श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है  पितृदिवस  पर आपकी एक संवेदनशील लघुकथा  – “मुक्ति”)

☆ कथा-कहानी ☆ पितृ दिवस विशेष – लघुकथा – “मुक्ति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

(पिता हर साल बूढ़े होते हैं, पुराने नहीं। आज फादर्स डे पर, सभी के पिताओं प्रणाम करते हुए,  एक बूढ़ी-सी विवश लघुकथा)

दो दिन पहले एक भीषण दुर्घटना हो गई। मौसम की पहली तेज मूसलाधार बारिश से नदी के पुल का एक हिस्सा टूट चुका था और आती हुई पैसिंजर ट्रेन की तीन बोगी नदी में गिरकर डूब चुकी थीं। चारों ओर हाहाकार मचा था। लाशें निकाली जा रही थी। फिर भी आशंका थी कि कुछ लाशें अब भी नदी में बहकर चली गई होंगी। राहत अधिकारी ने घोषणा की -” नदी में से लाश ढूँढकर लानेवाले को एक हजार रुपए मिलेंगे। “

राहत शिविर से तीन-चार मील दूरी पर एक झोंपड़ी के सामने दो भाई उदास बैठे थे। तीन दिनों से उनके पेट में अन्न का दाना तक नहीं गया था। उस पर बूढ़ा बाप चल बसा। बूढ़ा मरने से पहले बड़बड़ाता रहा था – “अरे, मेरी दवा-दारू नहीं की तो नहीं की, पर मेरी मिट्टी जरूर सुधार देना। मुझे दफनाना नहीं, अग्निमाता के हवाले कर देना, वरना मुझे मुक्ति नहीं मिलेंगी।”

“कहाँ से करें अग्निमाता के हवाले ! घर में चूल्हा जलाने को पैसे नहीं है। लाश जलाने को कहाँ से आएँगे पैसे?” एक भाई बोला।

“हम कितने गरीब और बदनसीब हैं, अपने बाप की आखिरी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकेंगे। लाश को सुबह दफनाना ही होगा।” रोता हुआ दूसरा भाई बोला। दोनों भाई सिर झुकाए रो रहे थे। बारिश हो रही थी।

अचानक उनकी आँखें चमक-सी उठीं। उन्होंने झट लाश को झोंपड़े से निकालकर खुले में रख दिया। रातभर लाश भीगती रही। तड़के ही दोनों ने लाश को उठाया और नदी के किनारे होते-होते राहत शिविर में पहुँचे। राहत अधिकारी से बोले – ” हुजूर, ये लाश नदी से  लाए हैं। ट्रेन के किसी मुसाफिर की होगी। किसी हिन्दू की लगती हैं साहब, इसके गले में जनेऊ है।” एक भाई बोला।

“और साब! इसके चोटी भी है।” दूसरा बोला।

अधिकारी ने कुछ सतही सवाल पूछे और अपने कर्मचारी से कहा – “इन्हें हजार रूपए दे दो और लाश को उधर रख दो, हिन्दूवाली लाशों के साथ। कोई लेने आया तो ठीक, वरना परसों लावारिस समझकर सामुहिक जला देना। बाकी लाशें दफन कर देना।”

दो दिन बाद दोनों भाई दूर से अपने पिता की लाश को अग्निमाता के हवाले होते देख अपने बाबा को याद करते रो रहे थे। बाबा बड़ा धार्मिक आदमी था। शुभ दिन मरा, अपनी मिट्टी खुद ही सुधार गया। खुद भी मुक्त हुआ और जाते-जाते भी हमें  कुछ देकर ही गया।

(इन जाहिल-गंवारों को भला क्या पता, कि उस दिन इत्तेफाक से आज ‘फादर्स डे’  भी था।)

***

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments