डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मनन व आनंद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 131 ☆

☆ मनन व आनंद

‘मन का धर्म है मनन करना; मनन से ही उसे आनंद प्राप्त होता है और मनन में बाधा होने से उसे पीड़ा होती है’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह उक्ति विचारणीय है, चिंतनीय है, मननीय है। मन का स्वभाव है– सोच-समझ कर, शांत भाव से कार्य करना व ऊहापोह की स्थिति से ऊपर उठना। दूसरे शब्दों में हम इसे एकाग्रता की संज्ञा दे सकते हैं। चित की एकाग्रता आनंद-प्रदायिका है। उस स्थिति में मन अलौकिक आनंद की दशा में पहुंच जाता है तथा स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। यदि इस स्थिति में कोई विक्षेप होता है, तो उसे अत्यंत पीड़ा होती है और वह उस लौकिक जगत् में लौट आता है।

ग्लैडस्टन के मतानुसार ‘बहुत ही तथा बड़ी ग़लतियाँ किए बिना मनुष्य बड़ा व महान् नहीं बन सकता’– उक्त तथ्य को उद्घाटित करता है कि इंसान जीवन भर सीखता है तथा जो जितनी अधिक ग़लतियाँ करता है; उतना ही महान् बन जाता है। वास्तव में वही व्यक्ति सीख सकता है, जिसमें अहं भाव न हो; जो ज़मीन से जुड़ा हो; जिसके अंतर्मन में विद्या, विनय, विवेक व विनम्रता भाव संचित हों। वह सकारात्मक सोच का धनी हो और उसके हृदय में दया, माया, ममता, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता आदि दैवीय भावों का आग़ार हो। ऐसा व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकारने में तनिक भी संकोच व लज्जा का अनुभव नहीं करता, बल्कि भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प भी लेता है। सो! ऐसा व्यक्ति महान् बन सकता है।

‘दातापन, मीठी बोली, धैर्य व उचित का ज्ञान– यह चारों स्वाभाविक गुण हैं, जो अभ्यास से नहीं मिलते।’ चाणक्य की यह उक्ति मानव को आभास दिलाती है कि कुछ गुण प्रभु-प्रदत्त होते हैं तथा वे प्रतिभा के अंतर्गत आते हैं। लाख प्रयास करने पर भी व्यक्ति उन्हें अर्जित नहीं कर सकता। वे उसे पूर्वजन्म के कृत-कर्मों के एवज़ में प्राप्त होते हैं। कुछ गुण उसे पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं, जिसके लिए उसे परिश्रम नहीं करना पड़ता तथा वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में कबीरदास जी का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि निरंतर अभ्यास द्वारा मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसके द्वारा हम ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं, परंतु उससे स्वभाव में परिवर्तन आना संभव नहीं है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण मानव को मन-तुरंग को वश में करने की सीख देते हैं, क्योंकि मन बहुत चंचल है। वह पल भर में तीनों लोकों की यात्रा कर लौट आता है। सो! एकाग्रता व ध्यान के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। जैसे-जैसे हमारा चित एकाग्र होता जाता है, हमारी भौतिक इच्छाओं, आकांक्षाओं, तमन्नाओं व वासनाओं पर अंकुश लग जाता है और हम अनहद नाद की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। हमें शून्य में केवल घंटों की अलौकिक ध्वनि सुनाई पड़ती है। हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है; हम उससे बेखबर रहते हैं। वास्तव में यही मानव का अंतिम लक्ष्य है। मानव लख चौरासी के बंधनोंसे मुक्ति पाना चाहता है और कैवल्य- प्राप्ति ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह प्रवृत्ति मानव में चिन्तन-मनन से जाग्रत होती है। इस स्थिति में हमारा अंतर्मन अपरिग्रह की प्रवृत्ति में विश्वास करने लगता है और गुरू नानक की भांति तेरा-तेरा में विश्वास करने लगता है। परिणामत: हृदय में करुणा व विनम्रता जैसे दैवीय भाव संचित हो जाते हैं और वाणी-माधुर्य स्वयंमेव प्रकट होने लगता है; औचित्य- अनौचित्य का ज्ञान हो जाता है, जो हमें दूसरों से वैशिष्टय प्रदान करता है। उस स्थिति में हम मित्रता व शत्रुता के भाव से ऊपर उठ जाते हैं और केवल सत्कर्म करने लगते हैं।

भरोसा उस पर करो, जो तुम्हारी तीन बातें समझ सके–मुस्कुराहट के पीछे का दर्द, गुस्से के पीछे का प्यार व चुप रहने के पीछे की वजह। इनके माध्यम से मानव को हर इंसान पर भरोसा न करने की सीख दी जाती है, क्योंकि सच्चा साथी आपके हृदय की पीड़ा, करुणा व वेदना को अनुभव करता है तथा आपकी मुस्कुराहट के पीछे के दर्द को समझ जाता है। यदि आप उस पर क्रोधित भी होते हैं, तो वह उसमें निहित प्रेम की भावना को समझ जाता है, क्योंकि वह उस तथ्य से बखूबी अवगत होता है कि आप जो भी करेंगे; उसके हित में ही करेंगे तथा कभी भी उसका बुरा नहीं चाहेंगे। इतना ही नहीं, यदि आप किसी कारणवश मौन हो जाते हैं, तो वह उसकी वजह जानना चाहता है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी वह आपसे कभी दूरी नहीं बनाता, बल्कि चिंतन-मनन करता है तथा सच्चाई को जानने का प्रयास करता है। वास्तव में यही जीवन का सार व जीने का अंदाज़ है। मानव को कभी भी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए तथा अकारण क्रोधित होना भी कारग़र नहीं है। उसे सदैव शांत भाव से कारण जानने का प्रयास  करना चाहिए, ताकि समस्या का निदान संभव हो सके। सो! मानव को निर्णय लेने से पूर्व समस्या के दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि चिंतन-मनन करने से जीवन में ठहराव आता है और वह उपहास का पात्र नहीं बनता। उसके कदम कभी भी ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं होते। दूसरे शब्दों में यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें मैं और तुम व अपने-पराये का भाव समाप्त हो जाता है तथा ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की भावना प्रबल हो जाती है और सारा संसार उसे अपना कुटुंब नज़र आने लगता है। इसलिए हृदय में चिंतन-मनन की प्रवृत्ति को संपोषित व संग्रहीत करें, ताकि चहुंओर आनंद की वर्षा हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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