको भी गले लगा लेंगें।

शबरी पर कृपा…

नवधा भक्ति की शिक्षा स्वयं श्री राम ने शबरी को दी है। संत समागम, राम कथा में प्रेम, अभिमान रहित रहकर गुरू सेवा, कपट छोडकर परमात्मा का गुणगान, राम नाम का जाप, ईश्वर में ढृड आस्था, सत्चरित्रता, सारी सृष्टि को राम मय देखना, संतोषं परमं सुखं, और नवमीं भक्ति है सरलता। स्वयं श्री राम ने कहा है कि इनमें से काई एक भी गुण भक्ति यदि किसी भक्त में है तो – ‘‘सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।’’ जरूरत है तो बस शबरी जैसी अगाध श्रद्वा और निश्छल प्रेम की। राम के आगमन पर शबरी की दशा यूं थी –

प्रेम मगन मुख बचन न आवा पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा

ऋतु वर्णन के प्रसंग …

गोस्वामी तुलसी दास का साहित्यिक पक्ष वर्षा,शरद ऋतुओं के वर्णन और इस माध्यम से प्रकृति से पाठक का साक्षात्कार करवाने में, मनोहारी प्रसंग किष्किन्धा काण्ड में मिलता है।

छुद्र नदी भर चलि तोराई जस थोरेहु धनु खल इतिराई

प्रकृति वर्णन करते हुये गोस्वामी जी भक्ति की चर्चा नहीं भूलते -….

बिनु घन निर्मल सोह अकासा हरिजन इव परिहरि सब आसा

रामराज्य

सुन्दर काण्ड तो संपूर्णता में सुन्दर है ही। रावण वध, विभीषण का अभिषेक, पुष्पक पर अयोध्या प्रस्थान आदि विविध मनोरम प्रसंगों से होते हुये हम उत्तर काण्ड के दोहे क्रमांक 10 के बाद से दोहे क्रमांक 15 तक के मनोरम प्रसंग की कुछ चर्चा करते है। जो प्रभु राम के जीवन का सुखकर अंश है। जहां भगवती सीता,भक्त हनुमान, समस्त भाइयों, माताओं, अपने वन के साथियों, एवं समस्त गुरू जनों अयोध्या के मंत्री गणों के साथ हमारे आराध्य राजा राम के रूप में आसीन हैं। राम पंचायतन यहीं मिलता है। ओरछा के सुप्रसिद्व मंदिर में आज भी प्रभु राजा राम अपने दरबार सहित इसी रूप में विराजमान है।

राज्य संभालने के उपरांत ‘ जाचक सकल अजाचक कीन्हें ’ राजा राम हर याचना करने वाले को इतना देते हैं कि उसे अयाचक बनाकर ही छोडते हैं, अब यह हम पर है कि हम राजा राम से क्या कितना और कैसे, किसके लिये मांगते हैं ।ओरछा के मंदिर में श्री राम, आज भी राजा के स्वरूप में विराजे हुये हैं , जहां उन्हें बाकायदा आज भी सलामी दी जाती है ।  

पर सच्चे अर्थो में तो वे हम सब के हृदय में विराजमान हैं पर हमें अपने सत्कर्मों से अपने ही हृदय में बिराजे राजा राम के दरबार में पहुंचने की पात्रता तो हासिल करनी ही होगी, तभी तो हम याचक बन सकते हैं।

जय राम रमारमनं समनं भवताप भयाकुल पाहि जनं

अवधेश सुरेश रमेस विभो सरनागत मागत पाहि प्रभो

बस इसी विनती से इस मनोरम प्रसंग का आनंद लें कि

गुन सील कृपा परमायतनं प्रनमामि निरंतर श्री रमनं

रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं महिपाल बिलोकय दीनजनं।।

जय जय राजा राम की। जय श्रीराम।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 183 ☆ रामनवमी विशेष – राम, राम-सा..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 183 राम, राम-सा..! ?

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे,

सहस्त्रनामतत्तुल्यं राम नाम वरानने।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं। राम राम-सा ही हैं, अन्य कोई उपमा उन्हें परिभाषित नहीं कर सकती।

विशेष बात यह कि अनन्य होकर भी राम सहज हैं, अतुल्य होकर भी राम सरल हैं, अद्वितीय होकर भी राम हरेक को उपलब्ध हैं। डाकू रत्नाकर ने मरा-मरा जपना शुरू किया और राम-राम तक आ पहुँचा। व्यक्ति जब सत्य भाव और करुण स्वर से मरा-मरा जपने लगे तो उसके भीतर करुणासागर राम आलोकित होने लगते हैं।

राम का शाब्दिक अर्थ हृदय में रमण करने वाला है। रत्नाकर का अपने हृदय के राम से साक्षात्कार हुआ और जगत के पटल पर महर्षि वाल्मीकि का अवतरण हुआ। राम का विस्तार शब्दातीत है। यह विस्तार लोक के कण-कण तक पहुँचता है और राम अलौकिक हो उठते हैं। कहा गया है, ‘रमते कणे कणे, इति राम:’.. जो कण-कण में रमता है, वह राम है।

राम ने मनुष्य की देह धारण की। मनुष्य जीवन के सारे किंतु, परंतु, यद्यपि, तथापि, अरे, पर, अथवा उन पर भी लागू थे। फिर भी वे पुराण पुरुष सिद्ध हुए।

वस्तुतः इस सिद्ध यात्रा को समझने के लिए उस सर्वसमावेशकता को समझना होगा जो राम के व्यक्तित्व में थी। राम अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे। सिंहासन के लिए अपने भाइयों, पिता और निकट-सम्बंधियों की हत्या की घटनाओं से संसार का इतिहास रक्तरंजित है। इस इतिहास में राम ऐसे अमृतपुत्र के रूप में उभरते हैं जो पिता द्वारा दिये वचन का पालन करने के लिए राज्याभिषेक से ठीक पहले राजपाट छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वनवास स्वीकार कर लेता है। यह अनन्य है, अतुल्य है, यही राम हैं।

भाई के रूप में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के लिए राघव अद्वितीय सिद्ध हुए। उनके भ्रातृप्रेम का अनूठा प्रसंग हनुमन्नाष्टक में वर्णित है। मेघनाद की शक्ति से मूर्च्छित हुए लक्ष्मण की चेतना लौटने पर हनुमान जी ने पूछा, ‘हे लक्ष्मण, शक्ति के प्रहार से बहुत वेदना हुई होगी..!’ लक्ष्मण बोले, “नहीं महावीर, मुझे तो केवल घाव हुआ, वेदना तो भाई राम को हुई होगी..!’

यह वह समय था जब समाज में बहु पत्नी का चलन था। विशेषकर राज परिवारों में तो राजाओं की अनेक पत्नियाँ होना सामान्य बात थी। ऐसे समय में अवध का राजकुमार, भावी सम्राट एक पत्नीव्रत का आजीवन पालन करे, यह विलक्ष्ण है।

शूर्पनखा का प्रकरण हो या पार्वती जी द्वारा सीता मैया का वेश धारण कर उनकी परीक्षा लेने का प्रसंग, श्रीराम की महनीय शुद्धता 24 टंच सोने से भी आगे रही। सीता जी के रूप में पार्वती जी को देखते ही श्रीराम ने हाथ जोड़े और पूछा, “माता आप अकेली वन में विचरण क्यों कर रही हैं और भोलेनाथ कहाँ हैं? “

इसी तरह हनुमान जी के साथ स्वामी भाव न रखते हुए भ्रातृ भाव रखना, राम के चरित्र को उत्तुंग करता है- ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’

समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना राम के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। उनकी सेना में वानर, रीछ, सभी सम्मिलित हैं। गिद्धराज जटायु हों, वनवासी माता शबरी हों, नाविक केवट हो, निषादराज गुह अथवा अपने शरीर से रेत झाड़कर सेतु बनाने में सहायता करनेवाली गिलहरी, सबको सम्यक दृष्टि से देखने वाला यह रामत्व केवल राम के पास ही हो सकता था। संदेश स्पष्ट है, जो तुम्हारे भीतर बसता है, वही सामने वाले के भीतर भी रमता है।…रमते कणे कणे…! कण कण में राम को राम ने देखा, राम ने जिया।

राजस्थान में अभिवादन के लिए ‘राम राम-सा’ कहा जाता है। लोक के इस संबोधन में एक संदेश छिपा है। राम-सा केवल राम ही हो सकते हैं। सात्विकता से सुवासित जब कोई ऐसा सर्वगुणसम्पन्न हो कि उसकी तुलना किसी से न की जा सके, अपने जैसा एकमेव आप हो तो राम से श्रीराम होने की यात्रा पूरी हो जाती है। यही राम नाम का महत्व है, राम नाम की गाथा है और रामनाम का अविराम भी है।

राम राम रघुनंदन राम राम,

राम-राम भरताग्रज राम राम।

राम-राम रणकर्कश राम राम,

राम राम शरणम् भव राम राम।।

श्रीरामनवमी की बधाई। त्योहार पारंपरिक पद्धति से मनाएँ, सपरिवार मनाएँ ताकि आनेवाली पीढ़ी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मूल्यों के रिक्थ से समृद्ध रहे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वक्त बताएगा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका  एक विचारणीय आलेख  ‘‘वक्त बताएगा।)

☆ आलेख – वक्त बताएगा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

समूचे विश्व में पूरा समाज मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त है। एक अमीर वर्ग दूसरा गरीब वर्ग। दूसरे वर्ग को अपना जीवन यापन करने के लिए पहले वर्ग के यहां दिहाड़ी करनी पड़ती है।

मजबूरी ने गरीबों की किस्मत की चाबी एक बार अमीरों को क्या पकड़ा दी वे उनसे मनमाफिक काम लेने लगे। मसलन कम दाम ज्यादा काम का फार्मूला फिट करने लगे।
तरह तरह से उनका शोषण किया जाने लगा। उनका तन मन दोनों गिरवी रखा जाने लगा। क्रमशः यह अत्याचार की श्रेणी में तब्दील किया जाने लगा। विवशता जी का जंजाल बन गई।

मजदूरी करने के उपरांत भी पूरा नहीं पड़ा। घरेलू व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। असंतोष व्याप्त हो गया। सामाजिक परिवेश गड़बड़ा गया। कई प्रकार की आपदाएं/विषमताएं गरीबों के सिर पर मंडराने लगी।

जैसे-तैसे इसका हल खोजा जाने लगा। आदमी के साथ साहब औरतों को भी काम पर जाना पड़ा—ताकि  दो वक्त की रोटी तो मिले—ये औरतें कामवाली बाईयां कहलाईं। अपने अपने क्षेत्र, भाषा बोली के अनुसार उनका नामकरण कर दिया गया। जैसी जैसी गाड़ी चल निकली पर इन कामवाली बाइयों का कई स्तरों पर शोषण किए जाने लगा।
बाइयों ने तत्काल अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया एवं अपनीअपनी सामर्थ के अनुसार मकानों की साफ सफाई, झाड़ू पोछा, बगीचे की देखभाल, बिल्डिंग निर्माण, ईट गारा का काम संभाल लिया।

पति पत्नी दोनों के काम पर चले जाने से उनकी माली हालत तो सुधरी पर उनके स्वयं के घर का गणित डगमगाने लगा। बच्चे आवारागर्दी करने लगे, नशा करने लगे, मारपीट लड़ाई झगड़े ने मिलकर घर का माहौल विषाक्त बना डाला।

औरतें जैसे तैसे रात में घर लौट कर चूल्हे चौके से जुड़ जाती रात्रि के भोजन उपरांत घर की साफ सफाई करते करते रात गहरा जाती। अलस्सुबह फिर काम पर जाने की तैयारी होती। हड़बड़ी में कई गड़बड़ी होती और असंतोष फैलने लगता ।

ठेकेदारों ने भी मजबूरी का फायदा उठाने में देरी नहीं लगाई।

उन्हें जरा जरा सी बात पर डांटा, काम पर से बिना वेतन दिए भगाया। तन मन दोनों का शोषण आम होने लगा।

कोरोना के समय इनके शोषण की रफ्तार भी कोरोना की सी गति से आगे बढ़ी। पति एवं स्वयं का काम बंद होने से रोज कमाने रोज खाने वाले बर्बादी की कगार तक जा पहुंचे।

उनके मालिकों ने जितना काम किया उतना वेतन भी नहीं दिया। कुछेक ने दरियादिली दिखाई भी तो घर की स्त्रियों ने विरोध किया –

‘बैठे-बिठाए पैसे भी दो काम भी स्वयं करो, ऐसा नहीं होने देंगे।’

काम करने वाला एक वर्ग यदि भूखा रहेगा तो मानवीयता जीवित कैसे रहेगी। श्रम साधकों को मजदूर मानकर भी एक भाई बंदी होती है जो समूल नष्ट हो गई। एक बुरा वक्त उनके सामने था, जिसने उन्हें पूरी तरह बेहाल कर दिया था।

मैंने कहीं यह मान लिया कि जरूर इस वर्ग के साथ नाइंसाफी हुई है। सद्भावना जैसी चीज का अंत हुआ है। इंसानियत कहीं दगा दे गई है। उनके प्रति दया, प्रेम, विश्वास का विनिष्टीकरण सरेआम हुआ है।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 202 ☆ आलेख – नवाचार… — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – नवाचार …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 202 ☆  

? आलेख – नवाचार…  – ?

https://www.ieindia.org इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है । यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों , इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है । जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है । नालेज अपडेट , सेमिनार आयोजन , शोध जर्नल्स का प्रकाशन , इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है । यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है ।

इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है । लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।

जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की । अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे  सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है ।

मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है । मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है ।
इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत गुरुवार के दिन यहां विदेश में किसान बाज़ार जाने का अवसर मिला तो लगा की अपने देश के समान छोटे किसान गठरी में अपने उत्पाद विक्रय करने आते होंगे। जो अधिकतर मुख्य सब्जी मंडी के आस पास सुबह के समय आकर ताज़ी सब्जियां सस्ते में विक्रय कर देते हैं।

यहां का माहौल कुछ अलग ही है। किसान अपने-अपने तंबू नुमा काउंटर में कुर्सी पर बैठ कर सब्जियों, अंडे, शहद इत्यादि विक्रय कर रहे थे। उनका विक्रय मूल्य सामान्य से कुछ अधिक था। बाज़ार बंद होने के समय उनसे पूरा ढेर के लिए छूट पूछी तो बताया यहां के भाव तय हैं। सभी किसान अपने समान सहित छोटे वातानुकूलित ट्रक/वैन इत्यादि में भरकर रवाना हो गए। हमारे किसान तो लाए गए उत्पाद को औने पौने दाम में विक्रय कर ही वापिस जातें हैं। यहां के किसान के पास वातानुकूलित स्टोरेज की उत्तम व्यवस्था जो उपलब्ध हैं।

किसान बाज़ार के प्रचार में भी “स्थानीय खरीद को प्राथमिकता दिए जाने ” का संदेश है,हमारे देश में भी आजकल “Vocal for Local” की ही बात हो रही हैं।

एक चीज़ और हमारे देश जैसी अवश्य देखने को मिली,यहां भी एक वृद्ध सज्जन अपने तंबू में चाकू/ छुरियां की धार तेज कर रहे थे। उनसे बातचीत हुई तो जानकारी मिली कि वे एक सेवानिवृत हैं, और अपने को व्यस्त रखने के लिए ये रोज़गार अपना लिया है। वो भी अपना ताम झाम समेट अपनी वैन से चले गए। हमारे देश में तो चाकू तेज़ करने वाले पैदल या साइकिल का ही उपयोग कर अपना जीवकोपार्जन करते हैं। यहां पर जीवन और व्यवसाय में सुविधायुक्त साधन उपलब्ध है,इसलिए श्रम का उपयोग सीमित हैं। विदेश में श्रम को सबसे मूल्यवान माना जाता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17- अध्याय – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 17 – अध्याय – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

साधु सन्त के तुम रखवारे ।

असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।

अस बर दीन जानकी माता ।।

अर्थ:– आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं।

आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं। आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान करने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।

भावार्थ:- श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं।श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है। साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं। श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे कोई बात मनवानी हो तो आप श्री हनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं।

माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है। इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं।

संदेश:- अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

1-साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से दुष्टों का नाश होता है, आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।

विवेचना:- पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे साधु और संतों के रखवाले हैं। असुरों के संहारक हैं और रामचंद्र जी के दुलारे हैं।

 इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं। पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन संत है। इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा।

साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है:-

 ‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः’ (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।)।

वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है। आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर साफ करके गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं। यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है। वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है।

 एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें। वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं।‘

 ‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है। वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है। जादू टोने का कार्य करने वाले कोई जादूगर आदि हो सकते हैं सच्चे साधु सन्यासी नहीं। ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे। उनको निरंतर द्रव्य प्रदान करती रहे।

इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता। आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।

कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं। यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है।परंतु यह परिभाषा मेरे विचार से सही नहीं है। साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है। उसे विद्वान होना ही चाहिए। आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं।

 कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है।

 आईये अब हम साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं। साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति। इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है। साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे।

आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं। इस शब्द का अर्थ है सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति। प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं। सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को संत कह दिया जाता है। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं।

मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं। उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है। वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है।

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं। उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं। उनके हर दुखों को दूर करते हैं। यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए। उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं। एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो। जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे।

यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है। इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं।

श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं। जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें। उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है। हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है।

आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है। यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं। अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं। इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है। दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है। हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है। उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड / लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।

सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं।

1-सिंहिका वध -जब श्री हनुमान जी माता सीता का पता लगाने के लिए समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था। उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी। जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी। इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी। हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया। हनुमान जी की गति रुक गई। गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है। इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण,श्रीरामचरितमानस और हनुमत पुराण में अलग-अलग है।

हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेग पूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े। भूधराकार, महा तेजस्वी महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका पिसकर चूर चूर हो गई।

वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है। इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।

ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।

उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)

रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था। यह आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था।हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया। परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए।

किंकर राक्षसों का वध –

देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए। वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे। उनको रोकने के लिए कींकर राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया। जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।

स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।

स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)

विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।

स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।।

युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)

रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है।

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।

फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखवारे।

कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा-

सुनि रावन पठए भट नाना।

तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥

सब रजनीचर कपि संघारे।

गए पुकारत कछु अधमारे॥

भावार्थ:— यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की।

हनुमानजी ने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए॥

चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों की हत्या-

अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये। एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे। वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है-

दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।

स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।।

(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)

जम्बुमाली वध – इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।

जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।

चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।।

स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।

अमात्यपुत्त्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/44/19-20)

प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।

परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्नानुसार हैं-

1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध

2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध

इसके बाद रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी हनुमान जी द्वारा मारे गए।

3-रावणपुत्र अक्षकुमार का वध

स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।

सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/47/36)

नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनकी धारा बहने लगी, शरीरकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियोंके जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियोंके बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान्जीके हाथसे मारा गया॥

4-लंका दहन

5-धूम्राक्ष का वध

5-अकम्पन का वध

6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध

7-निकुम्भ का वध

8-अहिरावण का वध

महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे।

इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया।

 अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है। ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।

करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।

निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।”

पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

इस प्रकार असुरों को समाप्त करके हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए। रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये।

 अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं :-

 “अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,

 अस बर दीन जानकी माता”

 मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं। इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां थीं परंतु इनको वे किसी को दे नहीं सकते थे। माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं।

 भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों की और 9 निधियों की बहुत महत्व है। अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है।

अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।

प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

अर्थ – अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां “अष्टसिद्धि” कहलाती हैं।

ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ज्यादा प्रसिद्ध हैं।

1-अणिमा – अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे। हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था। यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।

2-महिमा – शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है। सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था। यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे।

3-गरिमा – शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है। यह व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है। महाभारत काल में,भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के, आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे। भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी। भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं। उठ नहीं पाता हूं। आप हटा दीजिए। भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए। इस प्रकार भीम जी का अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया।

4- लघिमा – शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है। इसमें शरीर का माप वही रहता है परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है। इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं।

5- प्राप्ति – बिना रोक टोक के किसी भी स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता। प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है। एक पुस्तक है Living with Himalayan masters . इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है। इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे। मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी, मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के कार्यपालन यंत्री श्री एमडी दुबे साहब से हुई थी। उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है। इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री तत्काल बुला देते थे। मुझको उन्होंने एक शिवलिंग बुलाकर दिया था। वर्तमान में वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं। मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक श्री हिमांशु तिवारी द्वारा श्री यंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्री यंत्र अर्पण किया था।

6- प्राकाम्य – इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है। कई लोगों ने वाराणसी में गंगा नदी को चलकर के पार किया है।

7- ईशित्व – प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने बस में कर सकता है। अगर वह चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी।

8- वशित्व – प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है। हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की सिद्धि होती है।

अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।

परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती। अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए। भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं। एकबार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता। उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है।

कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है। एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी। उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की। उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये। थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’

तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी। मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया। उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी। मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी। जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही। कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।

हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है। गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता। मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती। ऐसे ही मन का भी है। गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है। इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।

इस अध्याय का शेष भाग अगले अंक में …

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 182 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 182 विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 181 ☆ शिवोऽहम्… (6) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 181 शिवोऽहम्… (6) ?

आत्मषटकम् के छठे और अंतिम श्लोक में आदिगुरु शंकराचार्य महाराज आत्मपरिचय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।

न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं किसी भिन्नता के बिना, किसी रूप अथवा आकार के बिना, हर वस्तु के अंतर्निहित आधार के रूप में हर स्थान पर उपस्थित हूँ। सभी इंद्रियों की पृष्ठभूमि में मैं ही हूँ। न मैं किसी वस्तु से जुड़ा हूँ, न किसी से मुक्त हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

विचार करें, विवेचन करें तो इन चार पंक्तियों में अनेक विलक्षण आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मरूप स्वयं को समस्त संदेहों से परे घोषित करता है। आत्मरूप एक जैसा और एक समान है। वह निश्चल है, हर स्थिति में अविचल है।

आत्मरूप निराकार है अर्थात  जिसका कोई आकार नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू है कि आत्मरूप किसी भी आकार में ढल सकता है। आत्मरूप सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित है, सर्वव्यापी है। आत्मरूप में न  मुक्ति है, न ही बंधन। वह सदा समता में स्थित है। आत्मरूप किसी वस्तु से जुड़ा नहीं है, साथ ही किसी वस्तु से परे भी नहीं है। वह कहीं नहीं है पर वह है तभी सबकुछ यहीं है।

वस्तुतः मनुष्य स्वयं के आत्मरूप को नहीं जानता और परमात्म को ढूँढ़ने का प्रयास करता है। जगत की इकाई है आत्म। इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतः जगत के नियंता से परिचय करने से पूर्व स्वयं से परिचय करना आवश्यक और अनिवार्य है।

मार्ग पर जाते एक साधु ने अपनी परछाई से खेलता बालक देखा। बालक हिलता तो उसकी परछाई हिलती। बालक दौड़ता तो परछाई दौड़ती। बालक उठता-बैठता, जैसा करता स्वाभाविक था कि परछाई की प्रतिक्रिया भी वैसी होती। बालक को आनंद तो आया पर अब वह परछाई को प्राप्त करना का प्रयास करने लगा। वह बार-बार परछाई को पकड़ने का प्रयास करता पर परछाई पकड़ में नहीं आती। हताश बालक रोने लगा। फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि बालक ने अपना हाथ अपने सिर पर रख दिया। परछाई का सिर पकड़ में आ गया। बालक तो हँसने लगा पर साधु महाराज रोने लगे।

जाकर बालक के चरणों में अपना माथा टेक दिया। कहा, “गुरुवर, आज तक मैं परमात्म को बाहर खोजता रहा पर आज आत्मरूप का दर्शन करा अपने मुझे मार्ग दिखा दिया।”

आत्मषटकम् मनुष्य को संभ्रम के पार ले जाता है, भीतर के अपरंपार से मिलाता है। अपने प्रकाश का, अपनी ज्योति की साक्षी में दर्शन कराता है।

इसी दर्शन द्वारा आत्मषटकम् से निर्वाणषटकम् की यात्रा पूरी होती है। निर्वाण का अर्थ है, शून्य, निश्चल, शांत, समापन। हरेक स्थान पर स्वयं को पाना पर स्वयं कहीं न होना। मृत्यु तो हरेक की होती है, निर्वाण बिरले ही पाते हैं।

षटकम् के शब्दों को पढ़ना सरल है। इसके शाब्दिक अर्थ को जानना तुलनात्मक रूप से   कठिन। भावार्थ को जानना इससे आगे की यात्रा है,  मीमांसा कर पाने का साहस उससे आगे की कठिन सीढ़ी है पर इन सब से बहुत आगे है आत्मषट्कम् को निर्वाणषटकम् के रूप में अपना लेना। अपना निर्वाण प्राप्त कर लेना। यदि निर्वाण तक पहुँच गए तो शेष जीवन में अशेष क्या रह जाएगा? ब्रह्मांड के अशेष तक पहुँचने का एक ही माध्यम है, दृष्टि में शिव को उतारना, सृष्टि में शिव को निहारना और कह उठना, शिवोऽहम्…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “माझ्या आर्मी लाईफची एक झलक” भाग – 1 – लेखिका – सुश्री संध्या बेडेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री कालिंदी नवाथे ☆

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☆ “माझ्या आर्मी लाईफची एक झलक” भाग – 1 – लेखिका – सुश्री संध्या बेडेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री कालिंदी नवाथे ☆

हा लेख सेनेच्या सर्व  Lady Wives ना समर्पित करते.” 

“Proud To Be A Wife Of Indian Soldier.” 

आज आम्ही सर्व बहिणी एकत्र जमलो होतो .आमचे स्पेशल गेटटूगेदर होते . ताईच्या घरी नुकतेच renovation झाल्यामुळे घर मस्त दिसत होते. आता  त्यांनी वयाच्या  व सवयींच्या  अनुरूप   घरात चेंजेस केले होते.

ताई म्हणाली,

अग !! तीस वर्षे झाली. लग्नानंतर काही वर्षांनी आम्ही या घरात रहायला आलो. तेच ते बघून बघून कंटाळा आला होता . मुलांची शिक्षण ,लग्न  सर्व याच घरात झाली .••••

मी हसले, … तर ताई म्हणाली,… का ग ? कशाला हसलीस ?? …

मी म्हटलं,… अगं!!  या तीस वर्षांत तर मी अक्षरशः अर्ध्या भारतभर फिरले . या  अवधीत किती घर बदलली ???व मुलांच्या किती शाळा बदलल्या ??? मोजावेच  लागेल मला.

आता मात्र सर्वांची उत्सुकता वाढली.

‘आर्मी लाईफ’ वेगळेच  असते. त्याबद्दल जाणून घ्यायची उत्सुकताही असते.  काही समज गैरसमज ही असतात .आज सर्वांनी आग्रह केला , म्हणून मी त्यांना माझ्या तीस वर्षांहून जास्त आर्मी  लाईफचा अनुभव   सांगायला सुरुवात केली.

मी म्हटलं,

लग्नानंतर सामान्यतः एका  स्त्रीचे आयुष्य म्हणजे तिचा नवरा त्याची नोकरी,  मुले त्यांचे शिक्षण, घर सांभाळणे. प्रामुख्याने हेच तिचे विश्व असते . नवऱ्याच्या नोकरीवर तिचे आयुष्य अवलंबून असते . दोघांनी मिळून  घराकडे लक्ष द्यायचे. हा एक साधारण अलिखित करार असतो. 

परंतु ‘आर्मी ऑफिसर’ बरोबर लग्न झाल्यावर हे समीकरण थोडं बदलत. कारण, 

“An Army man is on duty for 24 hours.” 

येथे ‘No ‘ शब्द चालतच नाही. It is always ‘YES ‘ and only ‘YES.’

नोकरी बरोबर  मधून मधून कोर्सेसही असतात. युद्ध व्हाव अस कधीच कोणाला वाटत नाही. पण झालंच तर तुमची तयारी असावी. म्हणून “जीत का मंत्र ” द्यायला, 

“लक्ष की ओर हमेशा अग्रसर’ रहायला ‘physically mentally toughness’  जागृत ठेवायला , वेगवेगळे कोर्सेस होत राहतात. कोणत्याही वेळेस युद्ध जिंकायला तयार असणे. याची तयारी होत असते. 

“Actually, any army personnel is paid for this day only.”

“आधी  देशाचे काम मग घरचे.” हा साधा सरळ हिशोब असतो.

हे सर्व  नोकरीत रुजू व्हायच्या आधी माहीत असतंच. ही नोकरी करणे  तुमचा ‘choice’ असतो. तुम्हीच  ठरविलेले असते. आर्मी ऑफिसर शी लग्न झाल्यावर का?? कशाला?? मीच का??  असे प्रश्न उद्भवतच नाही.

म्हणून बायकोची जबाबदारी  वाढते. 

आता थोडं माझ्याबद्दल म्हणजे जनरल ‘army wives’ बद्दल सांगायचे झाले तर थोडयाफार फरकाने सर्वांची स्टोरी मिळतीजुळतीच असते.

रिटायरमेंट नंतर, सध्या ज्या घरात  मी पर्मनंट राहते आहे , ते माझ्या आयुष्यातले  ‘विसावे’  घर आहे.  म्हणजे आजपर्यंत मी वेगवेगळ्या शहरात वेगवेगळया घरात राहिले. कधी दहा खोल्यांच्या जुन्या  ब्रिटिशकालीन बंगल्यात, तर कधी अगदी दोन खोल्यांचे घर. 

प्रत्येक ‘Posting’ मधे अशीच तयारी करायची की, कुठेही सहज राहता येईल, स्वयंपाक करता  येईल . म्हणजे  प्रत्येक Posting मधे  ‘mini ‘ संसाराच्या चार पेट्या तयार करायच्या, व वेळ निभावून घ्यायची.  “स्वयंपाक ,शाळा, अभ्यास “या तीन गोष्टींना प्राथमिकता द्यायची व नवीन जागी लवकरात लवकर ‘ adjust ‘ व्हायचा प्रयत्न करायचा . आमच्या ‘Comfort’  ची व्याख्या  खूप सीमीत होती. 

प्रत्येक ‘Posting ‘ मधे दोन तीन पेट्या वाढायच्याच. असं म्हणतात, पेटयांचा टोटल  नंबर मोजून  आर्मी ऑफिसरची ‘Rank’ व एकंदर किती ‘Postings’ झाल्या ते कळत. आम्ही  रिटायर्ड झालो, तेव्हा ‘सत्तर’ पेटया होत्या.  म्हणजे  नोकरीच्या  पस्तीस वर्षाचा आमचा  संसार त्या जीवाभावाच्या पेट्यांमधे होता.

तुमचे विचार खूप स्पष्ट असले , तर तुम्ही तुमचे आयुष्य छान प्लान करू शकता. आम्हाला या नोकरीचे प्लस मायनस points माहीत होते. म्हणून आम्ही आधीच  ठरवले की व्यवस्थित रहायचे. मग पेटयांचा नंबर वाढणारच. त्या टिपिकल काळया लाकडी पेट्या खूप कामाच्या होत्या. त्यांनी आयुष्यभर खूप इमानदारीने आमची साथ दिली. कधी पलंग, तर कधी पेटी. आवश्यकतेनुसार त्यात सामान ठेवून वेळोवेळी काळया पेटयांची मदत झाली.    

आता मुलींच्या  शिक्षणाबद्दल सांगायचे झाले तर, माझ्या  मुलीने बारावी पास होईपर्यंत  बारा शाळांमधून शिक्षण घेतले.  म्हणजे साधारण प्रत्येक वर्षी… नवीन  शाळा, शिक्षक, मित्र मैत्रिणी बदलायच्या. प्रत्येक नवीन जागी स्वतःला  प्रूव्ह करायचे. बरं, हे  सर्व  वर्ष  सुरू  होण्यापूर्वीच होईल असे नाही. एकदा तर ‘ half yearly ‘ परीक्षेच्या एक दिवस आधी अॅडमिशन घेतली . दुसऱ्या दिवशीपासून सुरू होणाऱ्या परीक्षेचे सिलेबस व रोल नंबर घेऊन घरी आलो . ‘उधमपूर ‘ ‘जम्मू काश्मीर’  मधील‌  ही नवीन जागा, ती पण पहाडी , शाळेत एडमिशन साठी जाताना एक  मुलगी रडली व येताना दुसरी . व त्यात  आणखी भर‌ म्हणजे  त्यांचे बाबा आमच्याबरोबर नवीन जागी नव्हते . वेळेवर काही कारणाने त्यांना  थांबावे लागले. मी मुलींना घेऊन उधमपूरला पोचले होते. मला तो दिवस चांगला आठवतो . त्यादिवशी दोघींनी दहा बारा तास अभ्यास करून दुसऱ्या दिवशीच्या परीक्षेची तयारी केली होती .कारण सिलेबस वेगळा होता. 

आर्मीमध्ये नेहमी नवऱ्याबरोबर राहता येईलच, असे नसते, ‘Field posting’ मधे फॅमिलीला  बरोबर राहता येत नाही . म्हणून अशा तडजोडी करण्याशिवाय दुसरा पर्याय नसतोच . यात एकच खंत वाटते की  अगदी लहानपणापासूनचे  बरोबर शिकलेले मित्र  मैत्रिणी माझ्या मुलींना नाहीत .  

यातही  एक  सकारात्मक  विचार असा की… प्रत्येक नवीन स्टेशनवर ,नवीन मुलांमध्ये , पहिल्या ‘पाच ‘ मधे तुम्ही आपली पोझिशन  मेन्टेन ठेवली, तर‌ आयुष्यात पुढे द्याव्या लागणाऱ्या ‘competitive ‘ परीक्षेची तयारी आपोआपच होत  जाते. मुलेही टफ लाईफला सामोरे जायला हळूहळू शिकतात . हे सर्व  खूप सोप्प नक्कीच नव्हतं, पण दुसरा पर्यायही नव्हता. बरे असो, याचा प्रभावी परिणाम आता दिसतोय. सर्वांना कुठेही  सहज एडजस्ट होता येतंय.

– क्रमशः भाग पहिला. 

लेखिका : सुश्री संध्या बेडेकर

प्रस्तुती : सुश्री कालिंदी नवाथे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य ??

विज्ञान को सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है जबकि कविता को कल्पना की उड़ान। ज्ञान, ललित कलाओं और विज्ञान में धुर अंतर देखनेवालों को स्मरण रखना चाहिए कि राइट बंधुओं ने पक्षियों को उड़ते देख मनुष्य के भी आकाश में जा सकने की कल्पना की थी‌। इस कल्पना का परिणाम था, वायुयान का आविष्कार।

सांप्रतिक वैज्ञानिक काल यथार्थवादी कविताओं का है। ऐसे में दर्शन और विज्ञान में एक तरह का समन्वय देखने को मिल सकता है। मेरा रुझान सदैव अध्यात्म, दर्शन और साहित्य में रहा। तथापि अकादमिक शिक्षा विज्ञान की रही। स्वाभाविक है कि चिंतन-मनन की पृष्ठभूमि में विज्ञान रहेगा।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ कविता स्वत: संभूत है। यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है।

अपनी कविता की चर्चा करूँ तो उसका आकलन तो पाठक और समीक्षक का अधिकार है। मैं केवल अपनी रचनाप्रक्रिया में अनायास आते विज्ञान की ओर विनम्रता से रेखांकित भर कर सकता हूँ।

‘मायोपिआ’ नेत्रदोष का एक प्रकार है। यह निकट दृष्टिमत्ता है जिसमें दूर का स्पष्ट दिखाई नहीं देता। निजी रुझान और विज्ञान का समन्वय यथाशक्ति ‘मायोपिआ’ शीर्षक की कविता में उतरा। इसे नम्रता से साझा कर रहा हूँ।

वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

आइंस्टिन का सापेक्षता का नियम सर्वज्ञात है। ‘ई इज़ इक्वल टू एम.सी. स्क्वेयर’ का सूत्र उन्हीं की देन है। एक दिन एकाएक ‘सापेक्ष’ कविता में उतरे चिंतन में गहरे पैठे आइंस्टिन और उनका सापेक्षता का सिद्धांत

भारी भीड़ के बीच

कर्णहीन नीरव,

घोर नीरव के बीच

कोलाहल मचाती मूक भीड़,

जाने स्थितियाँ आक्षेप उठाती हैं

या परिभाषाएँ सापेक्ष हो जाती हैं,

कुछ भी हो पर हर बार

मन हो जाता है क्वारंटीन,

….क्या कहते हो आइंस्टीन?

(कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ से)

कविता के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।’

न्यूक्लिअर चेन रिएक्शन की आशंकाओं पर मानुषी प्रकृति की संभावनाओं का यह चित्र नतमस्तक होकर उद्धृत कर रहा हूँ,

वे देख-सुन रहे हैं

अपने बोए बमों का विस्फोट,

अणु के परमाणु में होते

विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,

मैं निहार रहा हूँ

परमाणु के विघटन से उपजे

इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,

आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से,

जिसमें छिपी है

अनगिनत अणु और

असंख्य परमाणु की

शाश्वत संभावनाएँ,

हर क्षुद्र विनाश

विराट सृजन बोता है,

शकुनि की आँख और

संजय की दृष्टि में

यही अंतर होता है।

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

अपनी कविता के किसी पक्ष की कवि द्वारा चर्चा अत्यंत संकोच का और दुरूह कार्य है। इस सम्बंध में मिले आत्मीय आदेश का विनयभाव से निर्वहन करने का प्रयास किया है। इसी विनयभाव से इस आलेख का उपसंहार करते हुए अपनी जो पंक्तियाँ कौंधी, उनमें भी डी एन ए विज्ञान का ही निकला,

ये कलम से निकले,
काग़ज़ पर उतरे,
शब्द भर हो सकते हैं
तुम्हारे लिए,
मेरे लिए तो
मन, प्राण और देह का
डी एन ए हैं !

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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