श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अलग-थलग से रास्ते”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 43 – अलग-थलग से रास्ते ☆

समय बहुत बलवान होता है। ये किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है। जैसे ही कोई नीति बनें तो उसका पालन तुरंत होना चाहिए। केवल सबको बधाई देते रहिए, अपने आप समय आपको भी इस लायक कर देगा कि आप सबकी बधाई पाने लगेंगे। परन्तु लोगों  को तो छीनने- झपटने की आदत होती है। बस आडंबर का जामा पहन कर पोस्टर की रौनक बन जाते हैं। जब किसी का प्रभाव कम होने लगता है, तो वो जद्दोजहद करके, ऐन-केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा कर ही लेता है।

अब बात आती है; ईमानदारी की। जिसकी नियत पाक साफ होती है, वो तो तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ जाता है। और बाकी लोग दूर से बैठे हुए देखते रहते हैं। सफलता के पायदान पर चलने की ताकत, केवल लगन और निष्ठा से आती है। एक सांस्कृतिक कार्यक्रम अपने  पूरे रंग में  था। लोगों की एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियाँ आती रहीं पर आयोजक महोदय ने चालबाजी दिखाते हुए, अपने ही लोग एक-एक कर पुरस्कृत कर दिए। अब तो खींचातानी होने लगी। दबे स्वर में विद्रोह का बिगुल बज उठा। जिसे सरल समझ कर बाहर का रास्ता दिखा रहे थे उसने बाहर जाते ही नए रास्ते का निर्माण कर डाला। और अपने अनुयायियों के साथ चलते हुए मंजिल पर पहुँच अपना परचम फहरा दिया।

इधर सब बातों से बेखबर वे लोग जश्न में डूबे रहे। टी. व्ही.  पर जब खबर सुनी तब 440 वोल्ट का झटका लगा। किसी की उपेक्षा इतनी भारी पड़ेगी, ये तो सोचा भी नहीं था। पर अब तो चुपचाप खून का घूँट पीने के अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं था। अपेक्षा और उपेक्षा दोनों ही बहनें किसी को भी अपने लक्ष्य से अलग- थलग करने की क्षमता रखतीं हैं। अभिमानी अहंकार के साथ मिल कर कोई न कोई कारनामा करता ही रहता है। बहला – फुसलाकर पहले कार्य करवाना फिर आयोजनों के दौरान अनजान बनने का नाटक करना, ये सब इतना भारी पड़ेगा, कि  ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़े’ वाले  मुहावरे को भी पीछे छोड़कर आगे बढ़ जायेगा, ये तो आयोजकों ने कल्पना भी नहीं की थी। खैर जहाँ चाह वहाँ राह इसी को प्रेरणा बना अब पिछली सीट पर बैठकर ताली बजाते रहिए।

योग्य व्यक्ति की कार्य करने की इच्छा हो, और कोई कार्य न हो, तो वो नए कार्यों का सृजन कर ही लेते हैं। अचानक से कोई कोई योजना ठप्प  पड़ जाए और आप अपने को असहाय समझे तो भरोसा न छोड़ें, ईश्वर परिश्रमी की मदद करते हैं। नयी राह और राही दोनों ही मिलते हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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