डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सत्य की महिमा अपरम्पार ।   इस आलेख का  सार उनके वाक्य  “सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है”में ही निहित है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 44 ☆

☆ सत्य की महिमा अपरम्पार

 

‘जीवन में कभी भी अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो, क्योंकि समय के साथ सत्य सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है’… कितना गहन सत्य अथवा रहस्य छिपा है, इस तथ्य में… पूर्ण जीवन-दर्शन उजागर करता है यह वाक्य कि सत्य कठोर होता है, जिस पर कोई भी आसानी से विश्वास नहीं करता। सत्य, शिव व कल्याणकारी होता है, भले ही उसे सब के समक्ष प्रकट होने में समय लग जाए, परंतु एक दिन उस रहस्य की खबर सबको लग जाती है और वह किस्सा आम हो जाता है। इस स्थिति में वह लोगों को भ्रमित होने से बचा लेता है।

‘इसीलिए यह कहा जाता है कि जीवन में अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो’ क्योंकि यदि मानव अपने कृत-कर्म, भले ही वे सत्य हों, यथार्थ से पूर्ण हों, मंगलकारी हों…से दूसरों को अवगत कराता है, तो वह आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा व स्वयं का गुणगान कहलाता है। अक्सर ऐसे लोगों की आलोचना तो होती ही है और वे उपहास के पात्र भी बन जाते हैं। इस से भी अधिक घातक है, दूसरों की हक़ीक़त को बयान करना, जिसे लोग अहंनिष्ठता अथवा आलोचना की संज्ञा देते हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों में पर-निंदा से बचने का सार्थक संदेश दिया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है, कारग़र है। कबीरदास जी ने निंदक की महिमा को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छुवाय/ बिनु साबुन,पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।’ अर्थात् निंदक वह निर्भय व नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपना सारा सारा समय व शक्ति लगा कर, आपको आपके व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराता है…आईना दिखाता है…दोषों से अवगत कराता है और उसके सद्प्रयासों से मानव का स्वभाव साबुन व पानी के बिना ही निर्मल हो जाता है। धन्य हैं ऐसे लोग, जो अपनी उपेक्षा तथा दूसरों के मंगल की सर्वाधिक कामना करते हैं। उनका सारा ध्यान अपने हित पर नहीं, आपके दोषों पर केंद्रित होता है और वे आपको गलतियों व अवगुणों से अवगत करा, उचित राह पर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को सदैव निकट रखना चाहिए, क्योंकि वे  सदैव पर-हितार्थ, निष्काम सेवा में रत रहते  हैं।

कितना विरोधाभास है…दूसरे के दोषों का बखान करने का संदेश, जहां हमें चिंतन-मनन की प्रेरणा देता है; आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि पर-निंदा को मानव का सबसे बड़ा दोष व अवगुण स्वीकारा गया है। इससे मानव की संचित शक्ति व ऊर्जा का ह्रास होता है। सो! इस संदर्भ में हमें सिक्के के दोनों पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। प्रथम है…अपनी ईमानदारी व कृत-कर्मों का बखान करना…यह आत्म-प्रवंचना रूपी दोष कहलाता है। अक्सर लोग ऐसे पात्रों को उपहासास्पद समझ उनकी आलोचना करते हैं। परंतु यह कथन सर्वथा सत्य है कि यदि आपने कुछ ग़लत किया ही नहीं, फिर स्पष्टीकरण कैसा? सत्य तो देर-सवेर सामने आ ही जाता है। हां! इसकी समय- सीमा निर्धारित नहीं होती है।

सो! सत्य कभी भी उपेक्षित नहीं होता। उदाहरणतया स्नेह, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय भाव शाश्वत हैं… जो कल भी सत्य थे, उपास्य थे, मांगलिक थे, सर्वमान्य थे… आज भी हैं और कल भी रहेंगे। ये काल-सीमा से परे हैं। इसी प्रकार झूठ, हिंसा, मार-पीट, लूट-खसोट, फ़िरौती, पर-निंदा आदि भाव कल भी त्याज्य व निंदनीय थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। इससे सिद्ध होता है कि सत्य कालातीत है; सत्य की महिमा अपरंपार है और सत्य सदैव शक्तिशाली है। इसलिए हम कहते हैं, ‘सत्यमेव जयते’ कि ‘सत्य शिव है, सुंदर है, मंगलकारी है और संसार में सदैव विजयी होता है। वह कभी भी उपेक्षित नहीं होता और सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है।’ इसे स्वीकारने- साधने की शक्तियां, जिस शख्स में भी होती हैं, वह सदैव अप्रत्याशित बाधाओं, विपत्तियों व आपदाओं के सिर पर पांव रख कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करता है और सहजता से आकाश की बुलंदियों को छू सकता है।

समय परिवर्तनशील है, कभी ठहरता नहीं। सृष्टि का क्रम निरंतर, निर्बाध चलता रहता है, जिसे देख कर मानव अवाक् अथवा अचम्भित रह जाता है। ‘दिन- रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ- साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुकून/ ग़र साथ हो सुरों का/नग़मात बदलते हैं।’ जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात, अमावस के पश्चात् पूनम व समयानुसार ऋतु-परिवर्तन होना निश्चित है, उसी प्रकार समय के साथ मानव की मन:स्थिति में परिवर्तन भी अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। सो! जीवन में ऐसे पल भी अवश्य आते हैं, जब मानव हताश-निराश होकर औचित्य-अनौचित्य का भेद त्याग व परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को नकार, निराशा रूपी अंधकार के गर्त में धंसता चला जाता है और एक अंतराल के पश्चात् अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसे सब अपने भी पराए नज़र आते हैं। इस मन:स्थिति में एक दिन वह उन तथाकथित अपनों से  किनारा कर, अपना अलग – थलग जहान बसा लेता है। कई बार परिस्थितियां इतनी भीषण व भयंकर हो जाती हैं कि उधेड़बुन में खोया इंसान, ज़माने भर की रुसवाइयों को झेलता, व्यंग्य-बाण सहन करने में स्वयं को असमर्थ पाकर सुधबुध खो बैठता है और अपने जीवन का अंत कर लेना चाहता है। उसे यह संसार व भौतिक संबंध मिथ्या भासते हैं और वह माया के इस जंजाल से स्वयं को  मुक्त नहीं कर पाता कि ‘जब उसने कुछ गलत किया ही नहीं, तो उस पर दोषारोपण क्यों?’

यदि हम सिक्के के दूसरे पक्ष का अवलोकन करें, तो यह सत्य प्रतीत होता है…फिर निरपराधी को सज़ा क्यों? उस ऊहापोह की स्थिति में वह भूल जाता है कि सत्य शक्तिशाली होता है; प्रभावी होता है; सात परदों को भेद सबके सम्मुख अवश्य प्रकट हो ही जाता है। हां! इसकी एकमात्र शर्त है– सृष्टि-नियंता व मानवता में अटूट-अथाह व असीम-बेपनाह विश्वास …क्योंकि उसकी अदालत में देर है, अंधेर नहीं तथा वह सबको उनके कर्मों के अनुसार ही फल देता है। यह विधि का विधान है कि मानव को समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कभी भी, कुछ भी नहीं मिल सकता। सब्र व संतोष का फल सदैव मीठा होता है और उतावलेपन में कृत-कर्म कभी फलदायी नहीं होता। सो! सबसे बड़ा दोष…मानव की संशय,   अनिर्णय व असमंजस की स्थिति है, जहां उसे सावन के अंधे की भांति सर्वत्र हरा ही हरा दिखाई पड़ता है

सो! मानव को परमात्म-सत्ता पर विश्वास रखते हुए सदैव आशावादी होना चाहिए, क्योंकि आशा जीवन में साहस, उत्साह व धैर्य संचरित करती है;  जिसका दारोमदार सकारात्मक सोच पर है। आइए! व्यर्थ की सोच व नकारात्मकता को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकें। अपनी आंतरिक शक्तियों व ऊर्जा को अनुभव कर जीवन का निष्पक्ष व निरपेक्ष भाव से आकलन करें तथा उसे निष्कंटक समझ, सहज रूप से स्वीकारें। परनिंदा से कभी भी विचलित हो कर अपना जीवन नरक न बनाएं, बल्कि उसे स्वर्ग बनाने का हर संभव प्रयास करें…क्योंकि निराश व अवसाद -ग्रस्त व्यक्ति के साथ कोई पल-भर का समय भी व्यतीत करना पसंद नहीं करता …सब उससे ग़ुरेज़ करते हैं, दूरी बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी ओर प्रसन्न-चित्त व्यक्ति सदैव मुस्कुराता रहता है; महफ़िलों की शोभा होता है, सब उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं।

अन्त मैं यही कहना चाहूंगी कि सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है। प्रारंभ में भले ही लोग उस पर विश्वास न करें, परंतु एक अंतराल के पश्चात् सच्चाई सबके सम्मुख प्रकट हो जाती है और विरोधी पक्ष के लोग भी उसके मुरीद हो जाते हैं। सब यही कहते हैं ‘बेचारा समय की मार झेल रहा था, जबकि वह निर्दोष था… व्यवस्था का शिकार था। कितना धैर्य दिखाया था, उसने आपदा-विपदा के समय में…उसने न तो किसी पर अंगुली नहीं उठाई और न ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे पर इल्ज़ाम लगाया व दोषारोपण किया।’ ऐसे लोग वास्तव में महान् होते हैं, जिनकी महात्मा बुद्ध, महावीर वर्द्धमान व अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के रूप में श्रद्धा-पूर्वक उपासना-आराधना होती है और वे युग-पुरुष बन जाते हैं; विश्व-विख्यात व विश्व-वंदनीय बन जाते हैं। आइए! हम भी उपरोक्त गुणों को आत्मसात् कर सर्वांगीण विकास करें तथा अपने व्यक्तित्व को सर्व-स्वीकार्य व चिर-स्मरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments