सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में  पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  प्रस्तुत है नवीन पुस्तक “नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) पर आत्मकथ्य श्री सुरेश पटवा जी के शब्दों में । )

☆ पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य  – नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)☆ 

विंध्य-सतपुड़ा मेखला की गगनचुंबी पर्वत श्रंखलाओं से घिरी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरी-महाराष्ट्र और दक्षिणी-गुजरात में जीवन दायिनी नर्मदा-घाटी मध्यभारत ही नहीं पूरे भारत के लिए प्रकृति के ऐसे वरदान स्वरुप मौजूद है कि करोड़ों मनुष्य व जीव-जन्तु के जीवन आदिकाल से आधुनिक काल तक यहाँ फलते फूलते रहे हैं। आदिमानव की पहली चीख पुकार से आधुनिक मनुष्यों के लोक-शास्त्रीय गायन का नाद-निनाद नर्मदा-घाटी  की वादियों में गूँजता रहा है। इनसे बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, गोंडवाना, मालवा और निमाड़ के इलाक़े बारिश के पानी, उपज, खनिज और वनोपज से मालामाल होते हैं। इन इलाक़ों के बाशिन्दों का जीवन आधार यही पर्वत मालाएँ हैं।

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नर्मदा-घाटी इन दोनो श्रंखलाओं के बीच भारत की जलवायु को दिशा देने वाली भौगोलिक स्थितियों का निर्माण करती है। विंध्य-सतपुड़ा के दामन में भारत के सबसे अधिक घने जंगल, जानवरों के विभिन्न प्रकार, क़िस्म-क़िस्म के पेड़ों-पौधों की प्रजातियाँ, मनभावन पक्षियों के झुंड और लुप्तप्रायः जानवरों की बहुतायत बान्धवगढ़, कान्हा-किसली, पेंच, पंचमढ़ी व मड़ई आरक्षित वनों में मौजूद हैं। विंध्य-सतपुड़ा के गगनचुंबी शिखर अण्डमान-निकोबार से आते दक्षिण-पूर्वी और केरल-लक्षद्वीप से उठते मानसूनी बादलों को जून से सितम्बर तक अपनी शत शिराओं में भरकर बघेलखंड, महाकौशल, बुंदेलखंड, मालवा, गोंडवाना और निमाड़ इलाक़े की प्यासी धरती और जीवों के प्यासे कंठों को पूरे साल तर रखते हैं। भारत के इन इलाक़ों में वर्ष भर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता सर्वाधिक है। इन पर्वत श्रंखलाओं के घने जंगल नवम्बर से जनवरी तक हिमालय से आती ठंडी हवाओं को रोक रबी फ़सल को नमी देकर अगहन की तीखी धूप से बचाते हुए पल्लवित-पुष्पित करते हैं। इनके साये से थोड़ी दूर जाकर देखेंगे तो बबूल के काँटेदार जंगलों से भरे राजस्थान-गुजरात के रेगिस्तान या खानदेश लातूर मराठवाड़ा का लू से तपता मृगतृष्णा बियाबांन पाएँगे।

सतपुड़ा न होता तो छत्तीसगढ़ धान का कटोरा नहीं होता। इनकी तराई में राजनांदगाँव, दुर्ग, बेमेतरा, बिलासपुर, अम्बिकापुर और शक्ति जिले हैं जो राजगढ़ के आगे छोटा नागपुर पहाड़ों से जुड़े हैं, पूर्व में कांकेर, नारायणपुर, बीजापुर और कोंडागाँव में अबूझमाड़ पहाड़ों की श्रंखलाएँ होने से छत्तीसगढ़ का बिलासपुर, महासमुन्द, रायपुर, धमतरी, बेमेतरा, दुर्ग, भाटापारा, राजनांदगाँव जिलों का इलाक़ा धान का कटोरा कहलाता है जो महानदी को समृद्ध करके कटक और संबलपुर सहित उड़ीसा की जीवनरेखा बनाता है। विंध्य-सतपुड़ा से निकली नर्मदा-ताप्ती मध्यप्रदेश दक्षिणी-गुजरात और उत्तरी-महाराष्ट्र को सदानीरा रखतीं हैं। अतः मध्यप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की आबादी के जीवन का आधार विंध्य-सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाएँ हैं।

संस्कृत भाषा में नर्म का अर्थ है- आनंद और दा का अर्थ है- देने वाली याने नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली अर्थात आनंददायिनी। नर्मदा एक ऐसी अद्भुत अलौकिक नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा विकसित हुई है, आदि शंकराचार्य ने भी नर्मदा की परिक्रमा करते हुए इसके घाटों पर तपस्या, अध्ययन, चिंतन, मनन, शास्त्रों का संकलन और शास्त्रार्थ किया था। नर्मदा का अस्तित्व मध्य भारत की भौगोलिक संरचना से है जिस पर दार्शनिक, ऐतिहासिक, तात्त्विक और तार्किक दृष्टिकोण से लेखन नहीं हुआ है, यद्यपि भक्तिभाव से बहुत लिखा गया है। हिंदू धर्म के पौराणिक काल से भक्ति, वानप्रस्थ और सन्यास के साथ गृहस्थ परम्परा निभाव में नर्मदा अंचल का योगदान उल्लेखनीय रहा है लेकिन नर्मदा के इस पक्ष पर भी विस्तार पूर्वक प्रकाश नहीं डाला गया है। यह पुस्तक नर्मदा-अंचल की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उसी कमी को भरने का प्रयास है।

मैं सबसे पहले अपने विद्वान दोस्त श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के साथ जनवरी 2016 में नेमावर पंचकोशी नर्मदा परिक्रमा करने गया था, यात्रा  के दौरान  बड़ी  संख्या में लोगों को सामान सिर पर रखकर नंगे पैर लगभग दौड़ते हुए चलते देख कर दंग रह गया। उनकी श्रद्धा का स्रोत केवल अंधविश्वास नहीं हो सकता क्योंकि बिना जड़ का  पेड़ नहीं होता, आस्था की जड़ में ज़रूर कोई सनातन सत्य है, तय किया कि उसे ढूँढना है। वह सत्य नर्मदा परिक्रमा से ही उजागर होगा, और दो खंड परिक्रमाओं में होते दिख रहा है। आप नर्मदा परिक्रमा की परिपाटी  डालने वालों की दूरदृष्टि की प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रह पाएँगे कि किस तरह उन्होंने हिंदू दार्शनिक सिद्धांतों को तात्त्विक ऊँचाई से व्यावहारिक धरातल पर उतारकर जनमानस से जोड़ दिया।  इस पुस्तक में छः लोगों द्वारा अक्टूबर 2018 और नवम्बर 2019 में की गई पैदल नर्मदा परिक्रमा का यात्रा वृतांत प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें पढ़कर आपको पता चलेगा कि मनुष्यों की जानकारी, ज्ञान और मानसिकता का प्रभाव उनके नज़रिया और लेखन में झलकता है। मेरे लेखन में आपको पौराणिक संदर्भ के साथ धार्मिकता और आध्यात्मिकता के अंतर के साथ नर्मदा घाटी में बसावट के इतिहास से नर्मदा परिक्रमा की तार्किकता का पता चलेगा। अरुण भाई के लेखन में सामाजिक जागृति के सरोकार और प्रकृति के साथ ग्राम्य जीवन की सरसता के दर्शन होंगे। अविनाश भाई के विचारों में आपको प्राकृतिक वातावरण के साथ मानवीय संवेदनाओं के आयाम खुलते नज़र आएँगे और यात्रा में सहूलियत के लिहाज़ से बरती जाने वाली सावधानी पाएँगे। मुंशीलाल भाई धार्मिकता से पूरित सहज भक्ति भाव मय उद्गार व्यक्त करने में सिद्धहस्थ हैं वहीं प्रयास भाई ने कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं हैं। जगमोहन भाई ने पाँचों महानुभाव के विचारों के सम्बंध में समय-समय पर अपनी भावनाएँ स्वाभाविकता से व्यक्त की हैं।

आज़ादी के बाद मध्यप्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा की पहल पर नर्मदा घाटी प्राधिकरण गठित करके “नर्मदा घाटी परियोजना” बनाई थी जिसके अंतर्गत बरगी, तवा, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर बाँध और सरदार सरोवर बनाकर नर्मदा ने लोगों के लिए ख़ुशहाली के दरवाज़े खोलकर नर्मदा को सौंदर्य के साथ समृद्धि की नदी भी बना दिया। उज्जयिनी की समृद्ध संस्कृति ने भारत को सनातन वैराग्य का दर्शन दिया है।

सतपुड़ा पर्वत माला में वन्य-जीवन, पर्वतीय सौंदर्य, नदियों-झरनों, आदिवासी-जीवन, संरक्षित-अभ्यारण और नैसर्गिक सौंदर्य के पर्यटन की असीम सम्भावनाएँ निहित हैं। अमरकण्टक, बान्धवगढ़, कान्हा, पतालकोट, पंचमढ़ी, नागद्वारी, मड़ई, ओंकारेश्वर, महेश्वर के अलावा बरगी-बाँध, तवा-बाँध, इंदिरासागर-बाँध और ओंकारेश्वर-बाँध खेतिबारी के लिए पूरे साल पानी के साधन हैं। नर्मदा की महत्ता इससे समझी जा सकती है कि खेतों के सूखे कंठों को रसारस करने के बाद जबलपुर, होशंगाबाद, भोपाल, उज्जैन, देवास और इंदौर को जल आपूर्ति का साधन नर्मदा है। महाकाल की नगरी उज्जैन में जब कुम्भ का मेला भरता है तब पिता को जल चढ़ाने में पुत्री नर्मदा का जल उपयोग में लाया जाता है।

इस पुस्तक में “नर्मदा-अंचल” कई बार आएगा, उसका आशय स्पष्ट करना आवश्यक है। नर्मदा-अंचल में नर्मदा घाटी के साथ सतपुड़ा-विंध्याचल पर्वत श्रेणियों का वह भाग शामिल है जिसका जल-प्रवाह अंतत: नर्मदा में जाकर मिलता है। जहाँ के निवासियों का जीवन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नर्मदा से जुड़ा है। नर्मदा अंचल का विस्तार 98,796 वर्ग किलोमीटर में फैला है। देश की जलवायु को नम रखने वाली अत्यंत महत्वपूर्ण नदी नर्मदा पर विस्तृत जानकारी और हमारे दल की दो नर्मदा यात्राओं के रोचक संस्मरण के साथ यह पुस्तक प्रकाशित हो रही है ताकि इस महान नदी की आस्था व तर्क दोनों दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति में योगदान से लोगों को परिचित कराया जा सके। सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य मनुष्य की स्वाभाविक चाहत के विषय रहे हैं। नर्मदा घाटी में इन विषयों पर गहन चिंतन-मनन दार्शनिकता के स्तर तक हुआ है। आपको सतपुड़ा पर्वत और नर्मदा घाटी की महत्ता भक्तिभाव के साथ तर्क सम्मत दृष्टिकोण से बताने में यह किताब इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि आप नर्मदा के सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य दर्शन से अभिभूत हुए बग़ैर न रह सकेंगे।

मेरे दादा जी दौलतराम पटवा प्राथमिक शाला में शिक्षक थे परंतु पिताजी शंकर लाल पटवा निरक्षर रहे, दादा दौलतराम आदिवासी गाँव दूँड़ादेह से सोहागपुर की पाठशाला में पढ़ाने आते थे। पिता जी गौंड़ों के बच्चों के साथ जंगल के शिकारी बनते चले गए, आदिवासियों की स्वाभाविक अकड़ उनके व्यक्तित्व का मौलिक स्वभाव बनकर उन्हें पहलवानी की राह चलाकर अखाड़ों तक ले गई, पहलवानी अकड़ आजीवन उनकी पूँजी रही, विरासत में थोड़ी बहुत हमें भी मिली लेकिन अब ख़त्म होने की कगार पर है। दादा जी का ट्रांसफ़र दमोह हो गया तो उन्होंने नौकरी छोड़कर हमें पढ़ाने हेतु सोहागपुर ले आए, पिता जी रेल्वे स्टेशन पर खोमचे लगाने लगे। दादा जी के कमरे में एक मेज़ पर ग्रामोंफोन के बाजु में रहल के ऊपर लाल कपड़े में लिपटे शिवपुराण, विष्णुपुराण और भागवत पुराण रखे रहते थे, वे पुराणों का नियमित पाठ करते थे। जब किसी ऊधम पर पिता जी छड़ी लेकर हमारी सुताई को तैयार होते तब हम पुराण परायण में रत दादाजी के पास हाथ जोड़ और आँख बंद कर पुराण सुनने बैठ जाते। दादाजी पुराण पर नज़र रखे दाहिने हाथ की तर्ज़नी से पिता जी को इशारा कर हमारे रक्षाकवच बन जाते। गर्मी की छुट्टियों में दादाजी की ऐनक चढ़ाकर धीरे-धीरे हम भी तीनों पुराण पढ़ गए। मकरसंक्रान्ति और कार्तिक पूर्णिमा को दादाजी की छकड़ा गाड़ी में नर्मदा के पामली, रेवा बनखेड़ी और सांगाखेड़ा घाट जाते समय सोचा करते, नर्मदा आ कहाँ से रही है…………..और जा…….कहाँ रही है, इन पर्वतों के……..आगे क्या है। वही उत्सुकता हमें यायावर बना गई, यह घुमंतू क्षमता अंतिम यात्रा तक बनी रहे, यही अंतिम इच्छा है। इसी इच्छा से पैदल नर्मदा परिक्रमा द्वारा नर्मदा घाटी के अंदरूनी हिस्सों को देखकर लोकआस्था का मर्म महसूस करने की प्रेरणा विकसित हुई। अतः यह पुस्तक दादाजी दौलत राम पटवा को समर्पित है। पुस्तक की प्रूफ़-रीडिंग में हमारी नर्मदा परिक्रमा के साथी मेरे सगोत्रीय मुंशीलाल पाटकार एडवोकेट का सहयोग मिला है, वे धन्यवाद के पात्र हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा, भोपाल

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