डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘’मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 106 ☆

☆ व्यंग्य –  ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास

मैं अभी तक इस मुग़ालते में था कि भाववाचक संज्ञा का बहुवचन नहीं होता, लेकिन मरहूम यश चोपड़ा की फिल्म ‘मोहब्बतें’ का नाम सुनकर लगा कि शब्दों का हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। अब आगे ऐसी फिल्में आएंगीं जिनके नाम ‘इश्कें’, ‘तबियतें’ और ‘नफरतें’ होंगे।

बहरहाल,आपसे गुफ्तगू करने का अपना मकसद कुछ और ही है। जो बात कुछ दिनों से शिद्दत से मुझे खल रही है वह यह है कि हमारे देश के विकास में योगदान देने वाले बहुत से तत्वों का ज़िक्र तो होता है, लेकिन एक ख़ास चीज़ जिसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है और जिसका  हमारे देश की बहबूदी में अहम योगदान है, वह ‘मोहब्बत’ है। दूर क्यों जाएं, ताजमहल को लें, जिसने हिन्दुस्तान को दुनिया के नक्शे पर खड़ा किया और मुल्क के लिए करोड़ों रुपयों की कमाई का सिलसिला बनाया। ताजमहल के लिए सरकार का टूरिज़्म विभाग या पुरातत्व विभाग कितना भी  क्रेडिट ले, लेकिन हकीकत यही है कि ताजमहल शाहजहाँ और मुमताज की पाक मोहब्बत का नतीजा है। इसलिए ताजमहल की वजह से देश की झोली में जो भी पैसा आ रहा है वह शुद्ध प्यार-मुहब्बत की कमाई है। न शाहजहाँ-मुमताज का प्यार परवान चढ़ता, न मुल्क के लिए स्थायी मोटी कमाई का ज़रिया बनता। मोहब्बत तुझको मेरा सलाम।

हिन्दुस्तानी फिल्में शुरू से ही प्यार- मोहब्बत की कमाई पर पलती रही हैं। प्यार- मोहब्बत ने फिल्मों को कितनी कमाई दी इसका लेखा-जोखा ज़रूरी है। तभी लोगों को पता चलेगा कि करोड़ों में खेलने वाले फिल्म उद्योग को उसकी वर्तमान ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मोहब्बतों का कितना बड़ा योगदान है।

पुरानी फिल्मों के हीरो प्यार को ही खाते- पीते और ओढ़ते-बिछाते थे। उन दिनों आशिक के बारह घंटे माशूक का मुँह देखने और बारह घंटे चाँद को घूरने में खर्च होते थे। प्यार का काम बहुत आराम और इत्मीनान से होता था। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी, फटे कपड़े और चेहरे पर बदहवासी सच्चे आशिक के ट्रेडमार्क होते थे। उन दिनों के आशिक त्यागी और बेहद शरीफ होते थे। आजकल के आशिकों की तरह रकीब के पीछे बन्दूक लेकर नहीं पड़ जाते थे। प्रेमिका को कोई दूसरा डोली में बैठाकर ले जाता था और आशिक मियाँ, जंगल की ख़ाक छानते, विरह-गीत गाते रहते थे। यकीन न हो तो दिलीप कुमार की फिल्म ‘देवदास’ देख लीजिए।

बीच में फिल्मवालों को भ्रम हुआ कि मारपीट वाली फिल्में ज़्यादा चल सकती हैं, लेकिन उन्हें जल्दी ही अपनी गलती महसूस हो गयी और वे वापस प्यार-मोहब्बत की पुख्ता ज़मीन पर लौट आये। अब जितनी फिल्में बन रही हैं उनमें से तीन-चौथाई का ताल्लुक दिल के कारोबार से है। जो हीरो ‘मार्शल आर्ट’ में माहिर माने जाते थे वे आजकल नज़र का मोटा चश्मा लगाकर ‘आर्ट ऑफ लव’ के पन्ने पलट रहे हैं।

इस बात पर ग़ौर फरमाया जाए कि मोहब्बत शुरू से देश के विभिन्न महकमों को मज़बूत करने में अपना योगदान देती रही है। एक ज़माना था जब प्रेमपत्र कबूतरों के मार्फत भेजे जाते थे। तब कबूतरों का कारोबार अच्छा ख़ासा पनपता होगा। मेरी दृष्टि में प्रेमपत्र की डिलीवरी के मामले में कबूतर, पोस्टमैन या टेलीफोन से ज़्यादा भरोसेमन्द होता है क्योंकि वह हमेशा महबूबा के कंधे पर बैठता रहा है, पोस्टमैन की तरह उसने कभी महबूबा के वालिद या अम्माँ के हाथ में ख़त नहीं सौंपा। कई पोस्टमैन तो रकीबों को ख़त सौंप देते हैं।

जब डाक का ज़माना आया तब प्रेमपत्रों  ने डाकतार विभाग को काफी काम मुहैया कराया। कागज़ और रोशनाई की बिक्री भी इश्क की बदौलत काफी बढ़ी क्योंकि ख़त बीस बीस पेज के लिखे जाते थे और उनमें काफी स्याही खर्च होती थी। कई आशिक लाल स्याही से ख़त लिखते थे और डींग मारते थे कि ‘ख़त लिख रहा हूँ ख़ून से, स्याही न समझना।’  उन दिनों आशिक- माशूक काफी रोमांटिक और नाजुक होते थे। आहें भरने, तारे गिनने और ख़त लिखने में काफी वक्त ज़ाया होता था। उन दिनों वाहनों का चलन कम था, प्रेमपत्रों को ढोने का काम पैदल ही होता था। यह कल्पना सिहराने वाली है कि कंधे पर प्रेमपत्र ढोने वाले पोस्टमैनों की हालत कैसी होती होगी।

अब टेलीफोन और इंटरनेट के कारोबार में भी इश्क अपना भरपूर योगदान दे रहा है। देश में मोबाइल का उत्पादन और उसकी खपत तेज़ी से बढ़ी है। इसमें प्रेमियों का कितना योगदान है यह अध्ययन का विषय है। मोबाइल के आने से प्रेमियों का सरदर्द ज़रूर कम हुआ है। लैंडलाइन के ज़माने में जब महबूब का प्रेम-सन्देश आता था तभी बगल के कमरे में पिताजी दूसरा चोंगा उठाकर सारी गुफ्तगू सुन लेते थे, भले ही वह उनके सुनने लायक न रही हो।

तब टेलीफोन-बूथ वाले, आशिकों के इंतज़ार में आँखें बिछाये रहते थे क्योंकि वे लंबी बात करते थे और कभी हिसाब देखने की घटिया बात नहीं करते थे। किसी पब्लिक टेलीफोन-बूथ में  आशिक का प्रवेश हो जाए तो बाहर खड़े लोगों की इंतज़ार करते करते हालत ख़राब हो जाती थी।

यह खुशी की बात है कि प्रेम में निहित संभावनाओं पर लोगों की नज़र जाने लगी है। जिस देश में प्यार-व्यार को तिरछी नज़र से देखा जाता था उसमें ‘वेलेंटाइन डे’ मनाया जाने लगा है, यद्यपि अभी भी दकियानूसी लोग आशिक- माशूकों को खुलेआम प्यार का इज़हार करते देख मारपीट पर उतर आते हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से अभी ‘डेटिंग’ जैसी प्रथा शुरू नहीं हो पायी है। सरकार को चाहिए कि प्यार के इन दुश्मनों से सख्ती से निपटे ताकि प्यार बन्द कमरों से निकल कर खुली हवा में साँस ले सके।

मेरा सुझाव है कि प्यार की एक वेबसाइट बनायी जानी चाहिए जिसमें मुल्क के जाँबाज़ आशिक-माशूकों के बारे में तफ़सील से जानकारी हो। अभी कितने लोगों को मालूम है कि लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं-फ़रहाद, सोहनी- महिवाल और सस्सी-पुन्नू किस देश के और किस जाति के थे, और इश्क के अलावा वे और क्या कारोबार करते थे?इस वेबसाइट में उन सभी जगहों का अता-पता होना चाहिए जो प्यार के लिए आदर्श हैं, जहाँ प्यार के मार्ग में कोई रोड़े नहीं हैं और जहाँ प्यार को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उपयुक्त वातावरण है।

सरकार को भी चाहिए कि वह प्यार में छिपी व्यापार की असीम संभावनाओं को पहचाने और प्यार करने वालों को वे सभी सुविधाएँ मुहैया कराए जिनके वे हकदार हैं। प्यार करने वालों के लिए ऐसी जगहों पर ख़ास होटल और रेस्ट-हाउस बनाए जाने चाहिए जहाँ की ज़मीन प्यार के हिसाब से मौजूँ है। अभी तो मुंबई में प्यार करने वाले जोड़ों को पुलिस मैरिन-ड्राइव से खदेड़ रही है, जिस पर मैं अपना सख़्त एतराज़ दर्ज़ कराना चाहता हूँ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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