श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-5 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

गोरखा शासन काल में एक ओर शासन संबंधी अनेक कार्य किए गए, वहीं दूसरी ओर जनता पर अत्याचार भी खूब किए गए। गोरखा राजा बहुत कठोर स्वभाव के होते थे तथा साधारण-सी बात पर किसी को भी मरवा देते थे। इसके बावजूद चन्द राजाओं की तरह ये भी धार्मिक थे। गाय, ब्राह्मण का इनके शासन में विशेष सम्मान था। दान व यज्ञ जैसे कर्मकांडों पर विश्वास के कारण इनके समय कर्मकांडों को भी बढ़ावा मिला। जनता पर नित नए कर लगाना, सैनिकों को गुलाम बनाना, कुली प्रथा, बेगार इनके अत्याचार थे। ट्रेल ने लिखा है- ‘गोरखा राज्य के समय बड़ी विचित्र राज-आज्ञाएँ प्रचलित की जाती थीं, जिनको तोड़ने पर धन दंड देना पड़ता था। गढ़वाल में एक हुक्म जारी हुआ था कि कोई औरत छत पर न चढ़े। गोरखों के सैनिकों जैसे स्वभाव के कारण कहा जा सकता है कि इस काल में कुमाऊँ पर सैनिक शासन रहा। ये अपनी नृशंसता व अत्याचारी स्वभाव के लिए जाने जाते थे।

अवध के क्षेत्रों में गोरखाओं के हस्तक्षेप के बाद, अवध के नवाब ने अंग्रेजों से  मदद मांगी, इस प्रकार 1814 के एंग्लो-नेपाली युद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ। कर्नल निकोलस के अधीन ब्रिटिश सेना, लगभग पैंतालीस सौ पुरुषों और छह पॉन्डर गन से मिलकर, काशीपुर के माध्यम से कुमाऊं में प्रवेश किया और 26 अप्रैल 1815 को अल्मोड़ा पर विजय प्राप्त की। उसी दिन गोरखा प्रमुखों में से एक, चंद्र बहादुर शाह ने युद्धविराम का झंडा भेज शत्रुता को समाप्त करने का अनुरोध किया। अगले दिन एक वार्ता हुई, जिसके तहत गोरखा सभी गढ़वाले स्थानों को छोड़ने के लिए सहमत हो गए। 1816 में नेपाल द्वारा सुगौली की संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ युद्ध समाप्त हो गया, जिसके तहत कुमाऊं आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश क्षेत्र बन गया।

इस क्षेत्र को अंग्रेजों द्वारा कब्जा कर लिया गया था। कुमाऊं क्षेत्र को गैर-विनियमन प्रणाली पर एक मुख्य आयुक्त के रूप में गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी हिस्से के साथ जोड़ा गया, जिसे कुमाऊं प्रांत भी कहा जाता है। यह सत्तर वर्षों तक तीन प्रशासकों, मिस्टर ट्रेल, मिस्टर जे.एच. बैटन और सर हेनरी रामसे द्वारा शासित था।

कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ। कुमाऊंनी लोग विशेष रूप से चंपावत जिला 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान कालू सिंह महारा जैसे सदस्यों के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में उठे। 1891 में यह विभाजन कुमाऊं, गढ़वाल और तराई के तीन जिलों से बना था; लेकिन कुमाऊं और तराई के दो जिलों को बाद में पुनर्वितरित किया गया और उनके मुख्यालय नैनीताल और अल्मोड़ा के नाम पर रखा गया।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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