डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय कहानी ‘उड़ान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 213 ☆
☆ कहानी – उड़ान ☆
नन्दो बुआ जब घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसे ठसक से चलती हैं जैसे विश्व -विजय पर निकली हों। वजह यह है कि नन्दो बुआ एक काम की विशेषज्ञ हैं और यह काम है शादी कराना। यह नन्दो बुआ की ‘हॉबी’ है और इसके प्रति वे पूरी तरह समर्पित हैं। अगर उन्होंने ‘मैरिज ब्यूरो’ खोला होता तो भारी कमाई कर लेतीं। उनके बगल में उनका फूला हुआ बैग दबा रहता है जिसमें लड़कों- लड़कियों के फोटो, उनकी जन्मपत्रियाँ और अते-पते भरे रहते हैं।
जहाँ ब्याह लायक लड़कियाँ हैं वहाँ नन्दो बुआ को खूब आदर-सम्मान मिलता है। जहाँ बैठ जाती हैं वहाँ से घंटों नहीं उठतीं। घर में उनकी नज़र घूमती रहती है। हर लड़की में उन्हें संभावनाशील दुलहन नज़र आती है। घरों में उनका रोब भी खूब चलता है। इच्छानुसार चाय- भोजन की फरमाइश कर देती हैं। नाराज़ होने पर किसी को भी ‘बेसहूर’ ‘बेवकूफ’ कह देती हैं।
नन्दो बुआ के हिसाब से लड़का-लड़की की शादी की उम्र इक्कीस और अठारह साल मुकर्रर करना सरकार की सरासर ज़्यादती और बेवकूफी है। शादी-ब्याह के मामले में भला कानून का क्या काम? यह तो नन्दो बुआ जैसे लोगों की पारखी नज़र ही बता सकता सकती है कि कौन लड़की शादी-योग्य है और कौन नहीं। सरकार खामखाँ हर मामले में टाँग अड़ाती है।
नन्दो बुआ का दृढ़ मत है कि लड़की की सुरक्षा और चरित्र-रक्षा के लिए अगर कोई पुख़्ता मार्ग है तो वह शादी ही है। लड़की का चरित्र काँच जैसा होता है, एक बार टूटा सो टूटा। फिर जोड़े नहीं जुड़ता। लड़की के माँ-बाप चौबीस घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए जितनी जल्दी गंगा- स्नान हो जाए उतना अच्छा।
लड़कियाँ नन्दो बुआ को वे ही पसन्द आती हैं जो नितान्त आज्ञाकारी, गऊ समान होती हैं,कि जिसके पल्ले माँ-बाप बाँध दें चुपचाप खुशी-खुशी चली जाएँ। स्कूटर पर फर-फर उड़ने वालीं, चबड़- चबड़ करने वालीं, हर बात में अपनी नाक घुसेड़ने वाली लड़कियाँ नन्दो बुआ को फूटी आँख नहीं सुहातीं। उनके हिसाब से आजकल की लड़कियों की आँख का शील मर गया है। आँख में आँख डाल कर बात करती हैं और मज़ाक उड़ाने से भी बाज़ नहीं आतीं। राह चलते अगर नन्दो बुआ को लड़कियाँ बैडमिंटन खेलतीं या हँसती-बोलती दिख जाएँ तो रुक कर हिदायत दे देती हैं—‘ए लड़कियो, कुछ लाज शरम रखो।यह क्या हुड़दंग मचा रखा है? क्या ज़माना आ गया है!’
सीधी-सादी, कम पढ़ी- लिखीं, आत्मविश्वास से हीन लड़कियाँ नन्दो बुआ को प्रिय हैं क्योंकि वे न कोई आपत्ति उठाती हैं, न कोई अपनी राय रखती हैं। ऐसी लड़कियों के सिर पर नन्दो बुआ का हाथ बार-बार घूमता है,कहती हैं, ‘फिकर मत करियो बिटिया। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी हमारी। ऐसे घर में भेजूँगी कि रानी बनकर राज करोगी।’
नन्दो बुआ की मानें तो दुनिया रसातल की तरफ जा रही है। पहले लड़कियाँ मर्यादा के साथ रहती थीं, अब झुंड की झुंड, बगल में किताबें दबाये घूमती हैं। जहाँ देखो लड़के-लड़कियाँ साथ खड़े हीही-ठीठी करते हैं। कपड़े देखो तो सब ऊटपटाँग। शर्म-लिहाज सब गया। पहले लड़कियाँ स्कूटर पर सिमट कर बाप या भाई के पीछे बैठती थीं, अब खुद माँ-बाप को पीछे बिठाये सर्र-सर्र दौड़ती हैं। दूसरी बात यह कि लड़कियों का मुँह खुल गया है। माँ-बाप की बात का सीधे विरोध कर देती हैं। वे उन लाजवन्तियों को हसरत से याद करती हैं जिन का मुँह तो क्या, हाथ-पाँव की उँगलियाँ देख लेना भी मुश्किल होता था। जो मुँह छिपाये ससुराल में आती थीं और मुँह छिपाये ही संसार से विदा हो जाती थीं। अब की लड़कियाँ तो आधी रात को भी घर से बेझिझक निकल पड़ती हैं।
पटेल परिवार की गीता पर बुआ की नज़र तब से थी जब वह दसवीं ग्यारहवीं में थी। लड़की सुन्दर, हाथ- पाँव से दुरुस्त थी। और क्या चाहिए? बारहवीं पास कर ले तो शादी के लिए बिल्कुल फिट हो जाएगी। गीता की माँ के पास बुआ की बैठकें जमती रहती थीं। उन्हें भी वे आश्वासन दे चुकी थीं कि गीता को रानी बना देंगीं।
गीता शोख थी। बुआ को चिढ़ाने में उसे मज़ा आता था। माँ के सामने ही बुआ से कहती, ‘बुआ, रानी कैसे बनाओगी? राजा- रजवाड़े तो सब खतम हो गये। अब तो देश में प्रजातंत्र है।’
बुआ आँखें चढ़ाकर कहतीं, ‘बिट्टी, थोड़ा पढ़-लिख गयी हो तो जुबान पर मत बैठो। रानी बनने से मेरा मतलब है कि ऐसे घर में भेजूँगी जहाँ खूब आराम मिले। दस नौकर-चाकर सेवा में रहेंगे।’
लेकिन बुआ की मुराद पूरी नहीं हुई। गीता ने बारहवीं पास करने के बाद नीट की तैयारी शुरू कर दी और उसके माता-पिता ने फिलहाल उसकी शादी का विचार त्याग दिया। बुआ ने भी बात को समझ कर दूसरी, कम महत्वाकांक्षी, लड़कियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बारहवीं में गीता के अंक अच्छे आये थे इसलिए उसे भरोसा था कि वह नीट में निकल जाएगी।
दुर्भाग्यवश गीता नीट पास नहीं कर पायी और उसकी आगे की पढ़ाई की सारी योजना गड़बड़ा गयी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। कॉलेज की पढ़ाई से ध्यान हटाकर वह फिर नीट की तैयारी में लग गयी। एक साल गुज़र जाने के बाद परिणाम आया। इस बार भी सफलता नहीं मिली। अब गीता को मायूसी हुई। आत्मविश्वास डगमगा गया। कॉलेज छोड़ देने के कारण आगे की राह अनिश्चित हुई। लेकिन उसने उम्मीद पूरी तरह छोड़ी नहीं। एक बार और नीट में बैठने का निश्चय उसने कर लिया।
गीता का सपना था कि डॉक्टर बनकर समाज की खूब सेवा करेगी। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकड़े समाज में वह असमर्थ लोगों को छोटे छोटे रोगों से मरते और पीड़ा भोगते देखती थी। उसका सोचना था कि बड़ी असमानताओं वाले इस देश में कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ तो सबको सुलभ होना चाहिए। उसे लगता था कि अपने बूते के अनुसार उसे लोगों का दुख-निवारण ज़रूर करना चाहिए। लेकिन दो बार की असफलता के बाद उसे अपना सपना टूटता दिखता था।
दूसरी बार की असफलता के बाद नन्दो बुआ की नज़र फिर गीता पर टिक गयी। अब फिर उन्हें उसकी जगह एक सजी-धजी दुलहन दिखायी देने लगी थी। उसके घर में उनकी बैठकें बढ़ने लगीं।
गीता की माँ को भी अब लगने लगा था कि वक्त बेकार ज़ाया हो रहा था। लड़की की शादी हो जाए तो अच्छा। दो बार की असफलता से बेटी के चेहरे पर आयी मायूसी उन्हें तकलीफ देती थी। वे सोचती थीं कि ब्याह हो जाए तो यह सब पीछे छूट जाएगा। लड़की की उम्र बढ़ने से भविष्य में होने वाली परेशानियों से वे वाकिफ थीं। इसलिए उनकी तरफ से नन्दो बुआ को ज़्यादा सहयोग और प्रोत्साहन मिलने लगा था।
नन्दो बुआ के बटुए में हमेशा आठ दस लड़कों-लड़कियों के फोटो और ज़रूरी जानकारी रहती थी। उनके संपर्क के लड़के अक्सर साधारण पढ़े-लिखे और छोटी-मोटी नौकरियों या धंधे वाले होते थे। आधुनिक घरों में उनकी पैठ कम थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के हाव-भाव उन्हें पसन्द नहीं आते थे। उन्हें परंपरावादी, रूढ़िवादी लोग ज़्यादा रास आते थे। ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़कों की डिग्रियाँ और योग्यताएँ उनकी समझ में नहीं आती थीं।
वे गीता की माँ को दो तीन लड़कों की जानकारी दे चुकी थीं। लड़के पढ़ने-लिखने में सामान्य थे लेकिन उनके परिवार मालदार थे, जो बुआ की नज़र में खास बात थी। बुआ गीता की माँ को आश्वासन देती रहती थीं कि उन लड़कों के परिवार इतने संपन्न थे कि लड़का ज़िन्दगी भर कुछ न करे तब भी उनकी बेटी को तकलीफ नहीं होगी।
गीता को बुआ की उसमें इतनी रुचि से चिढ़ होती थी। एक दिन उसने बुआ से कहा, ‘बुआ, थोड़ा गम खाओ। मुझे आदमी बन जाने दो।’
सुनकर बुआ ठुड्डी पर तर्जनी टिका कर बोलीं, ‘एल्लो, सुन लो पोट्टी की बातें! क्या अभी तू आदमी नहीं है?’
गीता ने जवाब दिया, ‘कहने को तो आदमी तब भी आदमी था जब वह गुफाओं में रहता था और पत्थर के हथियारों का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के आदमी और आज के आदमी में बहुत फर्क है।’
नन्दो बुआ ने अप्रतिभ होकर पूछा, ‘क्या मतलब है तेरा?’
गीता बोली, ‘मतलब यह कि लड़कियों को भी इतना मौका और वक्त दो कि वे दुनिया में अपने लिए जगह बना सकें। जिस दुनिया में रहती हैं उसे थोड़ा समझ सकें। लड़कियाँ उतनी कमजोर और लाचार नहीं होतीं जितना आप समझती हैं। वे अपने भविष्य का खयाल कर सकती हैं।’
बुआ पुचकार कर बोलीं, ‘अरे बिटिया, तू अभी नादान है। लड़की का जीवन बड़ा कठिन होता है। भले भले कट जाए तो गनीमत जानो। कब जरा सी बात पर बदनामी गले आ पड़े, कोई ठिकाना नहीं। हमारी सोसाइटी लड़कियों के लिए बड़ी निर्दयी होती है।’
गीता ने पलट कर प्रश्न किया, ‘यह बताओ बुआ कि आपकी सोसाइटी लड़कों और लड़कियों के बीच इतना भेद क्यों करती है? लड़कियों पर आप लोगों को भरोसा क्यों नहीं होता? सारी नसीहतें और सारे प्रतिबंध लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़कियों के आगे पीछे ताक- झाँक और जासूसी क्यों होती है? हमें अपने निर्णय करने की छूट क्यों नहीं मिलती?’
नन्दो बुआ निरुत्तर हो गयीं। ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘क्या कहें बिटिया, यह समाज ऐसा ही है। सदियों से यही होता रहा है।’
वैसे इस तरह की बातों से नन्दो बुआ को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लड़कियों की शादी कराना उनके लिए मिशन था। इस काम से उन्हें घरों में जो मान-सम्मान मिलता था वह उनकी पूँजी थी और उसे वे किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती थीं। इसलिए उन्होंने गीता की बातों को झाड़ कर दिमाग से निकाल दिया।
गीता तीसरी बार नीट की परीक्षा में बैठ गयी थी लेकिन अब उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। आँखों के सपने बुझ गये थे। इस बार असफल होने पर शायद शादी के सिवा कोई रास्ता न बचे। वह ऊपर से खुश दिखती थी, लेकिन मन पर उदासी की घेराबन्दी निरन्तर बढ़ रही थी। उसकी हार में नन्दो बुआ की जीत छिपी थी।
उस दिन गीता की माँ के पास नन्दो बुआ की बैठक जमी थी। नन्दो बुआ बताने आयी थीं कि एक लड़के ने गीता की फोटो को पसन्द कर लिया था। लड़के ने बी. कॉम. पास किया था और अब घर के धंधे में लगा था। नन्दो बुआ का विचार था कि एक बार गीता के पापा लड़के वालों से मिल लें तो बात आगे बढ़े।
तभी भीतर फोन की घंटी बजी। गीता ने फोन उठाया। उसकी सहेली का फोन था। फोन सुनती गीता की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी पड़ी— ‘वाउ, ग्रेट न्यूज़। आई एम सो हैप्पी।’
गीता बाहर निकली तो उसकी मुट्ठियाँ फैली हुई थीं और आँखें चमक रही थीं। चिल्ला कर बोली, ‘मम्मी, मैं नीट में पास हो गयी। मैं कितनी खुश हूँ!’
नन्दो बुआ हकला कर बोलीं, ‘बड़ी खुशी की बात है। तेरी मेहनत सफल हो गयी।’
गीता बोली, ‘हाँ बुआ! मेरी जान बच गयी। अब आप पिंजरे में डालने के लिए दूसरी लड़की ढूँढ़ो। मैं तो आकाश में उड़ने चली।’
बुआ का मुँह उतर गया, बोलीं, ‘उड़ो बेटा, खूब उड़ो। हम तो लड़कियों का भला करते हैं। तुम नहीं, और सही।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈