व्यंग्य उपन्यास – जॉब बची सों……  – डॉ. सुरेश कान्त 

 

पुस्तक समीक्षा
 
जॉब  बची सो…. नहीं, व्यंग्य बची सो कहो…!
(महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी  ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। व्यंग्य उपन्यास “जॉब बची सो…..” की मनोवैज्ञानिक समीक्षा श्री एम. एम. चंद्रा  जी (सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार) की पैनी दृष्टि एवं कलम ही कर सकती है।)
डॉ. सुरेश कान्त जी को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम  व्यंग्य उपन्यास के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।        
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सुरेश कान्त के नवीनतम उपन्यास “जॉब  बची सो” मुझे अपनी बात कहने के लिए बाध्य कर रही है। मुझे लगता है कि “किसी रचना का सबसे सफल कार्य यही है कि वह बड़े पैमाने पर पाठकों की दबी हुयी चेतना को जगा दे, उनकी खामोशी को स्वर दे और उनकी संवेदनाओं को विस्तार दे।”
बात सिर्फ यहाँ तक ही सीमित नहीं है। यह उपन्यास ऐसे समय में आया है, जब व्यंग्य साहित्य में व्यंग्य-उपन्यास के ‘होने और न होने’ को लेकर बहुत तकरार है, जो अब भी बरक़रार है। तकरार इतनी बढ़ चुकी है कि रागदरबारी को व्यंग्य-उपन्यास के रूप में अंतिम मानक के रूप में मान लिया गया है। यह अलग बात है कि स्वयं श्रीलाल शुक्ल ने भी रागदरबारी को कभी भी व्यंग्य-उपन्यास नहीं कहा। साहित्य जगत में लिखित और मौखिक रूप से रागदरबारी के बारे में बहुत से आख्यान हैं।
रागदरबारी का यहाँ जिक्र सिर्फ इसलिए किया है कि व्यंग्य साहित्य में व्यंग्य-उपन्यास के मानक के रूप में, अधिकतर लेखकों में यही एक मात्र मानक पुस्तक है। हकीकत यह भी है कि मुख्यधारा के आलोचकों ने भी इस विषय पर ज्यादा काम नहीं किया है। व्यंग्य-उपन्यास का विमर्श सिर्फ व्यंग्य क्षेत्र में ही है। साहित्य की दुनिया में यह लड़ाई अभी शुरू नहीं हुयी है।
सुरेश कान्त ने उपन्यास “जाब बची सो” के बारे में साहस पूर्वक लिखा है कि यह व्यंग्य-उपन्यास है। यह साहस तब ज्यादा मायने रखता है जब व्यंग्य के छोटे-बड़े लेखक, अपने उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास लिखने से कतराते हैं। इसके पीछे कितने सच, मठ, पथ हमारे दौर में गूंज रहे हैं। इसका अंदाजा सुधि पाठक अच्छी तरह से जानते है.
सुरेश कान्त ने साहस के साथ अपने उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास तब घोषित किया जब व्यंग्य क्षेत्र में एक प्रश्न उभरकर सामने आया- “व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उपन्यास में कितने प्रतिशत व्यंग्य होना जरुरी है?” व्यंग्य साहित्य में बहुत-सी बातें सामने आयीं। किसी ने ३० प्रतिशत तो किसी ने ५० और किसी ने ६० प्रतिशत व्यंग्य आने पर व्यंग्य उपन्यास का मानक बना लिया. लेकिन व्यंग्य-उपन्यास के सैद्धान्तिक
मानक सामने नहीं आये। मतलब यही कि अभी तक जितने भी मानक सामने आये, वो व्यक्तिगत समझ के अनुसार बना लिए गये।
मतलब कि पाठक के सामने “जाब बची सो” का मूल्यांकन करने का जो आधार बचा है- वो या तो व्यक्तिगत है या सुरेश कान्त के व्यंग्य-उपन्यास सिद्धांत। “जाब बची सो” को अपनी ही मानक-कसौटी पर खरा उतरना है। और उन्होंने व्यंग्य-उपन्यास की जो शर्त रखी है वो व्यंग्य उपन्यास का शत प्रतिशत होना तय किया है।

तो आईये सबसे पहले हम सुरेश कान्त की व्यंग्य-उपन्यास सम्बन्धी मान्यताओं को एक सरसरी नजर से देख ले- “इसे असल में यों देखना चाहिए कि जब किसी रचना की जान व्यंग्य रूपी तोते में पड़ी होती है, यानी वह किसी भी अन्य तत्त्व के बजाय केवल व्यंग्य से पहचानी जाती है, तो वह रचना व्यंग्य होती है। और जिस रचना की जान केवल व्यंग्य में नहीं होती, जैसा कि कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि में पाए जाने वाले व्यंग्य में होता है, जहाँ रचना का प्राण व्यंग्य के साथ-साथ कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि भी होते हैं, तो वह रचना व्यंग्य-कविता, व्यंग्य-कहानी, व्यंग्य-नाटक, व्यंग्य-उपन्यास आदि होती है। व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य और उपन्यास दोनों का संतुलन साधना एक लगभग असाध्य साधना है और उसका कारण स्वयं व्यंग्य का स्वरूप है।”

मेरे विचार से व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य प्रमुख है, इसीलिए उसे व्यंग्य-उपन्यास कहा जाता है, और उसमें व्यंग्य की साधना ही व्यंग्यकार का पहला लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन व्यंग्य-उपन्यास, न कि केवल व्यंग्य, कहलाने के लिए उसका उपन्यास होना भी जरूरी है, भले ही कुछ शिथिल रूप में ही सही। शिथिल रूप में इसलिए कहा, क्योंकि व्यंग्य उसे कॉम्पैक्ट रहने नहीं देता।
व्यंग्य-उपन्यास असल में ‘उपन्यास में व्यंग्य’ होता है। वह न तो केवल व्यंग्य होता है, न केवल उपन्यास। वह दोनों होता है, दोनों का संयुक्त रूप होता है।  व्यंग्य-उपन्यास में व्यंग्य को उपन्यास की ताकत मिल जाती है, उपन्यास को व्यंग्य की खूबी, लेकिन उसके लिए व्यंग्य को थोड़ा उपन्यास के अनुशासन में बँधना होता है, तो उपन्यास को व्यंग्य के लिए कुछ शिथिल होना होता है। तब कहीं जाकर वह व्यंग्य-उपन्यास बन पाता है। औपन्यासिक ढाँचे में रंग व्यंग्य की कूची से भरे जाते हैं।
मुझे लगता है, ‘जाब बची सो’ की बनावट और बुनावट व्यंग्य-उपन्यास के तौर पर एक सफल प्रयोग है. अन्य किसी उपन्यास से इसकी लाख तुलना करें लेकिन तुलनात्मक अध्ययन से आप किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे। इसका एक मात्र कारण है- इस दौर की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना में जमीन आसमान का अंतर। यह उपन्यास एक ख़ास सामाजिक सरचना (मल्टीनेशनल कम्पनियों की कार्य प्रणाली) का प्रतिनिधित्व करता है। जिसमे मल्टीनेशनल कम्पनी के अंदर होने वाली उठा-पठक को व्यंग्यात्मक रूप में रेखांकित किया गया है।
सामाजिक मान्यता के अनुसार समाज का सबसे ऊपरी ढांचा, सबसे पहले परिवर्तित होता है वह परिवर्तन रिस रिस-कर नीचे की तरफ आता है। यह उपन्यास उस ऊपरी ढांचे के खोखले, अवसरवादी मध्यम वर्ग को आपनी रडार पर रखता है. सही मायने में देखा जाये तो यह उपन्यास बताता है कि रुग्ण पूंजीवाद, समाज के उपरी तबके को कैसे बीमार बनाता है? कैसे समाज का एक बड़ा हिस्सा इस बीमारी का शिकार हो जाता है? आज रुग्ण पूंजीवादी व्यक्तिगत स्वार्थ की बीमारी वैशिक समाज अभिन्न अंग बन चुकी है। भारतीय सामज भी इसी बीमारी का शिकार हुआ, जिसका लेखा झोखा यह उपन्यास करता है.
उपन्यास की शुरुआत ही एक ऐसे सामन्ती और तानाशाही प्रवृति को रेखांकित करता है. जिसे अपने अलावा किसी और व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार नहीं है. ऐसे लोग सीधे तौर पर सामने वाले व्यक्ति के अस्तित्व को नकार तो नहीं सकते लेकिन उनके सम्भोधन से आप  भली भाति परिचित हो सकते है- “अधिकारी अधिनिस्थो को न केवल उनके नाम से ही बुलाते है ,बल्कि ऐसा करते हुए उसे अपनी क्षमता अनुसार थोडा बहुत बिगाड़ भी देते हैं. इसके पीछे यह सोच काम करती की इससे अधिनिस्थों को अपनी औकात के अधीन स्थित रहने  में मदद मिलती है.”
इस प्रकार की मानसिकता अधिकतर उन लोगों में पायी जाती है जिन्हें किसी मुकाम पर पहुचने का भ्रम हुआ हो। यह प्रवृति खासकर अपने अधिनिस्थ सहयोगी, साहित्यकारों में भी देखी जा सकती है। जहाँ कुछ लोग अपने सहयोगियों, अपने संगी-साथी को उसके मूल नाम से, जो उसकी पहचान, जिस नाम के कारण वह इस दुनिया में पहचाना जाता है। वह नाम व्यक्तिगत या सार्वजनिक रूप में नहीं लेते बल्कि उसका गलत नाम लेते है और उसके अस्तित्व को किसी न किसी बहाने बहिष्कृत करते है। बिना गाली पुकारे जाने वाले ये नाम अपमान के सिवा कुछ नहीं। यह हमारे नये दौर की सच्चाई है। जिसे  मनोविज्ञानक रूप में ही नहीं बल्कि उसके आर्थिक आधार को भी लेखक ने बहुत बारीकी से रेखांकित किया है।
उपन्यास की कहानी बहुत सरल है लेकिन एक रेखीय नहीं। उसमे कई लेयर है जिसे पाठको की सामाजिक राजनीतिक चेतना से गुजरना है। कहानी एचआर और मह्नेद्र के संवादों से शुरू होती है कि कम्पनी का एक व्यक्ति बिना एचआर के प्रमोशन कैसे पा लिया? एचआर उसी का पता लगाने के लिए अपने अधीनस्थ महेंद्र को लगाया जाता है। और महेंद्र प्रमोशन पाए संतोष से पूरी बात उगलवाने में लग जाता है। और पूरी कहानी बेकग्राउण्ड में चलती रहती है। संतोष अपनी प्रमोशन की कहानी सुनाता है, असल में यह कहानी प्रमोशन की नहीं बल्कि संतोष द्वारा अपनी नौकरी बचाने की कहानी साबित होती है। इस बीच में जो छोटी-छोटी समानंतर कहानियां चलती है। जो उपन्यास को गति प्रदान करती है.
संतोष का प्रमोशन कैसे हुआ इस बात को जानने के लिए बॉस एक आफ साईट मीटिंग शहर से बहार करता है, वही महेंद्र ने संतोष से बात उगलवानी शुरू की। संतोष उस सोमवार की घटना से अपनी बात शुरू करता है, जो किसी के लिए भी सामान्य सोमवार नहीं होता। यहाँ से लेखक मुखर व्यंग्यकार के रूप में सामने आता है। यहाँ लेखक सोमवार पर ही पूरा विश्लेषणात्मक व्याख्यात्मक शैली अपनाता है- “अगर रविवार को रामरस की तरह सोम रस पी लिया ,तो कबीर की तरह ‘पिबत सोमरस चढ़ी खुमारी’ वाला हाल होना लाजमी है.”
आज कोई ऐसी बड़ी कम्पनी नहीं जो हर तरह के सच, अपने कर्मचारियों को नहीं बताती, बल्कि यहाँ तक बताई जाती है कि कैसे अपने ख़राब प्रोडक्ट को ही बेहतर प्रोडक्ट बताया जाये। उसके लिए चाहे कोई भी नियम कानून दाव पर लगाना पड़े। आज बाजार ने हर चीज को माल के रूप में बदल दिया है। सिर्फ प्रोडक्ट ही माल नहीं है बल्कि उसे बेचने की तरकीबे और नैतिक-अनैतिक मोटिवेशनल किताबी ज्ञान भी आज बिकाऊ माल बन गया है। बॉस कांफ्रेंस के जरिये पूरे स्टाफ से कहता है- “हमारी कम्पनी पर अनैतिक व्यवसायिक प्रथाएं अपनाने का आरोप है, हम बाजार पर कब्ज़ा ज़माने और प्रतिस्पर्धा  में आगे निकलने के लिए, पुराने माल को नया माल बनाकर भारी छूट पर बेच रहे हैं । यह सच है लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। जबकि पिछली बार नेताओं के साथ मिलीभगत कर आयात नियमों का दोहन करने का आरोप लगा था। वे कल कहेंगे कि हम अंतर्राष्ट्रीय एजेंट है। घरेलू अर्थव्यवस्था को चौपट करने लगे है।”
यदि कम्पनी को किसी दवाब के कारण कार्यवाही करनी भी पड़ी, ऐसी स्थिति में भी कम्पनी को ज्यादा फायदा होता है। इस बहाने कम्पनी कुछ लोगों को नौकरी से निकाल देती है और दूसरे कर्मचारियों को आगाह कर देती है यदि किसी को नौकरी नहीं गवानी तो कोई ऐसा तरीका निकालों ताकि कम्पनी की प्रगति हो सके। यहीं से कर्मचारी अपनी नौकरी बचाने के लिए वह सभी कार्य करते हैं जो उसके लिए जरुरी नहीं होता। उपन्यास बेरोजगार होने के भय को दिखाता है कि कैसे कर्मचारी अपनी नौकरी बचाने के लिए क्या से क्या नहीं करता।
बेरोजगारी का भय सिर्फ नौकरी करते हुए ही  नहीं दिखाया जाता बल्कि यह नौकरी पर रखने से पहले भी कम्पनी के लिए प्रगति प्रोजेक्ट माँगा जाता है कि आप कम्पनी की प्रगति में अपनी उपयोगिता कैसे सिद्द करेंगे?
मतलब भर्ती-छंटनी, त्याग, नेतिक-अनेतिक सब कुछ कार्पोरेट सेक्टर और उनके मुनाफे का एक अभिन्न अंग है जिससे कोई भी बच नहीं सकता। कम्पनी में इन सब का एक ही कार्य है कि कम्पनी का लाभांश कैसे बढेगा? जो इस योजना में फिट है वही आदमी कम्पनी के लिए हिट है।
संतोष जैसा मध्यम वर्गीय आदमी जो चालीस हजार का फ़ोन रखता है. वह भी अपनी नौकरी को बचाने के लिए क्या नहीं करता. मतलब, मरता क्या न करता।
यही वो समय या जगह है जब लेखक के वैचारिक पक्ष और रचना के लेयर को समझा जा सकता है। लेकिन जो जो यह नहीं समझ पाएंगे. वैचारिक कम बेचारिक नजर आयेंगे। मोदीखाना इस उपन्यास की धड़कन है। जिसे वैचारिक रूप से व्यंग्यात्मक, उलटबासी विश्लेषणात्मक शैली में कलात्मक तरीके से प्रयोग किया है।
एक मध्यम वर्गीय आदमी के लिए बेरोजगारी का डर क्या होता है? इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। कम्पनी कैसे इस डर को बरकरार रखती है? पाठक को  यह भी समझ  में आ जायेगा कि कम्पनी डर पर रिसर्च करती है। ताकि डर का रचनातमक प्रयोग कर सके. उपन्यास  यह समझने में भी पाठक की मदद करता है कि कम्पनी आदमी की संवेदनाओ को कैसे और क्यों खत्म करती है? उसका एक ही जवाब है- मुनाफा।
जब संतोष अपनी नौकरी बचाने के लिए एक स्मार्ट फोन लांच करने की योजना अपने बॉस को बताई तब  बॉस उसके प्रोजेक्ट को मास्टर स्ट्रोक मानकर उस पर काम करने के लिए कहता है। यहाँ तक यह समझ में आने लगता है कि कैसे बॉस अपने अधीनस्थ कर्मचारी के प्रोजेक्ट का प्रयोग अपने हित में करता है। कैसे विदेशी टूर को घरेलु टूर बना लेता है? कैसे दूसरे की मेहनत को अपने नाम कर लेता है? जब सारा काम हो गया तब, कैसे निर्लज्जता से अपने स्टाफ के सामने अपने अधीनस्थ को अपमानित करता है।
बॉस यह भी सबक सिखा देता है कि “कर्मचारी की ताकत उच्चाधिकारी की च्वाइस के साथ अपनी च्वाइस का मेल करने में ही होती है।”  और तब संतोष को गीता का असली ज्ञान  समझ आया जब बॉस कहता है- “कम्पनी अमूर्त सत्ता है, वह सबकी है, और किसी की भी नहीं या किसी की है सबकी नहीं.”
उपन्यास यहाँ एक नवीन सूत्र को समझने में पाठको की मदद करता है कि आज के दौर में तमाम कर्मचारियों को जो गीता, रामायण के उपदेश दिए जाते है. वह मानव बनाने के लिए नहीं बल्कि कम्पनी का मुनाफा कमाने के लिए दिए जाते है। आज सिर्फ विदेशी मोटिवेशनल किताबे ही नहीं बल्कि भारत के धार्मिक पुस्तके भी सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए पुनः डिजाइन की जा रही है। जैसे महाभारत के मेनेजमेंट मन्त्र, गीता, राम या चाणक्य के सफलता पाने वाले मन्त्र इत्यादि। ये सब धार्मिक पुस्तके मुनाफाखोर कम्पनियों  के लिए सहायक हो गयी है. बेचारा कर्मचारी भय के मारे  सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सकता.  बल्कि संतोष का बॉस कम्पनी प्रगति के लिए गीता ज्ञान पेलने के बाद, आपना सारा काम संतोष के हवाले कर देता है.
संतोष ने सर्फ अपना ही काम नहीं किया बल्कि आपने बॉस के लिए एक बढ़िया पीपीटी तैयार की। वह सब कुछ किया जिसे संतोष को नैतिक रूप से मंजूर नहीं था. लेकिन बदले में उसे क्या मिला? जब फ़ाइनल मीटिंग हुई तब बॉस अपने काम को महान बना देता है. बेचारा संतोष देखता ही रह गया।
उपन्यास ने एक जगह खुलासा किया और बेस्ट सेलर जैसा आधुनिक महानतम शब्द का मुखोटा उतर गया. पाठक अचम्भित होता है जब संतोष का बॉस उससे कहता है – “अब आने वाले तीन साल का बिक्री आनुमान लगाकर लाओं।” जो अभी बिका नहीं, उसका अनुमान कैसा? संतोष परेशान लेकिन ऐसे समय पर संतोष के एक मित्र ने उसे टिप्स दिए- “तुम किसी बेस्ट सेलर वाली कम्पनी का डाटा कॉपी करो और अपने बॉस को दे मारो.” उसने भी यही किया।
उपन्यास आंकड़ो के मायाजाल से पाठक को सचेत करने में सफल हुआ है. कैसे आंकड़े बनाये जाते है. कैसे रिवव्यू  तैयार किये जाते है? कैसे फर्जी तरीके से बढ़ा-चढाकर प्रोडक्ट बेचे जाते है? कैसे कम्पनी ग्राहकों का डाटा अपने मुनाफे बढ़ने के लिए चोरी करते है? कैसे प्रोडक्ट को बेचने के लिए उसके ऐसे फीचर को हाईलाईट करे जाते है जो होते ही नहीं या जिनकी  ग्राहकों को जरूरत नहीं होती बल्कि उनको ऐसे फीचर बताये जाते है जो आदमी दिखावे और स्टेटस के लिए बहुत जरुरी हो।
यदि ग्राहकों  ने कम्पनी के खिलाफ शिकायत दर्ज भी की तब भी, बड़ा अधिकारी ऐसा चक्रव्यूह रचता है ताकि ग्राहकों पर  ठीकरा फोड़ा जा सके। आपने देखा होगा कि अभी  कुछ साल पहले  मोबाईल कंपनियों में ऐसा ही संघर्ष हुआ था। मामला कोर्ट तक भी पहुंचा  ग्राहकों ने कम्पनी पर ब्लेम किया और कम्पनी ने नेटवर्क कम्पनी को दोषी ठहरा दिया। “जब बची सो..” उपन्यास मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा ग्राहकों को बेवकूफ़ बनाने वाली तमाम साज़िशों का पर्दाफाश करता है. उपन्यास पूरी तरह से कार्पोरेट जगत के अंदर होने वाली ऐसी घटनाएँ दर्शाता है जो आज स्वभाविक नजर आती है। उनकी चालाकी, तीन तिकड़म सब कुछ,  बॉस या उसके अधीनस्थ कर्मचारियो के बीच की घटनाये नजर आती है. चाहे अपने निजी काम से छुट्टी पर जाना हो या जब बॉस को आपने अधीनस्थ का  टारगेट सेट करना  हो. टारगेट के सेट करते समय बॉस कितना चालाक धूर्त हो सकता इसका अंदाजा इस उपन्यास में देखने को मिला. बॉस ने संतोष को १०० प्रतिशत की जगह 200 प्रतिशत टारगेट दिया। और फिर एक मोटिवेशनल स्पीच से कर्मचारी को अनुत्तरित कर दिया- “चेलेंजिंग  काम ही तुम्हारा बेस्ट निकलवा सकता है। अपनी ताकत और अपनी क्षमता को पहचानो।” 
संतोष ने  टारगेट अचीव किया लेकिन बॉस फिर आपनी धूर्तता प्रकट करता है – “तुमने औसत कार्य किया है क्योंकि तुमने मेरे द्वारा दिये गये टारगेट को ही पूरा किया है। हाँ के सिवा संतोष के पास कुछ भी नहीं था.”
हाँ या बॉस से सहमति पर सुरेश कान्त का इतिहास बोध गहरा व्यंग्य करता है- “कार्पोरेट सेक्टर में पूंछ हिलाना वफ़ादारी का सबूत है- ज्यादा काम लेने से पूंछ लुप्त हो गयी। इसलिए आदमी की समझदारी और वफ़ादारी का प्रदर्शन  गर्दन हिलाकर करता है।”
बॉस कितना धूर्त हो सकता है इसका अंदाजा उसकी घृणात्मक  कार्यवाहियों से भी लगाया जा सकता है.  ये सब एक बड़ा अधिकारी किस लिए करता है. क्योंकि  कम्पनी के कर्मचारी संतुष्ट  नहीं हैं, क्योंकि उनका कोई पैसा नहीं बढ़ा। और  बॉस  एक समिति बनवाकर कर अज्ञात कर्मचारी संतुष्टि सर्वेक्षण अधिकारी नियुक्त करता ताकि तरह तरह के  प्रोग्राम इन्वेंट या  फार्म  भरवाकर कर्मचारयों के बारे में जानकारी जुटाता रहे। कितनी घिनोनी  चाले मल्टीनेशनल कम्पनियों चलती है, यह आम पाठक को शायद नहीं पता। शायद उन लोगो को भी नहीं पता जो वहां पर काम करते है। इसलिए लेखक कहता है – “प्यार, युद्ध और  कंपनियों  में सब कुछ जायज है।”
आप देखेंगे कि उपन्यास इस मामले में सफल रहा है कि कार्पोरेट सेक्टर कैसे जनता की आँखों में ही धूल नहीं झोकता बल्कि अपने कर्मचारियों को भी तरह-तरह से मूर्ख बना कर उनका चारा बनाती है। जनता के मनोविज्ञान का प्रयोग भी कम्पनिया अपने मुनाफे के लिए करती है।
बॉस बदल जाने से भी छोटे कर्मचारयों को कोई सुकून नहीं मिलता बल्कि संतोष जैसे आदमी के लिए नया बॉस भी जालिम है। नये बॉस कर्मचारियों को जल्दी बुलाने और देर से छोड़ने के, न जाने कितने रास्ते अपनाता है। मल्टीनेशनल कम्पनियों के बॉस शादी के लिए भी छुट्टी तक मंजूर नहीं करता बल्कि शादी की रात भी किसी न किसी बहाने काम की याद दिलाता रहता है।  एक समय ऐसा भी आया जब संतोष की जाब पर बन आयी लेकिन उसको प्रमोशन दे दिया गया। ताकि- “योग्य उमीदवार इस दिलासा में काम करता रहे कि जब अयोग्य को मिल सकता है तो हमे भी मिला सकता है।”
लेकिन कब तक?
मल्टीनेशनल कम्पनियों के इस तरह के घिनोने चेहरे को बेनकाब करने का काम इस उपन्यास ने किया है. लेखक मल्टीनेशनल कम्पनियों के इस बदरंग चेहरों को पाठकों के सामने लाने के लिए किसी भी प्रकार का समझोता नहीं किया. बल्कि अपनी विशेष व्यंग्यात्मक-विश्लेषणात्मक  शैली में जम कर प्रहार करता है.
इस उपन्यास का असली हीरों न तो संतोष है, न ही बास, न ही  कोई और अन्य पात्र। सिर्फ और सिर्फ लेखक ही इसके मुख्य पात्र है। जो व्यंग्य का तड़का लगाकर गाड़ी को पहाड़ी पर भी चढाने में सफल हुए है।
चूँकि मैंने पहले ही कहा था कि यह उपन्यास सिर्फ और सिर्फ सुरेश कान्त के व्यंग्य उपन्यास की मान्यताओं पर ही समझने की कोशिश की गयी है कि व्यंग्य-उपन्यास सौ प्रतिशत होना चाहिए. मैं इस उपन्यास को उनके ही माप दंड के अनुसार शत प्रतिशत व्यंग्य उपन्यास मानता हूँ।
यह उपन्यास उन लेखकों के लिए जरुरी है जो समझना चाहते है कि एक व्यंग्य उपन्यास में कितने तरीकों और माध्यमों से व्यंग्य उकेरा जा सकता है। उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है लेखक का बार-बार नेरेशन की भूमिका में आना है। यह शिल्प इस उपन्यास के शिल्प का अभिन्न अंग है। मेरे लिए यह बात भी महत्पूर्ण नहीं लगती क्योंकि नेरेशन के माध्यम से ही उपन्यास की व्यंग्यात्मक गति को रुकने नहीं देता। एक नया मुहावरा , लोकोक्तियों का प्रयोग, मीर, ग़ालिब, कबीर , दुष्यंत और न जाने कितने लोगो की रचनाओं का प्रयोग न जाने कितने तरीके से लेखक ने किया. जिन्होने न सिर्फ पात्र के चरित्र को गढ़ा है बल्कि अपने कथानक को मजबूत बनाया है। यह काम पात्र दर पात्र, कहानी दर कहानी और शब्द दर शब्द इस प्रकार चलता है जैसे नसों में खून चल रहा हो।

समीक्षक – एम. एम. चंद्रा  (सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार)

(साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर)
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