हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 33 – देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।

करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।

एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।

गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।

गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।

ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ नफ़रत का दरिया … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नफ़रत का दरिया ।)  

? अभी अभी ⇒ नफ़रत का दरिया ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किसी सयाने ने कहा, नेकी कर, दरिया में डाल, हमें कहां नेकी का अचार डालना था, पूरी की पूरी नेकी, दरिया में डाल दी।

लोग जैसे बहती गंगा में हाथ धोते हैं, लोगों ने लगे हाथ नेकी के दरिये में भी डुबकी मार ली। गंगा ने सारे पाप धो दिए, घर बैठे नेकी भी बिना कौड़ी खर्च किए चली आई। इसे कहते हैं, मुफ्त का सच्चा सौदा।

उधर हम नेक दिल, अपनी नेकी मुफ्त में ही दरिया में बहा आए, तो हमारे पास क्या बचा, बाबा जी का ठुल्लू ! बड़े दरियादिल बने फिरते थे, नेकी के जाते ही संगदिल बन बैठे। ।

जिस तरह खाली दिमाग शैतान का घर होता है, अगर दिल से नेकी निकल जाए तो क्या बचेगा

उसमें नफरत के सिवाय। नेकी के कारण जो दिल दरिया था, नेकी के जाते ही नफरत का समंदर हो गया। आपने सुना नहीं ;

मुखड़ा क्या देखे दर्पण में।

तेरे दया धरम नहीं मन में ..

ये दया धरम का ही तो नाम नेकी है, आखिर और क्या है नेकी। जब हम धरम की बात करते हैं, तो यह वह धर्म नहीं है, जिस धर्म की ध्वजा फहराई जाती है, और उसका गुणगान किया जाता है, यह साधारण सा, आम आदमी वाला, ईमान धरम है, जो किसी जात पांत और हिंदू मुस्लिम के धर्म को नहीं मानता, सिर्फ इंसानियत के धर्म को मानता है।

जहां ईमान है, वहीं तो धरम है। यारी है ईमान मेरा, यार मेरी बंदगी। जब हम गंगा को मैला होने से नहीं बचा पाए, तो यह नेकी का दरिया क्या चीज है। जिस तरह मन चंगा तो कठौती में गंगा, उसी प्रकार हमारे अंदर अगर नेकी है, तो कभी हमारे दिल में नफरत प्रवेश कर ही नहीं सकती। ।

चारों ओर नेकी ही तो बह रही है। नेक बनाने के भी कई मेक बाजार में उपलब्ध हैं आजकल। गुरुकुल, कॉन्वेंट, सभी नेक बालकों का ही सांदीपनी आश्रम है। सुदामा और कृष्ण दोनों यहीं के रिटर्न हैं। जरा नेकी के दरिये तो देखें, शिक्षक, चिकित्सक, व्यापारी, उधोगपति, वकील, नेता और समाज सुधारक। कितनी नेकी फैल रही है इस देश में, फिर यह नफरत की बू कहां से आ रही है।

नेकी को व्यर्थ दरिया में ना बहाएं, बस नेकदिल बने रहें, तो हर दिल एक मंदर होगा, हर इंसान नेकी का समंदर होगा, नफरत का कहीं नामोनिशान ना होगा ..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 189 ☆ परिदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 189 परिदृश्य ?

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात ‘न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।’

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के द्वादशवें श्लोक के माध्यम से आया यह योगेश्वर उवाच मनुष्य जीवन के शोध और सरल बोध का पाथेय है। 

मनुष्य जीवन यद्यपि सहजता और सरलता का चित्र है पर मनुष्य विचित्र है। वह सरल को जटिल बनाने पर तुला है। इस सत्य के अवलोकन के लिए किसी प्रकार के प्रज्ञाचक्षु की आवश्यकता नहीं है। जीवन का अपना अनुभव पर्याप्त है। केवल अपने अनुभव  को पढ़ा जाय, अपने अनुभव को गुना जाय तो प्रकृति की सरलता में विद्यमान गूढ़ रहस्य सहज ही सुलझने होने लगते हैं।

एक उदाहरण मृत्यु का लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। कभी ग़ौर किया कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती मानो उसका ही प्रतिबिम्ब बन जाता है। कई बार अलग-अलग परिजनों में दिवंगत के स्वभाव, शैली, व्यक्तित्व का अंश दिखने लगता है।

“इसका चेहरा दिवंगत जैसा दिखता है। वह दिवंगत की तरह बातें करता है, हँसता है, नाराज़ होता है। उसकी लिखाई दिवंगत जैसी है, वह उठता-बैठता स्वर्गीय जैसा है।”  ऐसा नहीं है कि ये बातें केवल मनुष्य तक सीमित हैं। देखें तो पक्षियों और प्राणियों पर, चर और अचर पर भी लागू है यह सूत्र। 

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है।

सत्य यही है कि जानेवाला कहीं नहीं जाता पर किसी एक या अनेक में बँटकर यहीं विद्यमान रहता है। विचार करने पर पाओगे कि विधाता ने तुम्हें सूक्ष्म की अमरता दी है पर तुम स्थूल की नश्वरता तक सीमित रह जाते हो। अपनी रचना ‘सुदर्शन’ में इस अमरता को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया था,

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

और कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा,

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला,

जो नश्वर था कल तक,

आज ईश्वर हो गया..!

स्मरण रहे, जब कोई एक होता अदृश्य है तो दूसरा हो जाता उसके सदृश्य है। हर ओर यही दृश्य है, जगत का यही परिदृश्य है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ एक चतुर नार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक चतुर नार”।)  

? अभी अभी ⇒ एक चतुर नार? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

पुरुष के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन नारी के मेरी दृष्टि में केवल दो प्रकार ही होते हैं। एक सीधी सादी महिला और एक समझदार महिला। जो समझदार होता है, उसे चतुर कहते हैं। चतुर होना और सीधा होना, दोनों मानवीय गुण हैं।

सन् 1968 में एक हास्य प्रधान फिल्म आई थी, पड़ोसन जिसकी नायिका एक चतुर नार थी और नायक एक भोला भाला इंसान।

वो लड़की बिंदु थी, और वो लड़का भोला था और एक संगीत मास्टर बिंदु को संगीत सिखाने आते थे, लेकिन सिखाते कुछ और ही थे। ।

बिंदु नायिका का नाम था। बिंदु की मां को बिंदु की शादी की बड़ी चिंता रहती थी, जब कि बिंदु के पिताजी का कहना था, जब जब जो जो होना होता है, तब तब सो सो होता है, बिंदु की मां।

इसी फिल्म का एक लोकप्रिय गीत था, एक चतुर नार बड़ी होशियार ! क्या नारी ही चतुर होती है, पुरुष नहीं होता ? शास्त्रों में चतुर शब्द का अर्थ बुद्धिमान और प्रज्ञा वान भी बताया गया है। गीतकार प्रदीप फिर भी कह गए हैं, कोई लाख करे चतुराई, करम का लेख मिटे ना रे मेरे भाई। ।

आप मानें या ना मानें, पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक चतुर और समझदार होती हैं। वे घर की मालकिन भी हैं और अन्नपूर्णा भी। उनसे ही घर घर कहलाया। बहुत कम घर ऐसे होंगे जहां चूड़ियों की खनक ना हो, फिर भी रौनक हो। घर के बर्तनों की आवाज़ में जब किसी किसी समझदार महिला की आवाज़ शामिल होती है, तब ही मेहमान समझ जाता है, बस अब चाय और नाश्ते की ट्रे आई ही आई।

अगर औरत चतुर ना हो, तो पुरुष घर का तो कबाड़ा ही कर डाले। पाई पाई कैसे बचाई जाती है, काम वाली बाई से कैसे काम लिया जाता है, सब्जी वाले से कितना मोल भाव किया जाता है, यह सब पुरुषों का विभाग है ही नहीं। सुनो, पेपर वाला आया है, उसका हिसाब कर दो। और पेपर वाला भी समझ जाता है, घर के कैलेंडर में दूध वाले के साथ उसका भी हिसाब होना है। मजाल है एक भी नागा छूट जाए। ।

हमारे बोलचाल की भाषा में ऐसे गुणी लोगों को चतरा और चतरी कहते हैं। जिस घर में पुरुष सीधा है वहां महिला का तेज तर्रार होना बहुत ज़रूरी है। क्या बात है, आज बाई साब नहीं हैं, मायके गई हैं, अच्छा इसीलिए शांति है। और पुरुष घर में हो, ना हो, क्या फर्क पड़ता है। होगा कहीं किताबों, अथवा टीवी न्यूज के बीच।

जो पुरुष चतरे होते हैं उन्हें सयाना नहीं श्याणा कहते हैं। अधिक शंकालु एवं कंजूस किस्म के लोग होते हैं ये। फिर भी समय हमें सावधान तो करता ही रहता है। आज जब कोरोना का प्रकोप जारी है, सावधानी और चतुराई में ही समझदारी है। व्यवहार में और अधिक संयत और सतर्क रहना जरूरी है। ।

आज मानवीय रिश्ते दांव पर लगे हुए हैं। भलमनसाहत और सीधा पन अभिशाप बन चुका है। केवल अपना हित साधना ही समय की मांग है। किसी को गले लगाना, पास बिठाना, सुख दुख की बात करना, मानो एक सपना था। अब टूट गया है। टूट गई है माला, मोती बिखर गए। दो दिन रहकर साथ, जाने किधर गए।

इतनी भयानक त्रासदी के बीच भी लोगों का राग द्वेष कम नहीं हो रहा। स्वार्थ और लालच बढ़ता ही जा रहा है। क्या इंसान वाकई ज़्यादा चतुर हो गया है। इसे केवल समय की दोहरी मार ही कहा जा सकता है। ।

 हम चतरे भले ही नहीं, लेकिन आज मजबूर हैं, असहाय हैं, दिल टूटा है फिर भी, मत कहिए किसी को ;

पास बैठो, तबियत बहल जाएगी

मौत भी आ गई हो, तो टल जाएगी।

कुछ इस तरह की चतुराई ईश्वर ना करे, शायद हमें भी दिखानी पड़े ;

दूर रहकर ही करो बात

करीब ना आओ।

हो सके तो अब फोन पर ही बतियाओ। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ हास्य और व्यंग्य… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हास्य और व्यंग्य।)  

? अभी अभी ⇒ हास्य और व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हास्य, हंसने की चीज है, व्यंग्य समझने की चीज है। किसी बात को बिना समझे भी हंसा जा सकता है, और किसी बात को समझने के बाद हंसी गायब भी हो सकती है। यूं तो हास्य और व्यंग्य का चोली दामन का साथ है लेकिन अगर अंडे मुर्गी की तरह पूछा जाए कि पहले हास्य आया या व्यंग्य, तो शायद हास्य ही बाज़ी मार ले जाए।

व्यंग्य को बुरा भी लग सकता है कि जीवन में हास्य को व्यंग्य से अधिक महत्व  क्यों दिया गया है। जिस प्रकार हास्य और व्यंग्य की जोड़ी है, वैसे ही हंसी और खुशी की भी जोड़ी है। अगर आप हंस रहे हैं और खुश नहीं हैं, तो यह फीकी हंसी है। इसी तरह जो व्यंग्य आपमें निराशा अथवा अवसाद की उत्पत्ति करे, वह भी व्यंग्य नहीं है। सकारात्मकता हास्य और व्यंग्य दोनों के आवश्यक तत्व हैं। हास्य अगर आपको हंसा सकता है तो व्यंग्य आपको गुदगुदा भी  सकता है और चिकौटी भी काट सकता है, लेकिन आपको आहत नहीं कर सकता, आपकी आत्मा को कष्ट नहीं पहुंचा सकता। ।

एक नवजात शिशु, अपनी मां के पास लेटा है। रात का वक्त है, मां गहरी नींद में सो रही है। अचानक बालक की आंख खुलती है, उसके शरीर में हलचल होती है। उसने बाबा रामदेव का न तो नाम सुना है और न ही कोई योग की ट्रेनिंग ली है। कुछ ही समय में वह उघाड़ा पड़ा हुआ, हाथ पांव चला चलाकर व्यायाम कर रहा है और ज़ोर ज़ोर से किलकारी मार रहा है।

मां की नींद खुलती है, किंकर्तव्यविमूढ़ हो वह उसे प्यार से अपने आंचल में छुपा लेती है। इस किलकारी का कोई मोल नहीं। हास्य और व्यंग्य इसके आगे पानी भरते हैं।

अक्सर बच्चे बात बात पर ताली बजाकर हंसते रहते हैं। उनका हंसना, खिलखिलाना, एक कली का मुस्कुराना है, एक फूल का खिलना है। बच्चों में ज़िन्दगी की सुबह है, बुढ़ापे में ज़िन्दगी की शाम है। अगर जीवन में हास्य बोध है तो ज़िन्दगी की शाम भी रंगीन है। ।

किसी पर हंसना अथवा किसी का अपमान करना या उस पर ताने कसना , न तो हास्य की श्रेणी में आता है और न ही व्यंग्य की श्रेणी में। नवरस में हास्य को भी रस माना गया है। विसंगति में भी रस की निष्पत्ति जहां है, वह व्यंग्य है। व्यंग्य एक साहित्यिक विधा है, हास्य , एक स्वस्थ जीवन का निचोड़ है।

अपने कई हास्य फिल्म देखी होगी। व्यंग्य फिल्माया नहीं जा सकता। सिनेमा और नाटक में हास्य कलाकार और विदूषक होते हैं, व्यंग्य कलाकार नहीं। पंच मारा जा सकता है। पंच पर भी ताली ठोकी जा सकती है।

हास्य को अंग्रेजी में laughter कहते हैं। एक कहावत भी है – Laughter is the best medicine. अनावश्यक हंसना अथवा मौके की नज़ाकत को देखे बिना हंसना, पागलपन की निशानी है। जीवन में हास्य बोध होना बहुत ज़रूरी है। जिन लोगों में sense of humour नहीं है, लोग उनसे दूर रहना ही पसंद करते हैं। क्या भरोसा, कब खसक जाए। ।

जब भी व्यंग्य की चर्चा होगी, कबीर को अवश्य याद किया जाएगा। सहज शब्दों में गूढ़ार्थ एवं शब्दों की मार एक साथ और कहीं देखने को नहीं मिलती। धार्मिक पाखंड और अंध विश्वास पर मुगल शासन में प्रहार कोई जुलाहा ही कर सकता है। काहे का ताना, काहे का बाना। समाज की विसंगतियां ही व्यंग्य को समृद्ध करती हैं। कांग्रेस का कुशासन व्यंग्य के लिए वरदान सिद्ध हुआ। अब सुशासन में व्यंग्य चुभने लगा है। हास्य बोध का स्थान आक्रोश और क्रोध ने ले लिया है। व्यंग्यकार को सकारात्मक व्यंग्य की ऐसी  विधा तलाशनी पड़ेगी जो सत्ता को भी नाखुश ना करे।

अभी कुछ दिन पहले कपिल के कॉमेडी शो पर अनुपम खेर और सतीश कौशिक का पदार्पण हुआ। क्या हंसी के ठहाके लगे हैं, दोस्ती दुश्मनी की मीठी यादों की चाशनी में सराबोर, दोनों कलाकारों ने ऐसा समां बांधा कि लगा बहुत दिनों बाद कोई अच्छा प्रोग्राम देखने को मिला है। अपनी असफलताओं पर हंसना कोई सतीश कौशिक से सीखे।

खुद पर हंसना श्रेष्ठ है। मिल जुलकर हंसना स्वस्थ रहने की निशानी है। विकृत राजनीति के चलते हंसी खुशी का स्थान निंदा स्तुति ने ले लिया है। जब आप साल भर बुरा मानते रहे हैं, तो होली पर बुरा न मानो होली है, का भी क्या औचित्य ? किलकारी न सही, कहकहे तो लग सकते हैं, खुले मन से अट्टहास तो किया जा सकता है। हास परिहास ही जीवन है। किसने कहा, हंसना मना है। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #181 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 181 ☆

☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब 

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन मे ं इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ अंगूठे का कमाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंगूठे का कमाल”।)  

? अभी अभी ⇒ अंगूठे का कमाल? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अंगूठी उंगलियों में शोभा देती है, अंगूठे में नहीं। कहने को हमारे हाथों में पांच पांच उंगलियां हैं, लेकिन उंगली, उंगली है और अंगूठा, अंगूठा। जब यह किसी कागज़ पर लगाया जाता है तब तो अंगूठा निशानी बन जाता है, लेकिन जब किसी को दिखाया जाता है, तो ठेंगा कहलाता है।

बड़े मोटे होते हैं ये अंगूठे, चाहे हाथ के हों, या दोनों पांव के। पतली पतली नाजुक उंगलियों की तुलना में आप इन्हें, मोटा

हाथी भी कह सकते हैं। बचपन में हमारा शरीर इतना लचीला होता है कि एक नन्हा सा बालक हाथ का ही नहीं, अपने दोनों पांवों का अंगूठा भी आसानी से चूस सकता है। ऐसा क्या है इस अंगूठे में, कि कुछ बच्चे पेट भरने के बाद भी अंगूठा ही चूसा करते हैं। अंगूठा, हमारे जमाने की चुस्की था। कोई हमें क्या बहलाएगा, हमारा अंगूठा ही हमारे काम आएगा। ।

निरक्षर को बोलचाल की भाषा में अंगूठा छाप कहते हैं। जहां पढ़े लिखे अपने हस्ताक्षर छोड़ते हैं, वहां एक अनपढ़ बड़े आत्म विश्वास के साथ, अपना अंगूठा निशानी छोड़ जाता है। जब वे इस संसार से गए, तो अपने बाद, कई कानूनी कागजों और दस्तावेजों पर अपने अंगूठे की छाप छोड़ गए।

साक्षरता अभियान में हमारे कई अनपढ़ लोगों ने अपने हस्ताक्षर करना सीख लिया। अब रामप्रसाद गर्व से अपने हस्ताक्षर करता है, अंगूठा नहीं लगाता। वैसे उसके लिए आज भी काला अक्षर भैंस बराबर ही है। उसका आज भी यही मानना है, कि ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय, जब कि रामप्रसाद तो ढाई नहीं, पांच अक्षर लिख और बांच सकता है, तो क्या वह महा पंडित नहीं हुआ। ।

हमारा केरल प्रदेश सौ प्रतिशत साक्षर है, लेकिन वहां के पढ़े लिखे लोगों को नौकरी करने अन्य प्रदेशों में जाना पड़ता है, जहां आज भी गांव गांव में आंगनवाड़ी और प्रौढ़ शिक्षा अभियान जारी है। आज भी याद आता है, अटल जी का आव्हान, चलो इस्कूल चलें। कितना ठंडा ठंडा, कूल कूल, हमारा स्कूल।

द्वापर युग में ही कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य, अंगूठे का महत्व जान गए थे, तभी तो अपने ऑनलाइन शिष्य एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। ये अंगूठा मुझे दे दे, सत् शिष्य ! कोई आज का शिष्य होता तो अपने गुरु को अंगूठा दिखा देता, अब तो गुरुजी सरकार तो मुझे स्कॉलरशिप दे रही है, और आपको दो कौड़ी की तनख्वाह। जाओ, कहीं और ट्यूशन करो। ।

जब से हमारा देश पेपर करेंसी से मुक्त हुआ है, वह पूरी तरह डिजिटल हो चुका है। कागज की महत्ता को देखते हुए, सभी शासकीय और अर्ध शासकीय कामकाज, पेपरलेस होते चले जा रहे हैं। दफ्तरों में हाजरी रजिस्टर नहीं, ई – हस्ताक्षर किए जा रहे हैं। संचार क्रांति आजकल डिजिटल क्रांति बन चुकी है।

हमने भी कब से कागज पत्तर और कलम दवात का मोह छोड़ दिया है। आज हमारे हाथ में भी स्मार्ट एंड्रॉयड फोन, लैपटॉप, डेस्क टॉप और कंप्यूटर है। लेकिन हम इतने लालची नहीं ! आज भी एक अदद 4-G एंड्रॉयड फोन से हम सभी लिखा पढ़ी, चिट्ठी पत्री और चैटिंग सफलतापूर्वक संपन्न कर लेते हैं, और इसमें हमारा एकमात्र सहारा और सहयोगी होता है, हमारा मात्र अंगूठा। ।

कभी जब हमारी उंगलियां टाइपराइटर पर चलती थी, तो दसों उंगलियों को रोजगार मिल जाता था। हम जब टाइप करते थे, तो लगता था, हम कोई हरमुनिया बजा रहे हैं। सारेगम, पधनीसा की जगह हमारा हिंदी कीबोर्ड होता था, बकमानजन, सपिवप।

अंग्रेजी कीबोर्ड आज भी यूनिवर्सल है, asdfg, hjkl इत्यादि इत्यादि।

अब मात्र चार अंगुल का तो हमारा एंड्रॉयड फोन का की -बोर्ड, कहां कहां उंगली रखी जाए ? आपको आश्चर्य होगा, हमारा केवल अंगूठा किस खूबी और दक्षता से पूरा की बोर्ड चला लेता है। एक हाथ में मोबाइल और दूसरे हाथ का केवल अंगूठा ही यह अभी अभी रोज इसी तरह आपकी सेवा में प्रस्तुत करता चला आ रहा है। मुझे नहीं पता, आप कौन से कर कमल से यह कार्य निष्पादित करते हैं। ।

मेरे मन मस्तिष्क ने महर्षि वेद व्यास की तरह, मेरे अंगुष्ठ रूपी श्रीगणेश को, विचारों की श्रृंखला को, एक कड़ी में पिरोकर, अग्रेषित किया और हमारे अंगुष्ठ महाराज, गणेश जी की तरह, फोन के की बोर्ड पर, उसे यथावत उतारते चले गए। इसमें हमारे अथवा मेरे मैं का कोई योगदान नहीं।

तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। यह सिर्फ हमारे अंगूठे का कमाल है। अगर कुछ अच्छा है तो वह सब उसका है, अगर अच्छा नहीं, तो सब कुछ मेरा है।

थ्री चीयर्स एंड थम्स अप।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 147 ☆ शठे शाठ्यं समाचरेत्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शठे शाठ्यं समाचरेत्…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 147 ☆

☆ शठे शाठ्यं समाचरेत्

अक्सर लोग शीर्ष पर पहुँचने की चाहत में अपनों का साथ खो देते हैं, और जब उल्लास का समय आता है तो बनावटी भीड़ इक्कठी करके उत्सव मनाने लगते हैं।

क्या आपने कभी गौर किया कि वास्तविक शुभचिंतक व अवसरवादी शुभचिंतक में क्या अंतर है। ऐसे लोग जो सामने कड़वा बोलकर रास्ता दिखाते हैं वे ही हमारा हित चाहते हैं। अतः ऐसे रास्तों का चुनाव करें जो सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास पर आधारित हो जिससे सबका कल्याण हो।

कहते हैं जैसी सोच होगी वैसे ही परिणाम मिलेंगे। हमेशा देखा जाता है कि सामान्य लोग कई बार ऐसे कार्य कर बैठते हैं, जो बड़े- बड़े लोगों द्वारा भी सम्भव नहीं होता। उसका कारण भाग्यशाली होना नहीं होता वरन ये सब उनकी इच्छा शक्ति का कमाल होता है, जो उन्होंने ऐसे विचारों को अपनाकर न केवल कल्पना के घोड़े दौड़ाए वरन उसे अमलीजामा भी पहनाया और समाज के प्रेरक बन कर उभरे।

किसी से सम्बन्ध बनाना जितना सरल होता है, उसका निर्वहन उतना ही कठिन होता है। हर मुद्दे पर सबकी राय एक नहीं हो सकती तब कार्य के दौरान खासकर प्रशासकीय कार्यों में मतभेद पनपने लगते हैं और गुटबाजी के रूप में लोग मजबूत व्यक्ति की ओर झुक जाते हैं जिसका असर सुखद नहीं होता है।कार्य की गुणवत्ता धीरे- धीरे कम होने लगती है। समय पास ही साधन और साध्य बनकर उभरता है।

कटु वचन और धूर्तता पूर्ण व्यवहार सबको समझ में आता है पर लोग विरोध नहीं करते क्योंकि वे सोचते हैं यदि मेरे साथ ऐसा होगा तब देखा जायेगा और इसी चक्रव्यूह में एक एक कर सारे सम्बन्ध दम तोड़ देते हैं। इस सम्बंध में संस्कृत की ये कहावत तर्क संगत प्रतीत होती है-

कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।

तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत् ॥

(विदुर नीति)

अर्थात जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करो। खग जाने खग ही की भाषा। महाभारत इसी को आधार मानते हुए अधर्म पर धर्म का युद्ध था।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 210 ☆ आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 210 ☆  

? आलेख – महिला व्यंग्यकारों का अवदान?

विश्व की आबादी आठ सौ करोड़ पार होने को है, कमोबेश इसमें महिलाओ की संख्या पचास प्रतिशत है. यद्यपि भारत में स्त्री पुरुष के इस अनुपात में स्त्रियों की सँख्या अपेक्षाकृत कम है. पितृसत्तात्मक समाज होने के चलते प्रायः सभी क्षेत्रों में लंबे समय से पुरुष स्त्री पर हावी रहा है.सिमोन द बोउवार का कथन है, “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है”, समाज अपनी आवश्यकता के अनुसार स्त्री को ढालता आया है. उसके सोचने से लेकर उसके जीवन जीने के ढंग को पुरुष नियंत्रित करता रहा है और आज भी करने की कोशिश करता रहता है. किंतु अब महिलाओ को पुरुषों के बराबरी के दर्जे के लिये लगातार संघर्षरत देखा जा रहा है. विश्व में नारी आंदोलन की शुरुवात उन्नीसवीं शताब्दि में हुई. नारी आंदोलन लैंगिक असमानता के स्थान पर मानता है कि स्त्री भी एक मनुष्य है. वह दुनिया की आधी आबादी है. सृष्टि के निर्माण में उसका भी उतना ही सहयोग है जितना कि पुरुष का. स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री विमर्श से जन चेतना जागी हैं. अब जल, थल, नभ, अंतरिक्ष हर कहीं महिलायें पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं.

विभिन्न भाषाओ के साहित्य में भी महिला रचनाकारों ने महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया है. अनेक महिला रचनाकारों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं. 2022 का नोबल फ्रेंच लेखिका एनी एनॉक्स को मिला है. 82 वर्षीय एनॉक्स साहित्य का नोबेल पाने वाली सत्रहवीं महिला हैं.पूरी दुनियां में हर साल आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य की पंक्ति है कि “दिवस कमजोरों के मनाए जाते हैं, मजबूत लोगों के नहीं. “ सशक्त होने का आशय केवल घर से बाहर निकल कर नौकरी करना या पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना भर नहीं है. वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साहित्य और खास कर किसी पर व्यंग्य कर सकने की क्षमता और स्वतंत्रता में निहित है. भारत में ऐसी ढ़ेर विसंगतियां हैं जिनसे सीधे तौर पर महिलायें प्रभावित होती हैं, उदाहरण के लिये सबरीमाला या अन्य धर्म के स्थलों पर महिलाओ के प्रवेश पर रोक, धर्म-जाति के गठजोड़, रूढ़ि व अंधविश्वास ने महिलाओं को लगातार शोषित किया है. इन मसलों पर जिस तीक्ष्णता से एक महिला व्यंग्यकार लिख सकती है पुरुष नहीं. कहा गया है जाके पांव न फटे बिवाई बा क्या जाने पीर पराई. किंतु विडम्बना है कि लम्बे समय तक व्यंग्य पर पुरुषों का एकाधिकार रहा है. यह और बात है कि लोक जीवन और लोकभाषा में व्यंग्य अर्वाचीन है. सास बहू, ननद भौजाई के परस्पर संवाद या, बुन्देलखण्ड, मिथिला, भोजपुरी में बारात की पंगत को सुस्वादु भोजन के साथ हास्य और व्यंग्य से सम्मिश्रित गालियां तक देने की क्षमता महिलाओ में ही रही है. हिमाचल में ये विवाह गीत सीठणी काहे जाते हैं जिनमें यहि भाव भंगिमा और व्यंग्य सजीव होता है. साहित्यिक इतिहास में भक्ति आंदोलन के समय में महिला रचनाकारों ने खूब लिखा, मीरा बाई की रचनाओ में व्यंग्य के संपुट ढ़ूंढ़े भी जा सकते हैं.

आज साहित्य में व्यंग्य स्वतंत्र विधा के रूप में सुस्थापित है. समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से तंज किया जाता है. लघु कथा की तरह संक्षेप में घटनाओं पर व्यंग्य होता है, जो हास्य, और आक्रोश भी पैदा करता है. विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल से ही साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति मिलती है. चार्वाक के ‘यावद जीवेत सुखं जीवेत, ॠणं कृत्वा घृतम् पिवेत् ’ के माध्यम से स्थापित मूल्यों के प्रति प्रतिक्रिया को इस दृष्टि से समझा जा सकता है. सर्वाधिक प्रामाणिक व्यंग्य की उपस्थिति कबीर के ‘पात्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार’ तथा ‘ कांकर पाथर जोड़ कर मस्जिद दयी बनाय ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा भया खुदाय’ आदि के रूप में देखी जा सकती है. हास्य और व्यंग्य का नाम साथ साथ लिया जाता है पर उनमें व्यापक मौलिक अंतर है. साहित्य की शक्तियों अभिधा, लक्षणा, व्यंजना में हास्य अभिधा, यानी सपाट शब्दों में हास्य की अभिव्यक्ति के द्वारा क्षणिक हंसी तो आ सकती है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकती. व्यंजना के द्वारा प्रतीकों और शब्द-बिम्बों के द्वारा किसी घटना, नेता या विसंगितयों पर प्रतीकात्मक भाषा द्वारा जब व्यंग्य किया जाता है, तो वह अपेक्षकृत दीर्घ कालिक प्रभाव छोड़ता है. श्रेष्ठ साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति महत्वपूर्ण है. व्यंग्य सहृदय पाठक के मन पर संवेदना, आक्रोश एवं संतुष्टि का संचार करता है. स्वतंत्रता पूर्व व्यंग्य लेखन की सुदीर्घ परंपरा मिलती है.

भारतेंदु हरिशचंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट तथा अन्य लेखकों का बड़ा व्यंग्य समूह था, इनमें बाबू बालमुकुंद गुप्त के धारावाहिक ‘शिव शंभू के चिट्ठे’ युगीन व्यंग्य के दिग्दर्शक हैं. वायसराय के स्वागत में उस समय उनका साहस दृष्टव्य है- “माई लार्ड, आपने इस देश में फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई. विद्वान, बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है. आप में उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राज शक्ति का है. अतः आपके श्रीचरण स्पर्श से भारत भूमि तीर्थ से भी कुछ बढ़कर बन गई. भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देश के मंगल की इच्छा आपके हृदय में उत्पन्न करे. ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि शिव शंभु के पास नहीं है, तथापि वह इस देश की प्रजा का, यहां के चिथड़ा पोश कंगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है. गांव में उसका कोई झोंपड़ा नहीं, जंगल में खेत नहीं…. हे राज प्रतिनिधि, क्या उसकी दो-चार बातें सुनिएगा?”… इसमें अंतर्निहित कटाक्ष व्यंग्य की ताकत हैं. रचना के इस व्यंग्य कौशल को आधुनिक व्यंग्य काल में परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, शंकर पुणतांबेकर, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, विष्णुनागर जैसे लेखको ने आगे बढ़ाया है.

डा शैलजा माहेश्वरी ने एक पुस्तक लिखी है ” हिंदी व्यंग्य में नारी” इस किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक और संपादक यशवंत कोठारी ने लिखी है. इस भूमिका आलेख में उन्होंने आज की सक्रिय महिला व्यंग्यकारो का उल्लेख किया है. डा प्रेम जनमेजय व्यंग्य पर सतत काम कर रहे हैं, उन्होने पत्रिका “व्यंग्य यात्रा” का जनवरी से मार्च २०२३ अंक ही ” हिन्दी व्यंग्य में नारी स्वर ” पर केंद्रित किया है. मैं लंबे समय से पुस्तक चर्चा करता आ रहा हूं और विगत कुछ वर्षो में प्रकाशित व्यंग्य की प्रायः किताबें मेरे पास हैं, इन सीमित संदर्भों को लेकर कम शब्दों में आज सक्रिय व्यंग्य लेखिकाओ के कृतित्व के विषय में लिखने का यत्न है. यद्यपि मेरा मानना है कि व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप और अवदान पर शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है. जिन कुछ सतत सक्रिय महिला नामों का लेखन पत्र, पत्रिकाओ, सोशल मीडिया में मिलता रहा है उनकी किताबों के आधार पर संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास है.

 स्नेहलता पाठक… शंकर नगर, रायपुर की निवासी स्नेहलता पाठक की व्यंग्य की किताबें ” सच बोले कौआ काटे”, द्रौपदी का सफरनामा, एक दीवार सौ अफसाने, प्रजातंत्र के घाट पर, बाकी सब ठीक है, बेला फूले आधी रात, लोनम् शरणम् गच्छामी, व्यंग्यकार का वसीयतनामा, उन्होने उपन्यास लाल रिबन वाली लड़की भी लिखा है, और “व्यंग्य शिल्पी लतीफ घोंघी” किताब का संपादन भी किया है. उन्हें छत्तीसगढ़ की पहली गद्य व्यंग्य लेखिका सम्मान मिल चुका है. वे निरंतर स्तरीय लेखन में निरत दिखती हैं.

सूर्य बाला जी ने बहुत व्यंग्य लिखे हैं, उनकी व्यंग्य की पुस्तकें ” यह व्यंग्य कौ पन्थ”, ‘अजगर करे न चाकरी’, ‘धृतराष्ट्र टाइम्स’, ‘देशसेवा के अखाड़े में’, ‘भगवान ने कहा था’, ‘झगड़ा निपटारक दफ़तर’, आदि चर्चित हैं. वे बड़ी कहानीकार हैं और इतनी ही ज़िम्मेदारी तथा गम्भीरता से व्यंग्य भी लिखती हैं. कलम के पैनेपन से उन्होंने व्यंग्य को भी तराशा है वे व्यंग्य की सारी शर्तों को, अपनी ही शर्तों पर पूरा करनेवाली मौलिकता का दामन किसी भी व्यंग्य रचना में कभी नहीं छोड़तीं. उनका सफल कहानीकार होना उनको एक अलग ही क़िस्म का व्यंग्य शिल्प औज़ार देता है. व्यंग्य के परम्परागत विषय भी सूर्यबाला के क़लम के प्रकाश में एकदम नये आलोक में दिखाई देने लगते हैं। विशेष तौर पर, तथाकथित महिला विमर्श के चालाक स्वाँग को, लेखिकाओं का इसके झाँसे में आने को तथा स्वयं को लेखन में स्थापित करने के लिए इसका कुटिल इस्तेमाल करने को उन्होंने बेहद बारीकी तथा साफ़गोई से अपनी कई व्यंग्य रचनाओं में अभिव्यक्त किया है.

शांति मेहरोत्रा ने भी काफी लिखा है. वे पिछली सदी के पाँचवें-छठे दशक में सामने आईं कवयित्री, कथाकार, लघुकथा और व्यंग्य की सशक्त हस्ताक्षर रही हैं. ठहरा हुआ पानी उनका नाटक है

सरोजनी प्रीतम की हंसिकाएं काव्य भी खूब पढ़ी गयीं. लौट के बुद्धू घर को आये, श्रेष्ठ व्यंग्य, सारे बगुले संत हो गये आदि उनकी चर्चित पुस्तके हैं.

समीक्षा तैलंग.. मुझे स्मरण है तब मैं अपने पहले वैश्विक व्यंग्य संग्रह ” मिली भगत” पर काम कर रहा था. इंटरनेट के जरिये अबूधाबी में समीक्षा तैलंग से संपर्क हुआ. फिर जब उन्होंने उनकी पहली किताब छपवाने के लिये पान्डुलिपि तैयार की तो ” जीभ अनशन पर है ” यह नामकरण करने का श्रेय मुझे ही मिला, इस किताब में मेरी टीप उन्होने फ्लैप पर भी ली है. उसके बाद उनकी दूसरी किताब व्यंग्य का एपीसेंटर, संस्मरण की किताब कबूतर का केटवाक आदि आई हैं. वे निरंतर उत्तम लिख रही हैं.

मीना अरोड़ा हल्द्वानी से हैं. उन्होने पुत्तल का पुष्प बटुक व्यंग्य उपन्यास लिखा है, जिसकी चर्चा करते हुये मैने लिखा है कि “पुत्तल का पुष्प वटुक ” बिना चैप्टर्स के विराम के एक लम्बी कहानी है.जो ग्रामीण परिवेश, गांव के मुखिया के इर्द गिर्द बुनी हुई कथा में व्यंग्य के संपुट लिये हुये है. उनकी कविताओ की किताबें “शेल्फ पर पड़ी किताब” तथा ” दुर्योधन एवं अन्य कवितायें ” पूर्व प्रकाशित तथा पुरस्कृत हैं. मीना अरोड़ा की लेखनी का मूल स्वर स्त्री विमर्श है.

डा अलका अग्रवाल सिंग्तिया, का “मेरी तेरी सबकी” व्यंग्य संग्रह प्रकाशित है, इसके सिवा अनेक सहयोगी संग्रहों में उन्होने शिरकत की है, उनका उल्लेख इस दृष्टि से महत्व रखता है कि उन्होने हाल ही परसाई पर पी एच डी मुम्बई विश्व विद्यालय से की है.

अनिला चारक जम्मू कश्मीर से हैं. जम्मू कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी ने इनके कविता संग्रह ‘नंगे पांव ज़िन्दगी’ को बेस्ट बुक के अवार्ड से सम्मानित किया है. इनकी व्यंग्य की पुस्तक ‘मास्क के पीछे क्या है’ प्रकाशित हुई है.

अनीता यादव का व्यंग्य संग्रह ” बस इतना सा ख्वाब है ” आ चुका है, इसके सिवा कई संग्रहो मे सहभागी हैं तथा फ्री लांस लिखती हैं.

चेतना भाटी – साहित्य की विभिन्न विधाओ व्यंग्य – लघुकथा – कहानी – उपन्यास, कविता में लिखने वाली श्रीमती चेतना भाटी की अब तक कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं. जिनमें व्यंग्य संग्रह – दिल है हिंदुस्तानी, दुनिया एक सरकारी मकान है, विक्रम – बेताल का ई – मेल संवाद प्रमुख हैं. इसके सिवाय कहानी संग्रह – एक सदी का सफरनामा, नए समीकरण, जब तक यहाँ रहना है, ट्रेडमिल पर जिंदगी, एवं लघुकथा संग्रह – उल्टी गिनती, सुनामी सड़क, खारी बूँदें और उपन्यास – चल, आ चल जिंदगी, चंद्रदीप, बिग बॉस सीजन कोरोना प्रकाशित है.

सुनीता शानू…एक व्यंग्य संग्रह. “फिर आया मौसम चुनाव का(प्रभात प्रकाशन-1915)”, एक कविता संग्रह…मन पखेरू फिर उड़ चला (हिंद युग्म-1913), कई सांझा कविता एवं व्यंग्य संग्रह, वे पुरानी हिन्दी ब्लागर हैं.

डा नीरज सुधांशु.. आप वनिका प्रकाशन की संस्थापिका हैं. लिखी तो व्यथा कही तो लघुकथा आदि उनकी कृतियां हैं, मूलतः लघुकथा लिखती हैं जिनमें व्यंग्य के संपुट पढ़ने मिलते हैं. वे पेशे से डाक्टर हैं.

सीमा राय मधुरिमा का व्यंग्य संग्रह ” खरी मसखरी”, ” ब्लाटिंग पेपर” डायरी लेखन और कविता संग्रह मुखर मौन तथा मैं चुनुंगी प्रेम आ चुके हैं.

डा शशि पाण्डे,किताबें हैं चौपट नगरी अंधेर राजा (संग्रह), मेरी व्यंग्य यात्रा (संग्रह), व्यंग्य की बलाएं (संपादन), बकैती गंज ( हास्य साक्षात्कार संपादन)

नीलम कुलश्रेष्ठ.. महिला चटपटी बतकहियाँ (व्यंग्य संग्रह) के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं.

कीर्ति काले का संग्रह “ओत्तेरेकी” तैंतीस व्यंग्य लेखों का संकलन है. वे व्यंग्य जगत में जानी पहचानी लेखिका हैं.

वीणा वत्सल सिंह प्रतिलिपि डाट काम पर जाना पहचाना सक्रिय नाम हैं वे कहानियां लिखती हैं और अपने लेखन में व्यंग्य प्रयोग करती हैं.

नुपुर अशोक… पचहत्तर वाली भिंडी उनका व्यंग्य संग्रह है और मेरे मन का शहर उनकी कविता की प्रकाशित पुस्तकें हैं.

आरिफा एविस अपने व्यंग्य उपन्यास नाकाबन्दी के संदर्भ में लिखती हैं ” पिछले दिनों कश्मीर में जो हुआ उसे लेकर भारतीय मीडिया की अलग-अलग राय है. ऐसे में कश्मीर के जमीनी हालात को करीब से देखना, जहाँ फोन नेटवर्क बंद हो, कर्फ्यू लगा हुआ हो एक मुश्किल काम था. मैं कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर लेख, व्यंग्य, कहानी लिखने की सोच रही थी लेकिन उपरोक्त माध्यमों से पूरी बात कहना बड़ा ही मुश्किल था. इसलिए मैंने कश्मीर के नये हालात और उनसे उपजी कश्मीर की राजनीतिक, आर्थिक और मनोस्थिति बयान दर्ज करते हुए इसे उपन्यास की शक्ल में लिखा है. मास्टर प्लान उनका एक और उपन्यास है. राजनीतिक होली, जांच जारी है उनके व्यंग्य संग्रह हैं.

अनीता श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह – बचते- बचते प्रेमालाप, कविता संग्रह- जीवन वीणा, कहानी संग्रह- तिड़क कर टूटना, बालगीत संग्रह- बंदर संग सेल्फी छप चुके हैं. वे संभावनाशील व्यंग्यकार हैं.

अंशु प्रधान का व्यंग्य संग्रह हुक्काम को क्या काम, उपन्यास रक्कासा और कहानी संग्रह कफस प्रकाशित है.

इंद्रजीत कौर का संग्रह ” चुप्पी की चतुराई” प्रकाशित है, मठाधीशी और कठमुल्लापन के विरोध में लिखना साहस पूर्ण होता है. वे स्वयं सिक्ख धर्म से होते हुये भी अपने ही धर्म की कमियों पर बहुत साहस के साथ पंजाबी पत्रिका ‘पंजाबी सुमन ‘ में स्तम्भ लिखती रहीं हैं. उन्होंने एक अन्य व्यंग्य संग्रह ईमानदारी का सीजन, तथा पंचतंत्र की कथायें भी लिखे हैं.

अनामिका तिवारी जबलपुर से हैं…उन का प्रकाशित व्यंग्य संग्रह एक ही है ‘ दरार बिना घर सूना ‘ 2005 में दिल्ली शिल्पायन से प्रकाशित हुआ था. नाटक ‘ शूर्पनखा ‘ भी उन्होंने लिखा है.

अलका पाठक की पुस्तक – किराये के लिए खाली है.

पल्लवी त्रिवेदी पुलिस अधिकारी हैं. उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—‘अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा’ (व्यंग्य-संग्रह); ‘तुम जहाँ भी हो’ (कविता-संग्रह)। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रही हैं। लेखन के अतिरिक्त वे यात्राओं, संगीत व फ़ोटोग्राफ़ी का शौक रखती हैं. ‘तुम जहाँ भी हो’ पुस्तक के लिए उन्हें 2020 में मध्यप्रदेश के ‘वागीश्वरी सम्मान’ से सम्मानित किया गया.

साधना बलवटे ने समिक्षात्मक कृति “शरद जोशी व्यंग्य के आर पार ” लिखी है. उनका व्यंग्य संग्रह ” ना काहू से दोस्ती हमरा सबसे बैर ” सदयः प्रकाशित है.

अर्चना चतुर्वेदी का व्यंग्य उपन्यास गली तमाशे वाली बहू चर्चित है.

कांता राय मूलतः लघुकथायें लिखती हैं. जिनमें वे व्यंग्य का सक्षम प्रयोग करती हैं. उनकी विभिन्न विधाओ की कई किताबें प्रकाशित हैं.

शेफाली पाँडे, दलजीत कौर,सक्रिय बहुपठित लेखिकायें हैं. सुषमा व्यास राजनिधि की यद्यपि व्यंग्य केंद्रित किताब अब तक नहीं है पर वे व्यंग्य मंचो पर सक्रिय रहती हैं, मेधा झा स्फुट व्यंग्य लिखती हैं,वे अनेक संग्रहों में सहभागी हैं. सारिका गुप्ता स्फुट व्यंग्य लिख रही युवा व्यंग्यकार हैं, वे कानूनी विषय पर एक किताब लिख चुकी हैं. डा.शांता रानी ने हिंदी नाटकों में हास्य तत्व पुस्तक लिखी है. लक्ष्मी शर्मा मूलतः व्यंग्यकार नहीं हैं पर उनके उपन्यास, एकांकी में व्यंग्य की झलक है.सिधपुर की भक्तिनें, स्वर्ग का अंतिम उतार,उपन्यास, कथा संग्रह आदि लिखे हैं.

डा शैलजा माहेश्वरी ने ” हिंदी व्यंग्य में नारी ” किताब लिखी है. यह पुस्तक हिंदी व्यंग्य में नारी के योगदान पर गंभीर समालोचनात्मक कृति है. बीकानेर की मंजू गुप्ता के संपादन में भी एक पुस्तक व्यंग्य समालोचना पर आई है. जबलपुर में महाविद्यालय में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डा स्मृति शुक्ल ने व्यंग्य आलोचना सहित, साहित्यिक समालोचना के क्षेत्र में बहुत काम किया है. उन्हें म प्र साहित्य अकादमी से आलोचना पर पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्होंने ” विवेक रंजन के व्यंग्य समाज के जागरुख पहरुये के बयान ” शोध आलेख लिखा है. स्वाति शर्मा, जबलपुर डा नीना उपाध्याय के निर्देशन में विवेक रंजन के व्यंग्य के सामाजिक प्रभाव पर जबलपुर विश्वविद्यालय से शोध कार्य कर रही हैं. आशा रावत की पुस्तक – हिंदी निबंध-स्वतंत्रता के बाद शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें महिला व्यंग्य समालोचना पर भी लिखा गया है.

दीपा गुप्ता ने अब्दुल रहीम खानखाना पर विस्तृत कार्य किया है. उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं. यद्यपि व्यंग्य केंद्रित पुस्तक अभी तक नहीं आई है. इसके अतिरिक्त भारती पाठक, गरिमा सक्सेना, पूजा दुबे, ऋचा माथुर,आदर्श शर्मा, अनीता भारती, विभा रश्मि, जयश्री शर्मा, पुष्प लता कश्यप, निशा व्यास, मीरा जैन, प्रभा सक्सेना, रेनू सैनी, डा निर्मला जैन, उषा गोयल, पूनम डोगरा, नीलम जैन, ललिता जोशी, अर्चना सक्सेना, कुसुम शर्मा, सीमा जैन, विदुषी आमेटा, दीपा स्वामिनाथन, आदि लेखिकायें राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सोशल मीडीया प्लेटफार्मस् एवं पत्र पत्रिकाओ में जब तब स्फुट रूप से सक्रिय मिलती हैं. भले ही इनमें से कई पूर्णतया व्यंग्य संधान नहीं कर रही किन्तु अपनी विधा कविता, कहानी, ललित लेख, लघु कथा आादि में व्यंग्य प्रयोग करती हैं.

 व्यंग्य-लोचन पुस्तक में डा.सुरेश महेश्वरी ने रीतिकालीन कवियों के मार्फत उपालम्भ के रूप में महिलाओं द्वारा किये जाने वाले व्यंग्य को विस्तार दिया है. इसी प्रकार व्यंग्य चिन्तना और शंकर पुणताम्बेकर विषयक पुस्तक में भी काफी विस्तार से महिला व्यंग्य की चर्चायें की गई है. डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने भी महिला व्यंग्य लेखन पर अपने विचार दिए हैं.

अस्तु, सीमित संदर्भों को लेकर कम शब्दों में आज सक्रिय व्यंग्य लेखिकाओ के कृतित्व के विषय में यह आलेख एक डिस्क्लैमर चाहता है, मैने यह कार्य निरपेक्ष भाव से महिला व्यंग्य लेखन को रेखांकित करने हेतु सकारात्मक भाव से किया है, उल्लेख, क्रम, कम या ज्यादा विवरण मात्र मुझे सुलभ सामग्री के आधार पर है, त्रुटि अवश्यसंभावी है जिसके लिये अग्रिम क्षमा. कई नाम जरूर छूटे होंगे जिनसे अवगत कराइये ताकि यह आलेख और भी उपयोगी संदर्भ बन सके.

महिला व्यंग्य लेखन स्वच्छंद रुप से विकसित हो रहा है, और संभावनाओ से भरपूर है. महिला व्यंग्यकार राजनीती, घर परिवार,मोहल्ला, पड़ोस, रिश्ते नाते, बच्चे, परिवेश, पर्यावरण, स्त्री विमर्श, लेखन, प्रकाशन, सम्मान की राजनीति आदि सभी विसंगतियों पर लिख रही हैं. महिला लेखन में विट है ह्यूमर है, आइरनी है, कटाक्ष, पंच आदि सब मिलता है. हर लेखिका की रचनाओं का कलेवर उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता और अनुभव के अनुरूप सर्वथा विशिष्ट है. व्यंग्य लेखन को ये लेखिकायें पूरी संजीदगी से निभाती नजर आती हैं. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि महिला व्यंग्य लेखन में कहीं प्राक्सी नहीं है जैसा महिलाओ को लेकर अन्य क्षेत्रो मे प्रायः होता दिखता है उदाहरण के लिये गांवों में महिला सरपंच की जगह उनके पति भले ही सरपंचगिरी करते मिेलें किन्तु संतोष है कि महिला व्यंग्य लेखन में पूर्ण मौलिकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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