श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

कई दिनों से राई का पहाड़ देख रहीं हूँ, जैसे दाना गिरा वैसे  लोग झपटकर उसे उठा लेते हैं। बात का बतंगड़ बनाना और चीख चिल्लाहट करते हुए शांति की अपील करने का नाटक भला कब तक रास आएगा। कोई न कोई मुद्दा बना रहना चाहिए जिससे लोगों में उत्साह रहे।

कोई दस शीष लगा संकेतों में कुटिलता से हँस रहा है, कोई  धैर्यवान बन  पहाड़ टूट कर बिखरने का इंतजार कर रहा है। कोई कुछ भी न करते हुए बस दोषारोपण की राजनीति करता रहता। जिसको जैसा समझ में आयेगा वो वही तो करेगा।अपने – अपने तरकश से विष बुझे तीर चलाने में सभी उस्ताद हैं। जब भी युद्ध होता है परेशान निरीह प्राणी  होते हैं क्योंकि कोई जीते कोई हारे वे तो वही रहेंगे।  क्रोध की दशा में व्यक्ति की मनोवृत्ति का पता चलता है। पर कर्म योगी केवल कर्म को देखते हुए अराजक तत्वों को भी पुनः अपने स्नेह का पात्र बना लेते हैं।

सारी गड़बड़ियों की जड़ को पुनः अपना हिस्सा बना नए हिस्सों को जन्म देने लग जाते हैं।जब मन से मनुष्यता समाप्ति की ओर हो तो सब कुछ कैसे सही होगा।वैसे  ये घटनाक्रम तो  युग- युगान्तर से चल रहा है और इसके दोषी वही होते हैं जो गलतियाँ माफ़ करते हैं कोई कितना भी जरूरी क्यों न हो उसे  उसकी गलती का दंड मिलना चाहिए जैसे रावण, कंस, दुर्योधन व दुशासन को मिला।आवश्यकता इस बात की है कि सत्य को स्वीकार कर, सर्वधर्म सद्भाव को बढ़ावा मिले, अच्छी भावनाओं को फैलाते हुए नेकी करने वालों का सम्मान हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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