डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘चला-चली का खेला ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 82 ☆

☆ व्यंग्य – चला-चली का खेला

नगर की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था ‘हंगामा’ ने सुराचार्य का संगीत कार्यक्रम आयोजित किया। ‘सांस्कृतिक’ शब्द बड़ा व्यापक है। उसमें घटिया से लेकर बढ़िया तक सब कार्यक्रम खप जाते हैं। ‘हंगामा’ सचमुच हंगामा ही था। उसके सदस्य बड़े उत्सव-प्रेमी थे। हास्य व्यंग्य के कवि-सम्मेलन से लेकर जादू प्रदर्शन, संगीत, सब चलता था। कुछ हो जाए,पोस्टर लग जाएं, अखबारों में सदस्यों के नाम और फोटो -वोटो छप जाएं तो सदस्यों को लगता था कि जीवन सार्थक हो गया।

सुराचार्य जी के पोस्टर नगर में जगह जगह लगे। टिकिट रखे गए सौ रुपये, दो सौ रुपये और पाँच सौ रुपये। फटेहाल संगीत-प्रेमियों ने रेट देखा तो ठंडी साँस भरी। वैसे भी ज्यादातर टिकिट बिक गये क्योंकि संगीत-प्रेमियों की कमी भले ही हो,मालदारों की कमी नहीं है। पाँच सौ रुपये का टिकिट खरीद कर ठप्पे से कार्यक्रम में जाने का मज़ा ही और है। मंहगा टिकिट खरीदने से कल्चर्ड होने का प्रमाणपत्र मिलता है, फिर भले ही कुर्सी पर बैठे ऊँघते रहो और मालकौस को भैरवी समझते रहो। पाँच सौ रुपये वाली सीट से दो सौ और सौ रुपये वाली सीटों पर बैठे लोग अधम लगते हैं। उनसे भी अधम वे होते हैं जिनकी ऐसे कार्यक्रम में घुसने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।

तो धन इकट्ठा हो गया और सुराचार्य जी पधार गये। रात को कार्यक्रम हुआ। टिकिटों के खरीदार ऐसे सजे-धजे आये जैसे किसी बरात में जा रहे हों। मैं भी अपनी हैसियत के खिलाफ पाँच सौ रुपये वाली सीट पर डटा था। वजह यह थी कि पत्रकार होने के नाते आयोजकों ने ससम्मान बुलाया था, इस उम्मीद पर कि फोकट में  पाँच सौ रुपये की सीट का आनंद लेकर अखबार में कार्यक्रम की जयजयकार करूँगा।

सुराचार्य जी रेशमी कुर्ते-पायजामे में थे। ऊपर से शाल। भव्य लग रहे थे। हारमोनियम के सुर छेड़कर उन्होंने दो तीन हल्की फुल्की गज़लें सुनायीं। उसके बाद शुरू किया ‘दो दिन का जग में मेला, सब चला चली का खेला। ‘

थोड़ी देर में वातावरण विषादमय हो गया। लोग भावविभोर हो रहे थे। सबके सिर दाहिने-बायें ऐसे घूम रहे थे जैसे चाबी वाले बबुओं के घूमते हैं। सुराचार्य जी सबमें श्मशान-वैराग्य जगा रहे थे।

मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन आँखें मूँदे इस तरह सिर हिला रहे थे जैसे उन पर हाल आने वाला हो। थोड़ी देर बाद वे आँखें खोलकर मेरी तरफ देखकर बड़े दुखी भाव से बोले,’सच है जी। संसार सब झूठा है। आदमी की जिंदगी पानी का बुलबुला है। पल में फूट जायेगा जी। सब बेकार है। ‘

फिर वे और दुखी भाव से बोले,’मैंने भी बोत गल्त तरीके से पैसा कमाया जी। आतमा को बेच दिया। बोतों को रिश्वत खिलायी। बोतों को धोखा दिया। बोत झूठ बोला। आज बड़ा पछतावा हो रहा है। ‘

उन्होंने कानों को हाथ लगाया। मैं घबराया कि अब वे जीवन भर का संचित तत्व ज्ञान मुझे देंगे। कहीं भाग भी नहीं सकता था क्योंकि आसपास कोई सीट खाली नहीं दिखी। सौभाग्य से वे फिर आँखें मूँद कर पश्चाताप में डूब गये।

सुराचार्य जी अब भी ‘चला चली का खेला’ की रट लगाये थे ओर वातावरण ऐसा भारी हो रहा था कि हर एक के ऊपर मनों और टनों के हिसाब से बैठ रहा था। सब श्रोता आँखें बंद किये ठंडी सांसें भर रहे थे। मुझे लग रहा था कि आज इनमें से आधे खुदकुशी कर लेंगे और बाकी कल सबेरे कमंडल लेकर हिमालय की तरफ निकल जायेंगे। मेरी समझ में इतने लोग समाज से खारिज हो गये थे।

थोड़ी देर में ‘चला चली का खेला’ खत्म हुआ और सुराचार्य जी ने एक खासी रोमांटिक गज़ल छेड़ दी,जिसमें नायिका से कहा गया था कि उसका चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल हैं इसलिए वही एकमात्र धनवान है, बाकी सब कंगाल हैं। मुझे याद नहीं कि चाँदी जैसा रंग और सोने जैसे बाल बताये गये थे या सोने जैसा रंग और चाँदी जैसे बाल। बहरहाल अब उसाँसें बंद हो गयीं थीं और लोग फिर से चैतन्य होकर दिमाग से श्मशान की भस्म झाड़ रहे थे।

मेरी बगल वाले सज्जन उठकर खड़े हो गये। अब वे एकदम प्रफुल्लित, चतुर और चौकस दिख रहे थे।

मैंने पूछा,’कहाँ चले जी?’

वे बोले, ‘दुकान पर छोटे लड़के को बैठा आया हूँ जी। थोड़ा चालू है। मौका मिल जाता है तो चालीस पचास रुपये दबा लेता है। आधा प्रोग्राम देख लिया तो समझिए ढाई सौ रुपये तो वसूल हो गये। बाकी आधे धंधे के नुकसान खाते में डाल देंगे। ‘

थोड़ी देर बाद कार्यक्रम खत्म हुआ। मैं स्टेज के भीतर गया तो वहाँ आयोजक करम पर हाथ धरे बैठे थे। मैंने उनकी मिजाज़पुरसी की तो एक बिफरकर बोला, ‘सुराचार्य पूरे चालीस हजार की माँग कर रहा है। टस से मस नहीं हो रहा है। बात ज़रूर चालीस की हुई थी लेकिन इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ। पैंतीस हजार दे दिये। घंटे भर से हाथ जोड़ रहे हैं लेकिन दो हजार भी छोड़ने को तैयार नहीं है। ‘

दूसरा आयोजक दाँत पीस कर बोला, ‘हमको चला चली का खेला सुनाता है और खुद चालीस हजार पर अड़ा हुआ है। चला चली का खेला है तो पैसे क्या छाती पर रख कर ले जायेगा?’

मेरे पास उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। सुराचार्य जी अब भी तख्त पर जमे आग्नेय दृष्टि से आयोजकों को भस्म कर रहे थे।

इतने में कुछ और खलबली मची। पता चला, एक्साइज वाले आ गये हैं और आयोजकों की धरपकड़ हो रही है। मामला मनोरंजन-कर की चोरी का बन गया था। अब आयोजक गश खाने की हालत में आ गये थे और सुराचार्य जी पहलू बदलकर भागते भूत की लंगोटी स्वीकार करने की मुद्रा में आयोजकों को बुलावे पर बुलावे भेज रहे थे। लेकिन अब आयोजकों के पास उनकी बात पर कान देने का वक्त नहीं था।

कुल मिलाकर वातावरण खासा दुनियादारी का हो गया था और ‘चला चली का खेला’ वाले मूड की चिन्दी भी अब वहाँ ढूँढ़े नहीं मिल सकती थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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