(12 जून 2020 को ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशित यह ऐतिहासिक साक्षात्कार हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए पुनः प्रकाशित कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
डॉ मधुसूदन पाटिल
( इस ऐतिहासिक साक्षात्कार के माध्यम से हम हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का हार्दिक स्वागत करते हैं। श्री कमलेश भारतीय (वरिष्ठ साहित्यकार) एवं डॉ मनोज छाबडा (वरिष्ठ साहित्यकार, व्यंग्यचित्रकार, रंगकर्मी) का हार्दिक स्वागत एवं हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम पीढ़ी के व्यंग्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का यह बेबाक साक्षात्कार साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। कुछ समय पूर्व हमने संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश से जनवरी 1977 में प्रकाशित व्यंग्य की प्रथम पत्रिका “व्यंग्यम” की चर्चा की थी जो इतिहास बन चुकी है। उसी कड़ी में डॉ मधुसूदन पाटिल जी द्वारा प्रकाशित “व्यंग्य विविधा” ने 1989 से लेकर 1999 तक के कालखंड में व्यंग्य विधा को न केवल अपने चरम तक पहुँचाया अपितु एक नया इतिहास बनाया। सम्पूर्ण राष्ट्र में और भी व्यंग्य पर आधारित पत्रिकाएं प्रकाशित होती रहीं और कुछ अब भी प्रकाशित हो रही हैं। किन्तु, कुछ पत्रिकाओं ने इतिहास रचा है जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया उस संघर्ष की कहानी को एवं बेबाक विचारधारा को डॉ मधुसूदन पाटिल जी की वाणी में ही आत्मसात करें। हम शीघ्र ही डॉ मधुसूदन पाटिल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। )
☆ डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? ☆
– कमलेश भारतीय /डॉ मनोज छाबडा
मराठा वीर डॉ. मधुसूदन पाटिल। हरियाणा के हिसार में। मैं भी पंजाब – चंडीगढ से पिछले बाइस वर्षों से हिसार में। संयोग कहिए या दुर्योग हम दोनों परदेसी एक ही गली में अर्बन एस्टेट में रहते हैं। बस। दो-चार घरों का फासला है बीच में। पत्रकार और आलोचक व व्यंग्यकार दोनों बीच राह आते-जाते टकराते नहीं, अक्सर मिल जाते हैं और सरेराह ही देश और समाज की चीरफाड़ कर लेते हैं। कभी हिसार के साहित्यकार भी हमारी आलोचना के केंद्र में होते हैं। कभी हरियाणा की साहित्यिक अकादमियां भी हमारे राडार पर आ जाती हैं। हालांकि, मैं भी एक अकादमी को चला कर देख आया। डॉ मनोज छाबड़ा भी चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून के समय से ही परिचित रहे और हिसार आकर मिजाज इन्हीं से मिला। जब हमारे जयपुर संधि वाले डॉ प्रेम जनमेजय को डॉ. मधुसूदन पाटिल के साक्षात्कार और त्रिकोणीय श्रृंखला की याद आई तो मेरे जैसा बदनाम शख्स ही याद आया। मैंने सोचा अकेला मैं ही क्यों यह सारी बदनामी मोल लूं तो डॉ मनोज छाबड़ा को बुला लिया कि त्रिकोण का एक कोण वह भी बन जाये। कई दिन तक वह बचता रहा। आखिर हम दोनों जुटे और डॉ मधुसूदन पाटिल का स्टिंग कर डाला।
श्री कमलेश भारतीय
डॉ मनोज छाबड़ा
(जन्म- 10 फ़र. 1973 शिक्षा- एम. ए. , पी-एच. डी. प्रकाशन- ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ (कविता संग्रह) 2008, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक सम्मान 2009-10, ‘तंग दिनों की ख़ातिर ‘ (कविता संग्रह), 2013, बोधि प्रकाशन, जयपुर ‘हिंदी डायरी साहित्य’ (आलोचना),2019, बोधि प्रकाशन, जयपुर विकल्पों के बावजूद (प्रतिनिधि कविताएं) 2020 सम्पादन – वरक़-दर-वरक़ (प्रदीप सिंह की डायरी) का सम्पादन (2020) सम्प्रति – व्यंग्यचित्रकार, चित्रकार, रंगकर्मी))
हरियाणा का पानीपत तीन लड़ाइयों के लिए इतिहास में जाना जाता है। पानीपत में कभी मराठे लड़ाई लडऩे आए और यहीं बस गये। पानीपत करनाल में आज भी मराठों के वंशज हैं। हिसार में भी एक मराठा वीर रहता है जिसका परिवार किसी लड़ाई के लिए नहीं आया। यह कह सकते हैं कि रोजी-रोटी की लड़ाई में अकेले डॉ पाटिल ही आए और लड़ते-लड़ते यहीं बस गये। कई शहरों में अस्थायी प्राध्यापकी करने के बाद आखिर हिसार के जाट कॉलेज में हिंदी विभाग के स्थायी अध्यक्ष हो गये। फिर तो कहां जाना था? डेरा और पड़ाव यहीं डाल दिया।
इस मराठा वीर ने एक और लड़ाई लड़ी-वह थी व्यंग्य लेखन में जगह बनाने की। दस वर्ष तक यानी सन् 1989 से 1999 तक व्यंग्य विविधा पत्रिका और अमन प्रकाशन चलाने की। वैसे मेरी पहली मुलाकात अचानक कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के स्टूडेंट सेंटर में किसी ने करवाई थी। डॉ. पाटिल तब भी ज्यादा चुप रहते थे और आज भी लेकिन उनके व्यंग्य के तीर तब भी दूर तक मार करते थे और आज भी। उनके तरकश में व्यंग्य के तीर कम नहीं हुए कभी। न तब न अब। शुरूआत का सवाल बहुत सीधा :
कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्यकार की भूमिका क्या है समाज में? कहते हैं कि व्यंग्यकार या आलोचक विपक्ष की भूमिका निभाता है। यह कितना सच है? आबिद सुरती ने तो यहां तक कहा कि अब कोई कॉर्टून बर्दाश्त ही नहीं करता तो बनाऊं किसलिए?
डॉ. पाटिल : आलोचना को कौन बर्दाश्त करता है? आज आलोचना ही तो बर्दाश्त नहीं होती किसी से तो कॉर्टून का प्रहार कौन बर्दाश्त करे? सही कह रहे हैं आबिद सुरती?
कमलेश भारतीय : आपने भी हिसार के सांध्य दैनिक नभछोर में कुछ समय व्यंग्य का कॉलम चलाया लेकिन जल्द ही बंद कर देना पड़ा, क्या कारण रहे ?
डॉ. पाटिल : मैं हरिशंकर परसाई की गति को प्राप्त होते होते रह गया। समाजसेवी पंडित जगतसरुप ने मेरे कॉलम का सुझाव दिया था और एक बार लिखने का सौ रुपया मिलता लेकिन जैसे ही चर्चित ग्रीन ब्रिगेड पर व्यंग्य लिखा तो मैं पिटते-पिटते यानी परसाई की गति को प्राप्त होते होते बचा। राजनेता प्रो. सम्पत सिंह के दखल और कोशिशों से सब शांत हो पाया। वैसे व्यंग्य के तेवरों से शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा था। मैं क्या चीज था?
मनोज छाबड़ा : अपनी सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए एक स्थान पर आपने कहा है आज स्थितियां विसंगतिपूर्ण हैं। ये विसंगति साहित्य-जगत की है, समाज की है, बाहरी है या भीतर की?
डॉ पाटिल : सबसे अधिक विसंगति समाज की है। वही सबसे अधिक प्रभावित करती है, आक्रोश पैदा करती है। इसके अतिरिक्त घरेलू स्थितियां हैं, जो असहज करती हैं। इन सबका परिणाम है कि इसकी प्रतिक्रिया सबसे पहले कहीं भीतर उथल-पुथल मचाती है, व्यंग्य के रूप में अभिव्यक्त होती है।
कमलेश भारतीय : ऐसा क्या लिखा कि…?
डॉ पाटिल : आर्य समाज में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन और वही ग्रीन ब्रिगेड पर एपीसोड मेरे इस कॉलम पर ग्रहण बन गये। आलोचना और व्यंग्य में ठकुरसुहाती नहीं चल सकती। पूजा भाव का क्या काम? आरती थोड़े करनी है? मूल्यांकन करना है?
कमलेश भारतीय : व्यंग्य विविधा एक समय देश में व्यंग्य का परचम फहरा रही थी। दस वर्ष तक चला कर बंद क्यों कर दी?
डॉ. पाटिल : मेरा पूरा परिवार जुटा रहता था पत्रिका को डाक में भेजने के लिए। बेटे तक लिफाफों में पत्रिका पैक करते लेकिन कोई विज्ञापन नहीं। विज्ञापन दे भी कोई क्यों? इसी समाज की तो हम आलोचना करते थे। फिर नियमित नहीं रह पाई तो यहां उपमंडलाधिकारी मोहम्मद शाइन ने नोटिस दे दिया कि नियमित क्यों नहीं निकालते? ऊपर से प्रकाशन और कागज के खर्च बढ़ गये। इस तरह व्यंग्य विविधा इतिहास बन गयी।
मनोज छाबड़ा : हम धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे हैं। लघुकथाएं, छोटी कविताएं पाठकों को खूब रुचती हैं। लम्बे-लम्बे व्यंग्य-लेखों की मांग कुछ कम नहीं हुई?
डॉ. पाटिल : अखबरों में जगह कम है। वे अब छोटे-छोटे आलेख मांगने लगे हैं। पाठकों में भी धैर्य की कमी है। बड़े लेख धैर्य मांगते हैं। पाठक से शिकायत बाद में, इधर लेखक भी प्रकाशित होने की जल्दी में हैं। ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण व्यंग्य-लेखों का आकार छोटा हुआ है। आजकल तो दो पंक्तियों, चार पंक्तियों की पंचलाइन का समय आ गया है। चुटकुलेनुमा रचनाएं आने लगी हैं।
कमलेश भारतीय : हरिशंकर परसाई ने कभी कहा था कि व्यंग्य तो शूद्र की स्थिति में है। आज किस स्थिति तक पहुंचा है? क्या ब्राह्म्ण हो गया?
डॉ. पाटिल : नहीं। यह सर्वजातीय हो गया। सभी लोग इसे अपनाना चाहते हैं। यहां तक कि वे शिखर नेता भी जो कॉर्टून बर्दाश्त नहीं करते वे भी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते हैं विरोधियों पर। व्यंग्य का जादू अब सिर चढ कर बोलने लगा है।
कमलेश भारतीय : इन दिनों कौन सही रूप से व्यंग्य लिख रहे हैं?
डॉ. पाटिल : इसमें संदेह नहीं कि व्यंग्य लेखन में डॉ प्रेम जनमेजय बड़ा काम कर रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के माध्यम से व्यंग्य को केंद्र में लाने में भूमिका निभा रहे हैं। हरीश नवल हैं। सहीराम और आलोक पुराणिक हैं। काफी लोग लिख रहे हैं।
कमलेश भारतीय : पुरस्कारों व सम्मानों पर क्या कहेंगे?
डॉ. पाटिल : पुरस्कार सम्मान तो मांगन मरण समान हो गये हैं। मुझे नजीबाबाद में माता कुसुमकुमारी सम्मान मिला था और आजकल नया ज्ञानोदय के संपादक मधुसूदन आनंद और विद्यानिवास मिश्र भी थे।
मनोज छाबड़ा : लघुकथा के नाम पर भी लोग घिसे-पिटे चुटकुले चिपका रहे हैं?
डॉ. पाटिल : हां, सब जल्दी में जो हैं।
मनोज छाबड़ा : परसाई-शरद-त्यागी की त्रयी के बाद के लेखकों से उस तरह पाठक-वर्ग नहीं जुड़ा, अब भी किसी भी बातचीत में संदर्भ के लिए वे तीनों ही हैं। मामला लेखकों की धार के कुंद होने का है या कुछ और?
डॉ. पाटिल : सामाजिक स्थितियां-परिस्थितयां तो जिम्मेवार हैं ही, धार का कुंद होना भी एक कारण है। लेखक गुणा-भाग की जटिलता में फंसा है। गुणा-भाग से निश्चित रूप से धार पर असर पड़ता ही है। धार है भी, पर सही लक्ष्य पर नहीं है, इधर-उधर है।
कमलेश भारतीय : हरियाणा में आपकी उपस्थिति कांग्रेस की सोनिया गांधी की तरह विदेशी मूल जैसी तो नहीं?
डॉ. पाटिल : बिल्कुल। मैं महाराष्ट्र से था यही मेरी उपेक्षा का कारण रहा। फिर ऊपर से पंजाबन से शादी। यह मेरा दूसरा बड़ा कसूर। महाविद्यालय में कहा जाता कि यह हिंदी भी कोई पढ़ाने की चीज है? हिंदी का कोई प्रोफैसर होता है भला? ईमानदारी और मेहनत तो बाद में आती। किसी ने बर्दाश्त ही नहीं किया। निकल गये बरसों ।
कमलेश भारतीय : हरियाणा में हिंदी शिक्षण का स्तर कैसा है?
डॉ. पाटिल : बहुत दयनीय। तुर्रा यह कि शान समझते हैं अपनी कमजोरी को।
कमलेश भारतीय : लघुकथा में व्यंग्य का उपयोग ऐसा कि किसी मित्र ने एक बार कहा कि व्यंग्य की पूंछ जरूरी है लघुकथा के लिए। आपकी राय क्या है ?
डॉ. पाटिल : व्यंग्य का तडक़ा जरूरी है। एक समय बालेंदु शेखर तिवारी ने व्यंग्य लघुकथाएं संकलन भी प्रकाशित किया था। यदि इसमें संवेदना का पुट कम रह जाये तो यह लघु व्यंग्य बन कर ही तो रह जाती है। कथातत्व के आधार पर कम और व्यंग्य के आधार पर लघुकथा लेखन अधिक हो रहा है। यानी व्यंग्य का तडक़ा लगाते हैं ।
मनोज छाबड़ा : कुछ डर का माहौल भी है?
डॉ. पाटिल : हाँ, अस्तित्व की रक्षा तो पहले है। जाहिर है डर है। फिर, आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? व्यंग्य-लेख में उन्हीं मुद्दों को सामने लाया जाता है जो शक्तिशाली की कमजोरी है। प्रहार कौन सहन करेगा जब आलोचना ही बर्दाश्त नहीं हो रही।
मनोज छाबड़ा : आपके लेखन के शुरूआती दिनों में भी यही स्थिति थी?
डॉ. पाटिल : उस समय आज की तुलना में सहनशक्ति अधिक थी। वह ‘ शंकर्स वीकली’ का दौर था। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी उदार थे, हालांकि तब भी शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा, बाद में इंदौर में रहे।
मनोज छाबड़ा : एक दौर था, आप खूब सक्रिय थे लेकिन अब?
डॉ. पाटिल : शारीरिक, सामाजिक व पारिवारिक समस्याएं हैं। अब उम्र भी आड़े आने लगी है। पत्नी का स्वास्थ्य भी चिंता में डालता है।
कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्य लेखन बहुत कम क्यों कर दिया? ज्यादा सक्रिय क्यों नहीं?
डॉ. पाटिल : कुछ शारीरिक तो कुछ मानसिक और कुछ पारिवारिक कारणों के चलते। वकीलों के चक्कर काट रहा हूं। वे वकील जो संतों के मुकद्दमे लडते हैं और गांधीवादी और समाजसेवी भी कहलाते हैं। यह दोगलापन सहा नहीं जाता। अपराध को बढावा देने में इनका बडा हाथ है ।मैं तो कहता हूं -वकील, हकीम और नाजनीनों से भगवान बचाये।
मनोज छाबड़ा : एक समय था जब आपकी पत्रिका ‘व्यंग्य विविधा’ देश की अग्रणी व्यंग्य पत्रिकाओं में थी। 30-35 अंक निकले भी, अचानक बंद हो गयी ऐसी नौबत क्यों आई?
डॉ. पाटिल : पत्रिका 1989 से 1999 तक छपी। लघु पत्रिकाओं का खर्चा बहुत है, स्वयं ही वहन करना पड़ता है, हिसार में अच्छी प्रेस भी नहीं थी तब। दिल्ली न सिर्फ जाना पड़ता था बल्कि तीन-तीन चार-चार दिन रुकना भी पड़ता था। पत्नी लिफाफों में पत्रिका डालने में व्यस्त रहती। बच्चे कितने ही दिन टिकट चिपकाते रहते। ऐसा कितने दिन चलता। आर्थिक बोझ भी था और मैन-पॉवर तो कम थी ही। जिनके खिलाफ लिखते थे वही विज्ञापन दे सकते थे, पर क्यों देते? दोस्त लोग कब तक मदद करते। वे पेट और जेब से खाली थे।
मनोज छाबड़ा : कविता मन की मौज से उतरती है। व्यंग्य के साथ भी ऐसा ही है या ये कवियों की रुमानियत ही है?
डॉ. पाटिल : कविता में मन की सिर्फ मौज है। व्यंग्य में तूफान है, झंझावात है, मन के भीतर उठा चक्रवात है।
मनोज छाबड़ा : आज जब चुप्पियाँ बढ़ रही हैं, संवेदनहीनता का स्वर्णकाल है, अब व्यंग्यलेखक की भूमिका क्या होनी चाहिए?
डॉ. पाटिल : देखिये, इस समय भी सहीराम, आलोक पुराणिक सटीक और सार्थक लिख रहे हैं। चुप्पियां डर की होंगी कहीं, पर बहुत से लेखक आज भी मुखर हैं, ताकत से अपनी बात कह रहे हैं। यही एक लेखक की भूमिका है कि वे इस चुप समय में मुखर रहे।
© श्री कमलेश भारतीय/डॉ. मनोज छाबड़ा
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श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी, 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बेहतरीन अभिव्यक्ति