डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख भाग्य बनाम कर्म।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 78 ☆

☆ भाग्य बनाम कर्म ☆

‘भाग्य पर नहीं, कर्म पर उम्मीद रखिए। कर्म उम्मीदों को दुगुन्ना कर देता है।’ सो! हौंसला व रुतबा बनाए रखिए… अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। संबंध इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में उमंग-तरंग व आनंदोल्लास जाग्रत करते हैं … अर्थात् प्रेम, खुशी, उल्लास, सत्य व विश्वास उत्पन्न करते हैं– जिसका मूल उद्देश्य है…सम्मान देना। सो! उम्मीद केवल अपनों से अथवा स्वयं से रखिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि अपेक्षा को उपेक्षा में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता और इंसान की सोच, सिद्धांत व मान्यताएं कांच की तरह पल भर में दरक़ जाती है। वैसे भी दूसरों से उम्मीद रखने से दु:ख प्राप्त होता है और स्वयं से प्राप्त प्रेरणा हमें उत्साह से भर देती है…हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जगाती है और हम अपने हाथ जगन्नाथ समझकर कर्म करने में निमग्न हो जाते हैं। सो! इसके लिए आवश्यकता है; एक-चित्त, एक-मन होकर एकाग्रता व तल्लीनता से कर्म करने की… जिसके लिए मानव को, स्वयं को किसी से कम नहीं आंकना चाहिए और अपना रुतबा व मान-सम्मान कायम रखना चाहिए, क्योंकि समय बदलता रहता है, कभी ठहरता नहीं। अच्छे दिन तो आते-जाते रहते हैं। सुख सुबह के प्रकाश- सम होता है, जो मांगने पर नहीं, जागने पर ही मिलता है। शाम को थका-हारा सूर्य विश्राम करने के पश्चात् भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, संपूर्ण संसार को आह्लादित कर नवीन ऊर्जा से भर देता है और पक्षियों का मधुर कलरव सुन मानव हृदय आंदोलित हो जाता है; खुशी से झूम उठता है। यह सब देखकर मानव ठगा-सा और अचंभित रह जाता है। वह नयी स्फूर्ति व विश्वास के साथ अपनी दिनचर्या में लग जाता है और इस बीच उसके हृदय में कोई नकारात्मक विचार दस्तक नहीं देता; न ही उसे आलस्य का अनुभव होता है, क्योंकि उसे अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर भरोसा होता है। अक्सर लोग आजीवन इस उधेड़बुन में उलझे रहते हैं, परंतु फिर भी उनका किसी से कोई भी संबंध-सरोकार नहीं होता।

शायद! इसलिए ही मानव को दो प्रकार के लोगों से सावधान रहने का संदेश दिया गया है। प्रथम व्यस्त व द्वितीय घमण्डी, क्योंकि व्यस्त मनुष्य अपनी मर्ज़ी व फ़ुर्सत रहने पर बात करता है और घमण्डी केवल अपने मतलब से ही बात करता है। सो! दोनों ही अविश्वसनीय हैं और कभी भी अच्छे मित्र नहीं बन सकते हैं। दूसरे शब्दों में इनसे सजग व सचेत ही नहीं; सावधान रहना भी अपेक्षित है। स्वार्थ पर आधारित संबंधों का फल कभी भी मधुर, शुभ व सकारात्मक नहीं होता। वे सदैव आपको ग़लत राहों की ओर ले जाते हैं और पथ-विचलित कर सुक़ून पाते हैं। सो! संबंध तो इंद्रधनुष की भांति हैं, जो दिलों में सतरंगी भावनाएं–प्रेम, उदासी, खुशी, ग़म आदि जाग्रत करते हैं और रंगीन स्वप्न दिखाते हैं। आकाश में छाए इंद्रधनुषी बादल भी अपनी रंगीन छटा दिखाकर मानव-मन को आंदोलित व आकर्षित करते हैं और सत्यम्, शिवम् सुंदरम् की भावनाओं से ओतप्रोत करते हैं। कभी वह प्रेम भाव मानव हृदय को नवचेतना से आप्लावित व उद्वेलित करता है; मान-मनुहार के भाव जाग्रत करता है, तो कभी उदासी व विरह के भाव उसके हृदय में स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं। प्रेम के अभाव में विरह पनपता है; जो मन में वेदना, दु:ख व पीड़ा को जाग्रत करता है। सो! मानव कभी खुशी से फूला नहीं समाता, तो कभी दु:ख व ग़मों के सागर में अवगाहन करता हुआ डूबता-उतराता है। कभी उसे यह मायावी जगत् सत्य भासता है और संबंध शाश्वत… जो मन में आस्था व विश्वास जाग्रत करते हैं। अक्सर मानव क्षणिक सौंदर्य को सत्य जान, उसकी ओर आकर्षित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है।  सो! वे भाव जीवन में आस्था व विश्वास जाग्रत  करते हैं और इंसान उसे सत्य जान आसक्त रहता है। परंतु उस स्थिति में वह भूल जाता है कि ज़िंदगी आदान-प्रदान का दूसरा नाम है …’आप जैसा करोगे, वैसा भरोगे’.. ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ और ‘कर भला, हो भला’ के भाव को पोषित करते हैं। इसलिए जब मानव विनम्र भाव से दूसरों को सम्मान देता है, तो उसके हृदय में अहं भाव नदारद रहता है तथा उसे सम्पूर्ण सृष्टि में सौंदर्य ही सौंदर्य बिखरा हुआ दिखाई पड़ता है। वह उन ख़ुशनुमा पलों को अपने आंचल में समेट लेना चाहता है; बाहों में भर लेना चाहता है। परंतु आदि शंकराचार्य के मतानुसार ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या है, नश्वर है अर्थात् जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है; अवश्यांभावी है। इसलिए मानव को सांसारिक आकर्षणों व माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि आसक्ति विनाश का मूल है; जो उसे लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग से भटकाती है।

मानव जीवन का मूल लक्ष्य है… प्रभु अथवा मोक्ष की प्राप्ति; आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार व तादात्म्य, जिसे भुलाने के कारण वह लख चौरासी में भटकता रहता है। वह कभी अपने भाग्य को दोषी ठहराता है; तो कभी नियति पर विश्वास कर, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और सोचता है कि मानव को भाग्य में लिखा अवश्य प्राप्त होता है। सो! वह कर्म में विश्वास नहीं रखता तथा भूल जाता है कि पुरुषार्थ के बिना मानव को मनचाहा प्राप्त नहीं हो सकता। परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी विद्वान बन कर, संसार में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर आधिपत्य स्थापित कर सकता है। इसके लिए आवश्यकता होती है…सार्थक उद्देश्य व चिंतन-मनन की; जिसके सहारे मानव आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रख सकता है। ‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता। एक पत्थर तो तबीयत से उछालो, यारो!’ दुष्यंत की ये पंक्तियां मानव हृदय को आंदोलित व ऊर्जस्वित करती हैं। सो! आवश्यकता है साहस जुटाने की, आज का काम कल पर न छोड़ने की, क्योंकि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयेगी, मूर्ख करेगा कब’… अर्थात् प्रलय के आने पर बावरा मन अपने कार्यों को कैसे संपन्न कर पायेगा? इसलिए भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखिए; आपकी उम्मीदें अवश्य फलित होंगी व रंगीन स्वप्न अवश्य साकार होंगे।

हां! जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं… हम बिना सोचे-समझे व विचार-विमर्श किए, कार्य को अंजाम दे देते हैं। दूसरे आलसी व्यक्ति, जो कर्म करते ही नहीं…दोनों की नियति लगभग एक जैसी होती है और उनका परिणाम भी सुखदायक व मंगलकारी नहीं होता। अक्सर हमारी आंखों पर अहं का परदा पड़ा रहता है, जिसके कारण न हमें दूसरों के गुण दिखाई पड़ते हैं, न ही हम अपने अवगुणों से अवगत होकर उन्हें स्वीकार कर पाते हैं। यही मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। इस स्थिति में मानव में ज्ञान का अभाव होता है और सोचने-समझने की शक्ति भी नहीं होती…उससे भी बढ़कर वह स्वयं से अधिक बुद्धिमान किसी अन्य को स्वीकारता ही नहीं… इसलिए दूसरे की बात को सत्य स्वीकारने व अहमियत देने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अहं को मानव का सबसे बड़ा शत्रु स्वीकारा गया है तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति मानव को पतन की राह की ओर ले जाता है। ‘सो! फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर करना चाहिए; दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति सदैव के लिए स्वयं छूट जाएगी।’ इस स्थिति में दूसरों को आईना दिखाने में अपना समय नष्ट करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना अधिक श्रेयस्कर है। आत्मचिंतन करना मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। मुझे याद आ रही हैं निर्मल वर्मा की ये पंक्तियां… ‘जब मनुष्य के अंदर का देवता मर जाता है, तो वह झूठे देवताओं की शरण में जाता है।’ इसलिए मानव को परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार, उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक रहना चाहिए; न कि तथाकथित संतों व देवी-देवताओं की शरण में आश्रय ग्रहण करना।’ पहले तो ऋषि-मुनि जप-तप आदि करते थे, तथा मानव-मात्र को कल्याण का मार्ग सुझाते थे…जीने का अंदाज़ सिखाते थे। उनका जीवन सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित होता था और वे ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ के अंतर्गत समस्त वसुधा को अपना परिवार स्वीकार उसके मंगल हित कार्यरत रहते थे। परंतु आज के मानव को निजी स्वार्थों में लिप्त रहने के कारण, अपने व अपने परिजनों के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आता। इसलिए ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व हितकारी कैसे हो सकता है?

मौन-चिंतन व एकांत मानव का सर्वश्रेष्ठ गुण है और ख़ामोशी की तहज़ीब है, जो संस्कारों की खबर देती है। संस्कृति संस्कारों की जननी है, जो हमें अज्ञान रूपी गहन अंधकार से बाहर निकालती है और तथाकथित अपनों में से अपनों को खोजने व पहचान करने का मार्ग दर्शाती है। मित्र वे नहीं होते, जो आपकी खामोशी का अर्थ न समझ सकें अर्थात् ‘जो ज़ाहिर हो जाए वह दर्द कैसा/ ख़ामोशी न समझ पाए वह हमदर्द कैसा?’ यहां ख़ामोशी का पर्याय है… सच्चा मित्र व हमदर्द है, जिसे समझने के लिए भाषा की दरक़ार नहीं होती। वह आपके चेहरे को देखकर अंतर्मन के भावों को समझ जाता है।

‘ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।’ इसलिए बहुत दूर तक जाना पड़ता है, सिर्फ़ यह जानने के लिए कि नज़दीक कौन है। यह प्रकृति का नियम है कि जब हमें सब कुछ प्राप्त हो जाता है, ज़िंदगी हमें निष्फल व अस्तित्वहीन लगती है और जब हमें किसी वस्तु का अभाव खलता है; हमें उसकी महत्ता व अहमियत नज़र आती है, क्योंकि लोगों की अहमियत व उनके अस्तित्व का भान हमें उनके न रहने पर अनुभव होता है। इसलिए अहं को अपने शब्दकोश से निकाल बाहर फेंकिए। सब्र व सहनशीलता को जीवन में धारण कर निरंतर प्रयासरत रहिए। इसलिए निष्काम कर्म कीजिए, सहनशील बनिए, क्योंकि जो सहना सीख जाता है, उसे रहना आ जाता है अर्थात् जीना आ जाता है। सो! भाग्यवादी मत बनिये, स्वयं पर भरोसा कीजिए तथा ख़ुद से उम्मीद रखिए, क्योंकि बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं होते। सच्चा व्यक्ति ही केवल आस्तिक होता है, जो स्वयं पर विश्वास रखता है तथा यह अकाट्य सत्य है कि कृत-कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। ‘लफ़्ज़ जब बरसते हैं, बनकर बूंदें/ मौसम कोई भी हो, सब भीग जाते हैं।’ इसलिए ‘अंदाज़ से मत मापिए, किसी इंसान की हस्ती/ ठहरे हुए दरिया अक्सर, गहरे हुआ करते हैं।’ इसलिए लोगों को परखिए… अंदाज़ मत लगाइए और सुंदरता दर्पण में नहीं, लोगों के हृदय में खोजिए।

‘सफल व्यक्ति सीट अथवा कुर्सी पर आराम नहीं करते, उन्हें काम करने में आनंद आता है और वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं ‘ अर्थात् वे सदैव लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और यही होता है उनके जीने का अंदाज़… जो सार्थक है, सुंदर है, अनुकरणीय है। इसलिए जीवन मेंं सब्र व सच्चाई का दामन कभी मत छोड़िए, क्योंकि यह आप को गिरने नहीं देती… न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में। व्यवहार ज्ञान से भी बड़ा होता है, क्योंकि जब विषम परिस्थितियों में ज्ञान फेल हो जाता है, तो व्यवहार अपना करिश्मा दिखाकर उसे सफलता के मार्ग तक ले जाता है। इसलिए विशेष बनने की कोशिश कभी मत कीजिए। यदि आप साधारण हैं, तो साधारण बने रहिए…एक दिन आप अतिविशिष्ट बन जायेंगे। इसके लिए ज़रूरी है ‘आप विचार ऐसे रखिए कि आपके विचार पर दूसरों को विचार करना पड़े।’ सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है, उसी प्रकार मानव संघर्ष रूपी अग्नि में तपकर अर्थात् विभिन्न आपदाओं का सामना कर निखरता है; नये मुक़ाम हासिल करता है। इसलिए   ‘शक्तिशाली विजयी भव’ से अधिक कारग़र है, उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है, सार्थक है, सुंदर है… अनुकरणीय है, मननीय है… ‘संघर्षशील विजयी भव’, क्योंकि वह भाग्य पर विश्वास रखने का पक्षधर नहीं है, बल्कि कर्मशील बनने का प्रेरक और संदेशवाहक है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
डॉ भावना शुक्ल

ज्ञान वर्धक