हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी का यह संस्मरण अपने साथ कई लघुकथाएं लेकर आया है जो वर्तमान में भी उतना ही सार्थक है जो अस्सी के दशक में था। लेखक और संघर्ष का एक रिश्ता रहा है। यह संस्मरण हमें एक ऊर्जा प्रदान करता है समय और समस्याओं से संघर्ष करने के लिए। प्रस्तुत है संस्मरण – तुम्हें याद हो कि न याद हो )

☆ संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो

सन् 1984 की बात है । मैं लघु कथाकार के रूप में ज्यादा सक्रिय था और एक संग्रह तैयार किया : मस्तराम जिंदाबाद । लघुकथा सन् 1970 से नयी विधा के रूप में अपनी जगह बना रही थी और बड़े साहित्यकार इसे कभी सलाद की प्लेट तो कभी चुटकुला कह कर या अखबारों की घटना मात्र कह कर मजाक उड़ाते ।

ऐसे में कोई प्रकाशक लघुकथा संग्रह प्रकाशित करने का जोखिम क्यों लेता ? सोच  विचार के बाद ध्यान आया  तारिका और कहानी लेखन महाविद्यालय के संचालक डाॅ महाराज कृष्ण जैन जी का । मैं उनके पास अम्बाला छावनी पहुंच गया और अपनी पांडुलिपि उनके सामने रखी ।

डाॅ जैन मुस्कुरा दिए और बोले – कमलेश जी । मैंने तो प्रकाशन छोड़ दिया । आप मेरी हालत देख रहे हो । व्हील चेयर पर हूं । पुस्तक बेचना बड़ा मुश्किल काम है ।

– आप एक काम करेंगे ?

-बताओ ?

– इस पुस्तक के संपादक बनोगे ?

– वो कैसे ?

-आप पुस्तक प्रकाशन करवाने का काम जानते हो ।

– बिल्कुल । पुस्तक सुंदर से सुंदर बना सकता हूं पर बेचने का काम टेढ़ी खीर है ।

– बस । आप संपादक बन जाइए । पांडुलिपि छोड़े जा रहा हूं । आप इसे देखिए और संपादक की तरह फैसला कीजिए कि क्या  प्रकाशन के योग्य है भी या नहीं ? यह नहीं कि पैसा लगा सकता हूं तो छपना ही चाहिए । सारा पैसा प्रकाशन का मैं लगाऊंगा । इस विधा को लोकप्रिय करना है । सारी प्रतियां भी मैं ही ले लूंगा । आपका सिर्फ प्रकाशन का पता होगा ।

डाॅ महाराज कृष्ण जैन सहर्ष तैयार हो गये । कुछ दिन बाद उनका पत्र आया कि सचमुच यह संग्रह लघुकथा विधा के क्षेत्र में चर्चित होगा । आप इसे प्रकाशित कर सकते है । मैंने सारा संग्रह  देख लिया  है ।

फिर मैंने डाॅ जैन पर ही भूमिका लिखने की जिम्मेदारी डाली । यह कह कर कि परंपरागत तौर पर मेरी सिर्फ प्रशंसा यानी वाह वाह ही न हो बल्कि लघुकथा में मैं कहां खड़ा हूं , इसका मूल्यांकन भी कीजिए । मेरी जगह भी बताइये । आठ पृष्ठ की भूमिका में डाॅ महावीर कृष्ण जैन जी  को जहां जरूरी लगा मेरी बखिया भी उधेड़ कर रख दी और आलोचना भी की । आखिरकार एक हजार प्रतियों का मेरा पहला लघुकथा संग्रह पेपरबैक संस्करण के रूप में प्रकाशित हो गया, जिसमें डाॅ जैन ने अपने अनुभव के आधार पर दो सौ प्रतियां सजिल्द भी प्रकाशित कर मुझे दे दीं । उस भले वक्त में कुल चौबीस सौ रुपए में मेरा संग्रह एक बोरी में बंद जिन्न की तरह मेरे पास था । मैं स्कूल में प्रिंसिपल था तो एक कर्मचारी को साथ लेकर अम्बाला छावनी पहुंचा और डाॅ जैन का मुंह मीठा करवा अपनी पुस्तक संपादक से ले चला ।

अब समस्या थी कि इसका वितरण कैसे करना है ? एक हजार प्रतियां । कैसे लोगों तक पहुंचाओगे ? मेरे स्कूल का क्लर्क महेंद्र घर आया । हमने दलित पिछड़े वर्ग के बच्चों की छात्रवृत्ति सरकारी खजाने से निकलवाने जाना था । वह जालंधर से रेल पर आता था । उस दिन खटकड़ कलां की बजाय सीधे नवांशहर ही उतर का सुबह सुबह मेरे घर पहुंच गया था । इसलिए उसका नाश्ता तैयार करवा रखा था ।

जैसे ही महेंद्र को नाश्ता परोसा तो सामने रखी बोरी  में बंद पुस्तकों पर उसकी नज़र गयी । पूछा कि सर , इसमें क्या है ? मैंने बताया कि इसमें पुस्तक मस्तराम जिंदाबाद है।

-फिर कैसे दे रहे हैं आप ?

-कहां ? मैंने तो बोरी खोली भी नहीं । किसे देने जाऊं ?

– अरे सर । आप मुझे खोलने दो । महेंद्र ने नाश्ते के बाद बोरी खोली और  उसमें में से सजिल्द बीस प्रतियां उठा लीं । हमने सरकारी खजाने से पैसे निकलवाए और स्कूल खटकड़ कलां पहुंच गये । शाम की ट्रेन से महेंद्र  जालंधर चला गया ।

कुछ दिन बाद महेंद्र ने मुझे दो सौ रुपये देते कहा कि सर,  ये आपकी बीस पुस्तकों के पैसे । मैं हैरान और पूछा कि यह तुमने कैसे किया ?

महेंद्र ने बताया कि रेल में जालंधर से  चल कर कई सरकारी स्कूलों के मेरे जैसे क्लर्क सफर करते हैं । हम इकट्ठे ताश खेल कर समय बिताते हैं । मैने उन साथियो से  कहा कि यह हमारे प्रिंसिपल साहब की लिखी पुस्तक है । इसे अपने स्कूल की लाइब्रेरी में आधे मूल्य पर लगवा दो । बीस रुपए प्रिंट है । आप दस में ही प्रति लगवा दो । बस । चार पांच स्कूलों में चार चार पांच प्रतियां ले ली गयीं । बिल मैने बना दिए और पैसे मिले तो आपको दे दिए ।

मैं महेंद्र को देखता ही रह गया । वह फिर बोला – सर । पैसे आपके लगे हैं और मैं तो सिर्फ सहयोग कर रहा हूं । आप जिन स्कूलों या काॅलेज में पढ़े हैं क्या वे संस्थाएं आपकी पुस्तक लेने से मना कर देंगी ? आप मुझे साथ ले चलिए । अरे! यह तो मेरा गुरु बन गया ।

सचमुच हम उन स्कूलों में गये जहां मैने शिक्षा पाई थी । सभी प्रिंसिपल ने चार चार  प्रतियां तुरंत लेकर पैसे दे दिए । अपने काॅलेज में भी । यहां तक कि खेल प्रतियोगिता में जब सभी प्रिंसिपल इकट्ठे हुए तब कुछेक ने उलाहना दिया कि हमारी लाइब्रेरी के लिये किताब कब देने आ रहे हो ?

फिर नवम्बर आ गया । तब डाॅ जैन ने सुझाव दिया कि कमलेश नववर्ष के कार्ड भेजने की बजाय इस बार तुम अपनी पुस्तक उपहार में भेज दो । मैंने मोहर बनवाई उपहार भेंट की और तीन सौ लिफाफे खरीद कर ले आया । बस । लग गया उपहार में लेखकों संपादकों के नाम पोस्ट करने । नये साल के आने तक अनेक दूर दराज की कुछ नयी और कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे इसकी समीक्षा देख खुद डाॅ जैन ने मुझे बहुत सारी कतरन भेज कर लिखा कि तुमने तो मेरा बंद पड़ा प्रकाशन चला दिया । लेखक मेरे से झगड़ा रहे हैं कि मैंने प्रकाशन बंद कर रखा है और कमलेश भारतीय की पुस्तक इतनी चर्चित हो रही है । यह कैसे ? तुमने तो  मेरे सुझाव पर ऐसे चले कि गुरु को भी  पीछे छोड़ गये । मुझे बहुत खुशी है । बहुत गर्व है तुम पर ।

इस तरह पहले लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद से मैंने सीखा पुस्तक पेपरबैक में होनी चाहिए और प्रिंट से आधा मूल्य लिया जाए तो सस्ती पुस्तक को हर व्यक्ति खुशी खुशी खरीद लेता है। पेपरबैक पुस्तक उस जमाने में पांच ही रुपये में दी । मेरे अपने सरीन परिवार के हर घर ने पांच पांच रुपये में मस्तराम जिंदाबाद खरीद कर  मुझे प्रोत्साहित किया  और इस तरह तीन सौ पुस्तक मेरे शहर नवांशहर के ही सरीन परिवारों में आज भी सहेजी हुई है  उन्हें खुशी है कि उनका बेटा लेखक बन गया । आर्टिस्ट और आजकल ट्रिब्यून समूह के कार्टूनिस्ट संदीप  जोशी का आभार जिसने मस्तराम जिंदाबाद का आवरण बनाया और खुद  ही चंडीगढ से अम्बाला छावनी  जाकर डाॅ महाराज कृष्ण जैन को सौंप कर आया । उसका नाम प्रकाशित है । मेरे साथ ही रहेगा ।

यही प्रयास वर्षों बाद मैंने नयी पुस्तक यादों की धरोहर के  साथ किया । हिसार में  एक एक मित्र ने मेरी प्रति  ली और बाकायदा राशि दी । दूरदराज के मित्रों ने सहयोग दिया । नवांशहर में अब भी छोटा भाई प्रमोद भारती पुस्तक पहुंचा रहा है । इस तरह एक बार फिर मेरा पहला संस्करण चार माह में सबके हाथों तक दिल्ली के पुस्तक मेले से पहले पहुंच गया । बिना किसी आर्थिक नुकसान के ।

वाह । पहली  प्रति पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा हुड्डा के हाथों सौप कर दिल्ली में पंद्रह सितंबर को उनके जन्मदिन पर विमोचन करवाया और आज अंतिम  प्रति  पंचकूला  के मित्र प्रदीप राठौर  के नाम कोरियर से जा रही है । जिसे लिखा भी कि इसमें साथ ही यादों की धरोहर की यात्रा संपन्न हो रही है ।

मित्रो , आज सचमुच मैं मुक्त हूं और मेरी पत्नी नीलम पूछ रही है कि अब क्या करोगे ? इतने व्यस्त कि  रोज़ आधी रात बैठकर पैकेट बनाते थे । बेटी रश्मि गोंद लगाती थी और मेरे प्रिय मित्र  राकेश मलिक पोस्ट ऑफिस या कैरियर तक छोड़ने  जाते थे ।

मैंने कहा कि मैं आदरणीय डाॅ जैन और  अपने उस भूले बिसरे क्लर्क महेंद्र को गुरुमंत्र देने पर मन ही मन सुबह सवेरे नमन् कर रहा हूं । मुझे पुस्तक का प्रकाशक नहीं सिर्फ संपादक चाहिए ।

एक बार फिर रामदरश मिश्र जी की पंक्तियों के साथ अपनी बात रख रहा हूं :

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी

मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे  ।

जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर

वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे ।

बाॅय । यादों की धरोहर । जल्द नये संस्करण के साथ मिलेंगे । कुछ नये संस्मरण जोड़ कर । इंतजार कीजिए । फिर से आभार । आजकल नया कथा संग्रह यह आम रास्ता नहीं है, को भेज रहा हूं और दूर दराज बैठे मित्र पहले ही पेटीएम भेज कर सहयोग कर रहे हैं । सबका हार्दिक आभार ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆

आज फिर तुमसे रुबरु हो रही हूँ। कोविड के भय से जन जीवन धीरे धीरे मुक्त हो रहा है। लोग बाग अपने अपने जीवन का रुख अपना कर आगे बढ़ रहे हैं। आखिर जीवन एक ही पटरी पर कितनी देर रुका रह सकता है ? चलना ही तो जीवन है ना। जीवन चलने का नाम!!

कल मेरी एक छात्रा की पुस्तक का लोकार्पण समारोह था। मैं उस समारोह में वक्ता के रूप में उपस्थित थी। यह पुस्तक अपने आप में घमक्कड समुदाय का इतिहास रचती है। यह समुदाय भले ही समाज से बिलकुल अलग थलग है, अलक्षित है फिर भी समाज से जुडा है। वास्तव में मेरी छात्रा, हां, नाम भी बताती हूँ… करुणालक्ष्मी ने कन्नड लेखक कुप्पे नागराज की आत्मकथा ‘आलेमारिय अंतरंग’ का हिंदी अनुवाद ‘घुमक्कड का अंतरंग’ इस नाम से किया है। यह आत्मकथा कर्नाटक के दोंबिदास अर्थात घुमक्कडों की जीवन गाथा है। पता है तुम पुछोगे कि दोंबिदास कौन है? बताती हूँ… दोंबिदास वे लोग हैं जो गाँव गाँव जाकर नाटक का प्रदर्शन करते है, इकतारा लेकर घर घर जाकर तत्वगीत गाते हैं, भविष्यवाणी करते हैं, आम लोगों की बीमारियों का ईलाज़ करते हैं, कौडी डालकर भविष्य बताते है और बैलों को सजाकर घर घर जाकर भिक्षा मांगते हैं और उस परिवार को आशीर्वाद देते हैं। ऐसे सुमदाय के लोगों को हम घुमक्कड या खानाबदोश कह सकते हैं। उनके जीवन की कथा इस आत्मकथा की वस्तु है। यह वस्तु मनुष्य जीवन की आधारभुत जरूरतों के इर्द गिर्द घुमती है..रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा। रोटी को हम भूख और मकान को हम छत कहें तो अधिक उचित होगा। इक्कीसवीं सदी में रहते आज भी लोगों को जीवन की बेसिक नीडस् मुहय्या नहीं होती। उसके लिए भी आजीवन संघर्ष करना पडता है। कितना भयानक सच है न…..वास्तव में इस पुस्तक की जो सबसे विशेष बात मुझे लगी वह है इसका सांस्कृतिक पक्ष जिसे लेखक ने बिलुकल सहजता से व्यक्त किया है। पुस्तक में कई सारे प्रसंग हैं जो इस समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति आदि को व्यक्त करते जाते हैं..अनायास। कल समारोह में तत्वगीत भी उन्हीं लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया था। जो उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

कल जब यह सारा देख रही थी, सुन रही थी तब मेरे बचपन के कुछ प्रसंग जो लगभग विस्मरण की कगार पर पहुँच गए थे वे एकदम से जीवित होने लगे। सोचा उन प्रसंगों को, उन क्षणों तुम्हारे साथ साझा करूँ। उन्हें शब्द रूप देकर तुम तक पहुँचाऊं। हो सकता है इसे पढकर तुम्हारी बचपन की कुछ स्मृतियाँ जग जाए और तुम्हारे नीरस जीवन में ब्रेक लग जाए।

इस आत्मकथा में ‘कोलबसव’ शब्द आया तो मैंने पूछ लिया था कि इसका क्या मतलब है तो करुणालक्ष्मी ने मुझे उसकी तसवीर दिखाई थी। मैंने देखा कि एक ऊँचे पुरे बैल को सुंदर ढंग से सजाया गया है और उसके ऊपर रंगविरंगी वस्त्र डाले गए है उसके गले में घंटियाँ बांधी गयी हैं और उसके सिंगों को भी सजाया गया है। वह देखते ही मेरे सामने बचपन में देखे नंदीबैल की तसवीर झलक गयी। तुम्हें तो पता है मैं गलि मोहल्ले में पलि बढी हूँ। हमारी गलि में अक्सर कुछ खानाबदोश लोग नंदीबैल लेकर आते थे। तब कभी मन में यह प्रश्न नहीं आया था कि ये लोग कौन हैं, कहाँ से आये हैं? हमारे आकर्षण का केंद्र बस वह नंदी बैल और उसके गले की किनकिन बजती वह घंटियाँ ही होती थीं। नंदीबैल को जो लोग ले आते थे उनका पहनावा भी हटकर होता था। जहाँ तक याद है वे सफेद धोती और एक लंबा कुर्ता या शर्ट पहनते थे उनके गले में हरे, लाल या पीले रंग का अंगवस्त्र होता था, गले में कौडियों की या रुद्राक्ष की माला होती थी, हाथ में इकतारा, घंटी या फिर एक प्रकार का वाद्य होता था जिसे पता नहीं क्या कहते है। उनका सिर अक्सर पगडी या टोपी से ढका रहता था। भाल पर आमतौर पर भस्म और तिलक रहता था। उनका पहनावा हम बच्चों को कुछ अजीब सा लगता था। ये लोग नंदी को लेकर घर घर जाते और भिक्षा मांगते थे। उनके कंधे पर झोला भी होता था। घर की बुजुर्ग महिलाएं और कभी कभी पुरूष भी उनके झोले में अनाज आदि डाल दते थे तो कभी कभी कुछ पैसे भी दे देते थे। बदले में वे लोगे आशीर्वाद देते। कुछ लोग तो नंदी के पैरों पर लोटाभर पानी डालकर उसके पैर पखारते उसको कुंकुम का तिलक करते अक्षत और फूल भी उस पर वार देते और उस समय घर में जो होता चाहे वह फल हो या रोटी उसे खिलाते थे। कुछ स्त्री पुरूष नंदी को कुछ घर गृहस्थी से संबंधित प्रश्न पुछते थे और वह व्यक्ति उनके प्रश्नों का उत्तर देता था। इनका वार्तालाप अधिकतर कन्नड में होता था और मेरी समझ में कुछ नहीं आता था। हम बच्चे भी गलि में नंदी बैल के आते ही उसके पीछे हो लेते और डर डर कर उसे पीछे से छू कर नमस्कार करते। कुछ बहादूर बच्चे भी होते जो नंदी के सामने जाकर उसके भाल को छूकर प्रणाम करते और उसे पूछते थे मैं पास हो जाऊँगा/जाऊँगी? और नंदी अपनी गर्दन हिलाकर हाँ या ना में उत्तर देता था। हम खुश हो जाते थे। उन दिनों यह सब हमारे मनोरंजन के साधन थे। इतने सालों में मैंने क्वचित ही नंदी बैल को देखा है।

जैसे नंदीबैल लेकर आनेवाले होते थे वैसे ही कुछ और लोग भी थे जिनका पहनावा भी इनकी तरह ही होता था। किंतु इनके साथ महिला होती थी। इनके गले में विशिष्ट प्रकार की कौडियाँ की माला होती थी। सिर पर विशेष प्रकार की टोकरी होती थी। जिसमें किसी देवी माता की तसवीर या मूर्ति होती थी। उस पर भी मालाएं चढाई होती थी। उनकी इस टोकरी की किनार पर कौडियाँ बहुत करीने से लगायी गयी होती थी। इसके साथ ही कटोरे जैसी छोटी छोटी टोकरियाँ होती थी, जिसमें हलदी, कुंकुम, भस्म, कौडियाँ आदि रखा रहता था। इनके कंधे पर भी झोला होता था। ये लोग भी घर घर जाते थे। घर में स्थित बडे बुजुर्ग उनको सम्मान से घर में बुलाते थे। दरी या चटाई बिछाकर उनको बैठने के लिए कहा जाता था। उनको गुड पानी दिया जाता। घर की औरतें और मर्द उनके इर्द गिर्द बैठते। फिर बातों ही बातों में अपनी समस्याएं प्रश्नों के माध्यम से पूछे जाते थे। वे कौडी डालते और फिर उनके सवालों का उत्तर देते थे। उनके कहने का ढंग बडा मज़ेदार होता था। बोलने में सुर, लय, ताल का बडा ही सामंजस्य होता था। उनको सुनना अच्छा लगता पर मुझे कभी अर्थबोध हुआ नहीं। ये लोग कभी कन्नड तो कभी कभी मराठी मिश्रित कन्नड बोलते थे। प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम खतम होने के बाद उनको पुराने कपडे, अनाज आदि देकर दूर से ही नमस्कार कर उनको विदा किया जाता था। इन लोगों का घर परिवारों में सम्मान होता था।

एक और मज़ेदार याद है। अमूमन शाम का समय होता था और एक आदमी जिसके बाल बिखरे होते थे, चेहरे पर भस्म लगा होता था, आँखे लाल लाल होती थी। गले में कई सारी रुद्राक्ष की मालाए होती थीं और कुछ तो कमर पर भी लटकी होती थी। शरीर का उपरी भाग नंगा होता था, कमर पर कई तरह के वस्त्र लटकते रहते थे। हाथ में लंबी सी छडी होती और उसके ऊपर घुंघुरु लगाए होते थे और सबसे वैशिष्ट्यपूर्ण बात यानि उसके गले में एक बडा सा  घंटा होता जो उसके घुटने तक लटकता रहता था। वह आदमी पीछे की गलि में स्थित मंगाई देवी के के मंदिर से आ जाता था। जब वह चलता तो उसके गले का घंटा दोनों घुटनों से लगकर आवाज़ करता था। ऐसी वेश भूषा में वह व्यक्ति अपनी बुलंद आवाज़ में ‘अलख निरंजन’ कहता चला जाता था और कुछ ही घरों के सामने खडे होकर भिक्षा मांगता था। उसका हुलिया डरावना होता था। मैं हमारे घर के ऊपरी मंजिल पर जाकर चुपके से खिडकी से उसे देखा करती थी। कभी कभी माता पिता बच्चों को उनका डर भी दिलाते थे। कुछ तो उसके आते घर में दुबककर रह जाते उनमें मैं एक थी। किंतु कुछ शरारती और निडर भी होते थे जो उसके पीछे पीछे भागा करते थे और उसको छेडते थे। …. और मज़ेदार बात सुनो…जैसे ही पता चलता कि अलख निरंजन बाबा आ रहा है तो कुछ बच्चे दौडकर आते और कहीं किसी के घर से कोयला ले आते अलख बाबा के मार्ग पर कोयले से तीन काली रेखाएं खींच देते और दरावजे की आड में छिप जाते थे। ऐसा माना जाता था कि  अलख बाबा उन तीन रेखाओं को पार कर नहीं जाएगा। किंतु याद पडता है कि वह बाबा उन रेखाओं के पास आता कुछ पल ठिठकता, उनको घुरता और होठों की होठों में कुछ बडबडाता और रेखाएं लांघ कर चला जाता था। वह जिस दिन आता था मैं घर से बाहर ही नहीं निकलती थी। हाँ चुपके से ऊपर की खिडकी से उसे देखा करती थी। डर का एक कारण यह भी था कि हमें यह पता नहीं किसने बताया था कि ये बाबा कबरस्तान में रहता है और भूतों से बातें करता है। उस समय का बस यही याद है। लेकिन जब बडे हुए तब पठन पाठन के दौरान पता चला कि ये अलख निरंजनी बाबा नाथ पंथी हठयोगी साधू होते हैं और भिक्षाटन के लिए आते थे। बचपन में अलख निरंजन का अर्थ मन में भय निर्माण करता था। किंतु बडे होने के बाद इस शब्द का गहन अर्थ भक्ति साहित्य पढने के बाद ही समझ पायी थी। सच में हमारी भक्ति परंपरा हमारे लोक जीवन में कितनी गहरी पैठी है न!

जैसे अलख निरंजन बाबा शाम के समय आते थे वैसे ही बिलकुल अल्लसुबह करीब करीब पाँच बजे के आसपास एक और साधु बाबा आया करते थे। आज भी उनकी छवि मेरी आँखों के सामने तैर जाती है। उनके हाथ में लालटेन और छत्रि होती थी और अक्सर वह छत्रि खुली रहती थी और उनके कंधे के सहारे टिकी रहती थी। वे सफेद या कभी कभी हलके गेरुएं रंग के वस्त्र धारण करते थे। कंधे पर लटकता हुआ झोला होता था और कलाइ में घंटी लटकती रहती थी। वे अत्यंत धीरे धीरे पैदल चलकर आया करते थे। जब वे चलते तब उनके हाथ में लटकती घंटी मधुर आवाज़ में बजती रहती थी। वे अपने मूँह से एक तरह की आवाज़ निकाला करते थे। वह आवाज़ किसी पक्षी की होती थी। सुबुह सुबह घंटी की वह किन किन और पक्षी की आवाज़ सुनकर बडे बुजुर्ग जाग जाते थे। माँ और पिताजी भी जाग जाते थे। वे ऊपर की खिडकी से झांककर देखते और कहते थे कि आज कई दिनों बाद ‘पिंगळा’ आया है। मैं भी कभी कभी जाग जाती थी। मेरे भाई भी जाग जाते थे, उस साधु बाबा को देखने की उत्सुकता हम सबके मन में होती थी। पौ फटने का समय और झुटपुट अंधेरे में वह छवि मन को मोह लेती थी। ये पिंगळे आमतौर पर कन्नड में ही बोलते थे। कर्नाटक का लिंगायत समुदाय शिवभक्त है। अतः ये साधु उनके घरों के सामने ही रुक जाते थे। लिंगायत परिवार के लोग उनका आदर सम्मान करते थे। उनको भिक्षा आदि देते थे। ये साधु आनेवाले दिन दिन कैसे होंगे इसकी भविष्यवाणी करते थे। जिसमें वर्षा कैसी होगी, फसल होगी या नहीं, बीमारी, गर्मी, अकाल, सूखा, किसी की मत्यु आदि की वे भविष्यवाणी वे करते थे। अगर देश पर, समाज पर कोई संकट आनेवाला है तो वे उसकी सूचना दिया करते थे। हम बच्चों को इसका अर्थ नहीं लगता था। हाँ, उसकी वह लालटेन, वह छत्रि जो काली नहीं बल्कि गेरुए रंग की होती थी और उसको झालर लगी होती थी, उसकी शांत मुद्रा अधिक आकर्षित करती थी। पापा अक्सर कहा करते थे कि ये साधुलोग पक्षियों की भाषा समझते हैं। पिंगळा भी एक पक्षी-विशेष का नाम है और उसी पक्षी की आवाज़ वो निकालते थे। इसलिए उनको पिंगळा कहा जाता है। ऐसे ही एक हेळव नाम से लोग सुबह सुबह आते थे। ये लोग हमारी वंशावली बताते थे। इनके पास कहते हैं हजारों पीढियों के वंश की जानकारी होती है। हेळव मुलतः कन्नड शब्द है जिसका अर्थ बताना होता है। अर्थात वंशावली की जानकारी बतानेवाले।

मेरे बचपन की यादों में एक और विशेष बात यानि दुर्गव्वा की है। जिन्हें मराठी में पोतराज कहा जाता है। पुरुष के सिर पर एक बडा सा पेटारा (संदुक) होता था और सुंदुक का जो खुला हुआ भाग जिसे हम किवाड कह सकते है उस पर झुलता हुआ एक परदा भी होता और अंदर माता दुर्गा की प्रतिमा या मूर्ति होती थी। उसे हलदी, कुंकुम और फूल मालाओं से सजाया होता था। यह पेटारा अमुमन पुरुष के सिर पर होता था। उसके साथ उसकी पत्नी और एक दो बच्चे होते थे। पुरुष की लंबी जटाएं होती थी। आँखें लाल लाल और शरीर के ऊपर का भाग नग्न होता था। निरंतर धूप में घुमने के कारण उसकी त्वचा काली होती थी। उसकी पुरे शरीर पर भस्म पुता होता था। उसके पैरों में घुंघरु होते थे। हाथ में चाबुक होता था। कमर पर रंगविरंगे कपडों की चिंधियाँ लटकती रहती जो स्कर्ट जैसी लगती थी। ये लोग गलि के नुक्कड या ऐसे स्थान पर अपना पेटारा उतारते जहाँ पर लोग इकट्ठा हो सके। उसकी पत्नी पेटारे के सामने बैठती जैसे ही लोग इकट्ठा हो जाते पत्नी पेटारे के किवाड का परदा ऊपर कर देती और वह पुरुष इधर से उधर करता हुआ और कुछ कुछ कहता हुआ अपने शरीर को चाबुक से मारता था। सप् सप् की वह आवाज़ और उसका चाबुक से मार लेना बडा ही भयावह और असुरी लगता था। मैं डरकर वहाँ तक जाती ही नहीं थी। किंतु मेरे कुछ दोस्त और सखियाँ वहाँ तक जाती और जानबुझकर वह परदा उठाने की कोशिश भी करती थी। कुछ लोग देवी माता की पूजा की सामग्री भी देते थे। वृत्ताकार खडे लोग वह सब देखते थे और उनके छोटे छोटे बच्चे हाथ में कटोरा लेकर लोगों के सामने खडे हो जाते और लोग कुछ पैसे उन कटोरों में डाल देते तो कुछ लोग अनाज भी देते थे। यह कार्यक्रम लगभग आधे घंटे तक चलता। फिर वह पुरुष पेटारा उठाता और किसी दूसरे नुक्कड पर जाकर पुनः कार्यक्रम चलता। इसप्रकार देवीमाता के माध्यम से उनका उदर निर्वाह चलता।

ये लोग अधिकतर महाराष्ट्र कर्नाटक, औऱ आंध्रप्रदेश से होते। इसलिए इनकी भाषा कन्नड, मराठी और तेलुगु होती है और ये सभी हिंदु धर्म का अनुकरण करते हैं। किंतु सभी मांसाहारी होते है। शाम के समय अपना सारा काम खतम करने के बाद ये लोग दिन भर की थकान मिटाने शराब और मांसभक्षण करते हैं। यह उनके समुदाय की आम बात है।

ये धुमक्कड लोग अपने उदर भरण के लिए इसप्रकार के कर्म करते चले आ रहे हैं… पता नहीं कबसे। भिक्षाटन उनका प्रमुख व्यवसाय हो गया। हमारे समाज में कितने ही ऐसे समुदाय हैं जो भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी जीविका चलाते है। मुझे याद पडता इन्हीं घुमक्कडों में बंदर, भालु खेलानेवाले भी हैं। जो गली गली इनका खेल प्रदर्शन करते है। हमारी भारतीय संस्कृति में घुमक्कडों के कई रूप-रंग हैं। पर इनका सासंस्कृति पक्ष देखे या इनकी गरीबी? इनका समुदाय देखे या इनका संघर्ष। संभव है इनकी संख्या में कमी आयी हो किंतु इनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है।

कल जब दोबिदासों के जीवन की परतें खोलनेवाला आत्मकथ्य पढा तो मुझे वे सारे खानाबदोश, धुमक्कड लोग याद आए, जो मैंने देखे है। उस समय ये लोग हमारे लिए बस एक मनोरंजन का साधन भर था। किंतु एक अस्पष्ट सी जिज्ञासा इनके प्रति यह कि ये कहाँ से आए हैं, इनका घरबार कहाँ है, कैसे रहते हैं आदि। घुमक्कडों का अंतरंग निश्चित ही रंगीन नहीं है.. वहाँ अभाव है, भूख है, संघर्ष है और छत का पता नहीं है। साल के आठ महीने ये लोग घुमक्कडी करते हैं और वर्षा-काल में चार महीने एक स्थान पर स्थिर रहते हैं।

तुम समझ सकते हो, जो लोग खानाबदोश है, इस कोविड में इनका क्या हाल हुआ होगा। लॉकडाउन के दौरान कितना बडा मैग्रेशन इस देश ने देखा है। ऐसे समय ये लोग जो घुमक्कडी से अपना जीवनयापन करते रहे हैं उनका जीवन कैसा रहा होगा…जब एकदम से सबकुछ थम गया होगा ? उस समय इनकी स्थिति क्या हुई होगी? हम अपने अपने घरों में सुरक्षित थे पर जिनका जीवन रोज की कमाई पर चलता है.. उनका क्या हुआ होगा…. सोचकर रोंगटे खडे होते हैं और कोविड से परेशान विश्व की सुरक्षा के लिए हृदय से प्रार्थना निकलती है।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी – मेरी ममतामयी माँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी माताश्री डॉ गायत्री तिवारी जी के लिए साहित्यिक पत्रिका ‘प्राची’  के नवम्बर 2015 अंक में प्रकाशित आपकी शब्दांजलि ।
? ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुमाता डॉ गायत्री तिवारी जी को सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि ?

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☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी – मेरी ममतामयी माँ – डॉ भावना शुक्ल ☆

(साहित्यिक पत्रिका ‘ प्राची’ नवम्बर 2015 अंक से साभार)   

ध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर नगरी की प्रतिदिन प्रसिद्ध शिक्षा सेवी, कथा लेखिका, कवयित्री तथा संगठन कर्मी स्व. डॉ. गायत्री तिवारी मेरी पूज्या माता थीं.

वे मेरी मां थीं, मुझे प्रिय थीं, यह सहज स्वाभाविक है. विशेष यह कि वे सर्वप्रिय थीं, अजातशत्रु थीं. जो भी उनसे एक बार मिलता, वह उनके अपनत्व से उनका परिवारजन बन जाता.

27 दिसंबर 1947 को पं. रामनाथ तिवारी श्रीमती बेनीबाई तिवारी की पुत्री के रूप में जन्मी, राधा कन्या पाठशाला, हितकारिणी हाई स्कूल, दीक्षित पुरा; होमसाइंस कालेज और हितकारिणी बी.एड. कॉलेज में शिक्षित दीक्षित मां गायत्री ने हिन्दी और समाजशास्त्र में एम.ए., बी.एड. और साहित्य रत्न की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. विद्यावाचस्पति और विद्यासागर की उपाधियां अर्जित कीं.

29 जून 1965 को उनका विवाह तेजस्वी कवि लेखक सम्पादक श्री राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ से हुआ, जो डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ के रूप में चर्चित प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हैं.

माँ ने शिक्षकीय कार्य से जीवनारंभ किया. पीढियों को शिक्षित किया और उच्चश्रेणी शिक्षिका के रूप में सेवा निवृत्त हुईं.

मेरे पिता डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ की सतत् प्रेरणा से मां ने अपने साहित्यिक स्वरूप का निखारा. उनका कहानी संग्रह ‘कोबरा’ और काव्य संग्रह ‘जागती रहे नदी’ तथा बाल कविता संग्रह प्रकाशित हुए.

माँ को उनकी कहानी, ‘कोबरा’ पर मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग द्वारा 21 हजार का पुरस्कार प्राप्त हुआ. जबलपुर की संस्था कादम्बरी, हिन्दी लेखिका संघ भोपाल, भाषा सम्मेलन, पटियाला, बाल साहित्य केन्द्र अकादमी, मारीशस तथा पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी, शिलांग, तुलसी अकादमी भोपाल ने उनकी सेवाओं को सम्मानित किया.

वे जबलपुर की प्रसिद्ध संस्था त्रिवेणी परिषद की वर्षों तक सक्रिय सचिव रहीं. पाथेय संस्था, पाथेय प्रकाशन और पाथेय साहित्य कला अकादमी की संस्थापना में उनका प्रमुख योग था.

डॉ. गायत्री तिवारी ने अभिनव नारी निकुंज, शिवम् नारी निकुंज तथा शब्द गरिमा का सम्पादन भी किया.

वे आर्थस गिल्ड ऑफ इंडिया, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, मध्यप्रदेश लेखक संघ, हिन्दी लेखिका संघ तथा मासिक बाल प्रहरी की आजीवन सदस्य थीं. जबलपुर नगर की संस्थाओं- मित्रसंघ, हिन्दी मंच भारती, वर्तिका, गुंजनकला सदन, परिणीता, जागरण साहित्य समिति महिला परिषद से उनका गहरा जुड़ाव था.

हमारा घर, नवनीत, समाज कल्याण, शब्द सरोकार, प्राची, कर्मनिष्ठा, स्थानीय समाचारपत्रों के साथ ही अमेरिका और मारीशस की हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती थीं. आकाशवाणी से निरंतर उनकी कहानियों का प्रसारण होता रहा.

गायत्री जी मेरी माँ  थी. उनका प्यार उनकी ममता के साथ-साथ अच्छे संस्कार और उनका संरक्षण मिला, यह मेरा सौभाग्य था.

मेरे पिता डॉ. सुमित्र का कहना है कि शास्त्रों में नारी के जितने गुण बताये गये हैं, वे सब गायत्री में थे. वे सुगृहणी, समर्पित पत्नी, ममतामयी माँ, कुशल शिक्षिका और उत्साही समाज सेवी थीं. उनमें परम्पर के प्रति प्रेम था तथापि वे रूढ़ियों के विरुद्ध थीं. उनका मेरे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था. उन्होंने मुझे फकीर से बादशाह बनाया. उन्हें खोकर लगता है कि मैं कुबेर से कंगाल हो गयी हूं.

8 सितम्बर 2015 को चिर विदा लेने वाली प्यारी माँ को सजल श्रद्धांजलि!?

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ प्याला बदल यार….. ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

 

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है 90 के दशक में श्रीनगर आल इण्डिया रेडिओ / दूरदर्शन केंद्र में आपके द्वारा दी गई सेवाओं के दौरान एक अविस्मरणीय संस्मरण  ‘प्याला बदल यार…..’। हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण  ☆ प्याला बदल यार….. ☆ 

वे बड़े सीनियर अफसर रहे आकाशवाणी में 90 के दशक में और बिगड़ते हालात को संभालने के लिए अक्सर श्रीनगर आते थे जहां दशक के शुरू में ही आतंकवादी घटनाएं शुरू हो गईं थीं। आकाशवाणी व दूरदर्शन भी इनसे बच न सके। दूरदर्शन के डायरेक्टर स्व लासा कौल जी की आतंकवादियों द्वारा हत्या के बाद श्रीनगर से रेडियो के बुलेटिन दिल्ली शिफ्ट कर दिए गए और दूरदर्शन के बुलेटिन जम्मू से चालू किए गए।

श्री बी जी वर्गीज की अध्यक्षता में मीडिया की कारवाही का जायज़ा लेने के बाद प्रेस काउंसिल की टीम ने सिफारिश की थी कि रेडियो व दूरदर्शन के बुलेटिन वापिस श्रीनगर से शुरू किए जाएं। मई जून 1993 में पहले रेडियो और बाद में दूरदर्शन के बुलेटिन श्रीनगर से शुरू हो गए। काम मुश्किल हालात में चल रहा था। उसी साल दो अक्टूबर को रेडियो के एक कैजुअल न्यूजरीडर की हत्या कर दी गई। इससे पहले तब रेडियो के असिस्टेंट डायरेक्टर ग़ुलाम हसन ज़िया का अपहरण हुआ जिन्हें तीन महीने बाद आतंकवादियों ने छोड़ा। एक और असिस्टेंट डायरेक्टर सलामुद्दीन बजाड़ को टांग में गोली मारकर बुरी तरह घायल कर दिया और वे आज भी लंगड़ाकर चलते हैं। एक कैजुअल अनाउंसर क्रॉस फायरिंग में मारे गए। दूरदर्शन के स्टेशन इंजिनियर एस पी सिंह उस समय मारे गए जब जेहलम पार से फायर किया गया एक रॉकेट उनके कमरे की टिन की छत को चीरता हुआ उन पर आन गिरा।

यह मुसीबतों की लंबी लिस्ट है। ऐसी घटना जब भी होती तो स्टाफ का हौसला गिर जाता। वे आतंकित हो उठते। कोई वहां रहना नहीं चाहता था। सब बाहर ट्रांसफर चाहते थे। सुरक्षा के घेरे में रहना यूं तो सभी के लिए, पर न्यूज स्टाफ के लिए खासकर, एक अजीब ही तनाव पैदा कर देता था। श्रीनगर पोस्टिंग के कारण जम्मू में रह रहे परिवार को हमेशा हमारी सुरक्षा की चिंता लगी रहती थी। जब भी कोई बड़ी घटना होती तो मैं दिल्ली न्यूजरूम को खबर फाइल करने के तुरंत बाद घर फोन करके अपनी सुरक्षा के प्रति उन्हे तसल्ली देता था।

श्रीनगर में स्टाफ का मनोबल बढ़ाने डायरेक्टरेट और मिनिस्ट्री से सीनियर अधिकारी आते रहते थे। अक्सर अधिकारी मुझसे स्थिति की ब्रीफिंग सी लेते थे।

यह ब्रीफिंग प्राय: सरकारी गेस्ट हाउस में शाम के वक्त ड्रिंक्स व डिनर पर होती।

ऐसे ही एक दौरे में एक बड़े सीनियर अधिकारी मुझसे अनौपचारिक बात कर रहे थे। मैं अपनी मुसीबतों की बात कहना चाहता था कि मुझे कई साल श्रीनगर में हो गए हैं, अब मेरा दिल्ली ट्रांसफर कर दिया जाए। वे मुझे कहते कोई श्रीनगर आने को तैयार नहीं है, आप कुछ और समय निकालो। मेरे काम की तारीफ करके भी वे मुझे फुसलाते से लगे कि यहीं ठहरो।

बातों और ड्रिंक्स का यह सिलसिला चल ही रहा था कि इन अधिकारी महोदय ने ड्रिंक्स का अपना गिलास मुझे पीने के लिए दे दिया और मेरा गिलास आप ले लेकर कहा चीयर्स। गिलास टकरा कर हम भी पी गए और वो भी। थोड़ी देर बाद अधिकारी बोले, “मैं हमेशा आपके साथ रहूंगा, तुम भी हमेशा मेरे साथ रहना। हमने एक गिलास से ड्रिंक ली है। इसलिए एक बात रखेंगे। दोनों मिलकर श्रीनगर रेडियो स्टेशन चलाएंगे”। मैंने भी कह दिया ज़रूर सर, हालांकि यह सब मुझे कुछ अटपटा सा भी लग रहा था।

कहीं यह भी ख्याल आ रहा था कि साहिब ज़्यादा पी गया है।

मैं टूरिस्ट रिसेप्शन सेंटर के अपने कमरे में आकर सो गया। सुबह उठा तो रात की बात फिर याद आ गई। अधिकारी महोदय ने यह गिलास बदलने वाली बात क्यों की? अचानक खयाल आया कि यह पुराने ज़माने का पगड़ी बदल यार बनाने वाला किस्सा तो नहीं है? क्या हम प्याला बदल यार बन गए थे?

पता नहीं, पर उसके बाद मैंने अपने ट्रांसफर की बात कई साल तक नहीं उठाई। उन अधिकारी से बाद में कभी कोई बात भी नहीं हुई पर अक्सर ख्याल आता था कि श्रीनगर में आखिर किसी को तो आकाशवाणी के संवाददाता का काम करना था। फिर मैं क्यों नहीं?

शुक्रिया मेरे प्याला बदल यार, शशिकांत कपूर। आपने मुझे कठिन समय सम्बल दिया।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 44 – बापू के संस्मरण-24 – गांधीजी की  राय ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “गांधीजी की  राय”)

☆ गांधी चर्चा # 44 – बापू के संस्मरण – 24 ☆

☆ गांधीजी की  राय ☆ 

एक बार हिन्दी  के  पत्रकार बनारसी  दास  चतुर्वेदी  गांधी जी  मिलने  आए उस  समय  वे ‘विशाल  भारत ‘ मासिक  पत्रिका  का  सम्पादन  कर  रहे  थे।उन्होने  बापू  से  कहा  कि  हमने  आपकी  आलोचना  छापी  है ,क्या  आपने  उसे  देखा ? गांधीजी हँसते  हुये  बोले – क्या  तुम्हारी  पत्रिका  लोग  पढ़ते  भी  है ? यह  सुन कर  चतुर्वेदीजी  चुप  लगा  बैठे।

गांधीजी  अपने  विरोध  को  भी  बड़ी  सहजता  से  लेते  थे  और  अपने विरोधियो के  प्रति कोई  दुर्भावना  नहीं  रखते  थे। 1 अक्तूबर 1939  को  वे वर्धा  से दिल्ली  ट्रेन  से  जा रहे  थे। उसी  ट्रेन  मे एक बंगाली युवक  रणजीत   कुमार  सील  सफर  कर  रहा  था। उसका  उदेश्य  गांधीजी  से मिलकर  अपने  गुरु गोविन्द  दास कौनसुल की अङ्ग्रेज़ी  मे  लिखी  छोटी  सी  पुस्तक  जिसका  शीर्षक  था – “महात्मा  गांधी : द  फ्रेट  रौग  आफ  इंडिया”  यानी “महात्मा  गांधी :भारत  का सबसे  बड़ा  बदमाश “ भेंट  करना  था। उसके  गुरु  की इच्छा  थी  कि  पुस्तक  की एक प्रति  गांधीजी को उनके  जन्मदिन  पर  भेंट  की जाये  और  पुस्तक  पर  गांधीजी की  राय  और सम्मति  भी  प्राप्त की  जाये। यह  पुस्तक  गांधीजी को  समर्पित  थी  और  समर्पण वाले  पन्ने  पर  अङ्ग्रेज़ी  से  लिखा  गया था – ‘ गोविंददास  कौनसुल  द्वारा  सत्य के दूत  और  अहिंसा  के  प्रवर्तक  मोहन  दास करमचंद  गांधी  को  अत्यंत  प्रेम  और  श्रहा  के साथ  निवेदित” ।

ट्रेन  के डिब्बे मे उस  युवक रणजीत  कुमार  के  सहयात्री ने  जब वह  पुस्तक  देखी  तब उन्होने युवक   से कहा  कि “अगर  लेखक  इस  पुस्तक  का नाम शिष्टतापूर्ण  रखते  तो  उनका  क्या  बिगड़ जाता ?”  इस  पर  उस युवक  ने उत्तर  दिया  कि “रौग  का हिन्दी मे   ‘बदमाश”,आवारा “,ठग  आदि  के अलावा  और  भी अर्थ  है। वह है अपने  झुंड  से बिलगाया  हुआ  हाथी।”

इतना  कह कर  वह  गांधीजी के डिब्बे  मे  पुस्तक  देने  चला  गया।जब  वह लौटा  तब   वह  बहुत  प्रसन्न  था।उसके  सहयात्री  ने  उससे  उसकी  प्रसन्नता  का   कारण  पूछा  तब  उसने  बताया   कि डिब्बे  मे गांधीजी  के साथ एक  भारी भरकम  व्यक्ति  बैठे  थे। जब  उन्होने  इस  पुस्तक  का शीर्षक  देखा  तब  वे  गुस्से  से  लाल पीले  होते  हुये  मेरे  हाथ  से  बह  पुस्तक  छीनकर  एक  कोने  मे  फेंकनेवाले ही बाले  थे  कि गांधीजी  ने कहा –”लाओ, देखें  तो सही, क्या  लिखा  है ?”

उस मोटे  व्यक्ति  ने उत्तर  दिया “–इस  पुस्तक  मे गाली – गलौज  के अलावा  और क्या  होगा।“

तब  गांन्धीजी  ने  कहा –”भले  ही  हो लेकिन  गालियो  से  हमारा  क्या  बिगड़ता  है”  और  उन्होने यह कह   वह  पुस्तक  मोटे  आदमी से ले ली।

उन्होने  उस  युवक  से पूछा  कि “तुम   क्या  चाहते  हो ?” जब  उन्हे  यह  पता  चला  कि पुस्तक  के लेखक (युवक  के  गुरुजी )  को  पुस्तक  पर सम्मति  चाहिए  तब  गांधीजी  ने पुस्तक  के पन्ने  को उलट -पुलट  कर देखा  और बोले  कि  तुम्हारे  गुरु  को जो कुछ  कहना  था ,उन्होने  पुस्तक  मे  कह  दिया  है।अब मैं  उसमे  क्या  जोड़  सकता  हूँ  फिर  भी तुम  कहते  हो तो सम्मति  के रूप  मे कुछ लिख  देता  हूँ  और  गांधीजी ने  लिखा – “प्रिय मित्र , मैने कोई पाँच  मिनट  तक सरसरी  तौर पर आपकी पुस्तक  देखी  है। इसके मुखपृष्ट  या  मजमून  के विरोध  मे मुझे  कुछ भी  नहीं  कहना  है।आपको पूरा  अधिकार  है  कि  जो  पद्धति आपको अच्छी  लगे ,उसके  द्वारा  आप  अपने  विचार को प्रकट  करें  – भवदीय  मो 0 क 0 गांधी  1.10.1939 ( रेल  मे )

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 5”। )

☆ संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

आज आश्रम में आख़री दिन है। दिन भर के कार्यक्रम तय हैं। सुबह साढे दस बजे उमरगोहान जाएँगे, फिर आश्रम की गतिविधियों के बारे में ‘बाबूजी’ हमें बताएँगे और दोपहर के भोजन पश्चात छात्राओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा है। उमरगोहान की सुखद स्मृतियाँ और ग्रामीण विकास संबंधी कल्पनाएँ ऊपर साझा हो ही गई हैं। बस आज सुबह कृतार्थ ने सूचित किया हैं कि उमरगोहान की राजेशनंदनी ने अपने घर का एक कमरा आश्रम को उपलब्ध कराने का संकल्प व्यक्त किया है, अब वहाँ एक छोटा सा औषधालय बनेगा, ग्रामीणों को गुनिया और ओझा से मुक्ति मिलेगी, बुखार व खुजली जैसे चर्म रोगों का इलाज मिल सकेगा।

हम लोग एक बजे तक आश्रम वापस आ गए। और फिर एक छोटी सी बैठक हुई, ‘बाबूजी’ ने विभिन्न गतिविधियों का सारांश प्रस्तुत किया। यद्दपि इन सबका वर्णन तो आप पिछले दिनों से सुनते आ रहे हैं फिर भी उपसंहार प्रस्तुत करने के मेरे अधिकार का तो मैं प्रयोग करने ही वाला हूँ :-

  1. मार्च 20 की प्राथमिक शाला परीक्षा में विद्यापीठ की कन्याओं ने औसतन 85% अंक अर्जित किए हैं।
  2. पहली से आठवीं तक की कक्षाओं में औसतन 15 छात्राएं प्रत्येक कक्षा में हैं। और 100 लडकियाँ छात्रावास में रहती हैं।
  3. स्कूल की छात्राओं का प्रदर्शन विभिन्न गैर शैक्षणिक गतिविधियों जैसे खेलकूद,योग, गायन, वादन,नृत्य, चित्रकला, भाषण प्रतियोगिता में भी सराहनीय रहता आया है।
  4. सालरगोंडी गाँव की गुलाबवती बैगा, कन्या विद्यापीठ की पूर्व छात्रा हैं, वे बैगा समुदाय से प्रथम स्नातक हैं, भेजरी गाँव प्रेमवती बैगा भी उच्च शिक्षित हैं और शासकीय शाला में शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं। किरगी की नीलम बैगा प्रयोगशाला सहायक के पद पर कार्यरत हैं। माँ सारदा विद्यापीठ की अनेक पूर्व छात्राएं आंगनवाडी कार्यकर्ता, नर्स, स्कूल शिक्षक आदि का कार्य कर रही हैं। कन्याओं के शिक्षित होने से परिवार भी जागरूक हुए हैं।
  5. आश्रम द्वारा एक औषधालय चलाया जा रहा है और यहाँ होमियोपैथी व एलोपैथिक पद्धति से विभिन्न रोगों का इलाज होता है व मुफ्त में दवा वितरण किया जाता है। भारतीय स्टेट बैंक के सौजन्य से प्राप्त मोबाइल वैन का उपयोग दूर-दराज के गाँवों में चिकित्सा कैम्प लगाने में होता है। पिछले वर्ष ऐसे 24 कैम्प लगाए गए थे और नौ हज़ार रोगियों की चिकित्सा की गई। कोविड संक्रमण के दौरान मास्क का भी वितरण किया गया। आश्रम शीघ्र ही एक पैथालोजी लेब स्थापित करने का इच्छुक है जिसके लिए तकनीकी स्टाफ की खोज जारी है।
  6. आश्रम निर्धन जनों को कम्बल, साड़ी, शाल, स्वेटर, टोपी आदि भी समय-समय पर वितरित करता है। यह सब किशनगढ़ राजस्थान के श्री डी कुमार के सहयोग से हुआ है।
  7. आर्थिक उन्नयन के लिए स्वयं सहायता समूहों के गठन में सहयोग और कौशल उन्नयन के लिए प्रशिक्षण शिविरों का भी आयोजन  आश्रम द्वारा किया जाता रहता है।
  8. आश्रम निर्धन आदिवासियों को भोजन सामग्री वितरित करने में सदैव तत्परता दिखाता रहा है। इस वर्ष कोरोना संक्रमण के दौरान 32 गाँवों के 1700 परिवारों को एक माह का राशन ( 20 किलो चावल, 5 किलो दाल, 10 किलो आलू, 3 किलो प्याज, एक लीटर सरसों का खाद्य तेल, मसाले, नमक व साबुन ) आदि का वितरण मुंबई निवासी श्री कोमल छेड़ा के सहयोग से किया गया। इसके अलावा मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन के सहयोग से फर्रीसेमर के पच्चीस बैगा परिवारों को भी तीन बार राशन वितरण किया गया है।
  9. विद्यापीठ में प्रतिवर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती उत्साह के साथ मनाई जाती है।
  10. विवेकानंद जयन्ती के अवसर पर अन्तरस्कूल खेलकूद प्रतियोगिता और अनुपपुर जिले के श्रेष्ठ विद्यार्थियों का सम्मान किया जाता है।

दोपहर के भोजन के बाद नींद की आदत सेवानिवृति के बाद पड गई है, पर आज नींद गायब थी, तीन दिन की व्यस्ततम दिनचर्या की थकान थी लेकिन जैसे ही संतोषी सिंह राठोर ने अपनी छात्राओं को पुकारा हम सब सावधान मुद्रा में कुर्सी पर बैठ गए। यद्दपि कोरोना काल में सभी स्कूल बंद हैं पर अनूपपुर के जिलाधीश ने ‘बाबूजी’ को विशेष अनुमति दी है कि वे अत्यंत निर्धन परिवारों की 15 कन्याओं को छात्रावास में रखें। इन्ही पंद्रह छात्राओं सगुन, परमेश्वरी, रूबी, नेहा, भूमिका, पार्वती, नेमवती, उमा, महरजिया, कमलवती,सुमन और चौथी कक्षा की भारती व नेहा ने मनमोहक समूह गान और फिर समूह नृत्य से हम सबको मोहित कर दिया। इसके बाद  संतोषी मैडम एक एक कर छात्राओं को बुलाती गई और वे अपनी योग्यता से हम सब को परिचित कराती रही। सगुन बैगा ने भाषण दिया तो परमेश्वरी ने स्वरचित कविता पढी ‘हमारे बाबूजी’, रूबी ने महात्मा गांधी की पुस्तक रामनाम से एक पैराग्राफ पढ़ा और फिर भूमिका बैगा व नेहा ने अपनी पाठ्य पुस्तक से आपसी वार्तालाप का एक अंश पढ़कर सुनाया। सबसे मोहक कारनामा तो किया  चौथी कक्षा की भारती व नेहा, उन्होंने हम लोगों के लिए सुन्दर गुलदस्ता बनाया और उसे बनाने की विधि भी बताई। सभी चौदह छात्राओं ने मुझे पेंसिल से स्केच बनाकर भेंट किये तो नेहा, उमा और सगुन ने अपनी आदिवासी  चित्रकला से मेरा परिचय करवाया। भूमिका बैगा के धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह पूरा कार्यक्रम जो अनायास ही बनाया गया था सम्पन्न हुआ।

शाम को स्कूल टोला के आदिवासी बाज़ार की झलकिया देखकर जब मैं भोपाल वापसी के लिए जीप में बैठ रहा था तो संतोषी और सुनीता यादव अपनी चौदह छात्राओं के साथ एक कतार में मुझे विदा करने खडी थी। हमारी प्रिय बेटियाँ चौथी कक्षा की भारती व नेहा भी रात नौ बजे तक हमें विदा करने के लिए जागती रहीं। एक ओर ‘बाबूजी’ और अरनबकान्त तो दूसरी ओर छात्राएं यह दृश्य मेरी आखों में बस गया है,जल्दी मिटने वाला भी नहीं है। और मैं, उनके प्रेम से अभिभूत, आखों की कोर में दो बूंदे छिपाए, जल्दी आउंगा कहकर पेंड्रा स्टेशन अमरकंटक एक्सप्रेस पकड़ने रवाना हो गया।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 5”। )

☆ संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

मुझे अमरकंटक से वापस आने में विलम्ब हो गया। जब पहुंचा तो विवेकानंद युवा मंडल की बैठक समाप्त होने को थी। अरुण कुमार चटर्जी युवाओं को प्रेरणा दे रहे थे। वे बता रहे थे कि स्वामीजी ने भारत वासियों को उन्नति करने हेतु जो मंत्र दिया था वह साहस के साथ सेवा और कर्म करने का है। भूखे को रोटी और तन ढकने को कपड़ा देना, अशिक्षित को शिक्षित करना सबसे बड़ा सेवा कार्य है। ‘बाबूजी’ ने भी सेवा कार्य के महत्व को बतायाऔररामकृष्ण परमहंस का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि   सेवा की भावना का प्रदर्शन तो ठाकुर ने  मथुर बाबू के साथ तीर्थयात्रा के दौरान किया। जब उन्होंने एक गांव में लोगों को दुखी देखा तो वे वहीं धरने पर बैठ गए और विवश होकर मथुर बाबू ने कलकत्ता से अनाज और कपड़ा मंगवाया व गरीबों के बीच बांटा तब ठाकुर काशी की तीर्थयात्रा के लिए तैयार हुए।

जब विकास चंदेल ने  केरापानी गाँव की व्यथा का वीडिओ दिखाया तो लगा कि असली बैठक तो अब शुरू हुई जिसने मन को दुखी भी किया और आशा का संचार भी किया। यह वीडिओ कृतार्थ देवा चतुर्वेदी और विकास ने मिलकर बनाया है। केरापानी गाँव में बीस बैगा आदिवासी परिवार आज भी आदिम युग में जीने को मजबूर हैं। आवागमन और पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उन्हें उपलब्ध नहीं हैं। पेय जल लाने  हेतु उन्हें मीलों कठिन रास्ते पर पैदल चलना होता है। वे पहाड़ी  झिरिया या नाले जैसे जल स्त्रोतों पर आश्रित हैं और गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। पानी के ये स्त्रोत दुर्गम व कठिनाई भरे स्थलों पर हैं और वहाँ से जल लाना बहुत मेहनत भरा है। यहाँ तक कि गर्भवती महिलाएं भी पानी भरने हेतु यह कष्ट सहने  को मजबूर हैं। गाँव के बुजुर्ग लामू बैगा कहते हैं कि पानी बड़ी समस्या है, दूर जंगल से पानी लाना पड़ता है, बरसात में तो चल जाता है पर गर्मी में बहुत दिक्कत होती है। बिजली और सड़क भी नहीं है तथा पूरा गाँव अशिक्षित है। सरपंच से लेकर सचिव और दूसरे कर्मचारी कोई ध्यान नहीं देते, हमारी तरफ देखते तक नहीं हैं । इसी गाँव के ज्ञान सिंह बैगा बताते हैं कि केवल एक लड़का पढ़ा है, कोई बीमार पड़ जाए तो जीप से राजेंद्रग्राम लेकर जाते हैं लेकिन रुपया ज्यादा नहीं है तो इलाज के बाद पैदल वापस आते हैं। इस वीडिओ को देखकर यथार्थ का अनुभव होता है। सरकारी दावों की पोल खुलती दिखती है। आज़ादी के 73 साल बाद भी ग्रामीण अंचलों में बिजली, सड़क, शुद्ध पेय जल, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं आसानी से उपलब्ध न करा पाने के कारण  हम विश्व के सर्वाधिक गरीब देशों में शामिल हैं। यह असफलता एक  राष्ट्रीय शर्म है। अनेक समस्याएं तो इसलिए हल नहीं हो पाती क्योंकि वे जंगल और सामान्य प्रशासन विभाग के बीच फुटबाल बन जाती हैं। सरकारी विभागों में जवाबदेही का अभाव भी समस्याओं के निराकरण में बाधक है। भ्रष्टाचार तो सबसे बड़ा कारण है ही। कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ-साथ राजनेताओं की संवेदनहीनता इन सम्स्स्याओं को द्विगुणित कर रही है तो दूसरी तरफ आदिवासियों मे से पढ़े लिखे युवा अपने समाज के ने भद्र पुरुष बन गए हैं, नए शोषक हो गए हैं।

इस वीडिओ से हम सब उदास व व्यथित थे कि आज़ादी के बाद भी इन दुर्गम गाँवों  की हालत कितनी बदतर है। यह तो एक गाँव की थोड़ी सी झलक मात्र है वह भी ग्रीष्म ऋतु की, बरसात के दिनों जिन्दगी कैसी होती होगी, वे कैसे मुख्य मार्ग या नज़दीकी कस्बे तक पहुँचते होंगे। फर्रीसेमर के भिलवागोंडा की भी तो ऐसी ही स्थिति थी, नाला पार कर हम वहाँ पहुंचे थे। और इसीलिए ‘बाबूजी’ दो  अन्य गाँवों  की चर्चा छेड़ी। उन्होंने श्री सुरेन्द्र कुमार यादव के माध्यम से जालेश्वर टोला गाँव  तथा विकास चंदेल और कृतार्थ देवा चतुर्वेदी  जैसे युवाओं से उमरगोहान गाँव का व्यापक सर्वे करवाया और उसकी रिपोर्ट हम सब के साथ साझा की।

जालेश्वरटोला गाँव अमरकंटक से 10 किलोमीटर व आश्रम से आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर सतपुड़ा के जंगल के मध्य बसा है। यहाँ 25 झोपड़ियों में एक सौ लोग बसते हैं, जिनकी औसत आयु 50 वर्ष से कम है। केवल तीन पुरुष और चार महिलाएं पौत्र-पोत्रियों का सुख भोगने जीवित हैं और यही कारण है कि 21 परिवार, नुक्लियर फैमिली हैं, माता-पिता और बच्चों तक सीमित हैं। अशिक्षित 80% प्रतिशत हैं और शेष बीस लोगों को केवल प्राथमिक शिक्षा मिली है। भू सम्पत्ति से वंचित 12 परिवार, मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं, तो 8 परिवारों के पास 5 एकड़ से कम जमीन है, वे लघु कृषक हैं । कृषि योग्य भूमि भी उबड़-खाबड़ है और धान, कोदो, कुटकी, उड़द आदि फसलों की  पैदावार बहुत ही कम है, शायद प्रति एकड़ दो कुंटल। सड़क व आवागमन के साधनों से विहीन इस गाँव के अत्यंत विपन्न और निर्धन जन पैदल यात्रा कर निकटतम कस्बे, हाट-बाज़ार आदि जाते हैं। केंद्र सरकार की विभिन्न बहुचर्चित योजनाओं जैसे प्रधानमंत्री आवास, शौचालय निर्माण, उज्ज्वला आदि योजनाओं का लाभ इन विपन्न लोगों तक आज भी नहीं पहुंचा है।

इस गाँव में न तो प्राथमिक शाला है और न ही आंगनवाडी केंद्र। इन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और धनाभाव के कारण वे बीमार व्यक्ति को निकटतम स्वास्थ्य केंद्र भी, जो लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है, नहीं ले जा पाते हैं। पेय जल के लिय उन्हें 5-6 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है और उसे भी पूर्णत: शुद्ध नहीं कहा जा सकता। साग-सब्जी रहित भोजन व शुद्ध पेयजल का अभाव विभिन्न बीमारियों यथा रक्ताल्पता, दस्त, चर्मरोग, कुपोषण आदि का कारक है।

आश्रम से कोई पांच- छह किलोमीटर दूर स्थित, दूसरे गाँव उमरगोहान का  सर्वे, विकास चंदेल और उनके युवा साथियों ने किया था, जिसे हम सबने पावर पॉइंट के माध्यम से देखा।  यह रिपोर्ट छात्रों की प्रस्तुतीकरण की अद्भुत क्षमता की परिचायक है। इस गाँव को देखने हम लोग अगले दिन गए और ग्रामीणों से सार्थक चर्चा की ।  उमरगोहान गाँव का विस्तार तीन टोलों में है। बीचटोला गौंड आदिवासियों की बस्ती है, डूमरटोला व लंका टोला बैगा बहुल मोहल्ले हैं और यादवों के भी कुछ परिवार रहते हैं। बीचटोला व  डूमरटोला, मुख्य मार्ग से तीन किलोमीटर अन्दर  हैं तो लंकाटोला जंगल में है। गाँव के पास से ही जोहिला नदी बहती है और उस पर एक बाँध बनाया गया है, लेकिन सिचाई होती है, ग्रामीण पानी ले सकते हैं, ऐसा लगा नहीं। एकाध नाला भी है, जिसमें पानी ठण्ड भर बहता है और यही पेय जल उपलब्ध कराता है। यह नाला डूमरटोला के पास से बहता है।  गर्मी आते आते  नाला  सूख जाता  है, तब जल की आपूर्ति समस्या हो जाती है और अन्य ग्रामों के निवासियों की भाँति यहाँ के लोग भी पानी के लिए तीन-चार किलोमीटर भटकने को मजबूर हो जाते हैं। जब हम गाँव गए तो ग्रामीण हमें वहाँ तक आग्रहपूर्वक ले गए और नलकूप खुदवाने हेतु प्रार्थना करते रहे। इन लोगों में एक महिला, सरोज गौंड  बहुत सक्रिय थी। इस स्पष्टवक्ता की पुत्री भारती ‘बाबूजी’ द्वारा संचालित माँ सारदा कन्या विद्यापीठ में सातवीं कक्षा में पढ़ती है। बेटी ने माँ को भी शिक्षित बना दिया। इस गाँव में भी उप स्वास्थ्य केंद्र, आंगनवाडी आदि नहीं है लेकिन प्राथमिक व मिडिल स्कूल हैं। यह सभी सुविधाएं, छह किलोमीटर दूर, उमरगोहान के ग्राम पंचायत मुख्यालय पौंडकी में उपलब्ध है। एएनएम, आशा कार्यकर्ता जैसे  कर्मचारी सप्ताह में दो बार बीचटोला तक आते हैं पर लंकाटोला उनका जाना नहीं हो पाता। गाँव में प्रधानमंत्री आवास योजना, शौचालय निर्माण आदि कार्य शत प्रतिशत नहीं हुए हैं। ग्रामीण परिवेश व इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यदि यहाँ रोजगारमूलक  आर्थिक गतिविधियाँ शुरू की जाए तो वे अन्य ग्रामीणों को प्रेरित करने हेतु प्रदर्शन का केंद्र बन सकती हैं। ग्रामीणों से मिलकर हमने उन्हें एक सार्वजनिक चबूतरा बनाने का सुझाव दिया और कहा कि यदि ग्रामीण श्रमदान करेंगे तो हम निर्माण सामग्री जैसे ईंट, सीमेंट, रेत आदि उपलब्ध कराएंगे। दो- तीन मिनिट में ही वे सब सहर्ष तैयार भी हो गए। बीचटोला के निवासी मुकेश सिंह परस्ते ने अपनी जमीन इस हेतु देने का आश्वासन दिया और सबने मिलकर वहाँ प्रतीकात्मक श्रमदान भी किया और मैंने निर्माण सामग्री उपलब्ध कराने का संकल्प लिया। उमरगोहान में चन्द्रभान गौंड की रामायण मंडली है तो सुगरतिया बैगा और उसकी सखियाँ  करमा गायन में निपुण हैं। इनके समूह बनाए जा सकते हैं और यह लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रस्तुती देकर जीविकोपार्जन कर सकते हैं। इसकी संभावनाएँ हमें तलाशनी होंगी। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय व होटल आदि से इस सम्बन्ध में टाई-अप किया जा सकता है। उमरगोहान, ग्रामीण पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है और यदि ऐसा होता है तो रामायण मंडली व करमा गायकों की  रोजी रोटी का जुगाड़ हो सकता है।    दो युवा लडकियाँ, ज्ञानवती धुर्वे और राजेशनंदनी, सिलाई जानती हैं पर प्रशिक्षित नहीं है और इसीलिये  उनमे  आत्मविश्वास की कमी हैं। प्रशिक्षण देकर उनके हुनर को संवारा जा सकता है। बातचीत में पता चला कि गाँव में सात स्वयं सहायता समूह हैं, पर सब सरकारी ढर्रे पर बने हैं और सुसुप्त हैं। अगर इन्हें जागृत किया जा सके तो लोगों का आर्थिक कायाकल्प हो सकता है।

यद्दपि सर्वे तैयार करने में विकास और उसके साथियों ने काफी मेहनत की और समस्याओं के साथ साथ उन्होंने उनके निराकरण के उपाय भी सुझाए तथापि वे यहाँ के निवासियों के सामाजिक-आर्थिक पक्ष को उजागर करने हेतु आवश्यक आंकड़े जुटाने में असफल रहे। यह आंकड़े जुटाने के बाद इस गाँव के उन्नयन में निश्चय ही सफलता मिलेगी, हम बेहतर योजनाएँ बना सकेंगे । मैंने कृतार्थ और विकास से  कहा कि तुम लोगों के जोश में मेरा अनुभव मिला दो तो हम तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। मुझे प्रसन्नता हुई कि उन्होंने मुझे अंगीकृत करने में देरी नहीं की। आज से उमरगोहान अगर आश्रम का अडाप्टेड विलेज है तो मैं इन युवाओं का अडाप्टेड दोस्त। कभी जमनालाल बजाज ने महात्मा गांधी से कहा था कि ‘मैं आपको पिता के रूप में गोद लेना चाहता हूँ।’

फर्रीसेमर गाँव हम लोग तीन दिन पहले ही होकर आये थे और पौंडकी के रास्ते मैंने सुबह सबरे भ्रमण करते हुए देख लिए थे। इन सभी  ग्रामों के विभिन्न  पहलुओं का हम सभी ने तुलनात्मक अध्ययन किया और तय किया कि चूँकि  उमरगोहान आश्रम से नज़दीक है, वहाँ गौंड, बैगा व यादव समुदाय की मिश्रित आबादी है, ग्रामीण उत्साही हैं, सहयोग करने को तत्पर हैं, इसीलिए इस गाँव को  आदर्श ग्राम के रूप में विकसित करने की व्यापक योजना बनाई जाए एवं इस हेतु हम प्रौढ़ लोग व  आश्रम के युवा साथी मिलकर प्रयास करेंगे। विभिन्न शासकीय कार्यालयों से समन्वय स्थापित कर आदिवासियों की दशा व दिशा बदलने का कार्य करेंगे । फर्रीसेमर गाँव के भिलवा टोला में एक या दो स्वयं सहायता समूहों को सुसुप्तावस्था से मुक्त कर जागृत करने का प्रयास करेंगे। और अगर ऐसा कर पाए तो स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के सपनों का गाँव और फिर भारत बनते देर नहीं लगेगी।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 4”। )

☆ संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

आज सुबह से ही आश्रम में चहल-पहल है। मोटर गाड़िया आ रही हैं, लोग उतर रहे हैं, कोई ‘बाबूजी’ के  चरण छूता है तो कोई श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता है। ‘बाबूजी’ सबसे हाल चाल पूंछते है, शिक्षिका  संतोषी सिंह राठौर और सुनीता यादव सबको चाय और नाश्ते के लिए सस्नेह ले जाती हैं। ‘बाबूजी’ को तो ईश्वर ने पंख दिए हैं सब जगह घूम-घूमकर मुआयना कर रहे हैं। और हाँ वे आगंतुकों से मेरा परिचय करवाना भी नहीं भूलते ‘ शारदा साहब ने इन्हें भेजा हैI’ यह सुनकर आगंतुक मुझे प्रेम और सम्मान भरी निगाहों से देखते हैं, मुझसे हाल-चाल पूंछते हैं और घूम-फिरकर ‘बाबूजी’ की चर्चा करने लगते हैं। पेंड्रा, बिलासपुर, अमरकंटक और आसपास के गावों से अनेक लोग ‘बाबूजी’ के निमंत्रण पर आये हैं, अवसर है शरद-पूर्णिमा के अवसर पर दो निर्माण कार्यों के भूमि पूजन का। मध्यम आकार के एक प्रार्थना कक्ष का निर्माण रामकृष्ण मिशन के अनुयाई मिलजुलकर करने वाले हैं, दूसरा भूमि पूजन तीन कक्षों के निर्माण का है। यह तीन कक्ष ‘मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन- पुणे’ के आर्थिक सहयोग से स्व. श्रीमती पुष्पा शारदा (बाई) की स्मृति में बनेंगे। बाई बहुत सहृदयी महिला थी, प्रेम और करुणा की साक्षात मूर्ति, काल ने उन्हें फरवरी 2020 में हमसे  अचानक ही छीन लिया।  उनकी स्मृति में निर्मित होने वाले तीन कक्षों में मिडिल स्कूल के विद्यार्थी पढ़ाई करेंगे। इस प्रकार माँ सारदा देवी कन्या विद्यापीठ में पहली कक्षा से लेकर आठवीं तक की कक्षा हेतु आठ कक्ष व प्राचार्य के लिए कार्यालय का निर्माण पूर्ण हो जाएगा। ‘बाबूजी’ की मेहनत, उनका सपना, धीरे-धीरे ही सही, पर साकार हो रहा, मूर्त रूप ले रहा है।

मैं भी कुर्सी पर बैठा इधर उधर ताक रहा हूँ कि दो छोटी उम्र की बच्चियां दिखती हैं। मैं उन्हें इशारे से बुलाता हूँ, थोड़ी झिझक के साथ वे दौड़ी चली आती हैं। चौथी कक्षा की छात्राएं हैं, एक का नाम भारती देवी और दूसरी का नाम नेहा है। भारती के माता-पिता खेती करते हैं और मजदूरी करते हैं, नेहा की खेतों में मजदूरी करती है और पिता? वह बताती है ‘ क्रेशर में काम करते हैं – क्रेशर आपरेटर हैंI’ दोनों को ‘बाबूजी’ से बड़ा प्रेम है, माँ की याद आती है तो वे ‘बाबूजी’ के पास बैठ जाती हैं। हिन्दी,अंग्रेजी, गणित और पर्यावरण पढ़ती हैं, इन विषयों के बारे में मैं पूंछता हूँ तो भारती तुरंत जवाब देती है और नेहा थोडा अटककर। मैंने एक कविता पढने को दी, बिना अटके दोनों ने पढ़कर सुना दी।

मैंने पूंछा ‘ सुबह नाश्ते में क्या खाया’ जवाब मिला ‘पोहा’

‘मुझे तो जलेबी भी मिली थी, तुम्हे ‘बाबूजी’ ने अकेला पोहा खिलाया, जाओ बोलो हमें भी जलेबी दो’

‘नहीं, ‘बाबूजी’ हमें भी जलेबी खिलाएंगे, उनसे बोलने की जरूरत नहीं पड़ती।’ नेहा ने जवाब दिया

मैंने भारती का नाम जलेबी और नेहा का नाम पोहा रख दिया। दोनों खुश हो गई।  भारती को मैंने आश्रम  की एक  योजना के तहत गोद लेने का निर्णय लिया है। जब पत्नी को भोपाल इसकी सूचना दी तो वह भी खुश हुई। मेरे निर्णय ऐसे ही होते हैं, निर्णय लेने के बाद स्वीकृति पश्चात अनुमोदन प्राप्त करने का प्रयोग मैंने अपनी गृहस्थी में खूब किया है। और माँ-बाबूजी द्वारा चयनित मेरी भार्या ने सदैव इसकी स्वीकृति देने में सदाशयता दिखाई है। कल मैंने पुत्रबधू को यह समाचार दिया आज सुबह कनाडा निवासी पुत्र ने इस निर्णय पर प्रसन्नता व्यक्त की। बस पुत्री थोड़ी अनमनी है, उसका मुझ पर एकाधिकार कम जो होने वाला है। भारती की आठवी तक की शिक्षा का खर्च ‘स्व. कमला डनायक स्मृति कोष’ वहन करेगा। नेहा बच गई है तो उसकी मदद के लिए श्रीमती चित्रा गढ़वाल ने इच्छा व्यक्त की है। डाक्टर एच एम शारदा की सलाह पर आश्रम ने ‘अडॉप्ट अ चाइल्ड’ योजना शुरू की है। एक वर्ष के लिए रुपये 21,000/- या आधे वर्ष के लिए रुपये 11,000/- का अंशदान देकर छात्राओं को गोद लिया जा सकता है। अगर योजना सफल हो गई तो दो व्यापक सुधार संभव होंगे एक अच्छे शिक्षक नियुक्त किये जा सकेंगे, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता और सुघड़ होगी,  और दूसरे कन्या विद्या पीठ आत्मनिर्भर बनेगा। इससे आश्रम का धन ग्रामीण विकास में खर्च होने लगेगा।  और जिस सपने को लेकर ‘बाबूजी’ चल रहे हैं कि ग्रामीण आत्मनिर्भर बने, उनका आर्थिक स्वावलंबन हो, वह पूरा होगा।

भूमिपूजन का वैदिक विधि से अनुष्ठान करवाने का  दायित्व  अरुण कुमार चटर्जी का है, वे प्रोफ़ेसर अमित पांडे के साथ सारी व्यवस्थाएं देख रहे हैं। कड़क आवाज में जब वे निर्देश देते हैं तो संतोषी और सुनीता सामान लेने दौड़ पड़ती हैं, बड़ी उम्र की छात्राएं भी तैयारी में सहयोग दे रही हैं। और हमारी पोहा व जलेबी भी, वे बगिया से लाल रंग के फूल चुन-चुन कर ला रही हैं।

दस बजे भूमि पूजन शुरू हुआ। कक्षाओं में प्रयुक्त डेस्क को सुन्दर सफ़ेद चादर से सजाकर ठाकुर, स्वामी विवेकानंद और माँ सारदा देवी की फोटो स्थापित की गई हैं। तीनों फोटो के नीचे स्वर्गीय बाई (पुष्पा देवी शारदा) की  तस्वीर शोभायमान है।  मुख्य ऋत्विक की भूमिका में अरुण कुमार चटर्जी हैं तो उद्गाता व प्रस्तोता का दायित्व डाक्टर अमित कुमार पांडे निभाने वाले हैं। डाक्टर एच एम शारदा के भतीजे नरेन्द्र इस कार्यक्रम के यजमान हैं, वे इस हेतु विशेष रूप से सिवनी-मालवा से पौंडकी आये हैं। मंत्रोच्चार के साथ वैदिक पद्धति से गणपति स्थापना, देव आवाहन, नवग्रह पूजन, वास्तु पूजन व भूमिपूजन हुआ, यज्ञ हुआ, सभी उपस्थितों ने आहुतियाँ अर्पित की।  फिर प्रसाद वितरण पश्चात यही प्रक्रिया थोड़ी दूर पर बनने वाले प्रार्थना कक्ष के लिए सम्पन्न की गई। मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन के सहयोग से तीन क्लास रूम व स्वामी विवेकानंद प्रार्थना कक्ष के निर्माण से कन्या विद्यापीठ की छात्राओं व शिक्षिकाओं को अध्ययन-अध्यापन में सुविधाजनक व्यवस्था हो जाएगी।

डाक्टर एच एम शारदा चाहते हैं कि निर्माण दीर्घकालिक योजना को ध्यान में रखकर किया जाय, गुणवत्ता से कोई समझौता न हो और छात्राओं के प्रयोग हेतु अत्याधुनिक शौचालय बने। ‘ बाबूजी’ और मैं बजट को लेकर चिंतित हैं, दूरभाष पर हम लोगों ने उनसे चर्चा की। पर हमारे सारे तर्क कि ‘सर तीन शौचालय पहले से हैं, दो तीन लाख खर्च बढ़ जाएगा’  बेकार साबित हुए। शारदा साहब ने एक ही वाक्य बोला ‘डनायक तुम लड़कियों की परेशानी समझने का प्रयास करो, धन की चिंता मत करो, भगवान् देगा।’ प्रभु इच्छा ही बलीयसी मैंने प्रकल्प अभियंता श्री अनिरुद्ध से इस विषय में चर्चा की, तत्काल मौके का पुन: निरीक्षण किया और वर्तमान शाला भवन के बगल में रिक्त स्थान पर सर्वसुविधा युक्त शौचालय का खाका भी लगे हाथ  खींच दिया गया। चूने से लाइने खींची गई, पन्द्रह कालम के स्थान चिन्हित किये गए। यह सब कुछ चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज पर घट रहा है। दीपावली पश्चात निर्माण कार्य शुरू कर देने के आश्वासन के बाद अनिरुद्ध वापस बिलासपुर चले गए।

दोपहर को मैं और नरेन्द्र शारदा अमरकंटक की ओर चल दिए। रास्ते भर हरे भरे जंगल मन मोह लेते हैं। सतपुड़ा, विन्ध्याचल और मैकल पर्वत श्रखलाओं के मध्य बसा यह तीर्थ स्थल तीन प्रमुख नदियों सोन, नर्मदा व जोहिला का उद्गम स्थल है। समुद्र तल से 1065 मीटर की उंचाई पर स्थित, चारों तरफ हरी भरी पहाडि़यों से घिरा, आयुर्वेदिक पौधों, साल, साजा, बीजा के प्राकृतिक जंगलों के बीच यूकेलिप्टस, सिल्वर ओक,आदि के रोपित वनों के मध्य बसा  अमरकंटक, मध्‍य प्रदेश के अनूपपुर जिले का लोकप्रिय तीर्थस्‍थल है और न केवल हिन्दुओं वरन जैन, सिख व कबीरपंथियों के लिए भी  श्रद्धा का केंद्र है । उत्तर दिशा में स्थापित आश्रम तो कांक्रीट के जंगल है और उस तरफ हरियाली कम है पर दक्षिण दिशा में हरे भरे वृक्ष मन को मोह लेते हैं।

जोहिला नदी ज्वालेश्वर की पहाडियों से निकलकर राजेन्द्रग्राम के होते हुए उमरिया जिले में  सोन नदी में मिल जाती है।  अमरकंटक में उत्तर पूर्व में स्थित भुंडाकोना पहाड़ से जोहिला उत्तर की ओर नीचे उतरती है। आश्रम के नज़दीक पोडकी पंचायत के एक  गांव उमर गोहान के पास उसे रोक कर जोहिला जलाशय बनाया गया है। नर्मदा कुंड से उद्गमित नर्मदा नदी  यहां से पश्चिम की तरफ बहती है  और सोनमूडा  से निकल कर सोन नदी पूर्व दिशा में बहती है। नर्मदा स्त्री शक्ति का प्रतीक है तो सोन अमर्यादित पुरुष का स्वरुप है, नर्मदा और सोन के विवाह की खबरों के बीच दासी जोहिला का आगमन भी कम नहीं है। दासियाँ सदैव राजपुरुष की काम वासना का शिकार हुई हैं, तो जोहिला भी कैसे बचती। उसमें इतना साहस कहाँ था कि  सोन के प्रणय निवेदन को ठुकरा दे। सोन भोगलिप्सा, दासी जोहिला के अनैतिक कृत्य से दुखी नर्मदा ने चिरकुंवारी रहने का संकल्प लिया और क्रोधावेश में पश्चिम की ओर बह चली। यहां के खूबसूरत झरने, पवित्र तालाब, ऊंची पहाडि़यों और शांत वातावरण सैलानियों को मंत्रमुग्‍ध कर देते हैं। प्रकृति प्रेमी और धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह स्‍थान काफी पसंद आता है। अमरकंटक का बहुत सी परंपराओं और किवदंतियों से संबंध रहा है। जिसकी चर्चा कभी विस्तार से करेंगे। माता नर्मदा को समर्पित यहां अनेक पौराणिक स्थल और प्राचीन मंदिर बने हुए हैं।

मैंने नर्मदा कुंड में, हमारी कुलदेवी, जगत कल्याणी, मध्यप्रदेश की जीवन रेखा,  माँ नर्मदा के दर्शन किये और उत्तर दिशा की ओर से कपिलधारा तक की पदयात्रा शुरू की। इस प्रकार विगत दो वर्षों से जारी हमारी नर्मदा परिक्रमा का तीसरा सोपान प्रारम्भ हुआ। लगभग डेढ़ घंटे में 8 किलोमीटर दूरी तय कर मैं कपिल धारा पहुंचा। चूँकि शाम हो चली थी अत: रास्ते भर पड़ने वाले साधू संतों के आश्रमों को सिर्फ निहारता गया और एकाधिक स्थल पर रुककर, धीमी गति से बहती, नर्मदा के दर्शन करता रहा। सम्पूर्ण क्षेत्र अब धर्म के ठेकेदारों, बाबाओं के कब्जे में है। बड़े-बड़े सर्वसुविधायुक्त आश्रम हैं, जहाँ भौतिक सूख समृद्धि की कामना लिए भक्त माथा टेकने आते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर बाबाजी को श्रद्धा सुमन के रूप में कभी नगद धन तो कभी स्वर्ण दान करते हैं। अनेक आश्रमों मे से निस्तार का पानी सीधे नर्मदा में जा मिलता है, किसकी हिम्मत जो रसूखदार बाबाजी को रोक सके। सत्य तो यह है हमारी संस्कृति में नारी और नदी दोनों पूजनीय तो हैं पर सिर्फ किताबों और मंत्रोच्चार में। ‘बाबूजी’ कहते हैं कि किसी भी आश्रम ने कोरोना संक्रमण के दौरान आदिवासियों को भोजन देने का प्रयास नहीं किया और जैसी की उनकी आदत है, स्वामी विवेकानंद का एक सन्देश वे सुना देते हैं ‘जो धर्म विधवा का आंसू नहीं पोंछ सकते, भूखे को रोटी नहीं दे सकता उस धर्म और भगवान् पर मैं विश्वास नहीं करता हूँ।’

लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गिरने वाला कपिलधारा झरना बहुत सुंदर और लोकप्रिय है। पौराणिक मान्यता  है कि सांख्य दर्शन के रचियता कपिल मुनि का आश्रम इसी स्थल पर था। अन्धेरा हो चुका था इसलिए कोई आधा किलोमीटर दूर स्थित नर्मदा नदी के इस प्रथम जलप्रपात का दिगदर्शन किये बिना ही मैं वापस पौंडकी आ गया, जहाँ  विवेकानंद युवा मंडल की सांयकालीन बैठक का आयोजन था और सभी मेरा इंतज़ार कर रहे थे।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

 श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 3”। )

☆ संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

जब हम इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय से वापस आये तो पता चला कि बिलासपुर से अरुण कुमार चटर्जी, प्रोफ़ेसर डा. अमित कुमार पांडे अपनी टीम के साथ आये हुए हैं। आपस में परिचय की औपचारिकता के बाद हम सभी डाक्टर सरकार को घेर कर बैठ गए और सबने एक सुर में आदिवासियों के भगवान्  ‘बाबूजी’ से उनकी दास्तान  सुनने की इच्छा व्यक्त की। ‘बाबूजी’ भी आसानी से तैयार नहीं होते हैं, अपनी वाहवाही करवाने में उन्हें कोई आनन्द नहीं मिलता। ‘बाबूजी’ कुछ बताएं इस उद्देश्य से अरुण कुमार चटर्जी ने विवेकानंद युवा समूह के अनुभव सुनाना शुरू किया। वे बिलासपुर में रेलवे में कार्यरत हैं और वहाँ से पुराने कम्बल व साड़ियाँ एकत्रित कर ‘बाबूजी’ के साथ गर्जनबीजा गाँव वितरण करने के लिए गए। काफी देर इंतज़ार करने के बाद भी जब महिलाएं वितरण स्थल पर नहीं पहुँची तो दुःख व क्रोध से चटर्जी बाबू झल्ला उठे। एक आदिवासी बुजुर्ग  ने डरते-डरते वस्तुस्थिति बताई कि महिलाएं ऐसे अवसरों पर सजधज कर आती है, इसीलिए वे पास में बहने वाले नाले में स्नान करने गई हैं और जबतक उनकी एकमात्र साड़ी सूख नहीं  जाएगी तबतक  वे उसे पहन नहीं पाएंगी। चटर्जी बाबू ने आश्चर्यचकित होकर आदिवासी की ओर निहारा ! उन्हें उसकी बात पर विश्वास ही न हुआ।  विवश हो आदिवासी भाई, उन्हें इस शर्त पर कि फोटो वगैरह नहीं लेना, उस नाले की ओर ले गए जहाँ नग्नावस्था महिलाएं उकडू बैठी अपनी अपनी साड़ी के सूखने का इंतज़ार कर रही थी। इस घटना ने  रामकृष्ण परमहंस के भक्त चटर्जी बाबू को द्रवित कर दिया था, अब वे हर साल आश्रम में सेवा कार्य करते हैं और कोरोना संक्रमण के दौरान तो उन्होंने लगभग सौ किवंटल चावल व दाल बिलासपुर से संग्रहित कर वितरित करवाई। ‘लेकिन दाल-चावल वितरण करने के पहले ‘बाबूजी’ ने उसे चखा और जब गुणवत्ता सही पाई तभी वितरण का आदेश दिया’ ऐसा कहते हुए चटर्जी बाबू ने डाक्टर सरकार की तरफ मुस्कुराते हुए तिरछी निगाहों से  देखा और स्त्रियों की विपन्नता की चर्चा से उत्पन्न दैन्य भाव से वे मुक्त हुए। यह दारिद्रय और विपन्नता का दुःख तो महात्मा गांधी ने भी चम्पारण में अनुभव किया था और उसके बाद अपनी काठियावाड़ी पगड़ी त्याग दी थी। आज चटर्जी दादा भी गांधीजी जैसा त्यागी जीवन जी रहे हैं।

अब तक ‘बाबूजी’ का  भी मन अपनी कहानी सुनाने का हो चला था और वे लगभग पच्चीस वर्ष पीछे की दुनिया में खो गए थे। जैसी की उनकी आदत है अपनी बात उन्होंने स्वामी विवेकानंद के इस प्रेरणादायक  उपदेश से शुरू की ‘समग्र जगत यदि तलवार लेकर आपके विरुद्ध खडा हो, समस्त आत्मीय सज्जन, मित्र व रिश्तेदार आपका साथ छोड़ दें, तब भी आप अपने आदर्श के प्रति अटल रहें, तभी आप समाज के लिए कुछ कर सकते हैं।’

डाक्टर सरकार ने बताया कि  होम्योपैथी में डिग्री हासिल करने के बाद उनका मन घर गृहस्ती की अपेक्षा  साधु संतो के बीच अधिक बीतता था और वे बैलूर मठ जाते रहते थे। इसी दौरान वे एक बार  भारत भ्रमण पर भी निकल गए। कभी भूखे रहे और कभी बिना टिकिट यात्रा भी की,उसकी तो अलग कहानी है।  और जब आम भारतीय पिता की भाँति उनके पिताजी ने भी प्रबीर को सही राह पर लाने के लिए उसके विवाह का निर्णय लिया तो माँ ने अपने पुत्र के स्वभाव को जानते हुए पिताजी को समझाया कि ‘इसका विवाह कर क्यों किसी लडकी का जीवन बरबाद करते हो। इसे अपने रास्ते पर चलने दो, यह समाज की सेवा करने ही पैदा हुआ है। किसी साधू  ने उन्हें नर्मदा के उद्गम और उसकी महिमा का ज्ञान दिया और वे 1995 में वे अमरकंटक आ गए। शुरू में तो लोगो के बड़े विरोध का सामना करना पडा। कोई कहता बंगाली बाबा है काला जादू कर देगा, तो कोई कहता कि आदिवासियों की लडकियाँ कलकत्ता में ले जाकर बेच देगा। यदा-कदा तो शारीरिक हमले की नौबत भी बनती पर गुलाब सिंह आदिवासी और उसके दो तीन मित्रों ने बहुत सहयोग किया और धीरे-धीरे लोगों का विश्वास बढ़ता चला गया।

गुलाब सिंह आदिवासी ने 1997 में  दो एकड़ जमीन दान में दे तो दी परन्तु आदिवासी की जमीन होने से आश्रम के नाम स्थानांतरण असंभव था। इसीलिये उसी वर्ष जमीन को शासन के नाम दान पत्र बनवाकर आश्रम को लीज पर देने का तरीका सुझाया गया। तदनुसार कार्यवाही तो शुरू हो गई पर लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के चलते फ़ाइल भोपाल में आगे खिसकती ही न थी। इस सम्बन्ध में डाक्टर सरकार के अनेक सहृदयी आईएएस अधिकारियों से प्रगाड़ परिचय तो हुआ पर लाल फीता काटे नहीं कटता था। मातहत अधिकारी अपने बड़े साहब की बात सुनते और करते कुछ नहीं। फिर सरकारी विभागों में काम न करने पर कोई दंड भी तो नहीं दिया जा सकता था। इधर डाक्टर सरकार भी अजीब जिद्द पाले बैठे थे कि ‘ काम करवाने घूंस तो देंगें नहीं चाहे कितनी एडियाँ घिसनी पड़े, अमरकंटक से भोपाल के कितने भी चक्कर लगाने पड़े।’ अंततः श्री पंकज  अग्रवाल और सुश्री दीपाली रस्तोगी सरीखे सहृदयी वरिष्ठ  आईएएस अधिकारियों की बल्लभ भवन में पदस्थापना ने कार्य को आसान किया और 03.03.2020 को शासन ने गजट सूचना द्वारा इस भूमि को आश्रम को लीज पर देना मंजूर कर दिया। लेकिन अभी भी दिल्ली दूर थी, स्थानीय प्रशासन के कर्मी काम के बदले घूंस मांगते अन्यथा  लम्बी चौड़ी पेनाल्टी की धमकी देते। डाक्टर सरकार, कलेक्टर साहब से मिले, अपनी व्यथा सुनाई  और फिर क्या था कलेक्टर चन्द्र मोहन ठाकुर साहब की एक फटकार ने उन कर्मियों को नियमानुसार फ़ाइल पर टीप लिखने विवश कर दिया।  इस प्रकार 30.06.2020 को दो एकड़ जमीन का टुकड़ा आश्रम को शासन ने 30 वर्षों की लीज पर दे दिया। इसका लाभ यह होगा कि कार्पोरेट सामाजिक दायित्व के अंतर्गत अब आश्रम को आसानी से अधोसंरचना विकसित करने हेतु धन मिलता रहेगा। डाक्टर सरकार के प्रति और आश्रम की बालिकाओं के प्रति श्री चन्द्र मोहन ठाकुर साहब का प्रेम इतना अधिक है कि वे अक्सर इन छात्राओं के साथ समय बिताने पौंडकी आ जाते हैं और फुटबाल खेलते हैं।

डाक्टर सरकार का तो मुसीबतों से रिश्ता-नाता है। 2003 तक आश्रम को शासन से अनुदान मिलता था। एक दिन अचानक उसे बंद करने का फरमान मिला।’ बैगा पुत्रियों के ‘बाबूजी’ परेशान कि इन्हें खिलाएंगे कैसे !  लिखा पढी शुरू हुई, अंग्रेजी में पिलर टू पोस्ट दौड-भाग हुई, पर नतीजा सिफर। चपरासी से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री से भी की गई गुहार बेनतीजा हुई, हर बार घिसापिटा  जवाब मिलता कि ‘आपकी शिकायत सम्बंधित विभाग को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेज दी गई है।’ दुखी होकर  डाक्टर सरकार ने  ठाकुर (राम कृष्ण परमहंस) और माँ (सारदा देवी ) से गुहार लगाईं। माँ ने उनकी आर्त पुकार सुनी और  उपाय भी  सुझाया। सुबह चार बजे ‘बाबूजी’ ने अपनी बेटियों को बुलाकर माँ का आदेश सुनाया। छात्राओं ने अपनी दर्द भरी दास्तान राष्ट्रपति को लिखकर  भेजी।  भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ए पी जे अबुल कलाम ने मामले की गंभीरता को समझा और उनकी सहृदयता लालफीताशाही पर भारी पडी। राष्ट्रपति भवन ने  पत्राचार शुरू किया और अनुस्मारक  भी भेजे। अचानक एक दिन जिला मुख्यालय से पूरा सरकारी अमला आश्रम आ पहुंचा, जांच पड़ताल हुई, छात्राओं ने बेहिचक और बेधडक होकर अपनी आपबीती सुनाई, आत्मदाह करने की धमकी देने की बात भी स्वीकारी। और तत्कालीन जिलाधीश ने उसी पल लंबित अनुदान को जारी करने का फरमान जारी किया। अनुदान मिला और आश्रम में भोजन व्यवस्था सुचारू रूप से पुन: चलने लगी।

इस साल भी कोरोना संक्रमण के चलते शासन से मिलने वाला अनुदान लंबित है। और ऐसे में स्थानीय व्यापारी गौरेल्ला के राजा ट्रेडर्स, ने राशन व राकेश ठाकुर ने सब्जी उधार देना शुरू कर दिया। राजा ट्रेडर्स तो डाक्टर सरकार की सेवा भावना के इतने कायल हैं कि वे कहते हैं ‘बाबूजी रुपया आ जाए तो दे देना, नहीं तो मैं समझुंगा बैगाओं का कर्ज मुझपर था जो मैंने आपके माध्यम से इन बच्चियों को खिलाकर उतार दिया।’ श्री विनोद केडिया किराना व्यापारी हैं 70% राशन मुफ्त में दे रहें हैं तो श्री धर्म प्रकाश अग्रवाल सब्जियां हर सप्ताह पेंड्रा से यहाँ भिजवाते हैं। ऐसे असंख्य मददगार हैं जो ‘बाबूजी’ की सेवा वृति से प्रभावित हैं और मदद करने को आगे आते हैं।

‘बाबूजी’  ने आयकर की धारा 80 जी में छूट लेने हेतु आयकर कार्यालय, जबलपुर में अर्जी लगाईं ताकि दानदाताओं को दान की गई राशि पर आयकर छूट का लाभ मिल सके। भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है! आयकर निरीक्षक बिना मुद्रा दर्शन के फ़ाइल आगे नहीं बढ़ने दे रहा था। डाक्टर सरकार फिर ठाकुर की शरण में पहुँच गए। ठाकुर की कृपा ऐसी हुई कि स्वामी विवेकानंद के भक्त  एक बंगाली सज्जन से मुलाक़ात हो गई। उन्होंने आवेदन व कागजात  को आयकर आयुक्त श्रीमती हर्षवर्धनी बुटी के समक्ष प्रस्तुत करवाया और फिर उसी दिन आदेश जारी करवाकर डाक्टर सरकार को होटल जाकर खुशखबरी दी।

हमारे ‘अमरकंटक के भिक्षुक’ इतने सरल भी नहीं है। वे अमरकंटक के किसी भी अधिकारी के पास, चाहे वह उपजिलाधीश हो या  थानेदार,  पहुँच जाते है और अपनी फरमाइश सुना देते हैं, आज दस किलो नमक दे दें, या आश्रम में दाल खतम हो रही है एक किवंटल भिजवा दें, हल्दी और मसाला भी नहीं है, चावल अच्छी क्वालिटी का भिजवाना, लड़कियों को नहाने के लिए शैम्पू और साबुन चाहिए आदि। उनकी ऐसी मांगों से परेशान अधिकारियों ने कलेक्टर साहब को शिकायत कर दी। कलेक्टर साहब भी मुस्कुराए और बोले ‘अरे भाई डाक्टर बाबू की बात मैं भी नहीं टाल सकता, वे जो चाहते हैं वैसा कर दो और पुण्य कमाओं।’

इस बाबू मोशाय के किस्से तो अनगिनत हैं, ‘हरी अनंत हरी कथा अनंता’। इस सरल हृदय, करुणानिधान से जब मैं दूसरी बार मिला और तीन दिन उनके सानिध्य में बिताए तो मुझे वही खुशी मिली जो असंख्य स्वाधीनता सेनानियों को गांधीजी से मिलकर हुई थी या नरेन्द्र को रामकृष्ण परमहंस से मिलकर हुई थी। ‘बाबूजी’ मुझे इंसान बनाने के लिए आपको दंडवत प्रणाम।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज से हम एक नई  संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं।  इस श्रृंखला में श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। हम  आपके इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला को अपने पाठकों से साझा करने हेतु श्री डनायक जी के ह्रदय  से आभारी  हैं।  इस कड़ी में प्रस्तुत है  – “अमरकंटक का भिक्षुक – भाग 2”। )

☆ संस्मरण ☆ अमरकंटक का भिक्षुक -2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

30 अक्टूबर को दस बजे हम सब नाश्ते की टेबिल पर एकत्रित हुए। गुलमोहर बृक्ष की छाया तले, छात्राओं ने  टेबिल सजाई, उस पर श्वेत चादर बिछाई और नाश्ते हेतु प्लेटें रखी। हम दो-तीन अतिथि थे तो समोसा, डबल रोटी, राजेंद्र ग्राम की खोबे की जलेबी, केले और सेवफल हमारे लिए परोसे गए। हम सब ने डटकर नाश्ता किया और डाक्टर सरकार ने मात्र एक डबल रोटी और सेव फल खाया। आज छात्राएं भी यही नाश्ता करेंगी, ऐसा स्कूल में नव नियुक्त शिक्षिका सुनीता यादव ने बड़े गर्व से बताया, वे कहती हैं कि छात्राओं के साथ हम लोगो के सम्बन्ध माँ-बेटी, पिता-पुत्री के हैं तो भेदभाव कैसा। साढ़े दस बजे तक हम सब तैयार थे।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के छात्र, पांच युवा वालिंटियर्स, विकास, अरनवकान्त, सौरभ आदि हमारे साथ थे। एंबुलेस व जीप में आवश्यक सामग्री लादकर हम सब आश्रम से पांच-छह किलोमीटर दूर स्थित, बैगा आदिवासियों के गाँव  फर्रीसेमर के भिलवा गौड़ा पहुँच गए। भिलवा एक वन वृक्ष है,वनोपज का औषधीय उपयोग भी है, इसके फल आदिवासी खाते हैं और गौड़ा का अर्थ मौहल्ला या टोला है। बैगा, मध्यप्रदेश के सतपुड़ा व मैकल पर्वत अंचल में निवासरत, विलुप्त प्राय, आदिम जनजाति है। जिसकी, जन्म से लेकर विवाह व मृत्यु तक की  अपनी विशिष्ट व अनोखी परम्पराएं हैं। माथे व हाँथ पर गोदना गुदवाना, कौड़ी की माला इनकी  श्रंगार सामग्री है, कुछ महिलायें पीतल, तांबा या एलुमिनियम के भी आभूषण पहनती हैं। यहाँ निवासी पच्चीस परिवारों मे से पंद्रह के लगभग उपस्थित थे, डाक्टर सरकार इनके बाबूजी हैं, भगवान हैं। जब आदिवासी पुरुष, महिलायें और बच्चे डाक्टर सरकार को प्रणाम करते और प्रेम से बाबूजी को अपने कष्ट सुनाते तो मुझे एक और महात्मा याद आए। वे आज से 105 वर्ष पहले दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आये थे और अहमदाबाद में आश्रम बनाकर रहने लगे थे, उनके अनुयाई भी उन्हें बापूजी कहते थे और 1944 आते आते तो वे राष्ट्रपिता हो गए। इन दोनों महात्माओं में कितनी समानता है। शरीर और मन, कर्म, वचन से दोनों एक से ही दीखते हैं। आदिवासी अपने बाबूजी को भगवान् से कम सम्मान नहीं देते और उनके कहने पर बूढ़े से लेकर  बच्चे सब दौड़े चले आते हैं। मैंने एक लडकी को अपने पास बुलाया पर पुस्तक और बिस्किट का पैकेट भी उसे समीप आने को न ललचा सका। ‘बाबूजी’ ने एक आवाज लगाईं और ममता दौड़ी चली आई। मैंने उसे डाक्टर अर्जुनदास खत्री द्वारा लिखित बाल काव्य ‘अनय हमारा’ पढने को दी पर बहुत प्रोत्साहित करने पर भी एक शासकीय स्कूल की छठवीं कक्षा की यह विद्यार्थी एक अक्षर भी न पढ़ सकी। मैंने यह पुस्तक बारहवीं तक शिक्षित उसके भाई फूलचंद को देते हुए अनुरोध किया की गाँव के बच्चों को वह अक्षर ज्ञान अवश्य कराए। हम यह सब कर ही रहे थे कि एम्बुलेंस व जीप में लदी सामग्री को आदिवासी भाई ले आये। ‘बाबूजी’ ने सारे बच्चों को बिस्किट के पैकेट बाटें और विकास ने उपस्थित लोगों की सूची बनाई। इसके बाद उन सभी को खाद्य सामग्री का वितरण शुरू हुआ। आश्चर्य की बात यह थी कि सामग्री लेने हेतु न कोई भगदड़ थी और न ज्यादा लेने का लालच। बच्चों ने भी एक ही पैकेट बिस्किट लिया और आगे बढ़ गए। बैगा सही मायने में अपरिग्रही हैं, संग्रह की भावना से कोसों दूर। पांच किलो चावल, एक-एक किलो दाल और आलू तथा नमक, हल्दी, धनिया, तेल आदि के यह पैकेट ‘मदनलाल शारदा फैमिली फ़ाउंडेशन’ की ओर से स्वर्गीय पुष्पा शारदा की स्मृति में प्रत्येक माह फर्रीसेमर गाँव में बाटें जा रहे हैं। खाद्य सामग्री के ऐसे ही पैकेट पच्चीस गावों में अन्य दानदाताओं के सहयोग से आश्रम ने कोरोना संक्रमण के काल में बांटे हैं। इस मोहल्ले में न तो बिजली है, न पानी और न ही आंगनवाडी है। आवागमन दुष्कर है, एक नाला और डांगर पार कर यहाँ पहुंचा जा सकता है। बरसात भर नाला उफान पर होता है, तब यहाँ आवागमन कैसे होता होगा? इसकी कल्पना ही रोंगटे खडी कर देती है। मैंने अनेक युवाओं को देखा, चेहरे उदास थे, कोई उमंग या उत्साह न था। कुछ बच्चों और युवाओं  को तो दाद व खुजली का चर्म रोग भी था, जिसने  लापरवाही व इलाज़ के अभाव में गंभीर रूप धर लिया था। सुमित्रा एवं  कमलसिंह बैगा का दो वर्षीय पुत्र कुपोषित भी दिखा। दूसरे दिन पौंडकी के उपस्वास्थ्य केंद्र में एएनएम से चर्चा की तो पता चला कि यह बालक चार वर्ष का है और न केवल कुपोषित है वरन विकलांग भी है और सही पोषण के अभाव में गूंगा भी है। आंगनवाडी कार्यकर्ताओं ने  सर्वे कर सूची ऊपर भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, अमरकंटक से कोई डाक्टर देखने नहीं आया। अभावों से जूझता परिवार भी क्या कर सकता है ? अब ‘बाबूजी’ ने यहाँ दो नवम्बर को चिकित्सा शिविर लगाने का निश्चय किया है। इसी गाँव की लाली  बैगा एक उत्साही महिला है, ‘कृष्णा स्वयं सहायता समूह’ चलाती है। 2009 में मुर्गी पालन और बकरी पालन का काम समूह ने शुरू किया पर पशु चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में सारी बकरियां और मुर्गियां बीमार होकर मर गई। फिर दोबारा व्यवसाय शुरू नहीं हो सका। अब समूह तो चलता है पर कोई स्वरोजगार की गतिविधि नहीं है, केवल लेन-देन तक सीमित है। ब्याज पर रकम देकर और बैठक में अनुपस्थिति पर दंड लगाकर समूह आंशिक  कार्य कर रहा है। आश्रम ने लाली को एक सिलाई मशीन दी है और वह गाँव के लोगों के वह कपडे सिल देती है। लाली मुझे होशियार लगी, माँ शारदा कन्या विद्यापीठ से पांचवी तक पढी है और शासन के निमंत्रण पर स्वयं सहायता समूह के एक कार्यक्रम में शामिल होने भोपाल भी आई थी, कहती है सब ‘बाबूजी’ की कृपा का फल है। वह इस समूह को फिर से जागृत करेगी और मेरा प्रयास होगा कि इस समूह को फ़ाउंडेशन के सहयोग से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराकर स्वरोजगार से जोड़ा जा सके। शाम को हम इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय भी गए।यहाँ डाक्टर महापात्रा ने हमें आदिवासी संग्रहालय बड़े चाव से दिखाया।

इस संग्रहालय में आदिवासियों की संस्कृति की झलक दिखती है। उनके आभूषण, दैनिक उपभोग की वस्तुए, मिटटी व चमड़े से बने बर्तन,  टैराकोटा व धातु के हस्तशिल्प,  कृषि औजार, वाद्य यंत्र, तीर कमान, शिकार में प्रयुक्त भाले-जाल, जंगली जानवरों (भैंसा हिरण, साम्भर आदि) के सींग व कुछ विदेशी वस्तुएं यहाँ छह गैलरियों में संग्रहित हैं। भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत मुख्य महाप्रबंधक, डाक्टर एच एम शारदा व उनकी पत्नी स्व. श्रीमती पुष्पा शारदा ने विगत अनेक वर्षों  के दरमियान यह सामग्री एकत्रित की थी, जिसे उन्होंने 2010 में इस विश्वविद्यालय को सौंप दिया और संग्रहालय शास्त्र के प्राध्यापक डाक्टर महापात्रा ने इसे बहुत सुन्दर ढंग से सजा-संवारकर रखा है। डाक्टर शारदा, द्वारा दिए गए कतिपय छायाचित्रों के आधार पर, विश्वविद्यालय ने  कुछ शिल्प भी बनवाए हैं, जो प्रांगण में जगह-जगह दृष्टिगोचार होते हैं।

अमरकंटक के भिक्षुक ‘बाबूजी’ ने तो विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों और छात्रों का भी सहयोग आश्रम की गतिविधियों में लिया है। विश्वविद्यालय के कृषि सेवा केंद्र से वे उन्नत बीज लेकर आदिवासियों को निशुल्क बांटते हैं और राष्ट्रीय सेवा योजना के छात्रों को  सेवा हेतु आमंत्रित करते हैं उन्हें मार्गदर्शन देते हैं, प्रोत्साहित करते हैं ताकि आदिवासियों के जीवन में नई रोशनी का प्रवेश हो, जिसकी बाट यह विपन्न लोग विगत सत्तर से भी अधिक वर्षों से जोह रहे हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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