श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

संतोषी साहब परिवार सहित नगर में और अपनी अंतरात्मा सहित ब्रांच में स्थापित हो गये. मुख्य प्रबंधक जी के अस्नेह को उन्होंने भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकारा और अपने काम में लग गये. यहाँ काम का अर्थ, बैंक के कर्मवीरों की डिक्शनरी से अलग था. पर हर व्यक्ति की तरह उनमें कुछ दुर्लभ गुण भी विद्यमान थे जिससे शाखा के स्टाफ ने उन्हें बहुत तेजी से अंगीकार कर लिया. पहला गुण तो यही था कि उनका किसी से पंगा नहीं लेने का सिद्धांत था. दूसरा सहनशीलता में बैल भी उनसे पार नहीं पा सकता था. बैंकिंग के अलावा अन्य विषयों पर उनकी गजब की पकड़ थी और एक से बढ़कर एक रोचक किस्से उनके बस्ते में रहते थे जो शाम पांच बजे के बाद जब खुलता था तो उनके इर्दगिर्द सुनने वालों का मजमा लग ही जाता था, विशेषकर उस समय जब मुख्य प्रबंधक अपने कक्ष में उपस्थित नहीं होते थे.

बैंकिंग का यह काल प्राचीन स्वर्णिम काल था जब बैंक शाखाएँ टेक्नोलॉजी की जगह मानवीय संबंधों के आधार पर चला करतीं थीं. बिज़नेस के नाम पर कस्टमर्स की आवाजाही दोपहर तीन बज़े समाप्त हो जाती थी, स्टाफ अपने अपने ग्रुप में लंच के लिये प्रस्थान कर जाते थे. ये वो ज़माना था जब शाखाओं में चहल पहल भारत के समान होती थी और तकनीकी रूप से विकसित अमरीका जैसी निर्जनता सिर्फ रात्रि सात आठ बजे के बाद ही मिल पाती थी जब सिक्युरिटी गार्ड शाखा के सुरक्षा सिंहासन पर राज़ा के समान राज किया करते थे.

रिक्रिएशन हॉल जहाँ होते थे वो भी अविवाहित युवकों के कारण ज़रूर आठ बज़े तक हलचलायमान होते थे पर उसके बाद बैंक के ये भविष्य भी अपनी दिनभर की थकान उतारने का पूरा सामान लेकर महा-विशिष्ट डिनर के लिये उपयुक्त हॉटल में प्रस्थान कर जाते थे. हालांकि घुसपैठ यहाँ भी होती थी जब इन युवाओं के बीच पत्नी के अंशकालिक विरह से त्रस्त forced batchler भी शामिल हो जाते थे, इनमें कभी कभी संतोषी साहब भी हूआ करते थे जो सुरूर में मधुबाला, मीनाकुमारी और नर्गिस की प्रेमकथाओं के एक से बढ़कर एक रोमांचक और जादुई किस्से अपने बैग से निकालकर महफिल में परोसा करते थे, इससे महफिलें रंगीन हो जाती थीं और संतोषी साहब हरदिल अज़ीज़. लोग इन महफिलों में उन्हें प्यार से अंकल सैम बुलाते थे और इस संबोधन को बड़ी सहजता से स्वीकारा भी जाता था.

ये महफिलें बड़ी शानदार हुआ करतीं थी जहाँ हर विषय पर और हर स्टाफ के बारे में चटखारे ले लेकर किस्सागोई की जाती थी.कभी कभी इस किस्सागोई के नायक या असलियत में खलनायक, शाखा के मुख्य प्रबंधक भी हुआ करते थे जो स्वाभाविक रुप से इन महफिलों में सदा अनुपस्थित रहते थे. शाखा प्रबंधक के लिये खलनायक बनना कभी कठिन नहीं हुआ करता, कभी कभी दो चार दिन की छुट्टी नहीं देने से भी यह उपाधि मिल जाती है. बैंकिंग की ये रंगभरी दुनिया आज भी अपनी ओर यादों में खींच लेती है जब नौकरी भले ही दस से छह बजे की हो पर लोग बैंक की दुनियां में चौबीसों घंटे मगन रहा करते थे और “जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” गाया करते थे.

हमारे और आपके दिलों को भाती ये कथा जारी रहेगी, बस प्रोत्साहन की ऑक्सीजन देते रहिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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