डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘घिस्सू भाई की लात‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 86 ☆

☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात

दरवाज़े की घंटी बजी। देखा, संतोस भाई थे। संतोष भाई अपने को ‘संतोस’ कहते थे, इसलिए वे संतोस ही हो गये थे। मैंने देखा संतोस भाई का चेहरा पके टमाटर सा लाल-लाल हो रहा था। मुँह लटका हुआ था। लगता था मुँह को लिये-दिये ज़मीन पर गिर पड़ेंगे।

संतोस भाई भीतर आकर कुर्सी पर ढेर हो गये। मैंने चिन्तित होकर पूछा, ‘क्या हुआ?’

वे बड़ी देर तक चेहरे पर हथेलियाँ रगड़ते रहे। संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘कुछ नहीं।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारी हालत तो कुछ और कह रही है।’

वे थोड़ी देर ज़मीन की तरफ देखते रहे, फिर बोले, ‘क्या कहें? कहने लायक हो तो बतायें।’

मैंने कहा, ‘बोलो। जी हल्का हो जाएगा।’

वे कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले, ‘आज साले घिसुआ ने जबरदस्त इंसल्ट कर दी।’

मेरे कान खड़े हुए, पूछा, ‘घिस्सू भाई ने? कैसी इंसल्ट कर दी?’

संतोस भाई रुआँसे हो गये, बड़ी मुश्किल से बोले, ‘लात मारी।’

मैंने साश्चर्य पूछा, ‘तुम्हें?’

वे रुँधे गले से बोले, ‘हाँ।’

मैंने पूछा, ‘कहाँ?’

वे थोड़ी देर मौन रहकर आर्त स्वर में बोले, ‘पिछवाड़े।’

मैंने कहा, ‘यह तो भारी बेइज्जती की बात हो गयी। कैसे हुआ?’

संतोस भाई थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘क्या बतायें कैसे हुआ। हम दोनों ‘नसे’ में थे। वह भाभी की तारीफ कर रहा था और मैं सुन रहा था। सुनते सुनते मेरे मुँह से निकल गया कि गुरू कुछ भी कहो, तुम भाभी के चपरासी जैसे लगते हो। बस फिर मुझे पता ही नहीं चला कि वह उठ कर कब मेरे पीछे पहुँच गया। जब लात पड़ी तभी समझ में आया। मैं मसनद पर बैठा था। मुँह के बल गद्दे पर गिरा। पीछे से वह बोला, ‘हरामजादे, औकात में रह’।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया, कहा, ‘मामला गंभीर हो गया।’

वैसे बात ज़्यादा चिन्ता की नहीं थी क्योंकि संतोस भाई घिस्सू भाई के प्रधान चमचे के रूप में नगर-विख्यात थे। रोज़ ही उनका दारू-पानी दरबार में होता था और इज़्ज़त में इज़ाफे या कमी का सिलसिला भी चलता रहता था। लेकिन अभी संतोस भाई गुस्से में थे।

मैंने पूछा, ‘क्या करोगे?’

वे नथुने फुलाकर बोले, ‘मैंने तो भीम की तरह उस आदमी की जंघा तोड़ने का प्रण ले लिया है। जिस टाँग से उसने मेरी इज्जत पर प्रहार किया है उसमें मल्टीपल फ्रैक्चर पैदा किये बिना मैं चैन से नहीं बैठने वाला।’

संतोस भाई का ग़म हल्का करने के लिए उन्हें चाय पिलायी। एक घंटा तक घिस्सू भाई को कोसने और उनकी टाँग तोड़ने का प्रण कई बार दुहराने के बाद वे बड़ी मुश्किल से विदा हुए।

फिर आठ दस दिन तक संतोस भाई के दर्शन नहीं हुए। करीब दस दिन बाद नन्दू के चाय के खोखे पर चाय सुड़कते टकराये। मैंने हाल-चाल पूछा तो बोले, ‘आनन्द है।’

मैंने पूछा, ‘फिर घिस्सू भाई से मिले क्या?’

उन्होंने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम कहो। मैं भला उस कुचाली के पास क्यों जाऊँ?’

मैंने विनोद में पूछा, ‘टाँग तोड़ने का प्रण अभी याद है कि भूल गये?’

वे भवें चढ़ाकर बोले, ‘भूल गये? कैसे भूल गये? इतनी बड़ी इंसल्ट को कोई भूल सकता है क्या?’

फिर वे थोड़े मौन के बाद बोले, ‘वैसे मैं उस दिन की घटना को दूसरे ढंग से ले रहा हूँ। आप किसी की गाली से इसीलिए अपमानित महसूस करते हैं क्योंकि उस गाली को ग्रहण कर लेते हैं। यदि आप गाली को स्वीकार ही न करें तो कैसा अपमान? दूसरे ने गाली दी, लेकिन हमने ली ही नहीं, तो?’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो लात का मामला है। ठोस लात पड़ी है। उसे कैसे नामंज़ूर करोगे?’

संतोस भाई का मुँह उतर गया, बोले, ‘ठीक कह रहे हो। लात को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है?’

वे चिन्ता में डूब गये और मैं उन्हें विचारमग्न छोड़ चलता बना।

चार छः दिन बाद वे फिर आ गये। दो तीन मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद मेरी आँखों में आँखें डालकर बोले, ‘का रहीम हरि कौ गयो जो भृगु मारी लात। क्या समझे?’

मैंने कहा, ‘समझ गया प्रभु। अब समझने को क्या बाकी रह गया है?’

वे बोले, ‘बड़़े को ‘छमासील’ होना चाहिए। टुच्चई करना छोटों का काम है। ठीक कहा न?’

मैंने कहा, ‘बिलकुल दुरुस्त कहा।  तुमसे यही उम्मीद थी।’

वे मुस्कुराये। ज़ाहिर था कि वे पदाघात वाली घटना पर धूल डालने के मूड में आ गये थे।

फिर एक रात संतोस भाई आंधी की तरह मेरे घर में घुस आये। बोले, ‘माफ करना गुरू! वो घिस्सू भाई वाली बात में तुमने हमें बहुत ‘मिसगाइड’ किया। हमें बहुत बरगलाया। हम इतने दिन से बराबर सोच रहे थे कि आखिर हमारे हितचिन्तक घिस्सू भाई ने हमें लात क्यों मारी। सोचते सोचते आज दोपहर को अचानक मेरी समझ में आया। घिस्सू भाई ने पीछे से मुझे लात मारी और मैं आगे जाकर गिरा। दरअसल घिस्सू भाई ने लात मारकर मुझे ‘सन्देस’ दिया कि मैं आगे बढ़ूँ। बड़़े लोग ऐसे ही बिना बोले ‘सन्देस’ देते हैं। समझने के लिए अकल चाहिए। तुमने कई पहुँचे  हुए साधुओं को देखा होगा जो लोगों को गालियाँ देते हैं या मारने को दौड़ते हैं। वे इसी तरह लोगों का कल्याण करते हैं। घिस्सू भाई ने भी यही किया, लेकिन तुमने मुझे सही अर्थ ग्रहण नहीं करने दिया। मैं वापस अपने परम ‘हितैसी’ घिस्सू भाई की ‘सरन’ में जा रहा हूँ, लेकिन तुमको चेतावनी देकर जा रहा हूँ कि आगे किसी दोस्त के साथ ऐसी घात मत करना।’

वे मेरी तरफ चेतावनी की उँगली उठाकर आँधी की तरह ही बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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