हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #170 ☆ अनुकरणीय सीख ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुकरणीय सीख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 170 ☆

☆ अनुकरणीय सीख

‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। इस बात को जितनी जल्दी मान लोगे, ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी’ अब्दुल कलाम जी की यह सीख अनुकरणीय है। आप अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि जैसे कर्म आप करते हैं, वैसा ही फल आपको प्राप्त होता है। सो! आपके कर्मों के लिए दोषी कोई अन्य कैसे हो सकता है? वैसे दोषारोपण करना मानव का स्वभाव होता है, क्योंकि दूसरों पर कीचड़ उछालना अत्यंत सरल होता है। दुर्भाग्य से हम यह भूल जाते हैं कि कीचड़ में पत्थर फेंकने से उसके छींटे हमारे दामन को भी अवश्य मलिन कर देते हैं और जितनी जल्दी हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाती है। वास्तव में मानव ग़लतियों का पुतला है, परंतु वह दूसरों पर आरोप लगा कर सुक़ून पाना चाहता है, जो असंभव है।

‘विचारों को पढ़कर बदलाव नहीं आता; विचारों पर चलकर आता है।’ कोरा ज्ञान हमें जीने की राह नहीं दिखाता, बल्कि हमारी दशा ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ व ‘थोथा चना, बाजे घना’ जैसी हो जाती है। जब तक हमारे अंतर्मन में चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं होती; भटकाव निश्चित् है। इसलिए हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व उसके सभी पक्षों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। यदि हम तुरंत निर्णय दे देते हैं, तो उलझनें व समस्याएं बढ़ जाती हैं। इसलिए कहा गया है ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ क्योंकि जिह्वा से निकले शब्द व कमान से निकला तीर कभी लौटकर नहीं आता। द्रौपदी का एक वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ महाभारत के युद्ध का कारण बना। वैसे शब्द व वाक्य जीवन की दिशा बदलने का कारण भी बनते हैं। तुलसीदास व कालिदास के जीवन में बदलाव उनकी पत्नी के एक वाक्य के कारण आया। ऐसे अनगिनत उदाहरण विश्व में उपलब्ध हैं। सो! मात्र अध्ययन करने से हमारे विचारों में बदलाव नहीं आता, बल्कि उन्हें अपने जीवन में धारण करने पर उसकी दशा व दिशा बदल जाती है। इसलिए जीवन में जो भी अच्छा मिले, उसे अपना लें।

अनुमान ग़लत हो सकता है, अनुभव नहीं। यदि जीवन को क़ामयाब बनाना है, तो याद रखें – ‘पांव भले ही फिसल जाए, ज़ुबान को कभी ना फिसलने दें।’ अनुभव जीवन की सीख है और अनुमान मन की कल्पना। मन बहुत चंचल होता है। पल-भर में ख़्वाबों के महल सजा लेता है और अपनी इच्छानुसार मिटा डालता है। वह हमें बड़े-बड़े स्वप्न दिखाता है और हम उनके पीछे चल पड़ते हैं। वास्तव में हमें अनुभव से काम लेना चाहिए; भले ही वे दूसरों के ही क्यों न हों? वैसे बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव से सीख लेते हैं और सामान्य लोग अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। परंतु मूर्ख लोग अपना घर जलाकर तमाशा देखते हैं। हमारे ग्रंथ व संत दोनों हमें जीवन को उन्नत करने की सीख देते और ग़लत राहों का अनुसरण करने से बचाते हैं। विवेकी पुरुष उन द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलकर अपना भाग्य बना लेते हैं, परंतु अन्य उनकी निंदा कर पाप के भागी बनते हैं। वैसे भी मानव अपने अनुभव से ही सीखता है। कबीरदास जी ने भी कानों-सुनी बात पर कभी विश्वास नहीं किया। वे आंखिन देखी पर विश्वास करते थे, क्योंकि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती और उसका पता हमें उसे परखने पर ही लगता है। हीरे की परख जौहरी को होती है। उसका मूल्य भी वही समझता है। चंदन का महत्व भी वही जानता है, जिसे उसकी पहचान होती है, अन्यथा उसे लकड़ी समझ जला दिया जाता है।

यदि नीयत साफ व मक़सद सही हो, तो यक़ीनन किसी न किसी रूप में ईश्वर आपकी सहायता अवश्य करते हैं, जिसके फलस्वरूप आपकी चिंताओं का अंत हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा में विश्वास रखते हुए सत्कर्म करते जाओ; आपका कभी भी बुरा नहीं होगा। यदि हमारी नीयत साफ है अर्थात् हम में दोग़लापन नहीं है; किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं है, तो वह हर विषम परिस्थिति में आपकी सहायता करता है। हमारा लक्ष्य सही होना चाहिए और हमें ग़लत ढंग से उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यदि हमारी सोच नकारात्मक होगी, तो हम कभी भी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाएंगे; अधर में लटके रह जाएंगे। इसके साथ एक अन्य बात की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमारे पाँव सदैव ज़मीन पर टिके रहने चाहिए। उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में अहं का भाव जाग्रत नहीं होगा, जो हमें सत्य की राह पर चलने को प्रेरित करेगा और भटकन की स्थिति से हमारी रक्षा करेगा। इसके विपरीत अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव हमें वस्तुस्थिति व व्यक्ति का सही आकलन नहीं करने देता, बल्कि हम दूसरों को स्वयं से हेय समझने लगते हैं। अहं दौलत का भी भी हो सकता है; पद-प्रतिष्ठा व ओहदे का भी हो सकता है। दोनों स्थितियाँ घातक होती हैं। वे मानव को सामान्य व कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं रहने देती। हम दूसरों पर आधिपत्य स्थापित कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं।यह अकाट्य सत्य है कि ‘पैसा बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं: अच्छे कपड़े दे सकता है, सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। सो! दौलत पर कभी भी ग़ुरूर नहीं करना चाहिए।’

अहंकार व संस्कार में फ़र्क होता है। अहंकार दूसरों को झुकाकर खुश होता है; संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। इसलिए बच्चों को सुसंस्कृत करने की सीख दी जाती है; जो परमात्मा में अटूट आस्था, विश्वास व निष्ठा रखने से आती है। तुलसीदास जी ने भी ‘तुलसी साथी विपद् के विद्या, विनय, विवेक’ का संदेश दिया है। जब भगवान हमें कठिनाई में छोड़ देते हैं, तो विश्वास रखें कि या तो वे तुम्हें गिरते हुए थाम लेंगे या तुम्हें उड़ना सिखा देंगे। प्रभु की लीला अपरंपार है, जिसे समझना अत्यंत कठिन है। परंतु इतना निश्चित है कि वह संसार में हमारा सबसे बड़ा हितैषी है। इंसान संसार में भाग्य लेकर आता है और कर्म लेकर जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। परंतु वह अपने कृत-कर्म लेकर जाता है, जो भविष्य में उसके जीवन का मूलाधार बनते हैं। इसलिए रहीम जी कहते हैं कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’

सो! संसार में मन की शांति से बड़ी कोई संपत्ति नहीं है। महात्मा बुद्ध शांत मन की महिमा का गुणगान करते हैं। ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्कारियां/ वरना पैदा तो हर इंसान साफ़ दिल से होता है।’ इसलिए मानव को ऐसे लोगों से सचेत व सावधान रहना चाहिए, जिनका ‘तन उजला और मन मैला’ होता है।’ ऐसे लोग कभी भी आपके मित्र व हितैषी नहीं हो सकते। वे किसी पल भी आपकी पीठ में छुरा घोंप सकते हैं। ‘भरोसा है तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलते हैं।’ इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न कीजिए; ज़िंदगी छोटी हो जाती है। ‘गुस्से के वक्त रुक जाना/ ग़लती के वक्त झुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद।’ हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ की तरह मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की कद्र करें; वे भाग्य से मिलते हैं। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि मानव स्वयं अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है और उस तथ्य को स्वीकारना ही बुद्धिमानी है, महानता है। सो! अपनी सोच, व्यवहार व विचार सकारात्मक रखें; वे ही आपके भाग्य-निर्माता व भाग्य-विधाता हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है  स्वर्गीय राजुरकर राज जी की स्मृति में यह आलेख  “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…”)

? आलेख – “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

15 फ़रवरी 2023 का दिन भोपाल के साहित्यकारों के लिए एक मायूसी भरा दिन रहा।  सुबह ही हर दिल अज़ीज़ राजुरकर राज के अवसान की खबर मिली। जो जहाँ था, उसने आँख मूँद कर हृदय विदारक खबर को ईश्वर का विधान समझ कर स्वीकार किया। फिर भी सहसा अहसास हुआ कि दुष्यंत संग्रहालय पहुँचेंगे तो बीमारी से त्रस्त देह पर एक मुस्कुराता चेहरा उनका स्वागत करेगा। वह आपको पता नहीं चलने देगा कि वह अंदर ही अंदर सिमट रहा है। संग्रहालय की योजनाओं को मूर्त रूप न देने पाने के जुनून में घुट रहा है। वह एक बहुत बड़े ख़्वाब के ताबीर के बहुत नज़दीक था। उसे भरोसा हो चला था कि शासन से ज़मीन का एक टुकड़ा मिल जाये तो संग्रहालय का ख़ुद का भवन भोपाल के ज़मीन पर खड़ा हो जाये। एक ऐसा तीर्थ स्थल बन जाये जहाँ भोपाल पहुँचने वाले हर कलाप्रेमी साहित्यकार की आँखें नम होकर पूर्वजों की धरोहर को नमन करें। नियति उसे चेतावनी देती थी। वो उसे कान पर भिनभिनाती मक्खी समझ एक हाथ से झटक देता और ख़्वाब को सच करने के बारे में योजना बनाने लगता। इसके पहले कि भोपाल में ज़मीन का टुकड़ा उसके ख़्वाब के ताबीर का सबब बने, वह ख़ुद ज़मींदोज़ हो गया।

हम सबके पास समय तो होता है लेकिन कोई लक्ष्य और उसे पूरा करने की ज़िद, जुनून और जोश नहीं होता जो राजुरकर के रोम-रोम में समाया था। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, महुआ हाउस में कार्यकारिणी की बैठक में उत्साह से भरा आदमी संग्रहालय की योजनाओं का न सिर्फ़ खाका खींच रहा था अपितु उन्हें साकार करने की ज़िद के वशीभूत निर्णयों की भूमिका तैयार कर रहा था।   

यह महत्वपूर्ण नहीं है की एक सपना पूरा हुआ या नहीं बल्कि यह मायने रखता है कि सपना देखना और उसे पूरा करने में पूरी सिद्दत से लगे रहना- यही राजुरकर राज था।

ख़्वाब देखना मनुष्य की मजबूरी है। उसे पूरा होने देना या बिसूर देना रब की जी हुज़ूरी है। लेकिन राजुरकर के ख़्वाब को पूरा करना हम सबको ज़रूरी है। वही उन्हें सच्ची श्रद्धांजली होगी। दुष्यंत और उनके सच्चे प्रेमी राजुरकर की यादों को संजोने का एक स्मृति स्थल साकार हो जाये। अशोक निर्मल, रामराव वामनकर और संग्रहालय की कार्यकारिणी सदस्यों पर यह महती ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। भोपाल ही नहीं भारत भर के साहित्य प्रेमी उनके ख़्वाब को भोपाल की सरज़मीं पर उतरते देखना चाहेंगे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में भले ही विगत दो दशक से बड़े-बड़े मॉल अपने जाल में जन साधारण को फँसाने के प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इनकी सफलता का पैमाना अभी भी बहुत पीछे चल रहा है। एक दशक से ऑनलाइन के बड़े खिलाड़ी भी अभी आरंभिक अवस्था में ही झूल रहे हैं।

हमारी प्राचीन दुकान/फुटकर प्रणाली की जड़े बहुत गहरी हैं। उनमें कमियां ज़रूर हैं, परंतु   परिवर्तन के साथ मूलभूत प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

यहाँ विदेश में सड़कों/गलियों में छोटी दुकानें या ठेले पर विक्रय करने के स्थान पर खुले स्थानों पर तीस/चालीस बड़े-बड़े और खुले स्थान में व्यवस्थित ढंग से बने हुए शोरूम के बाज़ार होते हैं। कम से कम सैकड़ों या हज़ार से भी अधिक कार पार्किंग का स्थान उपलब्ध होता है।

हर सामान बिल से विक्रय होता है, सबके भाव तय रहते हैं। हमारे देश में तो आधा जीवन मोल भाव में ही व्यर्थ हो जाता है। अंत में हमेशा ऐसा महसूस होता है कि अभी  भी महंगा क्रय कर लिया है। क्रेता और विक्रेता हमेशा दोनों एक दूसरे से ऊपर रहने के अनवरत प्रयास करते रहते हैं। गृहणियां सब्ज़ी वाले से मुफ्त धनिया प्राप्त करके प्रसन्नता महसूस करती हैं।

यहाँ बाज़ार से क्रय किए हुए समान को उस दुकान की किसी भी अन्य शाखा में वापस कर राशि प्राप्त हो जाती है।

ऐसी जानकारी भी मिली है, कि कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे देश के प्रवासी अपने यहाँ आए हुए मेहमानों को बाज़ार से लाकर ठंड से बचने के जैकेट इत्यादि को कुछ माह उपयोग में लाकर मेहमान के जानें के पश्चात दुकानदार को वापस कर देते थे। अब यहाँ एक/ दो सप्ताह में ही सामान वापस किया जा सकता है। लंबे समय से रह रहे प्रवासी इस बाबत ऐसी आदतों से गुरेज़ करते हैं। किसी भी व्यवस्था का गलत लाभ लेना हमेशा अनुचित रहता है। यहाँ के निवासी छोटे लाभ का लालच कभी भी नहीं करते है। नियम का पालन करना यहाँ के निवासियों की रगो में है।

इन सब मूलभूत बातों से ही तो यहाँ का जीवन सरल और सुगम बना रहता है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 6 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 6 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

भीम रूप धरि असुर संहारे।

रामचंद्र के काज संवारे।।

अर्थ:-

श्री हनुमान जी जब लंका पहुंचे थे तो देवी सीता के आगे वो बहुत छोटा रूप धारण करके गए थे। वहीं जब उन्होंने लंका-दहन किया तो विकराल  रूप धारण कर लिया। असुरों का संहार करते समय हनुमान जी ने भीम जैसा विशाल रूप धारण कर लिया श्री हनुमान ने अपने प्रभु श्री राम के काम को आसान बना दिया।

भावार्थ:-

हनुमान जी अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता हैं उनके पास आठों सिद्धियां है उनके पास इस प्रकार से सिद्धियाँ भी हैं कि वे अपने रूप को अत्यंत छोटा या अत्यंत बड़ा कर सकते हैं। हनुमान जी बगैर किसी बाधा के मां सीता के पास जाना चाहते थे। बगैर किसी बाधा के पहुंचने के लिए लोगों की नजरों से बचना आवश्यकता था। इसलिए माता सीता के पास जाते समय उन्होंने अपना रूप अत्यंत छोटा कर लिया था। रूप अत्यंत छोटा होने के कारण  अशोक वाटिका के वृक्ष में वे आराम से छुप गए थे। उसके उपरांत राक्षसों को मारने के लिए उन्होंने अपनी  सिद्धि से अपने आकार को बहुत बड़ा कर लिया। लंका को जलाने समय भी उन्होंने अपने पूंछ का आकार अत्यंत लंबा कर लिया था। यह सब उन्होंने श्री रामचंद्र जी के कार्यों को संपन्न करने के लिए किया था।

संदेश:-

इससे यह संदेश मिलता है कि व्यक्ति अगर शांत और सेवा के भाव रखता है तो उसे सीधा न समझें। अपने प्रियजनों के मंगल के लिए वह रौद्र रूप भी धारण कर सकता है। वह अपने तेज से विसंगतियों का नाश कर सकता है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने  से होने वाला लाभ :-

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्र के काज संवारे।।

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां महान संकट में या शत्रुपक्ष से घिरने पर चमत्कारिक कृपा दिलाती है। 

विवेचना:-

यह चौपाई कर्म योग का बहुत अच्छा उदाहरण है। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो। आसक्ति रहित होकर कर्म करो। महावीर हनुमान जी कर्म इसलिए करते हैं कि कर्म करना उन्हें अच्छा लगता है। हनुमान स्वामी की स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है। वे कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करते। हनुमान जी जो भी कर्म करते हैं उसके बदले में भी कुछ भी नहीं चाहते हैं।

इन दोनों चौपाइयों का मुख्य अर्थ यह है कि हनुमान जी ने हर तरह का प्रयास करके रामचंद्र जी के  कार्य को पूर्ण किया है। हनुमान जी को कार्य के प्रकार से कोई मतलब नहीं है। हनुमान जी सीधा यह जानते हैं रामचंद्र जी का जो भी कार्य है उसको संपन्न करना है। कार्य को संपन्न करने के लिए जो भी युक्त उनकी समझ में आती है वह उसका उपयोग करते हैं।

अगर हम आज के संदर्भ में देखें तो हनुमान जी उस सेना नायक की तरह से हैं जिसके पास सेना नायक की शक्ति के साथ-साथ मंत्री परिषद की भी शक्ति है। श्री रामचंद्र जी का आदेश हनुमान जी के लिए कार्य है। कभी-कभी कार्य को वे स्वयं भी निर्धारित करते हैं। फिर कार्य को किस प्रकार से करना है इसके लिए वह किसी की सलाह नहीं लेते हैं। अपने बुद्धि और विवेक से वे यह निश्चित करते हैं इस कार्य को करने के लिए क्या उचित होगा। जैसे कि रामचंद्र जी से आज्ञा पाने के उपरांत वे सीता जी की खोज में चल दिए। समुद्र को पार करके वे श्रीलंका में पहुंचे। वहां पर उन्होंने सबसे पहले श्रीलंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को दंड देकर अपने वश में किया और श्रीलंका में प्रवेश किया।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है।

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार।।

मसक समान रूप कपि धरी।

लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी।

सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।

मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

मुठिका एक महा कपि हनी।

रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

इतना सब होने के बाद लंकिनी के होश ठिकाने आए और उसने कहा :-

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।

गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

लंकिनी ने अब स्वयं हनुमान जी से कहा कि आप अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। रघुनाथ जी की जिस पर कृपा होती है उसके लिए विष भी अमृत हो जाता है। शत्रु मित्रता करने लगते हैं। समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाती है। अग्नि में शीतलता आ जाती है।

वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। वाल्मीकि जी ने कहा है कि:-

तत्प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम्।।

विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि।

प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर शुभां पुरीं राक्षसमुख्यपालिताम्।

यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम्।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/3/50-51)

लंकिनी ने हनुमान जी से कहा कि हे कपि श्रेष्ठ अब आप रावण द्वारा पारित इस पुरी में प्रवेश कर जो कुछ करना चाहते हैं करें और जानकी जी का पता करें।

श्रीलंका में जाकर श्रीलंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को मारने का निर्णय हनुमान जी का ही था। इसका उनको उचित फल प्राप्त हुआ।

हनुमान जी ने विराट रूप कई बार धारण किया है। सूक्ष्म रूप भी आवश्यकता पड़ने पर धारण किया है। जैसे कि श्रीलंका में घुसते समय उन्होंने अपना रूप छोटा कर लिया था। तुलसी दास जी लिखते हैं :-

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥३॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

इसी प्रकार सीता जी को देखने के लिए पेड़ पर बैठने के समय हनुमान जी ने अपना रूप छोटा कर लिया था। इस घटना को गोस्वामी तुलसी दास जी ने और वाल्मीकि जी ने दोनों ने अपने-अपने ढंग से लिखा है। वाल्मीकि जी ने लिखा है कि :-

संक्षिप्तोऽयं मयाऽत्मा च रामार्थे रावणस्य च।

सिद्धिं मे संविधास्यन्ति देवाः सर्षिगणास्त्विह।।

(बाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/13/64)

अर्थात  श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए और रावण की दृष्टि से अपने को बचाने के लिए मैंने अपने शरीर को छोटा कर लिया है। इस समय देव गण और ऋषि गण मेरा अभीष्ट अवश्य पूरा करें।

इसी प्रकार जब सीता जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह छोटे-छोटे वानर राक्षसों का क्या बिगाड़ पाएंगे उस समय वानर राज में अपनी आकृति को बढ़ाया था और सीता जी को विश्वास दिलाया था। राक्षसों का संहार भी अपनी आकृति को बढ़ाकर कई बार किया है। रामचरितमानस में लिखा है कि हनुमान जी ने कहा कि :-

 निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

राक्षसों को मारकर आपको ले जाएंगे। तब राम चन्द्रजी का यह सुयश तीनों लोकों में नारद आदि मुनि गाएँगे।

इस बात को सुनने के बाद सीता जी को संशय हुआ कि क्या ये छोटे वानर बड़े बलवान राक्षसों का वध कर पाएंगे। सीता जी ने यह भी बताया कि उनके मन में इस बात को लेकर बहुत संदेह है। माता जानकी से ऐसा वचन सुनकर हनुमान जी ने अपने  शरीर को सोने के पर्वत के समान बड़ा किया। जिसको देखने के बाद माता जानकी को विश्वास हुआ कि वानर सेना, राक्षस सेना को परास्त कर सकती है। इसके बाद फिर से हनुमान जी ने अपने शरीर को छोटा कर लिया।

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।

जातुधान अति भट बलवाना॥

मोरें हृदय परम संदेहा।

सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकार सरीरा।

समर भयंकर अतिबल बीरा॥

सीता मन भरोस तब भयऊ।

पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

आज बहुत जन यह कह सकते हैं कि शरीर को अपनी इच्छा के अनुसार बड़ा या छोटा करना किसी के बस में नहीं है। शास्त्रों के अनुसार शरीर को छोटे करने की विद्या को अणिमा  और बड़े करने की विद्या को महिमा कहते हैं।

स्वयं को सूक्ष्म कर लेने की क्षमता को ही अणिमा सिद्धि कहा जाता है। यह ऐसी सिद्धि है, जिससे युक्त होकर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धारण करके एक अणु के रूप में भी परिवर्तित हो सकता है। अणु की शक्ति से संपन्न होकर साधक उस परम शक्ति से साक्षात्कार कर लेता है।

स्वयं को बड़े कर लेने की क्षमता को महिमा सिद्धि कहां जाता है। इसका अर्थ होता है, अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक इतना क्षमतावान हो जाता है कि वह प्रकृति का भी विस्तार कर सकता है।

इसके अलावा 6 शक्तियां और भी हैं। जिनमें पहली सिद्धि का नाम है “गरिमा” सिद्धि। इस सिद्धि का अर्थ भार या अडिग होने से है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति स्वयं के भार को इतना बढ़ा सकता है कि कोई भी उसे हिला नहीं पाता। ठीक वैसे, जैसे हनुमान जी की पूछ को भीम जैसा बलशाली योद्धा हिला तक नहीं पाया था।

दूसरी सिद्धि का नाम “लघिमा” है। किसी भी तरह के भार से स्वयं को मुक्त कर हल्का बना लेने की क्षमता लघिमा कहलाती है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक स्वयं को भारहीन अनुभव करते हैं। इस सिद्धि की प्राप्ति का प्रभाव यह होता है कि साधक संपूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान किसी भी वस्तु के पास जा सकता है और यदि इच्छा हो तो उसमें परिवर्तन की क्षमता भी रखता है।

तीसरी सिद्धि “प्राप्ति” सिद्धि कहलाती है। जैसा कि इस सिद्धि के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी प्राप्ति हो जाने के बाद व्यक्ति जो चाहे अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर सकता है। असंभव को संभव बना लेने की क्षमता “प्राप्ति सिद्धि” प्रदान करती है

 चौथी सिद्धि “प्राकाम्य सिद्धि” कहलाती है। प्राकाम्य का अर्थ होता है किसी भी रूप को धारण कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक अपनी इच्छानुसार, जब चाहे किसी भी रूप को धारण कर सकता है। वह आसमान में उड़ सकता है और पानी पर चल सकता है। पानी पर चलने के चलने के उदाहरण करीब 200 साल पुरानी पुस्तकों में मिलते हैं।

पांचवी सिद्धि “इशिता सिद्धि” कहलाती है। ईशिता का अर्थ होता है महारथ। अर्थात किसी भी कार्य पर नियंत्रण स्थापित हो जाए, इस क्षमता के साथ उसे करना। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति आसानी से किसी भी वस्तु और साम्राज्य पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।

छठी सिद्धि “वशित्व सिद्धि” कहलाती है। वशित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं।

यह 6 सिद्धियां तथा पहले बताई गई दो सिद्धियां मिलकर अष्ट सिद्धियां  बनती है। हनुमान जी को अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता भी कहा गया है। अष्ट सिद्धियों के बारे में कहा गया है :-

अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।

प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने सीता माता के सामने अपना छोटा रूप दिखाया था इसके दो अलग-अलग मतलब है पहला तात्पर्य है कि जीव कितना भी बड़ा हो परंतु अपने माता के सामने उसे छोटा ही बन के रहना चाहिए।

सूक्ष्म होने का होने का दूसरा तात्पर्य है अपने अहम को त्याग कर अपने आप को अति सूक्ष्म मानना। मगर ऐसा संभव कैसे हैं। यह तभी संभव है जब जीव यह मान ले कि यह कार्य ईश्वर का है। इसे ईश्वर ही कर रहा है। भगवान ने तो मुझे साधन मात्र बनाया है।   हनुमान जी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये। अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंका पुरी को जला दिया। इस पूरे कार्य को करने के उपरांत  हनुमान जी और वानर सेना लौटकर श्री राम जी के पास पहुंचे।  श्री राम जी ने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा कि तुमने यह कार्य किस तरह से किया।:-

कहु कपि रावन पालित लंका।

के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

 (रामचरितमानस /सुंदरकांड/32/2-1/2)

राम ने पूछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बाँके किले तुमने किस तरह जलाया।

भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निरभिमान सेवक हनुमान जी को कैसे अच्छी लगती? इस प्रकार की प्रशंसा हनुमान जी को छोड़कर किसी भी अन्य को अहंकार से भर सकती है। हनुमान जी का उत्तर बिल्कुल अलग था। अत: हनुमान जी ने उत्तर दिया:-

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/32-5)

हनुमान जी नम्र होकर कहते है प्रभो इसमें मेरी कुछ भी बढ़ाई नहीं है। यह सब आपका ही प्रताप है।

हनुमान जी फिर आगे कहते हैं:-

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं  जा पर तुम्ह अनुकूल

तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/33)

हे प्रभो! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलने वाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है। (अर्थात असंभव भी सम्भव हो सकता है।)

इस प्रकार इस प्रकार हनुमान जी ने अपनी अणिमा सिद्धि से  शारीरिक रूप से अपने  को सूक्ष्म किया। इसी प्रकार से अहंकार रहित होकर मानसिक रूप से भी अपने को  सीता माता के सामने विनम्र किया।

अगली चौपाई है :-

“भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचंद्र के काज संवारे॥”

यहां पर भीम शब्द का अर्थ है बहुत बड़ा,भयंकर, भीषण, या डराने वाला।

रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए हनुमान जी ने बहुत बड़ा होना और बलशाली होना आवश्यकता था। दुश्मनों के सामने भी अपने आप को बलशाली सिद्ध करना आवश्यक होता है। व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से बलशाली होना पड़ेगा। शारीरिक रूप से बलशाली दिखने के लिए आवश्यक है कि आपका शरीर भी ताकतवर और विशाल दिखाई दे। हनुमान जी ने अशोक वाटिका में राक्षसों का संहार करते समय “महिमा सिद्धि” का उपयोग कर अपने आप को बड़ा किया। उसके बाद भी अशोक वाटिका के फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। रखवाले राक्षस जो आए उनकी पिटाई करने लगे। इस मारपीट में बहुत से राक्षस मरने लगे। इस दृश्य का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस के सुंदर कांड में बहुत सुंदर ढंग से  किया है:-

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

अर्थ — मां सीताजी से अनुमति पाने के उपरांत हनुमान जी ने उनको प्रणाम किया। फिर उन्होंने अशोक वाटिका में प्रवेश किया। यहां पर वे फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां पर वाटिका की रक्षा के लिए बहुत सारे बलवान राक्षस नियुक्त थे। उनको भी वह मारने लगे। इन राक्षसों में से कुछ मर गए और कुछ रावण के पास पहुंचे।

रावण के पास पहुंचकर राक्षसों ने अपनी तकलीफ व्यक्त की:-

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥

खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

अर्थ — हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है। उसने अशोक वाटिका को उजाड़ दिया है। उसने फल-फल तो सारे खा लिए है, और वृक्षों को उखाड़ दिया है। उसने रखवाले राक्षसों को पटक–पटक कर मार गिराया है।

इस प्रकार हनुमान जी ने अपना पौरुष  राक्षसों को दिखाया। इसके बाद राक्षसों ने जाकर हनुमान जी के बल के बारे में  रावण को बताया। इसके उपरांत रावण ने कई बलशाली राक्षसों को भेजा परंतु हनुमान जी ने सभी को मार दिया। अंत में मेघनाद आया और वह भी हनुमान जी से बहुत चोट खा गया हम तुम्हें उसने हनुमान जी के ऊपर ब्रह्मास्त्र से  प्रहार किया। आगे की घटना राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण में अलग-अलग है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार को बर्दाश्त कर लिया तथा ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया। परंतु चतुराई पूर्वक हनुमान जी भागे नहीं।। वे रावण से अपनी बातों को कहना चाहते थे। इसलिए बंधन मुक्त होने के बाद भी वे वहां पर खड़े रहे। वाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड के 48वें सर्ग 47वें और 51वें श्लोक में इसका वर्णन किया गया है :-

स रोचयामास परैश्च बन्धनं प्रसह्य वीरैरभिनिग्रहं च।

कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः।।

(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/48/47)

अर्थ:- इस प्रकार हनुमान जी ने अपना बांधा जाना, शत्रुओं के अपशब्द सुनना, उनके बस में होना आदि पसंद किया। क्योंकि वे चाहते थे कि रावण उन्हें कौतूहल वश बुलाए। इस प्रकार उसके साथ बातचीत हो सके।

अस्त्रेण हनुमान्मुक्तो नात्मानमवबुध्यत।

कृष्यमाणस्तु रक्षोभि स्तौश्च बन्धैर्निपीडितः।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/48/51)

अर्थ:- हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के बंधन से मुक्त होकर भी कुछ नहीं किया। राक्षस लोग उनको खींच रहे थे और पीड़ा पहुंचा रहे थे।

मानसिक रूप से बलवान होने का परिचय उन्होंने मां सीता को हनुमान रामचंद्र जी की  सीता जी के बारे में चिंता को बता कर उनके दुख को कम किया। इस प्रकार उन्होंने रामचंद्र जी के एक बड़े कार्य को किया।

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।

कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

भावार्थ — हनुमान जी ने सीताजी से कहा कि हे माता! रामचन्द्र जी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो। रामचन्द्र जी ने कहा है कि तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी बातें विपरीत हो गयी हैं। नवीन कोपलें तो मानो अग्नि रूप हो गए हैं, रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है। चन्द्रमा सूरज के समान दिख पड़ता है।

जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया था परंतु राम चरित मानस में यह कहा गया है कि उन्होंने जान बूझकर ब्रह्मास्त्र में बंधे रहना पसंद किया।

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।

भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा।

प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

भावार्थ — महादेव जी कहते हैं कि हे पार्वती! सुनो, जिनके नाम का जप करने से ज्ञानी लोग भव बंधन को काट देते हैं। उस प्रभु का दूत (हनुमान जी) भला बंधन में कैसे आ सकता है? परंतु अपने प्रभु के कार्य के लिए हनुमान ने अपने को बंधा दिया।

इस प्रकार हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए अपने आप को हर तरह से सक्षम किया। अपनी पूरी सिद्धियों का उपयोग किया। इस प्रकार उन्होंने रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 175 ☆ समन्वय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 175 समन्वय ?

मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी, शरीर का केंद्रीय स्तम्भ है। इस स्तम्भ का लचीलापन ही इसकी शक्ति है। शारीरिक  के साथ-साथ मानसिक लचीलापन, जीवन को स्वस्थ रखता है। समन्वय जीवन में अनिवार्य है। मानसिक लचीलापन समन्वय का आधार है।

परिजनों या परिचितों से थोड़ी-सी मतभिन्नता होने पर अधिकांश लोगों को लगता है कि वे विपरीत वृत्ति के हैं। उनसे समन्वय नहीं सध सकता। साधने के लिए चाहिए साधना। साधना के अभाव में समन्वय तो अस्तित्व ही नहीं पाता। हर साधना की तरह समन्वय भी समर्पण चाहता है, उदारता चाहता है, भिन्न-भिन्न स्वभाव को समान सम्मान देना चाहता है।

दृष्टि निरपेक्ष है तो सृष्टि में हर कहीं समन्वय है। दूर न जाते हुए स्वयं को देखो। शरीर नश्वर है, आत्मा ईश्वर है। एक हर क्षण मृत्यु की ओर बढ़ता है, दूसरा हर क्षण नये अनुभव से निखरता है। फिर आता है वह क्षण, जब शरीर और आत्मा पृथक हो जाते हैं लेकिन नयी काया में फिर साथ आते हैं।

देह व देहातीत के समन्वय पर पार्थ का मार्गदर्शन करते हुए पार्थसारथी ने कहा था,

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

सांख्ययोग की मीमांसा का यह योगेश्वर उवाच भी देखिए-

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।

युद्ध का एक अर्थ संघर्ष भी है। संघर्ष अपने आप से, संघर्ष अंतर्निहित समन्वय के दर्शन हेतु।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा द्वारा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करने की प्रक्रिया होती है।

जैसा पहले उल्लेख किया गया है, देह का नाशवान होना, आत्मा का अजन्मा होना, फिर मर्त्यलोक में कुछ समय के लिए दोनों का साथ आना, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ना होना.., समन्वय का ऐसा अनुपम उदाहरण ब्रह्मांड में और कौनसा होगा?

सृष्टि समन्वय से जन्मी, समन्वय से चलती, समन्वय पर टिकी है। दृष्टिकोण समन्वित करो,  सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन समन्वय दृष्टिगोचर होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 5 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 5 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।

अर्थ:-  

आप विद्यावान, गुणी, अत्यंत चतुर और प्रभु श्रीराम की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं। आप प्रभु श्रीराम की कार्यों के लिए सदा लालायित रहते हैं। राम लक्ष्मण और सीता सदा आपके ह्रदय में विराजते हैं।

भावार्थ:-

सकल गुण निधान हनुमान जी समस्त विद्याओं में पारंगत हैं। समस्त गुणों को धारण करने वाले और अत्यंत बुद्धिमान हैं। भगवान सूर्य से सभी ज्ञान प्राप्त करने के कारण उनको वेद पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त है।

ब्रह्म की दो शक्तियां हैं पहले स्थिर और दूसरी गतिज। हनुमान जी दोनों शक्तियों के स्वामी हैं। भगवान सूर्य से पूरी शिक्षा इन्होंने सूर्य के साथ चलते हुए प्राप्त की है। इसी प्रकार से भगवान राम के हित कार्यों का संपादन वे सदैव आतुरता से करते  हैं।

संदेश:-

व्‍यक्ति अपने ज्ञान और गुणों के आधार पर किसी के भी मन में अपने लिए स्‍थान बना सकता है। जैसे श्री हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम के मन में बनाया है।

चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

विद्यावान गुनी अति चातुर।

राम काज करिबे को आतुर।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

राम लखन सीता मन बसिया।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने  से ज्ञान, बुद्धि, रामकृपा और यश प्राप्त होता है।

विवेचना:-

सनातन धर्म मानने वालों के हृदय में, उनके रक्त में, हनुमान चालीसा बसी हुई है। जहां तक मेरा ज्ञान है अगर कोई कविता सबसे ज्यादा बार बोली जाती है तो वह हनुमान चालीसा ही है। यह भी सत्य है कि हनुमान चालीसा को केवल कविता कहना एक अपराध है। अतः में हनुमान चालीसा को व्यक्ति के नस-नस में भगवान के प्रेम को भरने वाला मंत्र या स्त्रोत कहना पसंद करूंगा। हर चौपाई का अपने आप में एक रहस्यमयी अर्थ है। जो व्यक्ति इस रहस्यमय अर्थ को जान जाएगा उसे उस चौपाई से जुड़ी हुई समस्या भी हल हो जाएगी।

हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई अपने आप में एक सिद्ध मंत्र है। इसे हर कोई इस कलयुग में जाप कर अभीष्ट को पा सकता है। जैसे कि इस चौपाई का बार बार जाप करके आप बुद्धि और चतुराई  तथा अपने स्वामी के कार्य को करने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप यह समझते हैं कि आपके अंदर बुद्धि या चतुराई की कमी है अथवा आपका मालिक, अधिकारी या बॉस हमेशा आपसे नाराज रहता है तो आपको इस चौपाई का  प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए।

इस चौपाई के प्रथम भाग में हनुमान जी के अंदर तीन विशेषताओं के बारे में बताया गया है। उनकी पहली विशेषता है कि वे विद्यावान हैं। दूसरी विशेषता है कि वे गुणवान है तथा तीसरा कि वे अत्यंत चतुर हैं। सुनने में यह तीनों चीजें एक दूसरे के पर्यायवाची समझ में आती है। परंतु ऐसा नहीं है।

विद्यावान का अर्थ होता है जिसके पास विद्या रूपी धन हो। कोई व्यक्ति रसायन शास्त्र में निपुण हो सकता है। किसी व्यक्ति के पास हिंदी का ज्ञान बहुत अच्छा हो सकता है। परंतु हनुमान जी तो सूर्य देव द्वारा दी गई शिक्षा के कारण, सभी तरह की विद्याओं से परिपूर्ण हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि विद्या का सामान्य अर्थ है – ज्ञान, शिक्षा और अवगम। महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार जिससे पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो उसे विद्या कहते हैं।

विद्यावान का अर्थ होता है व्यक्ति के पास सभी तरह के विद्याओं के यथार्थ स्वरूप के बारे में संपूर्ण ज्ञान। हनुमान जी के पास सभी तरह के विषयों का पूर्ण ज्ञान है अतः वे विद्यावान हुए।

तुलसीदास जी ने हनुमान जी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को बड़ा बनाता है वह विद्या है। आज विद्या की तृष्णा बढ़ी नहीं है। आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है, बुद्धिजीवी है। बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये।

हनुमान जी गुणी भी हैं। अर्थात सभी प्रकार के गुण उनके अंदर विद्यमान है। गुणी शब्द का अर्थ होता है जिसमें अनेक गुण हो अर्थात गुण संपन्न। कोई विशेष कला या विद्या जानने वाला योग्य व्यक्ति को भी गुणवान कहते हैं। हनुमान जी के अंदर सभी तरह के गुण जैसे उड़ने की कला, तैरने की कला, युद्ध कला, शास्त्रों का ज्ञान सभी तरह के गुण उनके पास थे।

वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणों के लिये कहा है –

तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय:।

पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा।।

(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमान जी में नित्य स्थित हैं।)

धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता आदि अनेक गुणों से संपन्न हनुमान जी को तुलसीदास जी ने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘सकलगुणनिधानं’ के उद्घोष से सादर वंदना की है।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं,

रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि।।

हनुमान जी चतुर भी हैं। चतुर शब्द का अर्थ है किसी भी व्यक्ति की वह विशेषता जिससे वह व्यक्ति अपनी बुद्धि का  प्रयोग करके अपने कार्यों को आसानी से कर सकें या विकट परिस्थितियों का सामना आराम से कर सकें।

पूरे रामायण में हनुमान जी की चतुराई के कई उदाहरण है। हनुमान जी जब रामचंद्र जी से सबसे पहले  ब्राह्मण वेश में मिलते हैं। वे पूरी बातें बहुत अच्छी संस्कृत में करते हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम जी ने जैसे ही महावीर हनुमान जी को पहली बार देखा तो वे जान गए थे कि वही उनके सारे कार्यों को करने में सक्षम हैं। श्री राम के पास जब पहली बार हनुमान जी सुग्रीव का संदेश लेकर जाते हैं तभी उनकी विद्वता और वाक चातुर्य से प्रसन्न होकर श्री राम उन्हें अपना लेते हैं। श्री राम महावीर हनुमान जी के ज्ञान और विनम्रता को देख कर लक्ष्मण जी से कहते हैं –

“लक्ष्मण तुम इन बटुक को देखो इसने शब्द शास्त्र (व्याकरण) कई बार पढ़ा है। इसने कई बातें कहीं पर उनके बोलने में कहीं अशुद्धि नहीं आई।

 श्री रामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैन वटुरूपिणम्।

 शब्दशास्त्रमशेषणं श्रुतं नूनमनेकधा।।

 (अ रा/किं का/1/17-18)

एवम् विधो यस्य दूतों न भवेत् पार्थिवस्य तु।

सिद्ध्यन्ति हि कथम तस्य कार्याणाम् गतयोSनघ।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात – हे लक्ष्मण अगर किसी राजा के पास हनुमान जैसा दूत न हो तो वो कैसे आपने कार्यों और साधनों को पूरा कर पाएगा?

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात – हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

हम सभी जानते हैं कि दूत का कार्य सबसे चतुराई भरा कार्य होता है।

दूसरी बार हनुमान जी की चतुराई का परिचय तब प्राप्त होता है जब सुग्रीव पंपापुर का राज सिंहासन पाने के उपरांत रामलीला में डूब गए थे। माता जानकी का पता लगाने का कोई प्रयास नहीं कर रहे थे। उस समय हनुमान जी ने बड़ी चतुराई के साथ सुग्रीव को समझाया।  जिसके उपरांत सुग्रीव ने वानर सेना भेज करके सीता जी को  पता करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया।

समुद्र के किनारे जब यह ज्ञात हुआ की रावण मां सीता को समुद्र पार लेकर गया है तब सबकी समझ में यह आया केवल हनुमान जी ही लंका जाकर सीता मां का पता लगाकर वापस आ सकते हैं। जामवंत के प्रस्ताव पर हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र को पार कर लंका के लिए चल दिए। रास्ते में नागों की माता सुरसा मिली और उन्होंने भगवान हनुमान को अपने मुंह में बंद करना चाहा। हनुमान जी पहले अपना आकार बढ़ाते रहे फिर एकाएक आकार कम करके सुरसा के मुंह से होकर बाहर निकल आए। सुरसा की प्रतिज्ञा भी पूरी हो गई और हनुमान जी को आगे जाने में आ रही बाधा भी समाप्त हो गई। राम चरित मानस में इसका गोस्वामी तुलसीदास द्वारा सुंदर वर्णन किया गया है।

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

तासु दून कपि रूपदेखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।

अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥

सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमान जी ने वैसे ही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया। जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमान जी ने तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया।

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।

मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥

उसके मुंह में पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमान जी ने प्रणाम किया॥ उस वक़्त सुरसा ने हनुमान जी से कहा की हे हनुमान! देवताओं ने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है।

इसी तरह से वाल्मीकि रामायण में  हनुमान जी द्वारा सिंहिका के मुख में प्रवेश कर अपने-पैने नखों से उसके मर्म स्थल को चीर-फाड़कर मन के समान  वेग से से वहां से निकलकर फिर  ऊपर आकाश मार्ग में जाने के का वर्णन किया गया है।

ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।

उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।

( 5.1.194/सु का / वा रा)

हनुमान जी द्वारा लंका के अंदर किए गए चतुराई पूर्व कार्यों के कई उदाहरण हैं जैसे कि माता सीता से मिलने के पहले वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने पेड़ पर बैठे बैठे सोचा की पहले धीरे-धीरे रामचंद्र जी के संदेशों का वाचन किया जाए जिससे मां सीता को उन पर विश्वास हो सके और उसके उपरांत मां सीता से मिला जाए और उनको सब कुछ बताया जाए।

युक्तं तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः।

समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम्।।

(वा रा / सु का /5.30.6)

मुझे इस समय अप्रमेय और सब प्राणियों पर दया करने वाले श्री रामचंद्र की पत्नी को जो पति के दर्शन की अभिलाषी हैं धीरज बंधाना उचित होगा। इस प्रकार सोचते विचारते बड़े बुद्धिमान हनुमान जी ने अपने मन में निश्चय किया कि अब मैं श्री रामचंद्र की कथा कहना प्रारंभ करूँ।

इति स बहुविधं महानुभावो

जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः।

मधुरमवितथं जगाद वाक्यं

द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्।।

(वा रा / सु का /5.30.44)

इस प्रकार अनेक प्रकार से सोच विचार कर श्री रामचंद्र जी की भार्या जानकी जी को हनुमान जी ने डाली पर बैठे ही बैठे मधुर शब्दों में श्री राम जी का संदेश कहना प्रारंभ किया। इसके उपरांत बहुत सारी बातें कर उन्होंने सीता जी को संतुष्ट किया।

राम चरित मानस में इसी बात को थोड़ा दूसरे ढंग से कहा गया है। हनुमान जी अशोक वाटिका में पेड़ के ऊपर बैठे हैं। उसी पेड़ के नीचे मां जानकी सीता जी विलाप कर रही हैं। अशोक वृक्ष से आग की मांग की। हे अशोक वृक्ष तुम मुझे अग्नि प्रदान करो।

पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥

सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर।तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी को कल्प के समान बीता। 

इसी समय हनुमान जी रामचंद्र जी द्वारा दी गई मुद्रिका को जमीन पर डाला जो । ग जैसी चमक रही थी यह हनुमान जी की चतुराई थी और हनुमान जी के इस कार्य से सीता जी को विश्वास हो गया कि रामचंद जी के यहां से कोई आया है।

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

इसके उपरांत हनुमान जी अपना परिचय अत्यंत सुंदर ढंग से चतुराई पूर्वक  देकर  सीता जी के दुख को समाप्त किया। इसी प्रकार उन्होंने रावण के दरबार में चतुराई पूर्वक वार्तालाप किया और पूरी लंका को जला डाला।  चलते समय उन्होंने मां जानकी से कहा कि आप मुझे कुछ निशान दीजिये। उसे मैं श्री रघुनाथ जी को दिखा सकूं। यह उसी प्रकार होगा जिस प्रकार चलते समय श्रीरामचंद्र जी ने निशानी के रूप में अपनी अंगूठी दी थी।

 मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

(हनुमान जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। हनुमान जी की यह मांग रामचंद्र जी को विश्वास दिलाने के लिए अत्यंत उपयुक्त थी। तब सीता जी ने चूड़ा मणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्ष पूर्वक ले लिया। इसके उपरांत हनुमान जी ने सीता जी को समझा कर धीरज दिया और चल दिए।

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥

(रामचरितमानस / सुंदरकांड )

हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास पहुंचने के लिए चल दिए। ऐसे ही हनुमान जी की चतुराई के बहुत सारे उदाहरण हैं अगर हम सभी उदाहरण  बताने लगेंगे तो पूरी किताब सिर्फ इसी से भर जाएगी।

हनुमान जी राम जी के कार्यों को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। “राम काज करबे को आतुर“।

इस प्रकार हनुमान जी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदास जी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’। हनुमान जी का सम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्कृष्ट है।

तुलसीदास जी लिखते हैं कि हनुमान जी ज्ञानी थे तथा प्रभु कार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे। हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। भगवान ने हमें अनमोल  मनुष्य जन्म दिया है। सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला। मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही लेकिन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत ज्ञान की बात है।

यदि हमें कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमें ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी। हमें अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला लेकिन उसकी कीमत हमने समझा क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर की दी हुई अमूल्य भेंट है। मानव जीवन, प्रभु कृपा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सत्कर्मों का परिणाम है। हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु संतों  ने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है। ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्री आदि शंकराचार्य जी ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है।

मानवी जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नहीं है। बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौन सा काम करना है ? इस संबंध में पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये। मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है।

हमको भगवान ने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है। उससे हमें मार्गदर्शन होता है। मानव जीवन का पूर्ण सकारात्मक उपयोग करना चाहिये। मानव देह अत्यंत दुर्लभ है। यह मानव देह बार-बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में करूंगा ऐसा विचार बिल्कुल नहीं चलेगा। अगले जन्म में मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैंने जो विकास (Development) किया होगा,। मानसिक विकास साध्य किया होगा। उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है। यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानव जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियों ने, संतों ने जीवन जी कर दिखाया है।

हनुमान जी के चरित्र पर जब हम चिंतन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमान जी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उसी प्रकार यदि हम हनुमान जी के भक्त हैं तथा हनुमान जी की तरह प्रभु के लाड़ले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये।

यहां पर आप आतुर शब्द पर विशेष ध्यान दें। आतुर का अर्थ होता है “व्यग्र “। जिसको बहुत जल्दी हो। जो दिनों का काम सेकंडों में करना चाहता हूं।

वास्तविकता यह है कि काम करने वाले 4 तरह के होते हैं। पहले वे होते हैं जिनको अगर काम दिया जाए तो वे कोई न कोई बहाना बनाकर काम को टाल देना चाहते हैं। मैं जब अपनी  नौकरी में था तो मेरे पास कुछ इस तरह के लोग थे। उनकी संख्या बहुत कम थी। इनको कोई काम बताने पर वे तत्काल कोई न कोई समस्या बता कर काम को टालने का प्रयास करते थे। ऐसे लोगों का मैं नाम बताना पसंद नहीं करूंगा।

दूसरे तरह के लोग वे होते हैं जिनको अगर काम दे दिया जाए तो वे काम को कर देंगे। परंतु अगर उनको काम बताया न जाए तो कार्य लंबित होने की जानकारी होते हुए भी वे काम को नहीं करते हैं। ऐसे लोग किसी भी संस्थान में करीब-करीब 80% होते हैं। प्रबंधक को अपना संस्थान को ठीक से चलाने के लिए ऐसे लोगों पर हमेशा निगाह रखनी पड़ती है। जिससे कि इस तरह के लोग  सदैव उपयोगी हो सकें। अगर प्रबंधक ऐसे लोगों पर अपना निरंतर ध्यान नहीं रखेगा तो संस्थान की 80% कार्य शक्ति से वह कार्य नहीं ले पाएगा।

तीसरे तरह के लोग ऐसे होते हैं जिनको अगर काम बता दिया जाए तो वह काम को तत्काल   प्रारंभ कर देते हैं। अगर उनको काम ना भी बताया जाए और उनको ज्ञात हो जाए कि उनके हिस्से का कार्य लंबित है तो मैं उसे तत्काल पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए उनको किसी आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।

चौथे तरह के लोगों को किसी प्रकार की आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। वे सदैव इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके संगठन को किस कार्य से लाभ हो सकता है। अगर उनको किसी कार्य के बारे में पता चले जिससे संगठन को लाभ हो सकता है तो वह तुरंत उस कार्य को करने में जुट जाते हैं। वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी कार्य समाप्त हो जाए। इनको किसी प्रकार के आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे लोग किसी भी संगठन में एक या दो ही होते हैं। ऐसे लोग संगठन की जान होते हैं। इनके अंदर संगठन के कार्य को जल्दी से जल्दी समाप्त करने की जागरूकता होती है। यह 24 घंटे 365 दिन संगठन के कार्यों के लिए लगे रहते हैं। हनुमान जी इस चौथे तरह के व्यक्ति थे। इनको इस बात की आतुरता रहती थी श्री रामचंद्र जी का कार्य कितनी जल्दी  समाप्त हो जाए। इसका एक उदाहरण सुंदर कांड के प्रारंभ में ही मिलता है।  हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र के ऊपर जा रहे थे।  उस समय समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा की है मैंनाक तुम अपने ऊपर हनुमान जी को विश्राम दो। परंतु हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को जल्दी करने के लिए इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। वे बोले कि रामचंद्र जी के काम किए बिना उन्हें विश्राम कैसे हो सकता है।

दोहा :

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

वाल्मीकि रामायण में भी यह घटना आई है सुंदर कांड के प्रथम सर्ग में  श्लोक क्रमांक 88 से 131 तक लगातार  पहले समुद्र द्वारा  मैनाक पर्वत से और फिर मैनाक पर्वत द्वारा हनुमान जी से रुक कर विश्राम करने हेतु प्रार्थना की गई। समुद्र और मैनाक पर्वत ने  उनके विश्राम करने के लिए बहुत सारे तर्क दिए।  हनुमान जी ने इन सभी तर्कों को  यह कह कर  समाप्त कर दिया कि जब तक रामचंद्र जी का काम नहीं होता है तब तक वह विश्राम नहीं कर सकते हैं।

त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते।

प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरे।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/5.1.132।।)

मुझे काम करने की अत्यंत जल्दी है और मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस कार्य को समाप्त किए बगैर मैं कहीं विश्राम नहीं करूंगा। इतना कह कर के मैनाक पर्वत को प्रणाम करके हनुमान जी आगे बढ़ते हैं।

इसी प्रकार जब हनुमान जी हिमालय पर्वत पर संजीवनी बूटी लाने के लिए पहुंचे तब वहां पर उन्हें ऐसा लगा की पूरा द्रोणांचल पर्वत  ही संजीवनी बूटी जैसा प्रकाशमान है। तब वे पूरे द्रोणांचल पर्वत को उठाकर तत्काल चल दिए। उन्होंने संजीवनी बूटी को खोजने के लिए वहां पर एक क्षण भी बर्बाद नहीं किया।

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥

गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥

भावार्थ:- उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान जी रात ही में आकाश मार्ग से उड़ चले और अयोध्या पुरी के ऊपर पहुँच गए। 

हनुमान जी ने संजीवनी बूटी को लाने में अपने बल और बुद्धि का पूर्ण परिचय दिया। उनके  मार्ग में कालनेमि का कपट, औषधि का पहचान ना होना, भरत जी द्वारा बाण लगने पर घायल होना आदि बहुत सारे परेशानियां आयी। परंतु इन सभी के बावजूद उन्होंने समय से संजीवनी बूटी को श्री रामचंद्र जी के सेना में सुषेण वैद्य के पास पहुंचाया।

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो |

लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो ||

आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो | को० – 5 ||

अर्थ – जब मेघनाद ने लक्ष्मण पर शक्ति का प्रहार किया और लक्ष्मण मूर्छित हो गए तब हे हनुमान जी आप ही लंका से सुषेण वैद्य को घर सहित उठा लाए और उनके परामर्श पर द्रोण पर्वत उखाड़कर संजीवनी बूटी लाकर दी और लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा की। इस प्रकार हमेशा हनुमान जी ने रामचंद्र जी के ऊपर आए किसी भी कष्ट को अपने ऊपर माना है और उसे तत्काल दूर किया है।

भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे, और हनुमान जी उनके इस कार्य मे पूर्ण सहयोगी बने। हमें भी प्रभु कार्य करना है तो क्या करना है?  मनुष्य की एक विशिष्ट संस्कृति है। व्यक्तिगत विकास के लिए हमें प्रयत्न करने चाहिये। संस्कृति की रक्षा के लिये भी प्रयत्नशील रहना चाहिये। मनुष्य की विशिष्ट संस्कृति का शास्त्रकारों ने चित्रण किया है। वह संस्कृति फिर से खड़ी करने के लिए कर्म करना है।

प्रभु कार्य करने के बाद क्या होता है? मनुष्य की चित्त शुद्धि होती है। भगवान दर्ज कर रखेंगे, इस विश्वास से प्रभु कार्य करना है। प्रभु के पास ले जाने वाला प्रभु कार्य करो। मांगल्य एवं पवित्रता खड़ी करने के लिये कर्म करो। कर्म करना यह प्रथम बात है, उसका फल कितना मिलेगा यह गौण बात है। गीता कहती है:-

 ‘‘कर्मण्येवधिकारस्ते माफलेषुकदाचन्’’।

हमें प्रभु कार्य करना है तो कौन सा कर्म करना है? प्रभु के करोड़ों पुत्र अपने पिता से बिछुड़   गये हैं। उनके आचरण से ऐसा प्रतीत होता है मानो वे पिता को पहचानते ही नहीं हैं।  उनके अंदर भगवान श्री राम के प्रति श्रद्धा भाव जाग्रत करना ही भगवान का कार्य है।

भगवान के प्रति कृतज्ञता जाग्रत होने पर श्री आदि शंकराचार्य के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की यह पंक्ति याद आयेगी-

 ‘‘मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समान हि’’।

भगवान! इस जगत में मुझ जैसा पातकी कोई नहीं है। जो बैल है वह बैल जैसा आचरण करता है। परन्तु मैं बैल न होते हुए भी बैल जैसा आचरण करता हूँ। इसलिए मैं पातकी हूँ। हम गीता-रामायण का स्वाध्याय नहीं करते, गीता के प्राणवान, तेजस्वी विचारों का चिंतन, मनन नहीं करते है, यह पाप है। गधा, घोड़ा, कुत्ता, चिड़िया कौआ गीता-रामायण नहीं पढ़ते  और मैं भी नहीं पढ़ता हूँ। मनुष्य पशु-पक्षी नहीं है फिर भी वह पशु जैसा रहता है। मेरे पास शक्ति होते हुए भी मैंने कुछ नहीं किया। बैल के हाथ नहीं है, परन्तु मेरे हाथ है। मैंने हाथों का सदुपयोग नहीं किया। कौए के पास वाणी नही है मेरे पास है। परन्तु इस वाणी से न मालूम मैंने कितने घर जलाये है। गधे को बुद्धि नहीं है, मेरे पास बुद्धि है। परन्तु इस बुद्धि से मैंने दुनिया का सत्यानाश ही किया। मैं आपका काम करूँ इसलिये आपने ये शक्तियाँ मुझे दी परन्तु मैंने इन सब का गलत मार्ग में प्रयुक्त किया  है।

लोगों की अस्मिता (आत्मगौरव) को जाग्रत करना, उनको स्वच्छ बनाकर ईश्वराभिमुख   करना शनै: शनै: उनको उन्नति की ओर ले जाना यह सबसे महान भगवत कार्य है। इसे ही तप कहते है। वैदिक विचारधारा ही इतनी सुन्दर है कि उससे जीवन तेजस्वी, प्रेममय और उदार बनता है। कृष्ण और राम के विचारों को प्रत्येक झोपड़ी महल में ले जाने की प्रबल इच्छा हम में होनी चाहिये। जिस खोखे (शरीर) में साक्षात विश्वंभर आकर विराजमान हुए है, उस खोखे (शरीर) में निराशा, असहायता, दुर्बलता, निस्तेज, असन्तोष आदि आकर बैठे हैं। ऐसे जीवन का क्या अर्थ है?

भगवान को फूल चढ़ने में कुछ भी अनुचित नहीं है। भगवान को फूल तो चढ़ाने ही चाहिये। परन्तु केवल फूल चढ़ाने में ही भक्ति पूर्ण नहीं होती प्रभु से विमुख हुए लोगों का हाथ पकड़ कर उन्हें प्रभु के सम्मुख लाना और उनका जीवन पुष्प खिलाकर प्रभु चरणों मे रखना ही सच्ची सेवा है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचकर उसके जीवन में राम व कृष्ण को प्रतिष्ठित को प्रतिष्ठित करना ही प्रभु कार्य है।

जिस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव, अंगद, तथा समस्त वानर सेना को प्रभु की ओर उन्मुख कर प्रभु कार्य करने की प्रेरणा दी। उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमान भक्त तथा प्रभु के प्रिय बन सकेंगे। जय हनुमान

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #169 ☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

(कृपया आदरणीया डॉ मुक्ता जी की पुस्तक “चिंतन के शिलालेख” की समीक्षा के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 169 ☆

☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा

‘संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। परंतु जब आप संवाद अर्थात् वार्तालाप करना बंद कर देते हैं, तो आप अपने अनमोल संबंध खो देते हैं।’ यह वाक्य गहन-गूढ़ अर्थ को परिलक्षित करता है। जैसे संवाद अथवा कथोपथन कहानी या नाटक को गति प्रदान करते हैं; वैसे ही संवाद हमारे जीवन को ऊर्जा व जीवंतता प्रदान करते हैं… हमारे अंतर्मन में जीने की उमंग जाग्रत करते हैं। जैसाकि सर्वविदित है– मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अकेला रहने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसलिए ही वह जन्म- जात संबंधों के रहते भी अन्य संबंध स्थापित करता है, क्योंकि वह अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति किए बिना ज़िंदा नहीं रह सकता। वह अपने हृदय के भावों को अभिव्यक्ति प्रदान कर सुक़ून पाता है तथा स्वयं को अकेला, असहाय व विवश अनुभव नहीं करता।

यदि आप वार्तालाप/ संवाद करना बंद कर देते हैं, तो अनमोल संबंधों को खो देते हैं। संवादहीनता मान-दशा तक तो  वाज़िब है, परंतु उसके बाद यह सज़ा बनकर रह जाती है और एक अंतराल के पश्चात् मानव स्वयं को  नितांत अकेला अनुभव करता है। प्रश्न उठता है– क्या संबंध बनाए रखने के लिए मानव को दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए अपने आत्म-सम्मान को दाँव पर लगा देना चाहिए? नहीं…यह तो चाटुकारिता कहलायेगी। यदि लंबे समय तक यह स्थिति बनी रहती है, तो मानव तनाव, चिंता व अवसाद से घिर जाता है और अंततः उस व्यूह को भेदना मानव के वश से बाहर हो जाता है। तनाव संबंधों की ताज़गी व पारस्परिक स्नेह-सौहार्द को लील जाता है और ऐसे व्यक्ति के साथ रहने से दूसरे पक्ष के लोग भी गुरेज़ करना प्रारंभ कर देते हैं। सो! उसे जीवन में अकेले विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

लंबे समय तक तनाव की यह स्थिति मानव को चिंता के अथाह सागर में धकेल देती है। चिंता चिता समान है, जो दीमक की भांति मानव के उत्साह, साहस, धैर्य आदि को लील कर, शरीर रूपी इमारत की चूलों को हिला कर खोखला कर देती है। चिंताग्रस्त मानव सदैव ख़ुद से बेखबर स्वनिर्मित लोक में विचरण करता रहता है। वह बेसिर-पैर की कल्पनाओं में खोया, अनगिनत शंकाओं में घिरा स्वयं को अपाहिज-सा अनुभव करता है। यदि ऐसा-वैसा हो गया, तो उसका क्या होगा? उसके परिवार की क्या दशा होगी? उन विषम परिस्थितियों से वे कैसे निज़ात पा सकेगे? चिंताग्रस्त मानव को चारों ओर अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। जीवन में उसे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती और न ही कोई उम्मीद की झलक दिखाई पड़ती है…उसे जीवन मरु-सम भासता है। उसकी दशा रेगिस्तान के उस हिरण-सी हो जाती है, जो प्यास से आकुल-व्याकुल सूर्य की किरणों को जल समझ उनके पीछे दौड़ा चला जाता है और अंत में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। यही होती है अवसाद-ग्रस्त मानव की मन:स्थिति… जिसके जीवन में न कोई उमंग रहती है; न ही कोई तरंग; न प्रसन्नता; न ही उल्लास…वह तो नितांत अकेला, तन्हा-सा अपना जीवन बसर करता है अर्थात् ढोता है।

संवादहीनता मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वह हरदम तन्हाई के दंश झेलता है; जो नासूर बन उसे आजीवन सालते हैं। संवादहीनता आजकल सभी रिश्ते-नातों में सेंध लगाकर जीवन के सुक़ून व सुखों पर डाका डाल रही है। सुक़ून मन की वह निर्विकार अवस्था है, जहां मानव राग-द्वेष व स्व-पर की निकृष्टतम वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है और अंतर्मन रूपी सागर के शांत जल में निरंतर अवगाहन करता रहता है और वहां पहुचने के पश्चात् सभी इच्छाओं का शमन हो जाता है। परंतु उस स्थिति तक पहुंचने में मानव को वर्षों तक साधना-तपस्या करनी पड़ती है।

आइए! हम संबंध-निर्वाह के विषय पर चर्चा कर लें। संबंध विश्वास के आधार पर स्थापित तो हो जाते हैं, परंतु उनका निबाह करने के लिए आवश्यकता होती है बर्दाश्त करने की…यदि हममें सहनशीलता का मादा है, तो संबंध स्थायी व स्थिर रह सकते हैं, अन्यथा वे पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में विलीन हो जाते हैं। संबंध कभी भी दूसरों से जीतकर नहीं निभाए जा सकते; उन्हें बनाए रखने के लिए तो जीतकर भी हारना पड़ता है। उनकी भावनाओं को महत्व देते हुए, प्रियजनों की प्रसन्नता के लिए पराजय को स्वीकारना पड़ता है। इसके विपरीत यदि आप वार्तालाप बंद कर देते हैं, तो संबंध टूट जाते हैं;  समाप्त हो जाते हैं और उन विषम परिस्थितियों में आप अकेले रह जाते हैं और कोई पल-भर के लिए भी आपके साथ समय व्यतीत करना पसंद नहीं करता।

यदि हम संबंधों को चिरस्थाई व शाश्वत् रूप प्रदान करना चाहते हैं, तो हमारे लिए यथासमय झुकना व दूसरों को सहन करना कारग़र होगा। दूसरे शब्दों में हमें परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना होगा। झुकना, सहना व समझौता करने की एक ही मांग होती है…अहं का विसर्जन। यह ही एक ऐसा उपादान है; जिसके द्वारा आप दूसरों का हृदय परिवर्तित कर सकते हैं…अपने प्रति दूसरों के मन में विश्वास जाग्रत कर सकते हैं। वैसे भी जीवन केवल संघर्ष ही नहीं; समझौता है। संघर्ष की स्थिति हमारे अंतर्मन की आंतरिक शक्तियों को जाग्रत करती है; प्रेरित करती है; हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है। दूसरे शब्दों में समझौता हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन कर, संबंधों को शाश्वत रूप प्रदान कर हमें सुक़ून देता है; जीने की प्रेरणा देता है। सो! संबंधों को सार्थकता प्रदान करने हेतु जहां संवादों की दरक़ार है; वहीं समझौता भी वह संजीवनी है, जिसमें प्राणदायिनी शक्ति निहित है।

अंतत: हम कह सकते हैं कि जीवन में कभी संवादहीनता की स्थिति न पनपने दें, क्योंकि यह वह सुनामी है; जो संबंधों को लील जाता है और जीवन को शून्यता से भर देता है। यह स्थिति मानव के लिए अत्यंत घातक है, विस्फोटक है। सो! हम सबको अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और समाज में स्नेह, सौहार्द, समन्वय, सामंजस्यता व समरसता की स्थिति बनाए रखने के लिए अपने अहम् का विसर्जन कर, संबंधों को सार्थक बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए …यही समय की मांग है और मानव-मात्र से अपेक्षित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “बच्चों के नन्हे हाथों में मोबाइल न दो” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ “बच्चों के नन्हे हाथों में मोबाइल न दो” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

निदा फाजली ने बहुत शानदार शेर कहा –

बच्चों के नन्हे हाथों को चांद सितारे छू लेने दो

दो चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे !

सच ही तो कहा लेकिन अब बच्चों के हाथों को चांद सितारे छूने तो नहीं दिये जा रहे उसकी जगह मोबाइल ने ले ली है । छोटे से छोटा बच्चा भी मोबाइल से खेल रहा है और मां बाप बड़े गर्व से बताते हैं कि यह तो हमसे भी एक्सपर्ट है । जैसे कभी घर आने पर अतिथियों को बच्चे से अंग्रेजी कविता सुनाने को बड़े गर्व की बात माना जाता था, आज मोबाइल चलाने को वही मान सम्मान दिया जा रहा है ।

इसके बावजूद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी सेटर ऑफ डेवलपिंग चाइल्ड के एक सर्वेक्षण के अनुसार बच्चों को शांत करने के लिए उसके हाथ में मोबाइल थमाना गर्व का नहीं , चिंता का विषय है । बहुत नुकसानदेह है । इससे कम उम्र में बच्चे की एकाग्रता और क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो सकती है । ज्यादा समय मोबाइल की स्क्रीन पर बिताने वाले बच्चे दूसरे बच्चों से सही ढंग से घुल मिल भी नहीं पाते ! उनकी एकाग्रता घटती है और कार्य करने की क्षमता प्रभावित होती है । ये बातें शोध में सामने आई हैं । यह भी कि नौ साल से कम बच्चे के हाथ में मोबाइल से उसका अकादमिक प्रदर्शन प्रभावित होता है । मानसिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । इसलिये बच्चों को मोबाइल थमाना उनका बचपन छीनने के बराबर है । बच्चों को ज्यादा बातचीत करने देनी चाहिए । उन्हें सोशल एक्टिविटीज यानी व्यायाम व योग आदि करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । मोबाइल थामने वाले बच्चे भावनात्मक रूप से भी कमजोर होते हैं । शोध के अनुसार स्क्रीन टाइम बढ़ने से बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है । ये आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं । इससे उलट बच्चों को अपने साथ छोटे छोटे कामों में लगाइये ! जैसे भी हो सके बच्चों को मोबाइल से दूर रखिये ।

एक वीडियो भी काफी देखने को मिलता है कि जब बच्चे के हाथ से मोबाइल ले लिया जाता है तब वह कैसे टांगें पटक पटक कर रोता है लेकिन जैसे ही मोबाइल हाथ में थमा दिया जाता है वैसे ही फिर हंसने लगता है । इस तरह मोबाइल ने बच्चों को बुरी तरह अपनी लपेट में ले लिया है । जैसे कोई नशा या लत लग गयी हो !

इसलिए –

बच्चों के नन्हे हाथों को मोबाइल न छूने दो !

बच्चों के नन्हे हाथों को चांद सितारे छूने दो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 195 ☆ आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 195 ☆  

? आलेख  – हिंदी नाटकों का अभाव?

आज नाटक अपेक्षकृत कम लिखे जा रहे हैं. लोगो की बदलती अभिरुचि के चलते जीवंत नाट्य प्रस्तुति की जगह कैमरे में कैद संपादित फिल्म या धारावाहिक ज्यादा लोकप्रिय हैं.

कथावस्तु, नाटक के पात्र, रस, तथा अभिनय नाटक के प्रमुख तत्व  होते हैं. पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक विषय  नाटक की कथावस्तु हो सकते हैं. कथा वस्तु को नाटक के माध्यम से दर्शको के सम्मुख प्रस्तुत करके नाटककार विषय को संप्रेषित करता है.ऐतिहासिक नाटको में कथावस्तु सामान्यतः ज्ञात होती है पर फिर भी दर्शक के लिये नाटक में जिज्ञासा बनी रहती है, और इसका कारण पात्रो का अभिनय तथा नाटक का निर्देशन होता है. नाटक की कथा वस्तु का दर्शको तक संप्रेषण तभी सजीव होता है जब नाटक के पात्रों व विशेष रूप से कथावस्तु के अनुरूप नायक व अन्य पात्रो का चयन किया जावे. यह दायित्व नाटक के निर्देशक का होता है. पात्रों की सजीव और प्रभावशाली प्रस्तुति ही नाटक की जान होती है. नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपोषण  होता है.  शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है,  वीर या श्रंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है. अभिनय  नाटक का प्रमुख तत्व है. इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है.

आज हिंदी में नाटक लेखन अत्यंत सीमित है, पर इस क्षेत्र में व्यापक संभावना है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 20 – अंधविश्वास मान्यताएं☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 20 – अंधविश्वास मान्यताएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विदेशों में हमारे देश के बारे में अंधविश्वास/ मान्यताएं आदि से ही परिचय दिया जाता था। पश्चिम देश हमारे देश को अनपढ़ और पिछड़ा हुआ के परिचय से ही जानते थे। विगत कुछ सप्ताहों के प्रवास के समय हमें विदेशियों की भी ऐसी ही कुछ जानकारियां प्राप्त हुई, जैसे कि तेरह अंक को यहां अच्छा नहीं मानते हैं। इसलिए अनेक होटलों में तेरह नंबर का कमरा नहीं होता हैं। कुछ ऊंचे भवनों में भी बारह के बाद चौदहवीं मंजिल रहती हैं।

साथ का फोटो स्वर्गीय जॉन हारवर्ड का है। उनके द्वारा ही हारवर्ड विश्वविद्यालय की स्थापना अमेरिका स्थित बोस्टन शहर में की गई थी।

इनकी मूर्ति में बाएं पैर का जूता सोने जैसा चमक रहा हैं।

भ्रमण के समय गाइड ने जानकारी दी कि इस विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने हेतु अधिकतर विद्यार्थी उनके चमकने वाले जूते को अपने हाथ से साफ करने के पश्चात नम्रता पूर्वक प्रवेश के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस विश्वविद्यालय में प्रवेश अत्यंत कठिन है, क्योंकि पूरी दुनिया में इसकी स्थिति हमेशा प्रथम तीन में ही रहती है। वैसे बोस्टन शहर में ही एक और भी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय MIT (मैसेच्यूट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) भी है। हमारे देश के श्री रतन टाटा और श्री आनंद महिंद्रा भी इसके सफल छात्र रहे हैं। जिन पर हमें नाज़ हैं।

वैसे बॉलीवुड महानायक के पुत्र और सुश्री श्रद्धा कपूर भी बोस्टन शहर के किसी अन्य महाविद्यालय में अध्ययन अधूरा छोड़ कर फिल्मी दुनिया में रोज़ी रोटी कमाने चले गए थे।                    

मान्यताएं हमेशा प्रेरणा और धनात्मक सोच की परिचायक रहती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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