डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शेष या अवशेष। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 153 ☆

☆ शेष या अवशेष ☆

जो शेष बची है, उसे विशेष बनाइए, अन्यथा अवशेष तो होना ही है’,’ ओशो की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है, जिसमें जीवन-दर्शन निहित है और वह चिंतन करने को विवश करती है कि मानव को अपने शेष जीवन को विशेष बनाना चाहिए; व सार्थक एवं परार्थ काम करने चाहिएं। सार्थक कर्म से तात्पर्य यह है कि आप जो भी कार्य करें, उससे न तो अन्य की हानि न हो; न ही उसकी भावनाएं आहत हों और उसका आत्म-सम्मान भी सुरक्षित रहे। वास्तव में दोनों स्थितियाँ उस व्यक्ति के लिए घातक हैं–जिसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। सो! मानव को सदैव लफ़्ज़ों को चखकर बोलना चाहिए, क्योंकि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और मानव को उन शब्दों का प्रयोग तभी करना चाहिए; जब वे आपके लिए उचित व उपयोगी हों; वरना मौन रहना ही बेहतर है–गुलज़ार की यह सोच अत्यंत कारग़र है।

शब्द ब्रह्म है, अनश्वर है तथा उसका प्रभाव स्थायीयी है। आप द्वारा कहे गए शब्द किसी के जीवन में ज़हर घोल सकते हैं, बड़े-बड़े महायुद्धों का कारण बन सकते हैं और सहानुभूति के दो शब्द उसके जीवन की दिशा परिवर्तित कर सकते हैं। इतना ही नहीं, वे सागर के अथाह जल में डूबती-उतराती नैया को पार लगा सकते हैं;  निराश मन में आशा की किरण जगा सकते हैं और उसे ऊर्जस्वित करने की दिव्य शक्ति भी रखते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों के शब्दों के जादुई प्रभाव से कौन अवगत नहीं है। वे असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते थे। दूसरी ओर दुर्वासा, विश्वामित्र, परशुराम, गौतम ऋषि आदि के क्रोध भरे शब्द सृष्टि में तहलक़ा मचा देते थे, जिसका उदाहरण शापग्रस्त अहिल्या का वर्षों तक शिला रूप में अवस्थित रहना; परशुराम का अपनी माता का सिर तक काट डालना और दुर्वासा व विश्वामित्र ऋषि के क्रोध से सृष्टि का कंपित हो जाना सर्वविदित है।

सो! मानव को सदैव मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, जिसे सुनकर हृदय उल्लसित, आंदोलित व ऊर्जस्वित हो जाए और वह असंभव को संभव बनाने का साहस जुटा सके। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है मेरे ‘परिदृश्य चिंतन के’ आलेख–संग्रह का प्रथम आलेख ‘तुम कर सकते हो’ के असंख्य उदाहरणऐ हमारे समक्ष हैं। मानव में असीमित शक्तियों का भंडार है, जिनसे वह अवगत नहीं है। परंतु जब उसे अंतर्मन में संचित शक्तियों का एहसास दिलाया जाता है, तो वह पर्वतों का सीना भेद कर सड़क का निर्माण कर सकता है; उनसे टकरा सकता है तथा नेपोलियन की भांति आपदाओं को अवसर बना सकता है। इतना ही नहीं, वह आइंस्टीन की भांति सोचने लगता है कि ‘यदि लोग आपकी सहायता करने से इंकार करते हैं, तो निराश मत हो, बल्कि उन लोगों के शुक्रगुज़ार रहो, जिन्होंने आपकी सहायता से इंकार किया है और उनके कारण ही आप उनआप असंभव कार्यों को अंजाम दे सकेसके हैं, जो अकल्पनीय थेहैं।’

सो! जीवन में आत्मविश्वास के सहारे जीओ, यही तुम्हारी प्रेरणा है और यही है जीवन में शेष को विशेष बनाना। सृष्टि के हर उपादान से प्रेरित होकर निरंतर कर्मशील रहना, क्योंकि समय कभी थमता नहीं; निरंतर चलता रहता है और सृष्टि में समय व नियमानुसार परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि ‘सब दिन ना होत समान अर्थात् ‘जो आया है अवश्य जाएगा।” प्रत्येक स्थिति व परिस्थिति सदा रहने वाली नहीं है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए और जो बदला जा सके, बदलिए; जो बदला ना जा सके, स्वीकारिए और जो स्वीकारा न जा सके, उससे दूर हो जाइए; लेकिन ख़ुख़ुद को खुश रखिए, क्योंकि वह आपकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। बुद्धिमान सबसे सीख लेता है; शक्तिशाली इच्छाओं पर नियंत्रण करता है; सम्मानित दूसरों का सम्मान करता है और धनवान जो उसके पास है, उसमें प्रसन्न रहता है। मानव को आत्म-संतोषी होना चाहिए। जो उसे नहीं मिला; उसका शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि उन लोगों की ओर देखना चाहिए जो उससे भी वंचित हैं।

भाग्य कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है, उसे तो रोज़-रोज़ लिखना पड़ता है। मानव अपना भाग्य-विधाता स्वयं है। दृढ़-निश्चय व निरंतर परिश्रम करने से वह सब प्राप्त कर सकता है, जो उसे प्राप्तव्य नहीं है। मानव को भाग्यवादी व आलसी नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन में हर पल प्रभु का नाम स्मरण करना चाहिए। ”सुमिरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’ पंक्तियां मानव को सचेत करती हैं कि प्रभु का नाम-स्मरण ही जन्म-जन्मांतर तक साथ चलता है; शेष सब तो इस धरा का धरा पर ही धरा रह जाता है। राम नाम में असीम शक्ति होती है। इसलिए ही तो जिन पत्थरों पर राम नाम लिख कर सागर में डाला गया था, वे तैरते रहे थे और रामेश्वरम् का पुल बनकर तैयार हो गया था।

ऐसी स्थिति में मानव का परमात्मा से तादात्म्य हो जाना स्वाभाविक है और वह उसके चरणों में सर्वस्व समर्पित कर देता है। उसका अहं अर्थात् मैं का भाव, जो सर्वश्रेष्ठता का प्रतीक है, सदा के लिए विलीन हो जाता है। वह मौन को नवनिधि स्वीकार उसमें आनंद पाने लगता है। पंच-तत्वों से निर्मित मानव जीवन नश्वर है और अंत में इस शरीर को पंचतत्वों में ही विलीन हो जाना है। ‘यह किराए का मकाँ है/ जाने कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’  इंसान इस तथ्य से अवगत है किउसे संसार से उसे खाली हाथ लौटना है और एक तिनका भी उसके साथ नहीं जाएगा। यह दस्तूर-ए-दुनिया है और इस संसार में दिव्य खुशी पाने का सर्वोत्तम मार्ग है– प्रभु का सिमरन करना और यही है शेष को विशेष अथवा जीते-जी मुक्ति पाने का सर्वोत्तम मार्ग, जो मानव का अभीष्ठ है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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