श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

 

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4।।

 

नाशवान अधिभूत है आद्यिदैव पुरूषार्थ

अहंभाव अधियज्ञ है,यही समझना सार।।4।।

            

भावार्थ :  उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ।।4।।

 

Adhibhuta (knowledge  of  the  elements)  pertains  to  My  perishable  Nature,  and  the Purusha or soul is the Adhidaiva; I alone am the Adhiyajna here in this body, O best among the embodied (men)!।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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