श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 108 ☆ संभावना के बीज ☆

सीताफल की पिछले कुछ दिनों से बाज़ार में भारी आवक है। सोसायटी की सीढ़ियाँ उतरते हुए देखता हूँ  कि बच्चे सीताफल खा रहे हैं। फल के बीज निकालकर करीने से एक तरफ़ रख रहे हैं। फिर सारे बीज एक साथ उठाकर डस्टबिन में डाल दिए। स्वच्छता और सामाजिक अनुशासन की दृष्टि से यह उचित भी है।

यहीं से चिंतन जन्मा। सोचने लगा, हर बीज के पेट में एक पौधा  है, पौधे का बीज फेंका जा रहा है। फ्लैट में रहने की विवशता कितना कुछ नष्ट कराती है।

सर्वाधिक दुखद होता है संभावनाओं का नष्ट होना। वस्तुत: संभावना की हत्या महा पाप है। हर संभावना को अवसर मिलना चाहिए। पनपना, न पनपना उसके प्रारब्ध और प्रयास पर निर्भर करता है।

चिंतन बीज से मनुष्य तक पहुँचा। सही ज़मीन न मिलने पर जैसे बीज विकसित नहीं हो पाता, कुछ उसी तरह अपने क्षेत्र में काम करने का अवसर न पाना, संभावना का नष्ट होना है। साँस लेने और जीने में अंतर है। अपनी लघुकथा ‘निश्चय’ के संदर्भ से बात आगे बढ़ाता हूँ। कथा कुछ यूँ है,

“उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं  दर्शक यहीं, पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।”

अँग्रेज़ी की एक कहावत है, ‘यू गेट लाइफ वन्स। लिव इट राइट। वन्स इज़ इनफ़।’ जीवन को सही जीना अर्थात अपनी संभावना को समझना, सहेजना और श्रमपूर्वक उस पर काम करना।

स्मरण रहे, आप जीवन के जिस भी मोड़ पर हों, जीने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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अलका अग्रवाल

मुश्किलों से जूझते हुए संभावनाओं के बीज तलाशना- प्रेरणादायक संदेश देती कथा।

वीनु जमुआर

संभावनाओं का संसार ऊर्जस्वित रहे, उत्साहित रहे, कर्मनिष्ठ रहे…???????