सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 10 ☆ 

☆ अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा ☆

खान बहादुर अर्देशिर ईरानी (5 दिसंबर 1886 – 14 अक्टूबर 1969) शुरुआती भारतीय सिनेमा के मूक और ध्वनि युग में एक लेखक, निर्देशक, निर्माता, अभिनेता, फिल्म वितरक, फिल्म शोमैन और छायाकार थे। वे हिंदी, तेलुगु, अंग्रेजी, जर्मन, इंडोनेशियाई, फारसी, उर्दू और तमिल में फिल्में बनाने के लिए प्रसिद्ध थे। सफल उद्यमी होने के नाते उनके पास फिल्म थियेटर, एक ग्रामोफोन एजेंसी और एक कार सेल्स एजेंसी थी।

अर्देशिर ईरानी का जन्म बॉम्बे प्रेसीडेंसी के पूना नगर में 5 दिसंबर 1886 को एक पारसी परिवार में हुआ था। वे 1905 में ईरानी यूनिवर्सल स्टूडियोज के भारतीय प्रतिनिधि बन गए और उन्होंने बंबई में “अलेक्जेंडर सिनेमा” को अब्दुल एस्सोल्ली के साथ चालीस साल तक चलाया। अर्देशिर ईरानी ने अलेक्जेंडर सिनेमा में फिल्म निर्माण की कला के नियमों को सीखा और फ़िल्म माध्यम पर मोहित होकर पूरे जीवन फ़िल्म व्यवसाय को समर्पित रहे।  ईरानी ने 1917 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करके 1920 में अपनी पहली मूक फीचर फिल्म, नल-दमयंती का निर्माण किया।

उन्होंने 1922 में दादासाहेब फाल्के के “हिंदुस्तान फिल्म्स” के पूर्व प्रबंधक भोगीलाल दवे से जुड़कर “स्टार फिल्म्स” की स्थापना की। उनकी दूसरी मूक फीचर फिल्म “वीर अभिमन्यु” 1922 में रिलीज़ हुई न्यूयॉर्क स्कूल ऑफ फोटोग्राफी के स्नातक दवे ने फिल्मों की शूटिंग की, जबकि ईरानी ने उन्हें निर्देशित और निर्मित किया। ईरानी और दवे की साझेदारी में स्टार फिल्म्स ने सत्रह फिल्मों का निर्माण किया।

ईरानी ने 1924 में दो प्रतिभाशाली युवा बी.पी. मिश्रा और नवल गांधी को साथ लेकर “राजसी फ़िल्मस” की स्थापना की।  “राजसी फ़िल्मस” ने पंद्रह फिल्मों का निर्माण किया। इतनी सफलता के बावजूद राजसी फ़िल्मस बंद हो गईं।  उन्होंने “रॉयल आर्ट स्टूडियो” स्थापित किया हालांकि, वह एक निश्चित प्रकार की रोमांटिक फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हो गया। ईरानी ने नई प्रतिभाओं का उपयोग करके फ़िल्म निर्माण तकनीक में सुधार किया।

ईरानी ने 1925 में “इम्पीरियल फिल्म्स” की स्थापना करके बासठ फिल्में बनाईं। ईरानी चालीस साल की उम्र तक भारतीय सिनेमा के एक स्थापित फिल्म निर्माता थे। अर्देशिर ईरानी 14 मार्च 1931 को अपनी सवाक् याने साउंड फीचर फिल्म “आलम आरा” की रिलीज के साथ टॉकी फिल्मों के जनक बन गए। उनके द्वारा निर्मित कई फिल्में बाद में उन्ही कलाकारों और दल के साथ टॉकी फिल्मों में बनाई गईं। उन्हें पहली भारतीय अंग्रेजी फीचर फिल्म नूरजहाँ (1931) बनाने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म किसान कन्या (1937) बनाई। उनका योगदान सिर्फ़ मूक सिनेमा को आवाज़ देने और श्वेत-श्याम फ़िल्मों को रंग देने से नहीं ख़त्म होता। उन्होंने भारत में फिल्म निर्माण के लिए एक नया साहसी दृष्टिकोण अपनाया और फिल्मों में कहानियों के लिए इस तरह की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान की जिन पर आज तक फिल्में बनाई जा रही हैं।

ईरानी ने 1933 में पहली फारसी टॉकी, “दोख्तर-ए-लोर” का निर्माण और निर्देशन किया। पटकथा अब्दोलहोसिन सेपांता ने लिखी थी, जिन्होंने स्थानीय पारसी समुदाय के सदस्यों के साथ फिल्म में अभिनय भी किया था।

ईरानी की इंपीरियल फिल्म्स ने भारतीय सिनेमा में कई नए कलाकारों को पेश किया, जिनमें पृथ्वीराज कपूर और महबूब खान उल्लेखनीय थे। उन्होंने तेलुगु में गाने के साथ आलम आरा के सेट पर तमिल में कालिदास का निर्माण किया। इसके अलावा ईरानी ने साउंड रिकॉर्डिंग का अध्ययन करने के लिए पंद्रह दिनों के लिए लंदन, इंग्लैंड का दौरा किया और इस ज्ञान के आधार पर आलम आरा की आवाज़ को रिकॉर्ड किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने अनजाने में एक नया चलन बनाया। उन दिनों रिफ्लेक्टर की मदद से सूरज की रोशनी में आउटडोर शूटिंग की जाती थी। जिसमें बाहरी अवांछनीय आवाज़ें उन्हें बहुत परेशान कर रही थीं। उन्होंने स्टूडियो में भारी रोशनी करके पूरे सीक्वेंस को शूट किया। इस प्रकार उन्होंने कृत्रिम प्रकाश के तहत शूटिंग की प्रवृत्ति शुरू की।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच ईरानी ने पच्चीस वर्षों के लंबे और शानदार कैरियर में एक सौ अट्ठाईस फिल्में बनाईं। उन्होंने 1945 में अपनी आखिरी फिल्म पुजारी बनाई। ईरानी को दादासाहेब फाल्के की तरह जीविका ने मजबूर नहीं किया था इसलिए उन्होंने महसूस किया कि युद्धकाल पश्चात फिल्म व्यवसाय के लिए उपयुक्त नहीं था और इसलिए उन्होंने उस दौरान अपने फिल्म व्यवसाय को निलंबित कर दिया। 14 अक्टूबर 1969 को मुंबई, में तिरासी साल की उम्र में उनका निधन हो गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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