डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख संतान का सुख : संतान से सुखयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 72 ☆

☆ संतान का सुख : संतान से सुख

‘संतान का सुख तो हज़ारों मां-बाप के पास है, परंतु वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने मां-बाप के पास है, अत्यंत चिंता का विषय है…संस्कारों पर धब्बा है’… इस वाक्य ने अंतर्मन को झकझोर- झिंझोड़ कर रख दिया और सोचने पर विवश कर दिया…क्या आज की युवा-पीढ़ी समाज को आईना नहीं दिखा रही? क्या वह पाश्चात्य-सभ्यता का अंधानुकरण कर, उन की जूठन स्वीकार कर इतरा नहीं रही? क्या यह मानव-मूल्यों का पतन और संस्कारों का हनन नहीं है? आखिर माता-पिता बच्चों को संस्कारित करने में स्वयं को अक्षम क्यों अनुभव करते हैं…यह चंद प्रश्न मन को हरदम उद्वेलित करते हैं और एक लम्बे अंतराल के पश्चात् भी मानव इनका समाधान क्यों नहीं खोज पाया है?

संतान सुख अर्थात् संतान प्राप्त करने के पश्चात् माता-पिता कहलाना तो बहुत आसान है, परंतु उन्हें सुसंस्कारित कर, एक अच्छा इंसान बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। घर में धमा-चौकड़ी मचाते, माता- पिता के कदमों से लिपट मान-मनुहार करते, अपनी बात मनवाने की ज़िद्द करते बच्चे; जहां मन-आंगन को महकाते हैं; वहीं जीवन को खुशियों से भी सराबोर कर देते हैं…इन सबसे बढ़कर औरत को बांझ होने के कलंक से बचाने में भी अहम् भूमिका अदा करते हैं। संतान-प्राप्ति के पश्चात् वह स्वयं को सौभाग्य-शालिनी मां, बच्चों की हर इच्छा को पूर्ण करने में प्रयासरत रहती है और उन्हें सुसंस्कारों से पल्लवित करने की भरपूर चेष्टा करती है। परंतु आधुनिक युग में टी•वी•, मोबाइल व मीडिया के प्रभाव-स्वरूप बच्चे इस क़दर उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं कि वे दिन-भर उनमें आंखें गढ़ाए बैठे रहते हैं। माता-पिता की अति-व्यस्तता व उपेक्षा के कारण, बच्चों से उनका बचपन छिन रहा है। ब्लू फिल्म्स् व अपराध जगत् की चकाचौंध देखने के पश्चात्, वे अनजाने में कब अपराध-जगत् में प्रवेश पा जाते हैं, इसकी खबर उनके माता-पिता को मिल ही नहीं पाती। इसका पर्दाफ़ाश तब होता है, जब वे नशे की आदत में इस क़दर लिप्त हो जाते हैं कि अपहरण, फ़िरौती, चोरी-डकैती, लूटपाट आदि उनके शौक़ बन जाते हैं। वास्तव में कम से कम में समय में, अधिकाधिक धन-संपदा व प्रतिष्ठा पा लेने का जुनून उन्हें ले डूबता है। विद्यार्थी जीवन में ही वे ऐसे घिनौने दुष्कृत्यों को अंजाम देकर, स्वयं को उस नरक में धकेल देते हैं, जिससे मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इसके प्रतिक्रिया-स्वरूप माता-पिता का एक-दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इन असामान्य परिस्थितियों में, वे जीवन में समझौता करने को तत्पर हो जाते हैं, परंतु बहुत देर हो चुकी होती है। प्रायश्चित-स्वरूप बच्चों को नशे की गिरफ़्त से मुक्त करवा कर लिवा लाने के लिए, मंदिर-मस्जिद में माथा रगड़ने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है, जो लम्बे समय तक चलता रहता है। परंतु तब बहुत देर हो चुकी होती है …उनका सुखी संसार लुट चुका होता है और उनके पास आंसू बहाने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं बचता ही नहीं।

इसका दूसरा पक्ष है, ‘वर्तमान परिवेश में संतान से सुख कितने माता-पिता को प्राप्त हो पाता है’…यह चिंतनीय व मननीय विषय है कि संतान के रहते कितने माता-पिता आत्म-संतुष्ट हैं तथा संतान से प्रसन्न हैं, सुखी हैं? आधुनिक युग में भले ही भौगोलिक दूरियां कम हो गई हैं, परंतु पारस्परिक- प्रतिस्पर्द्धा के कारण दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं और इन खाईयों को पाटना मानव के वश की बात नहीं रही। आज की युवा-पीढ़ी किसी भी कीमत पर; कम से कम समय में अधिकाधिक धनोपार्जन कर इच्छाओं व ख़्वाहिशों को पूरा कर; अपने सपनों को साकार कर लेना चाहती है– जिसके लिए उसे अपने घर-परिवार की खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है। इसका भीषण परिणाम हम संयुक्त-परिवार व्यवस्था के स्थान पर, एकल-परिवार व्यवस्था के काबिज़ होने के रूप में देख रहे हैं।

‘हम दो हमारे दो’ का नारा अब ‘हम दो हमारा एक’ तक सिमट कर रह गया है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज की युवा-पीढ़ी अपने भविष्य के प्रति कितनी सजग है…इसका अनुमान आप उन की सोच को देख कर लगा सकते हैं। आजकल वे संतान को जन्म देकर, किसी बंधन में बंधना नहीं चाहते..सभी दायित्वों से मुक्त रहना पसंद करते हैं। शायद! वे इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि बच्चे माता-पिता के संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की धुरी होते हैं..परिवारजनों में पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व विश्वास में वृद्धि करने का माध्यम होते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संतान सुख प्राप्त करने के पश्चात् भी, एक छत के नीचे रहते हुए भी पति-पत्नी के मध्य अजनबीपन का अहसास बना रहता है, जिसका दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वे आत्मकेंद्रित होकर रह जाते हैं तथा घर से बाहर सुक़ून की तलाश करते हैं, जिसका घातक परिणाम हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल मोबाइल, वॉट्सएप, फेसबुक व इंस्टाग्राम आदि पारस्परिक संवाद व भावों के आदान-प्रदान के माध्यम बनकर रह गये हैं।

इक्कीसवीं सदी में बच्चों से लेकर वृद्ध अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं…किसी के पास, किसी के लिए समय नहीं होता…फिर भावनाओं व संवेदनाओं की अहमियत का प्रश्न ही कहां उठता है? मानव आज कल संवेदनहीन होता जा रहा है…दूसरे शब्दों में आत्मकेंद्रितता के भाव ने उसे जकड़ रखा है, जिसके कारण वह निपट स्वार्थी होता जा रहा है। जहां तक सामाजिक सरोकारों का संबंध है, आजकल हर व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेल रहा है। सबके अपने-अपने सुख-दु:ख हैं, जिनके व्यूह से मुक्ति पाने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। संबंधों की डोर टूट रही है और परिवार रूपी माला के मनके एक-एक कर बिखर रहे हैं, जिसका आभास माता-पिता को एक लंबे अंतराल के पश्चात् होता है; तब तक सब कुछ लुट चुका होता है। इस असमंजस की स्थिति में मानव कोई भी निर्णय नहीं ले पाता और एक दिन बच्चे अपने नए घरौंदों की तलाश में अक्सर विदेशों में शरण लेते हैं या मेट्रोपोलिटन शहरों की ओर रुख करते हैं, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह पाए और वे आज की दुनिया के बाशिंदे कहलाने में फ़ख्र महसूस कर सकें। सो! वे सुख- सुविधाओं से सुसज्जित अपने अलग नीड़ का निर्माण कर, खुशी व सुख का अनुभव करते हैं। इसलिए परिवार की परिभाषा आजकल मम्मी-पापा व बच्चों के दायरे में सिमट कर रह गई है; जिस में किसी अन्य का स्थान नहीं होता। वैसे आजकल तो काम-वाली बाईयां भी आधुनिक परिवार की परिभाषा से बखूबी परिचित हैं और वे भी उन्हीं परिवारों में काम करना पसंद करती हैं, जहां तीन या चार प्राणियों का बसेरा हो।

चलिए! हम चर्चा करते हैं, बच्चों से सुख प्राप्त करने की…जो आजकल कल्पनातीत है। बच्चे स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, क्योंकि संबंधों व सरोकारों की अहमियत वे समझते ही नहीं। वास्तव में संस्कार व संबंध वह धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है… परंतु अब यह धारणा अस्तित्वहीन हो चुकी है। एकल परिवार-व्यवस्था में माता-पिता– दादा-दादी से अलग-थलग रहते हैं। सो! नाना-नानी और अन्य रिश्तों की अहमियत व गरिमा कहां सुरक्षित रह पाती है? प्रश्न उठता है…’ उनके लिए तो संबंधों व सरोकारों की महत्ता बेमानी होगी, क्योंकि वे आत्ममुग्ध व अहंनिष्ठ प्राणी एकांगी जीवन जीने के आदी हो चुके होते हैं। बचपन से दि -रात नैनी व आया के संरक्षण व उनके साये में रहना, उन बच्चों की नियति बन जाती है। सो! वे अपने माता-पिता से अधिक अहमियत, अपनी नैनी व स्कूल की शिक्षिका को देकर सब को धत्ता बता देते हैं। उस समय उनके माता-पिता की दशा ‘जल बिच मीन पियासी’ जैसी होती है, क्योंकि उनके जन्मदाता होने पर भी उन्हें अपेक्षित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है… जिसके वे अधिकारी होते हैं, हक़दार होते हैं। धीरे-धीरे संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर, अंतिम सांसें लेते दिखाई पड़ते हैं। इस स्थिति में उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होता है और वे अपने आत्मजों से लौट कर आने का अनुरोध करते हैं, परंतु सब निष्फल।

‘गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता’ यह शाश्वत सत्य है। वे अब प्रायश्चित-स्वरूप परिवार में लौट आना चाहते हैं, परंतु उनके हाथ खाली रह जाते हैं। किसी ने सत्य कहा है कि ‘आप जो करते हैं, वह इसी जीवन में, उसी रूप में लौटकर आपके समक्ष आता है। एकल परिवार व्यवस्था में बूढ़े माता-पिता को घर में तो स्थान मिलता नहीं और वे अपना अलग आशियां बना कर रहने को विवश होते हैं तथा असामान्य परिस्थितियों में वृद्धाश्रम की ओर रुख करते हैं। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब वृद्धाश्रम में रहते हुए एक महिला ने जीवन की अंतिम बेला में, अपने पुत्र को वृद्धाश्रम में आमंत्रित किया और अपनी अंतिम इच्छा से अवगत कराया…’बेटा! तुम यहां पंखे लगवा देना।’ बेटे ने तुरंत प्रश्न किया ‘मां! अब तो तुम संसार से विदा हो रही हो… यह सब तो तुम्हें पहले बताना चाहिए था।’ मां का उत्तर सुन बेटा अचंभित रह गया। ‘मुझे तेरी चिंता है…चंद वर्षों बाद जब तू यहां आकर रहेगा, तुझ से भयंकर गर्मी बर्दाश्त नहीं होगी।’ यह सुनकर बेटा बहुत शर्मिंदा हुआ और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ।

परंतु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। मां इस संसार को अलविदा कह जा चुकी थी। शेष बची थीं, उसकी स्मृतियां। वर्तमान परिवेश में तो परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। आजकल बच्चों को किसी प्रकार के बंधन अर्थात् मर्यादा में रहना पसंद नहीं है। बच्चे क्या, पति-पत्नी के मध्य बढ़ती दूरियां अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं। हर तीसरी महिला इस विषम परिस्थिति से जूझ रही है। चारवॉक दर्शन युवा पीढ़ी की पसंद है..’खाओ पियो, मौज उड़ाओ’ की अवधारणा तो अब बहुत पीछे छूट चुकी है। अब तो ‘तू नहीं और सही’ का बोलबाला है। उनके अहं टकराते हैं; जो उन्हें उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां से लौटना असंभव अर्थात् नामुमक़िन होता है।

यदि हम इन असामान्य व विषम स्थितियों का चिंतन करें, तो हमें अपसंस्कृति अर्थात् समाज में बढ़ रही संस्कारहीनता पर दृष्टिपात करना पड़ेगा। सामाजिक अव्यवस्थाओं व व्यस्तताओं के कारण हमारे पास बच्चों को सुसंस्कारित करने का समय ही नहीं है। हम उन्हें सुख-सुविधाएं तो प्रदान कर सकते हैं, परंतु समय नहीं, क्योंकि कॉरपोरेट जगत् में दिन-रात का भेद नहीं होता। सो! बच्चों की खुशियों को नकार; उनके जीवन को दांव पर लगा देना; उनकी विवशता का रूप धारण कर लेती है।

इंसान दुनिया की सारी दौलत देकर, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकता, जिसका आभास मानव को सर्वस्व लुट जाने के पश्चात् होता है। यह तो हुई न ‘घर फूंक कर तमाशा देखने वाली बात’ अर्थात् उस मन:स्थिति में वह आंसू बहाने और प्रायश्चित करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाता… क्योंकि उनकी संतान समय के साथ बहुत दूर निकल चुकी होती है तथा उनके माता-पिता हाथ मलते रह जाते हैं। फलत: वे दूसरों को यही सीख देते हैं कि ‘बच्चों से उनका बचपन मत छीनो। एक छत के नीचे रहते हुए, दिलों में दरारें मत पनपने दो, बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करो; उन्हें भरपूर खुशियां प्रदान करो; उनका पूरा ख्याल रखो तथा उनके सुख-दु:ख के साथी बनो।’ सो! आप से अपेक्षा है कि आप अपने हृदय में दैवीय गुणों को विकसित कर, उनके सम्मुख आदर्श स्थापित करें, ताकि वे आपका अनुसरण करें और उनका सर्वांगीण विकास हो सके। यही मानव जीवन का सार है, मक़सद है, लक्ष्य है। मानव को सृष्टि के विकास में योगदान देकर, अपना दायित्व-वहन करना चाहिए, ताकि संतान के सुख-दु:ख का दायरा, उनके इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाए तथा माता-पिता को यह कहने की आवश्यकता ही अनुभव न हो कि यह हमारी संतान है, बल्कि माता-पिता संतान के नाम से जाने जाएं अर्थात् उनकी संतान ही उनकी पहचान बने…यही मानव-जीवन की सार्थकता है, अलौकिक आनंद है, जीते जी मुक्ति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
डॉ भावना शुक्ल

बहुत सुंदर

Sudershan Ratnakar

आज के सन्दर्भ में सुंदर सटीक रचना। बहुत बहुत बधाई।