संवेदना के वातायन  (काव्य संग्रह) – डॉ मुक्ता 

पुस्तक : संवेदना के वातायन 

लेखिका : डॉ मुक्ता

प्रकाशन प्रारूप :  ईबुक, अमेज़न किंडल 

प्रकाशक : वर्जिन साहित्यपीठ

Amazon Link – संवेदना के वातायन

Google Books Link – संवेदना के वातायन

 

लेखिका परिचय : 

  • माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित
  • निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी (2009 से 2011 तक)
  • निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकुला (तत्पश्चात् 2014 तक)
  • सदस्य, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2013 से 2017 तक)
  • उच्चतर शिक्षा विभाग, हरियाणा में प्रवक्ता (1971 से 2003 तक) तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त।

 

आत्मकथ्य  – संवेदना के वातायन 

 

संवेदना के वातायन मेरा 11वां काव्य- संग्रह है,जिसमें आप रू-ब-रू होंगे…मानवीय संवेदनाओं से,मन में उठती भाव-लहरियों से जो आपके हृदय को उल्लास,प्रसन्नता व आह्लाद से सराबोर कर देंगी तो अगले ही पल आप को सोचने पर विवश कर देंगी कि समाज में इतना वैषम्य, मूल्यों का अवमूल्यन व संवेदन-शून्यता क्यों?

मानव मन चंचल है। पलभर में पूरे ब्रह्मांड की यात्रा कर लौट आता है और प्रकृति की भांति हर क्षण रंग बदलता है। ऐसी स्थिति में वह चाह कर भी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकता।

आधुनिक युग में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता व अधिकाधिक धन-संग्रह की प्रवृत्ति पारस्परिक वैमनस्य व दूरियां बढ़ा रही है। वहआत्म-केंद्रित होता जा रहा है और संवेदनहीनता रूपी विष उसे निरंतर लील रहा है। परिवार-जन व बच्चे अपने-अपने द्वीपों में कैद होकर रह गए हैं। सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं। ऐसे भयावह वातावरण में स्वयं को सामान्य रख पाना असंभव है, जिस का परिणाम टूटते एकल परिवारों के रूप में स्पष्ट भासता है। हर बाशिंदा अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह गया है।

समाज में सुरसा की भांति पांव पसारता भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी व दुष्कर्म के हादसे समाज में अराजकता, विषमता व विश्रंखलता को बढ़ा रहे हैं। स्नेह और सौहार्द के भाव नदारद होने के कारण सहानुभूति, सहनशीलता व धैर्य का स्थान शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता ने ग्रहण कर लिया है। आप ही सोचिए क्या,इन विषम परिस्थितियों में… जहां हर इंसान मुखौटा ओढ़े एक-दूसरे को छल रहा हो, संवेदनाएं मर रही हों,औरत की अस्मत कहीं भी सुरक्षित न हो…सहज व सामान्य रहना संभव है? शायद नहीं …..जहां अहम् की दीवारों में कैद पति-पत्नी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में सुक़ून का अनुभव करते हों, स्वयं को सिकंदर-सम ख़ुदा मानते हों, उन्हें आजीवन एकांत की त्रासदी को झेलना स्वाभाविक है। बच्चों के मान-मनुहार और आत्मीयता के पल, जो उन्हें केवल अपने परिवारजनों के सानिध्य में प्राप्त हो सकते हैं,वे उस आनंद से वंचित रह जाते हैं।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

यहीं से प्रारम्भ होती है…मानव के तनाव की अंतहीन यात्रा,जिससे वह चाह कर भी निज़ात नहीं पा सकता।तलाश में भटकता रहता है ,परन्तु शांति तो होती है उसके अंतर्मन में..जैसी सोच वैसी क़ायनात।

साहित्य और समाज का संबंध शाश्वत है, अटूट है और वह मानव के अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है। परन्तु आज का मानव संवेदन-शून्य होता जा रहा है। वह केवल अधिकारों की परिभाषा जानता-समझता है, कर्त्तव्य-निष्ठता से अनजान, वह केवल अपने तथा अपने परिवार तक सिमट कर रह गया है,निपट स्वार्थी हो गया है।

सरहदों पर तैनात सैनिक न केवल देश की रक्षा करते हैं बल्कि हमें भी सुक़ून भरी ज़िन्दगी प्रदान करते हैं। परन्तु हमारे नुमाइंदे,बड़े-बड़े पदों पर आसीन रहते हुए उन सैनिकों के परिवारजनों के प्रति अपने दायित्व का वहन नहीं करते तथा सीमा पर तैनात प्रत्येक सैनिक को पेंशन का अधिकारी नहीं समझते हैं। क्या यह उनके परिवारों के प्रति अन्याय नहीं है? क्या उनके शवों के नाम पर अंग-प्रत्यंग इकट्ठे कर, उनके घर वालों को सौंप देने मात्र से उनके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है?

हर दिन घटित होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं को देख हम आंखें मूंदे रहते हैं? क्या हम अनुभव कर पाते हैं… उस मासूम की मानसिक यन्त्रणा,जो उसे आजीवन झेलनी पड़ती है? क्या बाल मज़दूरी करते बच्चों को देख हमारा मन पसीजता है? क्या सड़क पर पत्थर तोड़ती मज़दूरिन, धूप, आंधी, तूफान व बरसात में निरंतर कार्य-रत मज़दूरों-किसानों व गरीबों को झुग्गियों में जीवन बसर करते देख,हमारे नेत्रों से आंसुओं का  सैलाब बह निकलता है? क्या अमीर-गरीब में बढ़ गई खाई, हमें सोचने पर विवश नहीं करती कि हम दायित्व-विमुख ही नहीं,दायित्व विमुक्त हो गए है। हमारे लिए हमारा परिवार सर्वस्व हो गया है।

परन्तु आजकल एकल परिवार भी बिखर रहे हैं। लिव इन व सिंगल पेरेंट का चलन बढ़ रहा है और वे इस अवधारणा को स्वीकार, यह बतलाने में फ़ख़्र महसूस करते हैं कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को नकार दिया है।

शायद इसका कारण है मीडिया से जुड़ाव, जिसने भौगोलिक दूरियों को तो समाप्त कर दिया है,परंतु दिलों की दूरियों को पाटना असंभव बना दिया है। सामान्यजन,विशेषत: बच्चों का अपराध जगत् में प्रवेश करना, इसका प्रत्यक्ष परिणाम है। जब तक हम इसके भयावह स्वरूप से अवगत होते हैं, लौटना असंभव हो जाता है। हम स्वयं को उस दलदल में फंसा असहाय, बेबस, विवश व मज़बूर पाते हैं। हमें प्रतिदिन नई समस्या से जूझना पड़ता है। सिमटना व बिखरना हमारी नियति बन जाती है और हम लाख चाहने पर भी इस चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते।

संवेदनाएं वे भाव-लहरिया हैं,जो हमारे मनोमस्तिष्क को हरपल उद्वेलित, आलोड़ित व आनंदित करती रहती हैं। कभी वे सब्ज़बाग  दिखलाती हैं, तो कभी सुनामी की गगनचुंबी लहरों में बीच भंवर छोड़ जाती हैं। हम इस सुख-दु:ख के जंजाल में सदैव उलझे रहते हैं। सुक़ून की तलाश में डूबते-उतराते अपने जीवन के चिरंतन लक्ष्य, उस सृष्टि-नियंता से मिलने को भुलाकर मायाजाल में उलझे, इस संसार से रुख़्सत हो जाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।

‘संवेदना के वातायन’ आंख-मिचौली है, उमंगों- तरंगों व मन में निहित आह्लाद -उल्लास की,विरह-मिलन की, जय-पराजय की और सामाजिक विसंगतियों-विषमताओं से रू-ब–रू होने की,जो हमारे समाज की जड़ों को विषाक्त कर खोखला कर रही हैं। आशा है, इस संग्रह की कविताएं आपके जीवन में उजास भर कर आलोड़ित-आनंदित करेंगे तथा नव-चेतना से आप्लावित कर देंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ….

शुभाशी

डॉ मुक्ता

 

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments