हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #110 – “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह) – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री अशोक व्यास जी की पुस्तक  “विचारों का टैंकर” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “विचारों का टैंकर” (व्यंग्य संग्रह)  – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

व्यंग संग्रह  … विचारों का टैंकर

व्यंगकार … श्री अशोक व्यास

पृष्ठ : १३२     मूल्य : २६० रु.

प्रकाशक : अयन प्रकाशन , दिल्ली

आईएसबीएन : ९७८९३८८३४७१४६६    

संस्करण : प्रथम , वर्ष २०१९

मैंने श्री अशोक व्यास को व्यंग्य पढ़ते सुना है. वे लिखते ही बढ़िया नही हैं, पढ़ते भी प्रभावी तरीके से हैं. व्यंग्य में निहित आनंद, चटकारे और अंततोगत्वा लेखन जनित संदेश का विस्तार ही  रचनात्मक उद्देश्य होता है, जो व्यंग्यकार को संतुष्टि प्रदान करता है. अशोक व्यास पेशे से इंजीनियर रहे हैं, सेवानिवृति के बाद वे निरंतरता से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं, उन्हें मैंने अखबारो में अनेक बार पढ़ा था, कुछ समय पूर्व उनका जबलपुर आगमन हुआ और भेंट भी. विचारों का टैंकर उनकी सद्यः प्रकाशित पहली व्यंग्य कृति है. किताब बढ़िया गेटअप में हार्ड बाउंड प्रकाशित हुई है. इसके लिये प्रकाशक को पूरे नम्बर जाते हैं. पुस्तक में संजोये  गये  व्यंग्य आलेख मैंने पिछले दो तीन दिनो में  पढ़े. वे व्यवहारिक बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं. अंग्रेजी शब्दो का भी बहुतायत में प्रयोग है, तो  तत्सम शुद्ध शब्द कटाक्ष के लिये प्रयुक्त किये गये हैं.अशोक जी अधिकांशतः बातचीत की शैली में  लिखते हैं.

व्यंग्य अनुभव जनित लगते हैं. सच तो यह है कि  व्यंग्यकार की संवेदन शीलता उसके अपने व्यक्तिगत या उसके परिवेश में किसी अन्य के सामाजिक कटु अनुभव व विसंगती तथा लोगो का व्यवहारिक दोगलापन ही व्यंग्य लेखन के लिये प्रेरित करते हैं. व्यंग्यकार का रचनाकार संवेदन शील मन सामाजिक विडंबनाओ को पचा नही पाता तो उसके मन में विचारो का बवंडर खड़ा हो जाता है वह  अपने मन में चल रही उथल पु्थल और खलबली को  लिखकर किंचित शांति पाने का यत्न करता है. इस प्रक्रिया में जब रचनाकार अमिधा की जगह लक्षणा और व्यंजना शक्तियो का प्रयोग करता है तो उसके कटाक्ष पाठक को कभी गुदगुदाते हैं, कभी हंसाते हैं, कभी भीतर ही भीतर रुला देते हैं.अपने इन विचारो को ही अशोक जी ने एक टैंकर में  भर कर पाठको के सम्मुख सफलता पूर्वक रखा है.

पाठक या श्रोता व्यंग्य के आस पास से ही उठाये गये  विषय की वैचारिक विडम्बना पर सोचने को मजबूर हो जाता है.उनकी सफलता घटना का सार्वजनीकरण इस तरह करने में  है कि व्यक्ति कटाक्ष को पढ़कर, कसमसा कर रह जाने पर मजबूर हो जाता है.

व्यंग्य लेखन व्यंग्यकारों का उद्घोष है कि वह समाज की गलतियो के विरोध में अपनी कलम के साथ प्रहरी के रूप में खड़ा है. विडंबना यह है समाज इतनी मोटी चमड़ी का होता जा रहा है कि आज जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह उसे हास्य में उड़ा देता है और लगातार अंतिम संभावना तक कुतर्को से स्वयं को सही सिद्ध करने का यत्न करता रहता है. यही कारण है कि त्वरित प्रतिक्रिया का लेखन व्यंग्य, जो प्रायः अखबारो के संपादकीय पन्नो पर छपता है, अब पुस्तको का स्थाई स्वरूप लेने को मजबूर है. विडम्बनाओ, विसंगतियो को जब तक समाज स्थाईभाव देता रहेगा व्यंग्य की पुस्तके प्रासंगिक बनी रहेंगी. व्यंग्यकार की अभिव्यक्ति उसकी विवशता है. सुखद है कि व्यंग्य के पाठक हैं, मतलब सच के समर्थक मौजूद हैं, और जब तक नैसर्गिक न्याय के साथ लोग खड़े रहेंगे  तब तक समाज जिंदा बना रहेगा. आदर्श की आशा है.

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य विचारों का टैंकर में वे लिखते हैं ” अब उनके विचारों का प्रेशर समाप्त होने वाला था,… वे अगले दौर में फिर अपनी नई नई सलाहों के साथ हाजिर होंगें… मैंने भी सहमति में सिर हिलाया जिससे उनकी सलाह मेरे सिर से इधर उधर बिखर जावे… बिन मांगे सलाह देने वाले फुरसतियों पर यह अच्छा व्यंग्य है. कई नामचीन व्यंग्यकारो ने इस विषय पर लिखा है, क्योकि ऐसे बिना मांगे सलाह देने वाले चाय पान के ठेलो से लेकर कार्यालय तक कही न कही मिल ही जाते हैं. अशोक जी ने अपने लेखनी कौशल व स्वयं के अनुभव के आधार पर अच्छा लिखा है. शब्दो की मितव्ययता से और प्रभावी संप्रेषण संभव था.

जित देखूं उत मेरा लाल, कट आउट होने का दुख, युवा नेता से साक्षात्कार, टाइम नही है, ठेकेदार का साहित्त्य,दास्तान ए साड़ी, राग मालखेंच, घर का मुर्गा, भ्रष्टाचार की जड़, आम आदमी की तलाश, रिमोट कंट्रोल, चुप बहस चालू है, संसार का पहला एंटी हीरो, सरकार का चिंतन, सरकारी और गैर सरकारी मकान, मांगना एक श्वेत पत्र का, ज्ञापन से विज्ञापन तक, बारात की संस्कृति, जेलसे छूटने की पटकथा, राजनीति के श्वेत बादल, सम्मानित होने का भय, कुत्तो के रंगीन पट्टे, साहित्य माफिया, कटौती प्रस्ताव, इक जंगला बने न्यारा, क्रिकेट का असली रोमांच, आई डोंट केयर, वी आई पी कल आज और कल भी, नई सदी का नयापन, मरना उर्फ महान होना, एक घोटाले का सवाल है बाबा, ऐसा क्यो होता है, नागिन डांस वाले मुन्ना भाई, चर्चा चुनाव की, लेखन का संकट जैसे रोचक टाइटिल्स के सांथ कुल ३६ व्यंग्य आलेख किताब में हैं.

व्यंग्य के मापदण्डो पर इन लेखो में कथ्य है, कटाक्ष है, भाषाई करिश्मा पैदा करने के यत्न जहां तहां देखने मिलते हैं, सामयिक विषय वस्तु है, वक्रोक्ति हैं, घटना को कथा बनाने की निपुणता भी देखने मिलती है, किंचित  संपादन की दृ्ष्टि से स्वयं पुनर्पाठ या मित्र मण्डली में चर्चा से कुछ लेख और भी कसावट के साथ प्रस्तुत किये जाने की संभावना पढ़ने पर मिलती है. हमें अशोक जी की अगली किताबों में यह मूर्त होती मिलेगी. विचारो के टैंकर के लिये वे बधाई के सुपात्र हैं, वे शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी और परसाई परम्परा के ध्वज वाहक बने हैं, उन्हें कबीर के दिझखाये मार्ग पर बहुत आगे तक का सफर पूरा करना है. स्वागत और शुभकामना क्योकि इस राह में सम्मान मिलेगा तो कभी अपनो के पत्थर और गालियां भी पड़ेंगी, पर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना होगा.लेखकीय शोषण एवं हिन्दी पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे  छिपी नहीं है, ऐसे समय में  सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन भविष्य जरूर करेगा, इसी आशा के साथ.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 109 – “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  की  पुस्तक  “परमानंदम्” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

कृति… परमानंदम्

लेखिका… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-952641-3-1

 पृष्ठ 48

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 109 ☆

☆ “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

आध्यात्म को बड़ा गूढ़ विषय समझे जाने की भ्रांति है. 

रिटायरमेंट के बाद ही धर्म आध्यात्म के लिये  समय दिये जाने की परम्परा है.

लम्बे लम्बे गंभीर प्रवचन आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जरूरी माने जाते हैं. किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं. सुषमा व्यास राजनिधि की कृति परमानंदम् पढ़िये, उनके छोटे छोटे आलेख, आपमें आध्यात्मिकता के प्रति लगाव पैदा कर देंगे. गुरु के प्रति आपमें समर्पण जगा देंगे. इन दिनों धर्म सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन का संसाधन बनाकर राजनैतिक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है. जबकि वास्तव में धर्म नितांत व्यक्तिगत साधना है. यह वह मार्ग है जो हमारे व्यक्तित्व को इस तरह निखारता है कि हमारा  मन, चित्त परम शांति का अनुभव कर पाता है. ईश्वरीय परम सत्ता किसी फ्रेम में बंधी फोटो या जयकारे से बहुत परे वह शिखर नाद है जिसकी ध्वनि मन ही कह सकता है और मन ही सुन सकता है. परमानंद  अभिव्यक्ति कम और अनुभूति अधिक है. सुषमा व्यास राजनिधि ने नितांत सरल शब्दों में गूढ़ कथ्य न्यूनतम विस्तार से लिख डाली है. जिनकी व्याख्या पाठक असीम की सीमा तक अनुभव कर सकता है. वे नर्मदा को अपनी सखी मानती हैं. रेवासखि में यही भाव अभिव्यक्त होते हैं. भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमद्भगवतगीता, आधुनिक युग में राम और रामायण की महत्ता, श्रीमद् देवी भागवत पुराण, युवा वर्ग में धार्मिक ग्रंथो के प्रति अरुचि, उनका आलेख है, दरअसल हमारे सारे धार्मिक पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में हैं, और आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले सारे युवा संस्कृत ही नही जानते. इसीलिये मेरे पिता प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भगवतगीता, रघुवंश, भ्रमरगीत, दैनंदिनी पूजन श्लोक आदि का हिन्दी काव्यगत अनुवाद किया है, जिससे युवा पीढ़ी इन महान ग्रंथो को पढ़ समझ व उनका मनन कर सके. और इन वैश्विक ग्रंथो के प्रति युवाओ में रुचि जाग सके. धार्मिक ग्रंथो में नारी पात्र, प्रसिद्ध मंदिर रणजीत बाबा हनुमान की महिमा, सृष्टि के सबसे दयालु संत, गोस्वामी तुलसीदास के ग्रंथो में राम का स्वरूप, कृष्ण चिंतन तथा अंधकार में उगता सूरज जैसे विषयों पर सारगर्भित लेखों का संग्रह किताब में है.

पुस्तक पढ़ने समझने गुनने लायक है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #111 ☆ ‌गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 111 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – गांव देस – श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम – गांव देस (कहानी संग्रह)

लेखक —श्री विवेक कांत मिश्र ‘उजबक’

मूल्य- ₹ 175

 

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> गांव देस  

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यदि अगर हम या आप रचना धर्मिता की बात करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कुशल रचनाकार अपने कथा पात्रों का चयन तथा पटकथा का ताना-बाना बुनने का कार्य अपने ही इर्द गिर्द के परिवेश से चयनित करता है जो यथार्थ होने के साथ कल्पना प्रधान भी होती है, जो साहित्यिक सौंदर्य को भावप्रधान बना देती है।

मेरा यह कहना भी समसामयिक है कि किसी भी संग्रह का मुखपृष्ठ ही बहुत कुछ कह जाता है। लेखन के बारे में और पाठक को पहली ही नजर में ललचा देता है। यदि हम गांव देस की बात करें तो इसका मुख पृष्ठ अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यदि रचना धर्मिता की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इस रचना कार को मात्र यही एक संग्रह मुंशी प्रेमचंद के समकालीन तो नहीं, समकक्ष अवश्य खड़ा कर देता है।

लेकिन एक की दूसरे से तुलना एक दूसरे की रचनाधार्मिता के प्रति अन्याय होगा। दोनों रचना कारों में कुछ  लक्षण सामूहिक दिखते हैं , जैसे पटकथा, पात्र संवाद शैली तथा कहानी का ग्रामीण परिवेश  एक जैसा है अगर कुछ फर्क है तो समय का ज़हां मुंशी प्रेमचंद आज का परिवेश देखने तथा लिखने के लिए जीवित नहीं है, जब कि लेखक महोदय वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी  चित्रण कर रहे हैं। जैसे–बैजू बावरा, नियुक्ति पत्र, तथा अचिरावती का प्रतिशोध, वर्तमान कालीन सामाजिक विद्रूपताओं, योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कथा नायकों की मजबूरी का कच्चा चिट्ठा है, तो प्रतिज्ञा सामूहिक परिवार में घट रही घटनाओं के द्वारा  मन के भावों का उत्कृष्ट नमूना पेश करती है जिनके कथा पात्रों के भावुक कर देने वाले संवाद में पाठक खो सा जाता है, जब कि काफिर की बेटी तथा चिकवा कहानी सामाजिक समरसता  और इंसानियत की ओर इशारा करती है, तथा हमारे संकुचित दृष्टिकोण और विचार धारा को आवरणहीन कर देती है।  इसके साथ ही साथ दिदिया कहानी इस पुस्तक रचनाओं में सिरमौर है। यह रचना भावनाओं का पिटारा ही नहीं है जिसमें दया करूणा प्रेम मजबूरी बेबसी  समाई है बल्कि उसका दूसरा राजनैतिक पहलू भी बड़े ही बारीकी से उजागर किया गया है कि आर्थिक उदारीकरण किस प्रकार विदेशी पूंजी वाद बढ़ावा देता है और कैसे हमारे छोटे-छोटे गृहउद्योगों को लील जाता है।

उससे रोजी-रोटी कमाने वालों को दर्द और पीड़ा, तथा बर्बादी इसके साथ ही साथ यह कहानी बुनकर समाज दुर्गति को दिखाती है । नए विषय वस्तु के ताने-बाने में बुनी कथा तथा उसके संवाद तो इतने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि बचपन में हम उनको तानी फैलाते समेटते हुए देख चुके हैं। इस लिए कहानी पढ़ते हुए वे दिन याद आते हैं साथ ही आंचलिक भाषा भोजपुरी शैली के संवाद भले ही अहिंदी भाषी लोगों की समझ से परे हो, लेकिन उसनेे रचना सौंदर्य को निखारने में महती भूमिका निभाने का कार्य किया है। यह रचना बनारसी साड़ी उद्योग को केंद्रित कर लिखी गई है। सर्वथा नया विषय है। उसके भावुक संवाद पाठक को अंत तक रचना पढ़ने को बांधे रखने में सक्षम है।

इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है कि इसके कहानी शीर्षक कुछ अजीब से है जो पाठक के मन कहानी पढ़ने समझने की जिज्ञासा तथा ललक जगाते हैं।  जैसे अचिरावती का प्रतिशोध,काला नमक, चिकवा आदि। वहीं अंतिम कहानी शीर्षक बिदाई कथा संग्रह के समापन की घोषणा करता जान पड़ता है।और यहीं एक रचना कार की कार्य कुशलता का परिचायक है।

हर्ष प्रकाशन दिल्ली का त्रुटिहीन मुद्रण तारीफ के काबिल है अन्यथा त्रुटि से युक्त मुद्रण तो भोजन में कंकड़ पत्थर के समान लगता है।यह पुस्तक पढ़ने के बाद आप के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा सकती है ।

 

समीक्षा – सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 – “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  के काव्य संग्रह  “एक दिया देहरी पर” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

कृति… एक दिया देहरी पर

कवियत्री… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-95264-12-4

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १०८

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 

“धन, वैभव, राज सब ठुकरा देना

आंगाष्टिक मार्ग सेतप संयम की राह अपनाना

सिद्धार्थ से सिद्धस्थ हो जाना

मौन से हर उत्तर दे पाना

इतनाआसान तो नही बुद्ध हो जाना”

या

“उसके अंदर  सांझा चूल्हा है

तंदूर धधक रहा है

वो निगल नही सकता रोटी

उसके पास मुंह ही नही

फिर भी वह मुस्करा रहा है “

अथवा

“जब तुम मूड में हो

हँसो तो वह भी हँस ले

जब तुम गिल्टी हो

तो उसे भी होना ही चाहिये

तुम्हें क्या लगता है

स्त्री कोई उपयोग करने वाली चीज है ?

इन सब पंक्तियों को पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि  ये किसी नई कवियत्री की पहली किताब से उधृत कविता अंश हैं ? पर हाँ यह सच ही सुषमा व्यास राजनिधि के प्रथम काव्य संग्रह “एक दिया देहरी पर” की कविताओ को पढ़ते हुये जिन ढ़ेरो पक्तियो को मैंने लाल स्याही से रेखांकित किया है, उन्हीं में से चंद पंक्तियां हैं.  सुषमा जी रिश्तों, घर परिवार, धन धान्य, सदव्यवहार से परिपूरित एक आध्यात्मिक दृष्टि वाली भाषा संपन्न सरल रचनाकार हैं. एक दिया देहरी पर में उन्होने तीन खण्डों में अपनी ४५ अकवितायें साहित्य जगत के सम्मुख रखीं हैं. शैली, भाषा, काव्य में भावगत सौंदर्य, रचना सौष्ठव परिपक्व है. स्त्री विमर्श की कवितायें नारी खण्ड में हैं, जिनमें माई का पल्लू, घर से जाती बेटियां, नारी मन के भाव बेलती रोटियां, मैं सितार सी, खुद को खुद में ढ़ूंढ़ रही हूं, धरा सी नारी, मेरा कोना, मैं भी चुनरिया, अनगढ़ी आदि प्रभावोत्पादक हैं. उनकी आध्यात्मिक दृष्टि व पौराणिक ज्ञान ही उनसे लिखवाता है

“ओ स्त्री तुम पैदा नही हुई, बना दी गई हो….

तुम कभी अनुसूया बनी कभी अहिल्या बनी बरसों बरस

शिला बन सहती रहीं वर्षा, शीत, ग्रीष्म….

सीता, द्रौपदि, तारा बनकर शोषित होती रहीं पर अब तुम उठ खड़ी हो गई हो….

मेरी आशा है कि यह आव्हान नारी अस्मिता और जीवन दर्शन में शाश्वत प्रेम के जागरण की नई इबारत लिखेगा.

सुषमा व्यास राजनिधि जी व्यंग्य, आध्यात्म, मंच संचालन आदि विविध विधाओ में समान रूप से पारंगत हैं उनसे अनवरत बहुआयामी लेखन की अपेक्षा साहित्य जगत रखता है. एक दिया देहरी पर अक्षय प्रकाश करता रहे यही शुभेच्छा करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 107 – “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री  मनोज श्रीवास्तव जी  द्वारा सम्पादित पत्रिका  “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक) की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 107 ☆

☆ “अक्षरा ” (सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक)  – संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पत्रिका चर्चा

अक्षरा नई यात्रा पर…

पत्रिका चर्चा… अक्षरा अंक २०३, मासिक पत्रिका,

“सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक “

संपादन… श्री मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक… म. प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल

वार्षिक सदस्यता… ३०० रु

किसी विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका में  लेख पढ़कर किसी अपरिचित पाठक का स्वस्फूर्त फोन आवे तो निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाशित शब्द पाठक के मन पर छबि अंकित कर रहे हैं, पत्रिका सांगोपांग पढ़ी जा रही है. वरना विशुद्ध साहित्य की कतिपय कथित गरिष्ठ पत्रिकायें वरिष्ठ साहित्यकारों के पास भी लिफाफे से बाहर निकलने को ही तरसती रह जाती हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की मुख पत्रिका “अक्षरा” विगत ४० वर्षो से अनवरत छप रही है, खरीद कर पढ़ी जा रही है, इसमें प्रकाशित होना रचनाकार को आंतरिक प्रसन्नता देता है, अर्थात अक्षरा विशिष्ट है.  नये आकार, नये गेटअप, कलेवर के नये स्वरूप में सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव के संपादन में नई  टीम के साथ अक्षरा अंक २०३, “सरस्वती विमर्श पर केंद्रित अंक ” २०० पृष्ठो  की विशद सामग्री निश्चित ही स्थाई संदर्भ हेतु  संग्रहणीय है. वर्तमान परिदृश्य में साहित्य  समाज को चिंतन, विचार और दिशा तो देता है किन्तु उससे सीधा आर्थिक लाभ नगण्य ही होता है.  सामाजिक गरिमा व सम्मान के लिये ही रचनाकार यह सारस्वत अनुष्ठान करते समझ आते हैं.

इस अंक को पढ़कर एक बुजुर्ग पाठक का फोन मेरे पास आाया वे मेरे व्यंग्य लेख ” सरस्वती वंदना से आभार तक ” की प्रशंसा कर रहे थे, मैं फुरसत में था तथा पत्रिका पढ़ ही रहा था सो मैंने उनसे पत्रिका के बाकी लेखों के विषय में भी बातें कीं, और मुझे लगा कि अक्षरा की इस नई यात्रा की चर्चा पाठको के बीच की जानी चाहिये जिससे अक्षरा और भी व्यापक हो.

हाल ही हमने समाचार देखा कि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में बहने वाली ब्रिंगी नदी की जलधारा अचानक रुक गई है,  इसका पानी ‘पाताल’ में समा रहा है,  इसका कारण नदी का स्रोत समाप्त होना नहीं, बल्कि एक गहरा गड्ढा (सिंकहोल) बनना है जिसमें सारा पानी समाता जा रहा है. आगे की नदी का करीब 20 किमी लंबा हिस्सा सूखने से बड़ी संख्या में ट्राउट मछलियां भी मर गई हैं. 

अनेक नदियां उनके बेसिन में जंगलो की कटाई के चलते सूख रही हैं, जैसे जालौन से निकली नून नदी विलुप्त होती जा रही है. जालौन के 89 किलोमीटर के दायरे में फैली इस नदी से करीब 30 गांवों की फसलें सिंचित होती थीं. लेकिन, बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे के कारण ये नदी विलुप्त होती जा रही है.

अनेक नदियां व उनके जीव जंतु रेत के अंधाधुंध दोहन से मृतप्राय हो रही हें जैसे गाडरवाड़ा की शक्कर नदी सूख रही है. प्रातः स्मरणिय श्लोक “गंगे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ” में तो सरस्वती बांची जाती है पर पवित्र  नदी सरस्वती विलुप्त हो चुकी है. अक्षरा का यह विशेषांक सारस्वत साहित्य मंथन के साथ ही लुप्त होती नदियों की ओर भी पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित करे ऐसी कामना है.

अंक के आरंभिक पन्ने पर अगली पीढ़ी को अपने सम्मुख ऊपर की सीढ़ी पर चढ़ाने का सुख “अपनी बात” में संपादन दायित्व से मुक्त होते कैलाश चंद्र पंत जी ने अभिव्यक्त किया है. नये विद्वान संपादक मनोज श्रीवास्तव जी के संपादकीय का शब्द शब्द, विभिन्न व्यापक संदर्भ, सरस्वती को लेकर उनका गहन चिंतन व संदर्भ विमर्श के श्रोत हैं. श्री रमेश दवे के आलेख सरस्वती मात्र शब्द नहीं दर्शन है, में वे लिखते हें कि ” भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत होना, शक्तिमय होना ही सरस्वती होना है.

पत्रिका में माँ सरस्वती के दुर्लभ चित्र यत्र तत्र संदर्भानुकूल प्रकाशित किये गये हैं. अंक का सुंदर आवरण चित्र क्षमा उर्मिला जी ने बनाया गया है. 

श्री विनय कुमार, प्रेमशंकर शुक्ल, आभा बोधिसत्व, सुधीर सक्सेना, स्वदेश भटनागर, अभिषेक सिंह,बृजकुमार पटेल, राजकुमार कुम्भज, मुरलीधर चांदवाला, व देवेंद्र दीपक की  चयनित प्रकाशित कविताओ में से स्वदेश भटनागर जी की पंक्तियां उधृत करता हूं..

” हिंसा पर हिंसा

जमती जा रही है

आसमान भी तिरछा हो गया

तुम्हें मालूम होगा न माँ

मौन भी अब हिंसा की जद में आ गया

सुबह रक्त भरे पन्ने से शुरू होने लगी है

मनुष्य भी संवेदन शील नही रहा “

सोनल मानसिंह का लेख सरस्वती, कुसुमलता केडिया का लेख सरस्वती के मुहाने पर दम तोड़ता आर्य आक्रमण सिद्धांत,सरस्वती भारतीय सारस्वत साधना का जीवंत प्रतीक द्वारा राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण उपाध्याय का आलेख सरस्वती वाक् तरंगें और एक नदी, रंगों और रेखाओं में सरस्वती आलेख नर्मदा प्रसाद उपाध्याय,  राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण : धुंध के पार एक चमकदार लकीर में  विजय मनोहर तिवारी ने धार की भोजशाला पर विस्तृत ऐतिहासिक विवेचना की है. 

सरस्वती के बहाने आत्म प्रत्यभिज्ञा की खोज में  आनंद सिंह,  आखिर कविता संयत और सिद्ध वाचालता ही तो है / कुमार मुकुल,  सा मां पातु सरस्वती भगवती / राजेश श्रीवास्तव,  सरस्वती का स्वरूप निराकार से साकार तक / मीनाक्षी जोशी,  भारतीय संगीत में सरस्वती / विजया शर्मा,  लुप्त सरस्वती की खोज : श्रीधर वाकणकर ‍-  रेखा भटनागर,  सरस्वती, श्रुति महती न हीयताम् : सरस्वती शाश्वत है / श्यामसुंदर दुबे,  सरस्वती की कालजयिता / विजयदत्त श्रीधर,  ‘ सरस्वती ‘ में महिला संचेतना / मंगला अनुजा,  पुरातन का रूपान्तरण है बसन्त / इंन्दुशेखर तत्पुरुष विशेषांक पर केंद्रित सभी आलेख पौराणिक साहित्य, वेदो, से संदर्भ उधृत करते हुये गंभीर चिंतन जनित लेख हैं. प्रत्येक लेख को पढ़ने समझने में लंबा समय लगेगा.  वैज्ञानिक व तकनीकी दृष्टिकोण से विलुप्त सरस्वती नदी पर एक आलेख की कमी लगी.

नारी तू सरसती / सुमन चौरे, मुझे सरस्वती से कोई दिक्कत नहीं है / निरंजन श्रोत्रिय एवं दारागंज में निराला / देवांशु पद्मनाभ संस्मरणात्मक लेख हैं. सरस्वती संदर्भ की अनूदित सामग्री भी संयोजित है जिसमें “ज्ञान प्रदाता : सरस्वती माता / मूल : विजयभास्कर दीर्घासि / अनुवादक एस. राधा,   सरस्वती नाद शब्द और परब्रह्म का वपुधारण / मूल पुदयूर जयनारायनन नंबूदरीपाद / अनुवादक तथा देवी सरस्वती अंतहीन ज्ञान की देवी मूल : वृन्दा रामानन के हिन्दी अनुवादक स्वयं संपादक मनोज श्रीवास्तव  हैं. इस तरह मनोज जी के अनुवादक स्वरूप के भी दर्शन हम करते हैं.

सरस – वती भव में नरेन्द्र तिवारी ने अद्भुत कल्पना कर स्वयं वाग्देवी सरस्वती से स्वप्न साक्षात्कार ही प्रस्तुत कर दिया है. स्मरणांजलि में श्री नरेश मेहता दृष्टि और काव्य पर प्रमोद त्रिवेदी व गहरे सामाजिक बोध के कवि नरेश महता / प्रतापराव कदम के लेख महत्वपूर्ण हैं.  व्यंग्य “सरस्वती से आभार तक”  / विवेक रंजन श्रीवास्तव,  ललित निबंध राग की वासंतिका : सरस्वती की रंगाभा / परिचय दास के अतिरिक्त दो  कहानियां  बदरवा बरसे रे : कृष्णा अग्निहोत्री एवं यू – टर्न / इंदिरा दाँगी भी पत्रिका में समाहित हैं.  तीन किताबो पर पुस्तक परिचय में बात की गई हैं.  समय जो भुलाए नहीं भूलता (अश्विनी कुमार दुबे), उपनिषद त्रयी (एम. एल. खरे) / पहाड़ी,  नर्मदा (सुरेश पटवा) : रामवल्लभ आचार्य, खंडित होती शाश्वत अवधारणाएँ (सदाशिव कौतुक) / माधव नागदा ने प्रस्तुत की है.   पगडंडियों का रिश्ता (विजय कुमार दुबे) / रमेश दवे,  बीर – बिलास (सं. प्रो. वीरेन्द्र निर्झर) / गंगा प्रसाद बरसैंया,  वसंत का उजाड़ (प्रकाश कांत) / सूर्यकांत नागर,  शिखण्डी (शरद सिंह) / मैथिली मिलिंद साठे,  लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ (मनीषचंद्र शुक्ल) / जवाहर कर्नावट ने पुस्तको पर समीक्षायें रखी हैं.

कुल मिलाकर इस अंक के साथ अक्षरा जिस नई यात्रा पर निकल पड़ी है, उसमें पूर्ण कालिक संपादकीय समर्पण दृष्टि गोचर है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा – आत्मानंद साहित्य #110 ☆ ‌सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 110 ☆

☆ ‌पुस्तक चर्चा – सोनपरी – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

 

पुस्तक का नाम – सोनपरी 

रचना कार – श्री रमेश सिंह यादव ‘मौन’

विधा – हिंदी काव्य।

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य– ₹ 135

उपलब्ध – अमेज़न लिंक  >> सोनपरी  फ्लिपकार्ट लिंक >> सोनपरी 

☆ पुस्तक चर्चा –  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह वृत्तांत नहीं है कोरा,

यह जीवन की जीवंत परिभाषा।

सोन परी अब लौट गई घर,

बची रही केवल अभिलाषा।

एहसास कराती मानवता की,

खुद मानवता की थी परिभाषा।

सोन परी थी सोने जैसी,

उम्मीद किरण की आशा।

असमय छोड़ गई वह सबको,

और हिया में दे गई पीर।

जब जब करता याद उसे,

तब मेरा मन होता अधीर।

लिखते पढ़ते  सोन परी को,

आंखें मेरी भर आई,।

उसके संग जो समय बिताया ,

मेरी स्मृतियों में उतर आई।

रचनाकार – सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

यूँ  तो हिंदी साहित्य जगत में रचनाएं होती रही है  जो विद्वत समाज द्वारा तथा पाठक वर्ग द्वारा सराही जाती रही है, उन्ही कृतियों के बीच कभी कभी ऐसे रचनाकार या उनकी कृतियां हाथों में  आ जाती है जो बरबस दिमाग से होती हुई दिल में उतर जाती है, और सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती आवरण पृष्ठ की जो सहज में ही पाठक को आकृष्ट तो करता ही है, लेखन सामग्री के बारे मूक शब्दों बहुत कुछ आभास करा देता है और यही उक्ति चरितार्थ होती दीख रही है सोनपरी के बारे में। बाकी ज्यादा लिखना तो कटोरी भर पानी में चांद को समेटने जैसा टिट्टिभ प्रयास है बाकी साहित्य का पूर्ण आनंद लेने के लिए इस कृति का आदि से अंत तक पढ़ना आवश्यक है, यह लेखक के दृढ़ इक्षाशक्ति का परिचायक भी है, इसके सारे अध्याय सोनपरी के जीवन का दर्शन है जो कभी गुदगुदाती है तो कभी भावुक कर जाती है।

यह हर पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने में सक्षम है और हम कामना करते हैं कि साहित्यकार श्री रमेश सिंह यादव “मौन” जी इसी तरह साहित्य सेवा में तन्मयता के साथ अग्रसर हो कर  अपने साहित्य के द्वारा समाज के सही रास्ता दिखाते रहेंगे। हम उनके उज्वल भविष्य की मंगल मनोकामना करते हैं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा श्री पवन कुमार वर्मा जी की पुस्तक “पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियांकी समीक्षा।

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां

प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 37-शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज, आगरा (उत्तर प्रदेश) 94588 009 531

पृष्ठ संख्या- 160 

मूल्य- ₹500

बच्चों की पुस्तक बच्चों के अनुरूप होना चाहिए। उनकी कहानी रोचक हो। आरंभ में जिज्ञासा का पुट हो। कहानी पढ़ते ही उसमें आगे क्या होगा? का भाव बना रहे। वाक्य छोटे हो। प्रवाह के साथ कथा आगे बढ़ती रहे। तब वे बच्चों को अच्छी लगती है।

इस हिसाब से पवन कुमार वर्मा की कहानियां उम्दा है। वे पेशे से अभियंता है। मगर मन से बाल साहित्यकार। आपने बालसाहित्य में अपनी कलम बखूबी चलाई है। इनकी समस्त कहानियां सोउद्देश्य होती है। बिना उद्देश्य इन्होंने कुछ नहीं लिखा है।

प्रस्तुत समीक्ष्य कहानी संग्रह आपकी कहानियों का चुनिंदा संग्रह है। इसमें संग्रहित कहानियां आप के विभिन्न संग्रह से ली गई है। इनका चयन कहानियों की श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है। आपकी जो कहानियां ज्यादा चर्चित रही है उन्हीं कहानियों को इस संग्रह में लिया गया है।

इस मापदंड से देखें तो यह कहानी संग्रह अन्य कहानी संग्रह से उम्दा है। इसमें चयनित कहानियां बहुत चर्चित व पठनीय रही है। इस कारण से इन्हें पवन कुमार की श्रेष्ठ कहानियां के रूप में संकलित किया गया है।

भाषा शैली की दृष्टि से आपने मिश्रित भाषाशैली का उपयोग किया है। अधिकांश कहानियां वर्णन के साथ शुरू होती है। मगर वर्णन में रोचकता का समावेश हैं। संवाद चुटीले हैं। भाषा सरल और संयत है। कहानी में तीव्रता का समावेश है। इस कारण कथा में गति बनी रहती है।

मिट्ठू चाचा कहानी आपके मिट्ठू चाचा संग्रह से ली गई है। इस कहानी में शरारती बच्चों को मिट्ठू चाचा की सहृदयता का ज्ञान अचानक हो जाता है। वे अपनी शरारत छोड़ देते हैं। तीन-तीन राजा- कहानी पर्यावरण की स्वच्छता पर एक नई दृष्टि से बुनी गई है। इसका कथानक बहुत ही बढ़िया और रोचक है।

घमंड चूर हो गया- आपसी ईर्ष्या को दर्शाती एक अच्छी कहानी है। इसमें घमंड को दूर करने का अच्छा रास्ता अपनाया गया है। कहानी में अंत का पैरा अनावश्यक प्रतीत होता है। मोटा चूहा पकड़ा गया- घर के सामान की परेशानी और चूहे की समस्या का अच्छा समाधान प्रस्तुत करती है।

मोती की नाराजगी- में गौरैया और मोती के द्वारा कहानी का सुंदर ताना-बाना बुना गया है। कौन, किससे और कैसे नाराज हो सकता है? बच्चों को अच्छी तरह समझ में आ जाता है। वही पिंकू सुधर गया- कहानी में पिंकू की शरारत का अच्छा चित्रण किया गया है।

अनोखी दोस्ती- में दीपू के द्वारा तोते की आजादी को बेहतर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। खुशी के आंसू- सृष्टि द्वारा गर्मी की छुट्टियों के सदुपयोग पर प्रकाश डालती है। दावत महंगी पड़ी- में कौए और कोयल द्वारा नारद विद्या पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

प्रणय ने राह दिखाई- बच्चों को स्कूल में श्रम सिखाने का प्रयास करती है। वही सुधर गया विनोद- में शरारत का अंत बेहतर ढंग से किया गया है। वहीं खेल-खेल में- बहुत बढ़िया सीख दे जाती है।

सच्चा दोस्त, समझदारी, असली जीत, दीपू की समझदारी, बात समझ में आई, अंधविश्वास, हम सबका साथ हैं, नई साइकिल, कहानी बच्चों को अपने शीर्षक अनुरूप बढ़िया कथा प्रस्तुत करती है। वही अच्छा सबक मिला, देश हमारा हमको प्यारा, दादाजी का मौनव्रत, गांव की सैर, आदत छूट गई, कल की बात पुरानी, नया साल, रामदेव काका, चोर के घर में चोर, मम्मी मान गई, कहानियां कथानक के हिसाब से रोचक व शीर्षक के हिसाब से उद्देशात्मक है। इनकी सकारात्मकता बच्चों को बहुत अच्छी लगेगी।

कुल मिलाकर पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ कहानियां बच्चों के मन के अनुरूप व श्रेष्ठ है। इनमें रोचकता का समावेश है। वाक्य छोटे और प्रभावी हैं। कथा में प्रवाह हैं। अंत सकारात्मक है। यानी बालसाहित्य के रूप में कहानी संग्रह उम्दा बन पड़ा है।

त्रुटिरहित छपाई और आकर्षक मुख्य पृष्ठ ने पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। हार्ड कवर में 160 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 ज्यादा लग सकता है। मगर साहित्य की उपयोगिता के हिसाब से यह मूल्य वाजिब है। आशा की जा सकती है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में इस संग्रह का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाएगा।

समीक्षक –  ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा उमेश कुमार सिंग जी की पुस्तक  “इक्कीसवीं सदी का भारत” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – इक्कीसवीं सदी का भारत

म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के संपादकीय का संकलन

लेखक – डा उमेश कुमार सिंग

प्रकाशक – संदर्भ प्रकाशन, भोपाल

मूल्य – ३०० रु

संदर्भ प्रकाशन भोपाल श्री राकेश सिंह के समर्पित साहित्य प्रेम का उदाहरण है, किसी भी तरह दिल्ली या जयपुर के प्रकाशको से प्रकाशन, प्रस्तुति, उत्कृष्ट साहित्य के चयन में उन्नीस नही है. विविध विषयो पर साश्वत साहित्य वे लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. इसी क्रम में “इक्कीसवीं सदी का भारत ” पुस्तक पढ़ने में आई. लेखक डा उमेश कुमार सिंग जो साहित्य अकादमी के निदेशक रह चुके हैं, और जिनके संपादन में म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार ने नई उंचाईयां स्पर्श की थीं, के द्वारा उनके संपादन में निकले साक्षात्कार के अंको के संपादकीय आलेखो का संकलन इस पुस्तक में है. कुल २६ लेख हैं. सभी लेख शाश्वत मुक्त चिंतन से उपजे हैं. हर उस व्यक्ति को जिसे स्व से पहले समाज और देश की चिंता हो, ये आलेख जरूर पसंद आयेंगे. अधिकांश लेख मेरे पहले ही साक्षात्कार में पढ़े हुये हैं, जिन पर मैं यदा कदा पाठकीय प्रतिक्रिया भी पत्रिका में ही व्यक्त करता रहा हूं. साहित्य का सरोकार मई २०१६ के अंक से आरंभ जून २०१८ में प्रकाशित रंक को तो रोना है लेख तक सभी न केवल पठनीय हैं वरन मनन करने और चिंताकरते हुये राष्ट्र के लिये किंचित कुछ करने को प्रेरित करते हुये लेख पुस्तक में हैं. लेखक डा उमेश कुमार सिंग ने इतिहास, कविता, आलोचना, संपादन में निरंतर बड़े काम किये हैं उन्हें कई सम्मान और जिम्मेदारियां मिली जिनका उन्होने सफल निर्वाह किया है. ऐसे साहित्यिक समर्पित मनीषी के चिंतन का लाभ पाठको को इस कृति के माध्यम से मिलना तय है.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘खामोशियों की गूंज ’ – अदिति भादौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘खामोशियों की गूंज ’ – अदिति भादौरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

कागज़ पर कलम से खुद को सींचना …..यानी अदिति भादौरिया की कविताएं – कमलेश भारतीय

अदिति भादौरिया फेसबुक पर मिलीं और पाठक मंच से भी जुड़ीं । एक पत्रिका की सहसंपादिका भी बनीं और लघुकथा में भी सक्रिय हैं । पहला पहला कविता संग्रह आया है- खामोशियों की गूंज । इच्छा भी आई फोन पर कि कुछ लिखूं , कुछ कहूं । आखिर इन खामोशियों की गूंज सुनी और यही लगा कि कवयित्री कह रही है कि कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हैं अदिति यानी हर लेखक ।

कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हूं मैं

अश्कों के प्रवाह को सीने में भरकर देखा है

क्योंकि खामोशी के शब्दों को मैंने

पलकों की स्याही से सोखा है ।

अदिति की कविताओं में आम लड़की की चाहें , प्यार , विरह , गृहस्थी और समाज सब आते हैं । वे कहती हैं :

मैं पाना चाहूं वह उड़ान

जो आशाओं को थामेगी।

अदिति ने पति , परिवार और बच्चों पर अपने प्रेम की कवितायें भी इसमें शामिल की हैं । कुछ भी छिपाया नहीं । तभी तो कहती हैं :

हां छिपाना चाहूं तुझसे मैं जख्म अपने

पर टूटा आइना कहे मुझे तेरा अक्स छिपाऊं कैसे ?

कोई भी लेखक समाज का ही अक्स दिखाता है । अपने आसपास का अक्स दिखाता है ।

अपनी कलम से अदिति कहती है

न डरना , न घबराना तुम

शब्दों को बुनते जाना तुम ।

खामोशियों की गूंज में गज़लें भी हैं तो दो दो चार चार पंक्तियों की छोटी छोटी कविताएं भी और गीत भी । सपने पर लिखी कविता पहचान लिखी है और पहचान यह है कि :

#आशा की किरणों को थामे

मैं राह अपनी चुनता हूं ,,,

छोटी छोटी कविताओं में से एक :

#बनना चाहती हूं एक ऐसा आसमान

जहां मैं उड़ सकूं और सुन सकूं

वो धड़कनें जो मेरे दिल में भी धड़कती हैं ।

,,,,,

काश ! कोई समझ पाये

कि मौत सिर्फ चिता पर ही नही होती

बल्कि झूठी मुस्कुराहटें ओढ़ने से भी होती है ।

,,,,,

हंसने के लिए मुस्कुराहटें नहीं

बल्कि नकाब की जरूरत पड़ती है

आजकल ,,,

लोग हैं चारों तरफ

फिर भी तन्हाई क्यों लगती है

क्यों भीड़ में खो जाती हूं मैं

हर पल बस अपनी ही तलाश में रहती क्यों हूं मैं ?

 

यह तलाश जारी रहनी चाहिए अदिति और इसकी भूमिका लिखी है लालित्य ललित ने । शुभकामनाएं । बधाई । अगले काव्य संग्रह या लघुकथा की प्रतीक्षा रहेगी ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  परबंत सिंह मैहरी जी की पुस्तक  “लेखन कला” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – लेखन कला

लेखक.. परबंत सिंह मैहरी, हावडा 

पृष्ठ १३२, मूल्य ३००, पेपर बैक

प्रकाशक.. रवीना प्रकाशन गंगा नगर दिल्ली ९४

हिन्दी साहित्य के सहज, शीघ्र प्रकाशन के क्षेत्र में रवीना प्रकाशन एक महत्वपूर्ण नाम बनकर पिछले कुछ समय में ही उभर कर सामने आया है. लगभग हर माह यह प्रकाशन २० से २५ विभिन्न विषयो की, विभिन्न विधाओ की, देश के विभिन्न क्षेत्रो से नवोदित तथा सुस्थापित लेखको व कवियों की किताबें लगातार प्रकाशित कर चर्चा में है. रवीना प्रकाशन से ही  हाल ही चर्चित पुस्तक लेखन कला प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक क्या है,  गागर में सागर है.

आज लोगों में विशेष रूप से युवाओ में  प्रत्येक क्षेत्र में इंस्टेंट उपलब्धि की चाहत है. नवोदित लेखको की सबसे बड़ी जो कमी परिलक्षित हो रही है वह है उनकी न पढ़ने की आदत. वे किसी दूसरे का लिखा अध्ययन नही करना चाहते पर स्वयं लिक्खाड़ बनकर फटाफट स्थापित होने की आशा रखते दिखते हैं. परबंत सिंह मैहरी स्वयं एक वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व संपादक हैं. उन्होने अपने सुदीर्घ अनुभव से लेखन कला सीखी है. बड़ी ही सहजता से, सरल भाषा में, उदाहरणो से समझाते हुये उन्होने प्रस्तुत पुस्तक में अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओ कहानी,लघुकथा,  उपन्यास, निबंध, हास्य, व्यंग्य, रिपोर्टिंग, संस्मरण, पर्यटन, फीचर, आत्मकथा, जीवनी, साक्षात्कार,नाटक, कविता, गजल, अनुवाद आदि लगभग लेखन की प्रत्येक विधा पर सारगर्भित दृष्टि दी है.

मैं वर्षो से हिन्दी का निरंतर पाठक, लेखक, समीक्षक व कवि हूं.  किन्तु किसी एक किताब में इस तरह का संपूर्ण समावेश मुझे अब तक कभी पढ़ने नही मिला. यद्यपि इस तरह के स्फुट लेख कन्ही पत्र पत्रिकाओ में यदा कदा पढ़ने मिले पर जिस समग्रता से सारी विषय वस्तु को एक नये रचनाकार के लिये इस पुस्तक में संजोया गया है, उसके लिये निश्चित ही लेखक व प्रकाशक के प्रति हिन्दी जगत ॠणी रहेगा.

निश्चित ही स्वसंपादित सोशल मीडीया ने भावनाओ की लिखित अभिव्यक्ति के नये द्वार खोले हैं, जिससे नवोदित रचनाकारो की बाढ़ है. हर पढ़ा लिखा स्वयं को लेखक कवि के रूप में स्थापित करता दिखता है, किंतु मार्गदर्शन व अनुभव के अभाव में उनकी रचनाओ में वह पैनापन नही  दिखता कि वे रचनायें शाश्वत या दीर्घ जीवी बन सकें. ऐसे समय में इस पुस्तक की उपयोगिता व प्रासंगिकता स्पष्ट है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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