सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 18 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी  ने किया है। इस श्रंखला की यह अंतिम कड़ी है। )  

‘नवरत्न’ परिवार में मेरा प्रवेश होने के साथ ही नृत्य के साथ मेरी साहित्य की रूचि दिन-ब-दिन बढ़ने लगी, वह बढ़ती ही गई। हम सब सहेलियों का ‘काव्य कट्टा’ बीच-बीच में रंग भर रहा था। उससे स्फूर्ती लेकर मेरी कलम से काव्य रचनाएँ  प्रकट होने लगी ।

ऐसा कहा जाता है ‘संगति साथ दोष’। फिर भी मेरे साथ संगति के साथ काव्य बनता रहा। सहजता से अच्छी अच्छी कविताएं मैं  लिखने लगी। विशेषकर  यह कहना चाहती हूँ, हमारी सहेली सौ. जेरे मौसी, जो ७७ बरस की थी, उन्होंने मुझे अच्छी राह दिखाई। काव्य कैसे  प्रकट होना चाहिए, लुभावना कैसे होना चाहिए यह सिखाया।

मेरा पहला काव्य ‘मानसपूजा’ प्रभू विठ्ठल की षोडशोपचार पूजा काव्य में गुंफ दी। कोजागिरी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक मैं मम्मी के साथ घर के नजदीक विठोबा मंदिर में सुबह ५ बजे काकड़ आरती के लिए जाती थी। मंदिर की अभंगवाणी, आरती मेरे मन में दिनभर गूँजती  थी। उससे ही मेरे यह काव्य कागज पर उतरने लगे।

एक एक प्रसंग के रूप में बहुत सी कविताएं मैंने लिख दी। मैं मन ही मन में कविता रचाकर ध्यान में रखती थी। जब वक्त मिलेगा तब गोखले चाची को फोन पर बताती थी। हमारा वक्त दोपहर ३ बजे तय हो गया था। मैं मेरे घर के फोन से कविता बताती थी। चाची वह कागज पर लिखती थी। मेरे फोन की घंटी बजने से पहले ही चाची कागज, कलम लेकर तैयार रहती थी। इसी तरह काव्य जल्द ही- जल्द कागज पर उतरने लगा। मेरे मन और मस्तिष्क को ज्ञान का भंडार मिल गया। हमेशा मन और मस्तिष्क ज्यादा से ज्यादा काम करने लगा।

मेरे मामा जी हिमालय दर्शन करके आए थे। उन्होने मुझे और मम्मी को उनके प्रवास का इतना रसीला वर्णन कहा कि हमें लगा हम दोनों हिमालय का दर्शन करके आए हैं। मेरे मन में, मस्तिष्क में हिमालय की काव्य रचना होने लगी। सच में मेरे नेत्रविहीन दृष्टी के सामने हिमालय खड़ा हो गया। हिमालय की कविता तैयार हो गई। मेरी कविता सबको बहुत अच्छी लगी।

ऐसे समय के साथ कविता बनने लगी।

—————-समाप्त——————-

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ -२२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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