श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “वन तपोवन सा प्रभु ने किया…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 199 ☆ वन तपोवन सा प्रभु ने किया

भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं। कठोर निर्णय भले ही हृदय विदारक  हों किंतु न जाने कितनों को शिक्षित करते जाते हैं।

जब सब कुछ सहजता से मिलने लगे तो व्यक्ति उसका महत्व नहीं समझता ,मजाक बनाकर रख देता है। सम्मानित लोगों को अपमानित करना उसके बाएँ हाथ का खेल होता है। इस हार ने न जाने कितनों को आत्म मूल्यांकन हेतु विवश किया है। जो इस क्षेत्र के नहीं हैं वे भी कहीं न कहीं मानसिक रूप से इससे जुड़ाव कर रहे थे। एक साथ इतनी उम्मीदों का टूटना जिसकी आवाज सदियों तक ब्रह्मांड में गूंजती रहेगी।

कोई एक तत्व इसके लिए जिम्मेदार हो तो कहें पूरा का पूरा कुनबा वैचारिक रूप से अहंकारी हो गया था। बड़ बोलापन, शक्ति का केंद्रीकरण, एकव्यक्ति पूरी दुनिया बदल देगा ये भ्रम टूटना आवश्यक है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति एक बराबर मूल्यवान है। संख्या बल योग्यता को नहीं परखता। ये सही है कि एक तराजू में सबको तौलने से योग्यता की उपेक्षा होती है जिसका दुष्परिणाम कार्यों  में झलकता है।

जब भी अयोग्य लोगों ने चालबाजियों का सहारा लिया है तो उन्हें हारे का सहारा भी नहीं मिलता है क्योंकि सत्य और ईमानदारी की ताकत के आगे कोई नहीं टिक सकता। सत्य भले ही कुछ समय के लिए बेबस दिखे किंतु सत्य अड़िग और चमकदार होता है तभी तो सत्यम शिवम सुंदरम से आगे कुछ भी नहीं होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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